Book Title: Prakrit Gadya Sopan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत गद्य-सोपान डॉ. प्रेम सुमन जैन ain Educationa International राजस्थान प्राकत भारती संस्थान जयपुर For Personal and Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-२५ प्राकृत गद्य-सोपान लेखक एवं सम्पादक डॉ. प्रेम सुमन जैन सह-आचार्य एवं अध्यक्ष जनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर की राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : देवेन्द्रराज मेहता सचिव, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान; जयपुर प्रथम संस्करण। 1983 मूल्य : 16.00 रुपये सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन प्राप्ति स्थान : राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान 3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर-302 003 (राजस्थान) मुद्रक । ऋषभ मुद्रणालय, धानमण्डी, उदयपुर -313 001 PRAKRIT GADYA-SOPANA (Prose selection & Text Book) by Prem Suman Jain /Jaipur/1983 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्राकृत भारती संस्थान ने अब तक 25 प्रकाशन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिये हैं । उनमें से प्राकृत भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए 5-6 पुस्तकें संस्थान में प्रस्तुत की हैं। उनका प्राकृत भाषा के प्रेमी पाठकों एवं शिक्षा-संस्थानों में समादर हुआ है। प्राकृत भाषा को प्रारम्भिक स्तर पर सीखने-सिखाने के लिए तथा प्राकृत साहित्य की विभिन्न विधामों से परिचित कराने के लिए डॉ. प्रेम सुमन मैन ने कुछ पुस्तकें लिखी है। उनमें से प्राकृत स्वयं-शिक्षक एवं प्राकृत काव्य-मंजरी संस्थान ने प्रकाशित की है। डॉ. जैन की इस तीसरी पुस्तक प्राकृत गव-सोपान को भी प्रकाशित करते हुए संस्थान को प्रसन्नता है कि वह प्राकृत भाषा की इन महत्त्वपूर्ण पुस्तकों को प्राचीन भाषाओं के प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत कर उनके ज्ञानार्जन में सहयोगी बन रहा है। डॉ. जैन की इन तीनों पुस्तकों के द्वारा माध्यमिक शिक्षा से लेकर स्नातक स्तर तक की कक्षाओं में प्राकृत भाषा व साहित्य के पठन-पाठन को जारी रखा जा सकता है । धार्मिक शिक्षण संस्थाएं भी अपने पाठ्यक्रमों में प्राकृत भाषा का प्रारम्भिक शिक्षण इन पुस्तकों के माध्यम से प्रदान कर सकती हैं । डॉ. जैन ने पद्यपि प्राकृत एवं जनविद्या के उच्च स्तरीय शोध-अनुसंधान के क्षेत्र में भी पुस्तकें लिखी हैं । किन्तु उन्होंने प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रारम्भिक स्तर पर जो ये पुस्तकें तैयार कर संस्थान को उन्हें प्रकाशित करने का अवसर दिया है, उसके लिए संस्थान लेखक का आभारी है। डॉ. जैन की यह पुस्तक माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर द्वारा कक्षा 9 व 10 के लिए स्वीकृत प्राकृत-पाठ्यक्रम के अनुसार है। इस तरह प्राकृत पद्य एवं गद्य दोनों की पुस्तकें संस्थान ने प्रकाशित कर दी हैं । आशा है, अजमेर बोर्ड एवं अन्य राज्यों के माध्यमिक बोर्ड भी प्राकृत भाषा के पठन-पाठन के लिए संस्थान की इन पुस्तकों का उपयोग कर सकेंगे। ये पुस्तकें प्राकृत भाषा-ज्ञान के अतिरिक्त भारतीय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-मूल्यों का ज्ञान कराने में भी सक्षम हैं । लेखक ने प्राकृत साहित्य से उन सार्वभौमिक नैतिक मूल्यों का चयन इन पुस्तकों में किया है, जो बालकों के जीवन - विकास के लिए आवश्यक हैं । जाति, सम्प्रदाय एवं संकीर्णता से ऊपर उठकर कोई भी पाठक इन पुस्तकों की विषयवस्तु से प्रेरणा ग्रहरण कर सकता है । अत: विद्यालयों में नैतिकशिक्षा के पठन-पाठन की पूर्ति भी इन पुस्तकों के माध्यम से हो सकती है । आशा है, प्राकृत प्रेमी जनता एवं शिक्षाविद् संस्थान के इन प्रकाशनों का स्वागत करेंगे । संस्थान ने प्राकृत भाषा एवं साहित्य के शिक्षरण कार्य के लिए डॉ. प्रेम सुमन जैन की उपर्युक्त तीन