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14. इयर ण पइसरन्ति किं कज्जें । (5.12 प.च.)
-किस कारण से दूसरे (भाई) नहीं पाते हैं । 15 सयल वि बन्धु-सत्तु-समभावा । (5.15 प.च.)
-सभी बन्धु और शत्रु में समभाव रखनेवाले थे । 16. ते कप्पयरु सव्व उच्छण्णा । (2.8 प.च.)
- वे सब कल्पतरु नष्ट हो गए । 17. एक्केक्कय धए अहिणव-छा यहुँ । सउ अट्ठोतरु चित-पडायहुँ । ( 3.4
प. च.) - प्रत्येक ध्वज पर अभिनव कान्तिवाली एक सौ आठ चित्र पताकाओं की
(छवि थी)। 18. थोहि दिवसहिं तिहुअण-जणारि । णासिय घाइय-कम्म वि चयारि । (4.14
प. च.) -थोड़े दिनों में त्रिभुवन के मनुष्यों के दुश्मन चार घातिया कर्म नष्ट कर
दिए गए। 19. एक्कहि दिणे पाउच्छेवि जणणु । गय तिणि वि भीसणु भीम-वणु । (9.7
प. च.) --एक दिन तीनों (माई) पिता को पूछकर भीषण और भयंकर बन
को गए। 20. प्रवर वि विज्जाहर वसि करेवि । (7.10 प.च.)
- दूसरे विद्याधरों को वश में करके (विद्युतवाहन विरक्त हो गया)। 21. काहि दिणेहिं परिणाविउ देविउ । (2.9 प.च.)
-कई दिनों बाद देवियों ने विवाह किया। 22. कइहि मि दिणेहि पडीवउ प्रावमि । (31.2 प.च.)
--कुछ दिनों में मैं वापस आ जाऊँगा।
प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ]
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