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________________ 10. केहउ पर केंहिय तासु सत्ति । (16.1 प.च.) -(रावण) कितना ( कैसा) समर्थ (है), उसकी कितनी (कैसी) शक्ति है ? 11. कं दिवसु वि होसइ पारिसाहुँ । कञ्चुइ-अवत्थ अम्हारिसाहुँ। (22.3 . प. च.) -किसी दिन हम जैसों को (अवस्था) भी ऐसी (ही) होगी, (जैसी) कंचुकी की अवस्था (है)। 12. तो कवणु गहणु अम्हारिसेहिं । वायरण-विहूणेहिं प्रारिसेहि। (23.1 प.च.) --व्याकरण से विहीन ऐसे हमारे जैसों के द्वारा (वाक्य का) क्या ग्रहण होगा? 13. जो असुरा-सुर-जण-मण-वल्लहु । तुम्हारिसहुं कुणारिहि दुल्लहु । (41.13 प. च.) -जो सुर, असुर, मनुष्य के मन को प्रिय है, (वह) तुम जैसी खोटी स्त्रियों के लिए दुर्लभ है। 14. तुम्हारिसेहि तो विउ जिज्जइ । (70.10 प.च.) -तो (वह) तुम्हारे जैसों के द्वारा नहीं जीता जाता है । 15. रूसेवउ णउ अम्हारिसाह । (82.5 प.च.) -(तुम्हारे द्वारा) हम जैसों से नाराज नहीं हुआ जाना चाहिए । 16. रणउ अम्हारिसु जग-परिपीडउ । (73.12 प. च.) -मेरे जैसा जगपीड़क नहीं है । 17. को वि ण मई सरिसउ विरुवारउ । (73.12 प.च.) - मेरे समान दुष्ट कोई नहीं है । 18. तुम्हें जेहा वय-गुण- वन्ता । कइ-तित्थयर देव अइकन्ता । (5.9 प.च.) -हे देव ! तुम्हारे जैसे (समान) व्रत-गुणवाले प्रतिक्रान्त कितने तीर्थंकर (है)? प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002695
Book TitlePraudh Apbhramsa Rachna Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages202
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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