पुस्तकें प्रस्तुत की हैं। साथ ही प्राकृत व्याकरण - शिक्षण की नई शैली के लिए डॉ. उदयचन्द्र जैन की पुस्तक हेम प्राकृत व्याकरण - शिक्षरण ( खण्ड 1 ) एवं खण्ड 2 (शीघ्र प्रकाश्य) पाठकों के समक्ष उपस्थित की हैं। डॉ. कमल चन्द सोगाणी की पुस्तकें वाक्पतिराज की लोकानुभूति एवं श्राचारांग चयनिका भी मूलत: प्राकृत - व्याकरण के ज्ञान को पुष्ट करने के लिए हैं । जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से सम्बद्ध इन तीनों विद्वानों की नवीन शैली की प्राकृत की पुस्तकें प्रकाशित करके संस्थान गौरव का अनुभव करता है कि वह अपने उद्देश्य की पूर्ति में अग्रसर हुआ है । आशा है, प्राकृत-प्रेमी समाज भी संस्थान के इन प्रकाशनों से लाभान्वित होगा । संस्थान इस पुस्तक के शीघ्र एवं सुन्दर मुद्ररण कार्य हेतु ऋषभ मुद्रणालय, उदयपुर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करता है । राजस्वरूप टांक अध्यक्ष देवेन्द्रराज मेहता सचिव राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only म. विनयसागर संयुक्त सचिव जयपुर. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्राकृत भाषा में गद्य एव पद्य दोनों में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध हैं । प्राकृत के इस साहित्य को प्रकाश में लाने एवं विभिन्न स्तरों पर उसके शिक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया दि वविद्य लय, ने प्राकृत शिक्षण योजना' के अन्तर्गत कुछ पुस्तकें तैयार करने की योजना बनायी है। राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर, की माध्यमिक कक्षाओं के लिए स्वीकृत प्राकृत पाठ्यक्रम के अनुसार प्राकृत काव्य-मंजरी एवं प्राकृत गद्य-सोपान इन दो पुस्तकों को तैयार करना विभाग का दायित्व था । प्रसन्नता है कि राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर के सहयोग से ये दोनों पुस्तके पाठकों के समक्ष समय पर प्रस्तुत हैं । ___ इस प्राकृत गद्य-सोपान में प्राकृत गद्य साहित्य के प्रतिनिधि ग्रन्थों के गद्यांश प्राय: कालक्रम से प्रस्तुत किये गये हैं। इन गद्य-पाठों में कथात्मक स्वरूप को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है । चुने हुए पाठ सरल, सार्वभौमिक एवं शिक्षा-परक हैं । इनके पठन-पाठन से प्राकृत साहित्य की लोक-चेतना उजागर होगी एवं पाठक सदाचरण के मूल्यों से सहज ही परिचित हो सकेगा । इस पुस्तक में प्राकृत आगम ग्रन्थों के प्रेरक प्रसंग हैं, महापुरुषों एवं शीलवती, साहनी और करूणामयी महिलाओं के उद्बोधक वर्णन हैं तथा लोक-जीवन की सरल अभिव्यक्तियां हैं । अहिंसा, मैत्री, परोपकार, साहस, पुरुषार्थ आदि जीवन-मूल्यों को सबल बनाने वाले पाठ भी इस संकलन में हैं। इस तरह यह पुस्तक केवल स्कूली शिक्षा के लिए ही उपयोगी नहीं है, अपितु विभिन्न स्तर के पाठक भी इससे लाभान्वित हो सकेंगे और प्राकृत साहित्य का रसास्वादन कर सकेंगे। प्राकृत कथा एवं चरित माहित्य के ग्रन्थों में गद्य का प्रयोग अधिक हुआ है, किन्तु आगम-साहित्य गटक साहित्य एवं शिनालेखों में भी प्राकृत गद्य के नमूने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध हैं। उन सबका प्रतिनिधित्व इस पुस्तक में किया गया है। पुस्तक के अन्त में संक्षेप में प्राकृत गद्य साहित्य का परिचय भी दिया गया है। कुछ पाठों में महाराष्ट्री प्राकृत के अतिरिक्त अर्धमागधी, शारसेनी, मागधी आदि के भी प्रयोग हैं। अत: इन विभिन्न प्राकृतों का संक्षिप्त परिचय भी पुस्तक में दिया गया है। विशेष जानकारी शिक्षक मे एवं अन्य ग्रन्थों से प्राप्त की जा सकेगी। प्राकृत साहित्य का अर्थ स्वतन्त्र रूप से और सही किया जाय इस दृष्टि से इस पुस्तक के पाठों का हिन्दी अनुवाद भी परिशिष्ट में दे दिया गया है । आशा है, विद्यार्थी एवं शिक्षक दोनों के लिए यह उपयोगी होगा । प्राकृत भाषा एवं व्याकरण के ज्ञान के लिए हमने इसके पूर्व 2-3 पुस्तकें प्रकाशित कर दी हैं। अत: इस पुस्तक में व्याकरण की सामान्य जानकारी ही दो गयी है । प्राकृत प्रेमियों द्वारा यह पुस्तक पसन्द को जायेगी, ऐसी आशा है। प्राभार : इस प्राकृत गद्य-सोपान में जिन ग्रन्थकारों, सम्पादकों एवं उनके ग्रन्थों से जो सामग्री ली गयी है उसका यथास्थान सन्दर्भ दे दिया गया है । इन सब प्राचीन एवं नवीन ग्रन्थकारों एवं सम्पादकों के हम आभारी हैं । पुस्तक को इस रूप में प्रस्तुत करने में आदरणीय डॉ. कमलचन्द सोगागी, दर्शन-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, डॉ. उदयचन्द्र शास्त्री, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, एवं अन्य मित्रों, स्वजनों के मार्गदर्शन व सहयोग के लिए मैं आभारी हूँ। इस पुस्तक के प्रकाशन एवं मुद्रण-कार्य में श्रीमान् देवेन्द्रराज जी मेहता (सचिव), श्रीमान् म. विनयसागर जी (संयुक्त सचिव), राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर के सक्रिय सहयोग के लिए मैं हृदय से आभारी हूँ। श्री महावीर प्रसाद जैन, ऋषभ मुद्रणालय, उदयपुर को धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने यथाशीघ्र पुस्तक का मुद्रण-कार्य सम्पन्न कर दिया। प्रेम सुमन जैन 'समय' २६, सुन्दरवास (उत्तरी) उदयपुर (राजस्थान) २३ सितम्बर, १९८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका (क) प्राकृत व्याकरण-अभ्यास पृष्ठ 2-23 पाठ १. कारक एवं विभक्तियां : 2-15 1. गिह-उववनं [षष्ठी विभक्ति ] 2. विज्जालयं 3. उदाहरण वाक्य [ " " ] 4. कुडम्ब [द्वितीया विभक्ति] 5. पभायवेला 6. उदाहरण वाक्य [ " "] 7. गुणगरिमा 8. उदाहरण वाक्य [सप्तमी । 9. दिणचरिया 10 उदाहरण वाक्य [तृतीया । "] 11. सरोवरं 12 उदाहरण वाक्य [चतुर्थी 13. लोअ-मरूवं 14 उदाहरण वाक्य [पंचमी 15. नियम : कारक-शब्दरूप : पाठ २. वत्तालावं पाठ ३. जीवलोप्रो पाठ ४. अम्हागपुज्जणीमा (ख) प्राकृत गद्य-संग्रह पृष्ठ 24-121 24. 27 31 33 पाठ ५ विज्जाविहीणो नस्सइ : उत्तराध्ययनटीका पाठ ६. लोहास न तो पाठ ७. प्रसंतोसस्स दोसो : उत्तराध्ययनरिण पाठ ८. मेरुप्पभम्स हथिणो अनुकंपाः ज्ञाताधर्मकथा पाठ ६. नंद मरिणाारस्स जणसेवा : पाठ १०. कण्हेण थेरस्स सेवा : अन्तकृद्दशा पाठ ११. कलहो विणास-कारणं : निशीथविशेषरिण पाठ १२. धुत्तो सागडिपो च दशवकालिकचूरिण 36 44 47 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १३. कयग्घा वायसा पाठ १४. सिप्पी कोक्कासो पाठ १५. अग्गिसम्मस्स पराहवं पाठ १६. गुणसे पइ नियाणो पाठ १७. मित्तस्स कवडं पाठ १८. धणदेवस्स पुरिसत्यं पाठ १६. णरवइणो ववहारो पाठ २०. चन्दनबाला पाठ २१. जहा गुरू तहा सीमो पाठ २२. मयर सिरीए सिक्खा पाठ २३. दमयंती-सयंत्ररो पाठ २५. वरस्स रिगणयं पाठ २६. सेट्ठयमा पुत्तलिगा पाठ २७. परोवगारिणो पक्खिणो पाठ २८. साहु-जीवणं पाठ २६. चेडस्स धम्मबुद्धि पाठ ३०. अंगुली यस्स पत्ति पाठ ३१. कवि-गोट्ठी पाठ ३२. पाइय अहिले हारिण (ग) प्राकृत भाषा एवं साहित्य (घ) परिशिष्ट : वसुदेवहिण्डी 31 Jain Educationa International : : : पाठ २४. विज्जुपहाए साहम - करुणा : • : : १. गद्य - पाठों का हिन्दी अनुवाद २. अपठित प्राकृत गद्यांश समराइच्चकहा 31 : उत्पन्न महापुरिसचरियं 74 : मनोरमाकहा : कुवलयमालाकहा " : : कुमारालपडिबोह प्रारामसोहाकहा सेहर निका पाइ विन्नारणकहा सिरिचंदराय वरियं रयरवाल कहा मृच्छकटिकं रयणचूडरायचरियं ܙ ܕ : 10 : : श्रभिज्ञानशाकुन्तलं : कर्पूरमंजरी : १. प्रमुख प्राकृत भाषाएं २. प्राकृत गद्य साहित्य की रूपरेखा ( आगम, कथा, चरित, नाटक, एवं शिलालेखी साहित्य ) अशोक के शिलालेख 000 49 52 55 60 67 71 For Personal and Private Use Only 77 82 84 87 92 97 101 105 109 112 114 117 119 पृष्ठ 122-140 122 126 पृष्ठ 141 141 199 202 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) प्राकृत व्याकरण-अभ्यास पाठ । : कारक एवं विभक्ति 1. गिह-उववनं [षष्ठी विभक्ति] तं मज्झ गिहं अस्थि । इमं तुझ गिहं अत्थि । तस्स गिहं तत्थ अस्थि । तान गिहं अत्थ रण अस्थि । इमस्स गिहं कत्थ अस्थि ? कस्स गिहं दूरं अस्थि ? गिहस्स सामी मज्झ जणो अस्थि । मज्झ जणणी तत्थ वसइ । मज्झ वहिणी तत्थ पढइ। मज्झ भायरो तुज्झ मित्तं अस्थि । अहं तस्स पोत्थयं णेमि । इमं अम्हारण उववनं अस्थि । तुम्हाण मित्तारिण अत्थ खेलन्ति । तारण पुत्ता तत्थ धावन्ति । इमारण भायरा तत्थ रण गच्छन्ति । काण मित्ताणि तत्थ जीमन्ति ? उबवनस्स इमे रुक्खा सन्ति । इमाणि ताण पूष्फाणि सन्ति । इमं रणयरस्स सूदेरं उववनं अत्यि । अत्थ कमलस्स पुप्फ अत्थि । पुप्फस्स ला अस्थि । कमलाण पुप्फारण माला सोहइ । अत्थ वारिणो गई ण अत्थि । अम्हारण गिहस्स अण अरो वत्थुगो मुल्लं पुच्छइ । तस्स वत्थूण आवरणो अस्थि । अभ्यास (क( हिन्दी में अर्थ लिखो : शब्द अर्थ (ख) षष्ठी के रूप लिखो : शब्द ब.व. (सर्व.ए.व.) बालअ बालअस्स बालआण कवि मज्भ मेरा तुज्झ साहु बाला ........ तस्स ताअ कस्स गिहस्स ........ नई प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. विज्जालगं [षष्ठी विभक्ति] इमं सोहरणस्स विज्जालयं अत्यि । अत्थ तस्स भायरा मित्तागि य पढन्ति । विज्जालयस्स तं भवणं अत्थि । इमं तस्स दारं अस्थि । तत्थ तस्स खेत्तं अत्थि। चन्दणाअ बहिणी अत्य पढइ। ताप अभिहाणो कमला अस्थि । कमला गुरू विउसो अस्थि । विउसारण गुरुणो सीसा विरणोया होन्ति । विरणीअस्स सीसस्स गाणं वरं होइ। सोहणस्स इमं पोत्थअं अस्थि । तारिण पोत्थयारिग तस्स मित्ताण सन्ति । तस्स भायराण पोत्थप्राणि कारिण सन्ति ? इमा कमलान लेहणी अत्थि । ताप सहीए इमा माला अस्थि । मालाप रंग पीअं अस्थि । कमला सहीण मालाण मुल्लं अप्पं अस्थि । इमं विज्जालयं बालपारण अत्थि । तं विज्जालयं बालारण अस्थि । तत्थ विउसारण सम्मारणं हवइ। अत्थ गुरूण पुमा हवाइ । अत्थ बालग्रा पढन्ति । तत्थ बालाग्रो पढन्ति । अभ्यास (क) नये शब्द छांटकर लिखो : वचन शब्दरूप सोहरपस्स मूलशब्द सोहण विभक्ति षष्ठी ए.व. ............ ............ ............ ........... ............ ....... ..........." (ख) प्राकृत में अनुवाद करो : वह मेरी पुस्तक है । यह तेरा घर है। वह किसका पुत्र है ? ये पुस्तकें तुम्हारी हैं । वहाँ कुलपति का शासन है । यह बच्चों का उपवन है । माला की दुकान कहाँ है ? यह युवति का भाई है । गाय का दूध मीठा होता है। यह फल का वृक्ष है। वह पानी की नदी है । वह फलों का रस है। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. उदाहरण वाक्य [षष्ठी विभक्ति] इदं रामस्स पोत्थग्रं अत्थि तं छत्तस्स घरं अत्थि इदं रुक्खस्स पत्तं अत्थि तं गंगा जलं अस्थि सो धणस्स हे उगो पढइ रामो मायाम सुमरइ छत्ताणं रामो सेट्ठो घरस्स उरि कि अत्थि पोत्थ अस्स पढणं वरं यह राम की पुस्तक है। वह छात्र का घर है। यह वृक्ष का पत्ता है। वह गंगा का जल है। वह धन के कारण पढ़ता है । राम माता को याद करता है। छात्रों में राम श्रेष्ठ है। घर के ऊपर क्या है ? पुस्तक का पढ़ना अच्छा है । अभ्यास (क) प्राकृत में अनुवाद करो : वह मेरी पुस्तक है । यह उनका खेत है। बालक का पिता जाता है। यह बाजार का मार्ग है। गंगा का जल मीठा है। धन के हेतु विद्या को पढ़ो। सोहन पिता को याद करता है। नारियों में सीता श्रेष्ठ है। पेड़ के सामने बालक है । बालकों में मोहन चतुर है। बालक का सोना ठीक है । धन का दाता कौन है ? (ख) नियम याद करें एवं उदाहरण शिक्षक से समझें : 1- सम्बन्ध कारक के अर्थ में षष्ठी होती है। 2- हेतु शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति होती है। 3- स्मरण के अर्थ वाली क्रिया के साथ कर्म में षष्ठी होती है । 4- श्रेष्ठता बताने के अर्थ में, जिससे श्रेष्ठ बताया जाय उसमें षष्ठी होती है । 5- उवरिं, अग्गं, पच्छा, अहो आदि शब्दों के साथ षठी होती है। