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________________ 5. झत्ति पलित्तउ अणुहरमाणु हुासहो । गाई समुट्ठिउ मत्थासूलु दसासहो । (60 | पच) -अग्नि की नकल करते हुए (वह) शीघ्र भड़क उठा, मानो रावण के सिर में दर्द उठा हो। 6. तुहं पुणु धावइ णाई अयाणउ । (11.13 प.च.) --किन्तु तुम अज्ञानी की तरह दौड़ते हो । 7. आयए लच्छिए वहु जुज्झाविय । पाहुण या इव वहु वोलाविय । (5 13 पच.) ---इस लक्ष्मी के द्वारा बहुत लड़वाए गए, अतिथि की तरह (इसके द्वारा) बहुत (स्थान पर) गमन किया गया । 8. आलग्गु सो वि वणे मिह हुआसु । (7.5 प.च.) --वह वन में दावानल की भांति (युद्ध में) भिड़ गया । 9. णिव्वाडेप्पिणु धम्मु जिह जं भावइ तं गेण्हहि मित्ता। (6 4 पच) --धर्म की तरह (इन सिद्धियों में से) चुनकर, हे मित्र ! जो अच्छा लगे __ वह ले लो। 10. अप्पूणु भरहु जेम णिक्खन्तउ । (5.14 प.च.) - स्वयं भरत के समान प्रव्रजित हो गया । 11. दुज्जण-पुरिसो ब्व सहाव-खारु । (69.3 प.च ) - दुर्जन पुरुष की भांति (समुद्र) स्वभाव से खारा है । 12. तवसि व परिपालिय-समय-सारु । (69.3 प.च.) - तपस्वी की भांति (समुद्र के द्वारा) सिद्धान्त (मर्यादा) का पालन किया गया है। (5) 1. गए मोत्तिउ सिङ्घल-दीवे मणि वइरागरहो वज्जु पउरु । प्रायई सव्वई लब्भन्ति जए गवर ण लब्भइ भाइ-वरु । (69.12 प.च.) -हाथी में मोती, सिंहलद्वीप में मणि, हीरे की खान से प्रचुर हीरा-ये जगत में प्राप्त हो सकते हैं, किन्तु श्रेष्ठ भाई प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 26 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002695
Book TitlePraudh Apbhramsa Rachna Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages202
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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