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26. जाणमि जिह सायर-गम्भीरी । जाणमि जिह सुर-महिहर-धीरी। (833
प. च.) -जिस प्रकार (वह) सागर की तरह गंभीर है, मैं जानता है। जिस प्रकार (वह) मन्दराचल पर्वत की तरह धैर्यवान है, मैं जानता हूँ।
गम्भीर→गम्भीरी (वि.)
धीर-धीरी (वि.) 27. जा अणु-गुण-सिक्खा-वय-धारी। जा सम्मत्त-रयण मणि-सारी । ( 83.3
प. च.) -जो अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत धारण करनेवाली है । जो सम्यक्त्वरूपी रत्नों और मणियों का सार है ।
धार→धारी (वि.)
सार→सारी (वि) 28. ससि सकलङ्क तहि जि पह हिम्मल । कालहु मेहु तहिं जे तडि उज्जल ।
(83.9 प.च.) -चन्द्रमा कलंकसहित होता है, तो भी उसकी प्रभा निर्मल होती है । मेघ काले होते हैं, तो भी उसकी बिजली उज्ज्वल होती है ।
पहा (स्त्री.); णिम्मल-णिम्मला (वि)
तडि (स्त्री.); उज्जल→उज्जला (वि.) 29. णं मुक्खि माणिय विउससह । (2.10 ज च.) -मानो मूर्ख के द्वारा विद्वानों की सभा सम्मानित की गई है ।
मुक्ख (वि.) 30. जिह किविण-णि हेलणे पणह-विन्दु । (4.i प.च.) -जिस प्रकार कंजूस के घर में याचक-समूह (प्रवेश नहीं करता है)।
किविण (वि.) 31. गय अङ्गङ्गय उत्तर-देसहो । (44.6 प.च.) -अंग और अंगद उत्तर देश को गए ।
देस (पु.) उत्तर (वि)
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प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ।
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