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. कुडुम्बं द्वितीया विभक्ति] इमं मम कुडुम्बं अत्थि। जणो कूड्रम्बं पालइ । सो ममं गेहं करइ । मज्झ भायरो तुम जाणइ । मज्झ जणग्रो पोत्थग्रं पढइ । जगणी तं दुद्ध देइ। तुज्झ बहिगगी कमला अत्थि । माअतं पासइ। इमो अम्हाण पियामहो अत्थि । अम्हे इमं नमामो। तुम्हे कि नमित्था ? माउलो अम्हें वत्थं देइ । सो तुम्हे धणं देइ । भाउजाया ते नमइ । ते तारो बहूओ पासन्ति । बहिणी इमे भायरा पत्तारिण लिहइ। भायरा इमानो बहिणीअो धणं पेसन्ति । मात्रा के पुत्ता इच्छइ? ताो काओ कन्नारो साडीअो देन्ति ? अभ्यास (क) पाठ में से द्वितीया विभक्ति के सर्वनाम रूप छाँटकर उनके अर्थ लिखो। (ख) द्वितीया विभक्ति के शब्दरूप छांटकर उनके अर्थ लिखो। (ग) कुटुम्ब के सदस्यों के प्राकृत शब्द लिखो : पिता, भाई, छोटा भाई, माता, बहिन, पितामह, मामा, भौजी (भाभी), बहू पुत्र, कन्या । (घ) प्राकृत में अनुवाद करो : मित्र मुझको जानता है। वह तुमको पूछता है। माता उसको पालती है। कन्या उस स्त्री को नमन करती है। मैं इसको नहीं जानता हूँ। तुम किसको पत्र लिखते हो ? गुरु उन सबको जानते हैं। वे तुम सबको पूछेगे । तुम इन सबको नमन करो। (ङ) क्रियाएं याद करो वस = रहना सोह = अच्छा लगना परिवट्ट = बदलना उपपन्न = उत्पन्न होना जाय = पैदा होना वीह = डरना मग = मांगना अच्च = पूजा करना धाव = दौड़ना प्राव = आना गिह = ग्रहण करना = धोना प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. पभायवेला [द्वितीया विभक्ति ] इमं भायं प्रति । बालग्रा जग्गन्ति । ते जरणत्रं नमन्ति । बालाओ जरिंग नमन्ति । सोहगो रिणयं करं पायं य धोवइ । सो पहाणं करइ । तया ईसरं नमइ । कमला उववनं पासइ । तत्थ पक्खिरणो गीयं गान्ति | पुकारिण वियसन्ति । भमरा गुंजन्ति । बालग्रा कंदुग्रं खेलन्ति । छत्ता पोत्थचारिण पढन्ति । कवी कव्वं लिहइ । गुरू सत्थं पढइ । किसारणो खेत्तं गच्छइ । सेवप्रो कज्जं करइ । बालग्रा विज्जालयं गच्छन्ति । गुरू विज्जलयं गच्छइ । तत्थ सो बालमा पुच्छर । विरणीया छत्ता तत्थ पाइपढन्ति । ते गाहाम्रो सुरणन्ति, कलाओ सिक्खन्ति, आयरियं नमन्ति । भायं सुदेरं हवइ । मात्रा बालं दुद्ध देइ । धूम्रा मा नमइ । इत्थी मालं धारइ । सा जुवई पासइ । जुवई नई गच्छइ । तत्थ सा बहुं पुच्छइ । बहू घे दुइ । सा सासु दुद्ध देइ । पुरिसो गयरं गच्छइ । तत्थ दुद्ध विक्कीers, फलारिण कीरणइ तथा घरं आगच्छइ । अभ्यास (क) द्वितीया विभक्ति के शब्द छांटकर उनका अर्थ लिखो : पुल्लिंग नपुं. लिंग स्त्रीलिंग *********** 6 ************ Jain Educationa International ***************** ************ ........ ........................................................ को धारण करती है । बहू साड़ी को चाहती है। फलों को चाहते हैं | छात्र शास्त्र को पढ़ते हैं । वे ............................................. ***.**** *** ************.** (ख) प्राकृत में अनुवाद करो : पिता बालक को पालता है । राजा कवि को जानता है । हम साधु को नमन करते हैं । विद्वानों को कौन नहीं जानता है ? तुम जीव को न मारो | स्त्री माला आदमी गायों को देखता है । बालक वस्तुओं को नहीं चाहते हैं । ****** 0. For Personal and Private Use Only **** *********** .......**** प्राकृत गद्य-सोपान Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. उदाहरण वाक्य [द्वितीया विभक्ति] मोहणो विज्जालयं गच्छइ सो पण्हं पुच्छइ अहं पोत्थमं पढामि गामं अहियो जलं अत्थि दुज्जणं धिम विज्ज बिरणा रणार नत्थि अहं गामं गच्छामि सो निवं नमइ पुत्तो जणग्रं पहं पुच्छइ मोहन विद्यालय को जाता है। वह प्रश्न को पूछता है। मैं पुस्तक को पढ़ता हूँ। गांब के दोनों ओर जल है। दुर्जन को धिक्कार है। विद्या के बिना ज्ञान नहीं है। मैं गांव को जाता हूँ। वह नृप को नमन करता है। पुत्र पिता से रास्ता पूछता है । अभ्यास (क) प्राकृत में अनुवाद करो : ___मैं घर जाता हूँ। वह पिता को नमस्कार करता है। बालक सत्य कहता है । गुरु प्रश्न पुछता है। नगर के दोनों ओर जल है। राम के बिना सुख नहीं है। वह पुस्तक 'चुराता है । सोहन गाय को दुहता है। राम पुस्तक को मांगता है । जिनसेन कथा को कहता है। (ख) नियम याद करें एवं उदाहरण शिक्षक से समझे : 1- कर्ता के अभीष्ट कार्य में द्वितीया विभक्ति होती है । 2- गमन (चलना, जाना आदि) के अर्थ वाली क्रियाओं के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। 