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38. हे भाई! सुनो — मैं जानता हूँ, देखता हूँ, नरक की शंका करता हूँ, ( किन्तु ) फिर भी मैं शरीर में बसती हुई पाँच इन्द्रियों को जीतने में ( जीतने के लिए) समर्थ नहीं हूँ ।
स्वप्न की सम्पदा की तरह जानकी न तुम्हारी हुई, न है, न होगी ।
39.
40 दोनों निन्दा करते हुए आपस में भिड़ गए ।
41. उसके द्वारा विशल्या का जल लाकर सबके ऊपर डाल दिया गया ।
42. थोड़ी देर बाद उनके द्वारा अयोध्या देखी गई ।
43. हे भाई! एक बार मुझे मुखड़ा दिखाओ |
44.
नगर के चारों ओर समुद्र था ।
45.
वह दक्षिण की ओर गया ।
शब्दार्थ
1. श्रेणिक = सेणिश्र, राजाः - रणरवइ, राजगृह = रायगिह, नगर = पट्टण
2. लेना = ले
5. त्रिभुवन - तिलक = तिहुश्ररण- तिलश्र
6. इन्द्र = सहसक्ख, पुरन्दर; प्रदक्षिणा करना = परियंच
7. जिनेन्द्र = जिणिन्द, वन्दना = वन्दरण, प्रारम्भ किया = श्राढस
8. भरत = भरह, जवाब = पच्चत्तर
9. पहुंचे हुक्क, समवसरण == = समोस रण
10. चक्ररत्न = चक्क रयरण, प्रवेश करना = पइसर, पर्टस, सुकवि = सुकइ, वाणी-वयण, श्रवहन्भन्तरे अज्ञानी में
11. अप्रिय विप्पिन
13. आग-बबूला हुआ पलित्त
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[ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम
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