3- द्विकर्मक क्रियाओं के साथ गौरण कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । 4- अहिओ, परिओ, सवओ, पइ, धिअ, बिणा आदि शब्दों के साथ वाले शब्द में द्वितीया होती है। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. गुरण - गरिमा [ सप्तमी विभक्ति ] सव्वे पाणा चे गुणा हवन्ति । तेसु गाणं होई । जहा ब्रम्हम्मि जीव प्रत्थि तहा तुम्हम्मि वि । श्रचेप्ररणदव्वेसु पारणा रण सन्ति । किन्तु तेसु गुणा हवन्ति । जहा - फले रसं प्रत्थि, पुप्फे सुगंधो अत्थि, दहिम्मि घ प्रत्थि, जले सीयलमा प्रत्थि, प्रग्गिम्मि उहा प्रत्थि । सरोवरे कमलाणि सन्ति । कमलेसु भमरा सन्ति । रुक्खेसु फलागि सन्ति । नीडे पक्खिणो सन्ति | नई नात्रा तरन्ति । घरे जणा निवसन्ति । पुरिसेसुखमा वसइ । जुत्राणे सत्ति होइ । जुवई लज्जा प्रत्थि । तासु सद्धा प्रत्थि । बालए सच्च प्रत्थि । छत्ते विनयं प्रत्थि । विउसम्म बुद्धी प्रत्थि । सिसुम्मि अण्णा ग्रत्थि । किन्तु साहुम्मि तेनो अत्थि । मात्राए समप्पणं प्रत्थि । धेणूए दुद्ध प्रत्थि । बहूए गुणा सन्ति । माला पुकारिण सन्ति । गनणे तारा सन्ति । गुणेण बिला कि विवत्थू । (क) हिन्दी में अर्थ लिखो : शब्दरूप श्रर्थ उनमें तेसु अहम्मि द फले दहिम्म नई ए मालाए 8 ******** Jain Educationa International ****** www. पहिचान सर्व, ब.व. ******** ********* ............ 1000 अभ्यास (ख) सप्तमी के रूप लिखो : शब्द अम्ह तुम्ह त गर बहू कवि बाला ए. व. अहम्मि .... For Personal and Private Use Only ब.व. अम्हे पु ........ ******* ...................... (ग) प्राकृत में अनुवाद करो : मुझ में शक्ति है । उसमें जीवन है । उस (स्त्री) में लज्जा है । हम सब में क्षमा है । बालकों में विनय है । साड़ी में फूल हैं । बृक्षों पर पक्षी हैं। घरों में बालक हैं । ........ ********1000 प्राकृत गद्य-सोपान Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो विज्जलये पढ ते घरे वसन्ति छत्ते विनयं प्रत्थि गरे सत्ती प्रत्थि नई नावा तरन्ति तुज्भ पढ अहिलासा प्रत्थि मज्भ धम्मे वीसासो प्रत्थि कमले भमरो अत्थि 8. उदाहरण वाक्य सत्थे विज्जा वसई जग पुत्ते सिहं करइ मज्भ गुरुम्मि मायरो प्रत्थि रामो विज्जाए निपुणो अतिथ सो पढ लग्गो कवी कालिदास सेट्टो प्राकृत गद्य-सोपान == Jain Educationa International अभ्यास [ सप्तमी विभक्ति ] वह विद्यालय में पढ़ता है । बेघर में रहते हैं । छात्र में विनय है । मनुष्य में शक्ति है । नदियों में नाव तैरती हैं । तुम्हारी पढ़ने में अभिलाषा है । मेरा धर्म में विश्वास है । (क) प्राकृत में अनुवाद करो : मनुष्य में जीवन है । विद्यालय में छात्र हैं । बालक में विनय है । जल में कमल हैं । उसकी खेलने में रुचि है । तुम्हारा मोक्ष में विश्वास है। माता कन्या पर स्नेह करती है । मोहन की पिता पर श्रद्धा है। सोहन शास्त्र में निपुण है । वह कार्य में लगा है । (ख) नियम याद करें एवं उदाहररण शिक्षक से समझें : 1- आधार स्थान में सप्तमी विभक्ति होती है । 2- किसी विषय में रुचि, विश्वास, श्रद्धा, आदर, स्नेह आदि के साथ सप्तमी कमल पर भौंरा है । शास्त्र में विद्या रहती है । पिता पुत्र पर स्नेह करता है । मेरा गुरु पर आदर है । राम विद्या में निपुण है । वह पढ़ने में लगा है । कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है । होती है । 3- संलग्न एवं चतुर अर्थ वाले शब्दों के साथ सप्तमी होती है । 4- तुलना के अर्थ में षष्ठी, सप्तमी दोनों विभक्ति होती हैं । For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. दिरणचरिया [तृतीया विभक्ति] सुज्जस्स किरणेण सह जरणा जग्गन्ति । बाला जगएण सह उदृन्ति, जलेण मुहं पक्खालन्ति । जणा मन्दिरं गच्छन्ति । तत्थ ते देवं गयणेहिं पासन्ति । ते सिरेण हत्थेहि देवं नमन्ति । मुहेण देवस्स थुइं पढन्ति। ते पुफ्फेहि फलेहि य देवं अच्चन्ति । जणा पायरियेण सत्थं सुणन्ति । सत्थेण बिणा मन्दिरस्स सोहा पत्थि । जहा धणेण अहवा गुरणेण बिरणा नरस्स सोहा रणत्थि । देवं अच्चिऊरण जरणा भुजन्ति । ते भिच्चेण सह प्रावणं गच्छन्ति । बालो मित्तेण सह विज्जालयं गच्छइ । जुबई हत्थेहि वत्थं धोवइ । सा साडीए सोहइ। माया सिसुणो सह खेलइ । सिसू तत्थ पएण चलइ। सो मित्तेण सह खेलइ, कंदुएण रमइ । तेण तं सुक्खं होइ। सो माअाए बिणा ण भुजइ। माया जरेण पीडइ । ताए गिहस्स कज्ज ण होइ। तुमए ताप सेवा होइ । सा दहिणा सह पथ्थं गेण्हइ । घरेण बिरणा सुहं पत्थि । जणा गेहे वसन्ति । ताण हेण गिहस्स सोहा होइ । अभ्यास विभक्ति के शब्दरूप छांटकर उनके अर्थ लिखो। (ख) प्राकृत में अनुवाद करो : यह कार्य मेरे द्वारा होता है। वह कार्य उसके द्वारा होता है । वह बालक के साथ जायेगा। हम शिष्य के साथ भोजन करते हैं। गुरु छात्रों के साथ रहता है। कवि के द्वारा कार्य होता है। वह साधु के साथ पढ़ता है। माता बच्चों के साथ रहती है। बालिका के साथ उसका भाई जाता है। बच्चे मालाओं से खेलते हैं। फलों के बिना वह भोजन नहीं करता है। मैं दही के साथ भोजन करता हूँ। वस्तुओं के साथ क्या है ? 10 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. उदाहरण वाक्य तृतीया विभक्ति] इदं कज्ज छत्रण होइ सोहणो जलेण मुहं पच्छालइ सो दंडेण मारइ सा कंदुएण खेलइ पिना पुत्तेण सह गच्छइ दुज्जणेण सीसेण किं पयोअरणं गुरू कहइ-अलं विवाएण वीरो सहावेण साहू फलं रसेरण महुरं अत्थि जलं बिणा कमलं नत्थि सो कोण बहिरो अत्थि यह कार्य छात्र के द्वारा होता है। सोहन जल से मुंह धोता है। वह दण्ड से मारता है। वह गेंद से खेलती है। पिता पुत्र के साथ जाता है । दुर्जन शिष्य से क्या प्रयोजन ? गुरु कहता है-झगड़ा मत करो। वीर स्वभाव से साधु है। फल रस से मीठा है। जल के बिना कमल नहीं है । वह कान से बहरा है। = अभ्यास (क) प्राकृत में अनुवाद करो : वह कलम से लिखता है। मैं जल से मुह धोता हूँ। राम दन्ड से खेलता है। गुरु शिष्य के साथ जाता है। दुष्ट पुत्र से क्या लाभ ? पिता कहता है-हंसो मत । माता स्वभाव से सरल है। मोहन पांव से लंगड़ा है। बालक के बिना घर अच्छा नहीं लगता। (ख) नियम याद करें एवं उदाहरण शिक्षक से समझे : 1- सबसे अधिक सहायक साधन में तृतीया विभक्ति होती है। 2- सह, समं आदि के साथ तृतीया होती है । 3- किं, अत्थं, पयोअणं आदि के साथ तृतीया होती है। . 4- अलं (वस, मत) तथा बिना के साथ तृतीया होती है। 5- प्रकृति, स्वभाव और अंगविकार के अर्थ में तृतीया होती है । प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. सरोवर [चतुर्थी विभक्ति] इमं गामस्स सरोवरं अस्थि । तत्थ जणा गहरणं करिउं गच्छन्ति । तस्स जलं जणस्स अस्थि । सरोवरे कमलारिण सन्ति । तारिण कमलागि मज्झ सन्ति । सरोवरस्स तडे रुक्खा सन्ति । ताण पुप्फारिण तुज्झ सन्ति । ताण फलारिण तस्स सन्ति । तान बालाअ सरोवरे कि अत्थि ? तत्थ अम्हारण देवमन्दिरं अत्थि । अत्थ तुम्हाण सज्झायसाला अत्थि । ताग बालबाग तत्थ रम्म उववनं अत्थि । तत्थ ते खेलन्ति । सरोवरे हंसा चलन्ति । जलस्स जंतुणा तत्थ निवसन्ति । तत्थ कविणो सुहं हवइ । सो तत्थ कव्वं लिहइ । सरोवरस्स तडे साहुणा वसन्ति । णि वो साहणो भोप्रणं देई । तत्थ गरा कवीण वत्थणि देन्ति । कवी बालान फलं देइ । तत्थ सिसू फलस्स कंदइ। सरोवरस्स जलं कमलस्स अस्थि । तस्स वारि खेत्तस्स अस्थि । खेत्तस्स धन्न घरस्स अस्थि । सरोवर परस्स जीवरणस्स बहुमुल्लं अस्थि । तं गामस्स सोहं अस्थि । अभ्यास (क) पाठ से चतुर्थी विभक्ति के शब्द छांटकर उनका अर्थ लिखो : जरणस्स=लोगों के लिए मज्झ=मेरे लिए ........ ........ .... ... .............. ........... (ख) प्राकृत में अनुवाद करो : ___ यह कमल मेरे लिए है। वह कमल उसके लिए है। ये वस्तुएं उन स्त्रियों के लिए हैं। यह दूध बालक के लिए है। वे कुलपति के लिए नमन करते हैं। हम साधुओं के लिए भोजन देते हैं। वह बालिका के लिए माला देगा। माता युवति के लिए साड़ी देती है। सास बहुओं के लिए उपदेश देती है। यह वस्तु घर के लिए है। वह घर शास्त्रों के लिए है। 12 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. उदाहरण वाक्य [चतुर्थी विभक्ति] अह बालअस्स फलं देमि सो मापान धरणं देइ मोहणो पुप्फ सिहइ बालअस्स मोयगं न रोयइ जणो पुत्तस्स कुज्झइ ते कुलवइणो नमन्ति मुणी बालअस्स उवदिसइ सो गाणस्स पढइ भत्ती मोक्खस्स अस्थि सिसू फलस्स कंदइ मैं बालक के लिए फल देता हूँ। वह माता के लिए धन देता है । मोहन पुष्प को चाहता है । बालक को लड्डू अच्छा नहीं लगता। पिता पुत्र पर क्रोध करता है । वे कुलपति के लिए नमन करते हैं । मुनि बालक के लिए उपदेश देता है। वह ज्ञान के लिए पढ़ता है। भक्ति मोक्ष के लिए है। बच्चा फल के लिए रोता है । अभ्यास (क) प्राकृत में अनुवाद करो : यह कमल मेरे लिए है। बह शास्त्र छात्र के लिए है। राजा कवि को धन देता है। वह पिता को नमन करता है। बालक को दुध अच्छा नहीं लगता। राजा कवि पर क्रोध करता है। गुरु शिष्य को उपदेश देता है। बालिका गेंद के लिए रोती है। ज्ञान मोक्ष के लिए है। माता बच्चे को चाहती है। (ख) नियम याद करें एवं उदाहरण शिक्षक से समझें : 1- देने और नमन करने के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है। 2- अच्छा लगने और चाहने के अर्थ में चतुर्थी होती है । 3- क्रोध करने, ईर्ष्या करने आदि के अर्थ में चतुर्थी होती है। 4- जिम प्रयोजन के लिए जो वस्तु या क्रिया होती है, उसमें चतुर्थी होती है । 5- कहने, निवेदन करने, उपदेश देने के साथ चतुर्थी विभक्ति होती है। 6- प्राकृत में चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति के रूप समान होते हैं । प्राकृत गद्य-सोपान 12 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. लोअ-सरूवं [पंचमी विभक्ति] इग्रं लोग्रं विचित्तं अत्थि । अत्थ चेअरणारिण अचेप्रणारिण य दवाणि सन्ति । ताणं सरूवं सया परिवट्टइ। बालो बालअत्तो जुवाणो हवइ । जुवारणो जुवात्तो बुड्ढो हवइ । रणरा रणरत्तो पसुजोणीए गच्छन्ति । पसुणो पसुत्तो रणरजम्मे उप्पन्नन्ति । रुक्खो बीजत्तो उप्पन्नइ । बीजो रुक्खत्तो उप्पन्नइ । फलत्तो रसं उत्पन्नई। पुप्फत्तो सुयंधो पावइ । बारित्तो कमलं गिास्सरइ । रुक्खत्तो जुण्णाणि पत्तारिण पडन्ति । दहित्तो घयं जाइ। दुद्धत्तो दहि हवइ। एगसमये मुक्खो विउसत्तो बीहइ। छत्तो गुरुत्तो पढइ। कवी णिवत्तो प्रायरं गेण्हइ। बहू सासुत्तो धणं मग्गइ। बाला माअत्तो दुद्ध मग्गइ। किन्तु अण्णसमये परिवट्टणं जाअइ। वि उसा मुक्खाहितो बोहन्ति गुरुणा छत्ताहिंतो सिक्खन्ति । णिवा कवीहिन्तो पसंसं गेण्हन्ति । सासूत्रो बहूहिन्तो वत्थाणि मग्गन्ति । मायाप्रो बालाहिन्तो भोप्रणं गेण्हन्ति । साहुणा असाहू हिन्तो भयं करन्ति । कुसला जणा सेवन्ति । सढा सासनं करन्ति । इमं लोग्रस्स विचित्तं सरूवं । जो गाणीजणा विवेएण संसारस्स कज्जाणि करन्ति । अभ्यास (क) पाठ में से पंचमी विभक्ति के रूप छाँटकर उनके अर्थ लिखो। (घ) प्राकृत में अनुवाद करो : वह मुझ से धन लेता है । बालक तुमसे कमल लेता है । तुम उससे डरते हो। साधु राजा से पुस्तक मांगता है । कवि से काव्य उत्पन्न होता है। शिष्य गुरु से पढ़ता है। माला से सुगन्ध आती है। मैं नदी से पानी लाता हूँ। कमल से पानी गिरता है । वह घर से निकलता है । हम नगर से दूर जाते हैं । सास बहू से धन मांगती है । 14 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. उदाहरण-वाक्य [पंचमी विभक्ति] बालो अस्सत्तो पडइ कमलत्तो वारिं पडइ मुक्खो निवत्तो बोहइ कवित्तो कव्वं उप्पन्नइ कोहत्तो मोहो जायइ रामो कलहत्तो बोहइ जरणो सिसुत्तो विरमइ मालत्तो सुयंधो मायइ सो पावत्तो दुगुच्छ सीसो सात्तो पढइ बालक घोड़े से गिरता है। कमल से पानी गिरता है। मूर्ख राजा से डरता है। कवि से काव्य उत्पन्न होता। क्रोध से मोह होता है। राम झगड़े से डरता है। पिता बच्चे से दूर होता है। माला से सुगन्ध आती है। वह पाप से घृणा करता है। शिष्य साधु से पढ़ता है। अभ्यास (क) प्राकृत में अनुवाद करो : बच्चा माता से डरता है । पेड़ से पत्ता गिरता है। मुर्ख कवि से घृणा करता है। कमल से सुगन्ध आती है। झगड़े से क्रोध होता है। सांप से भय होता है। वह नगर से दूर जाता है । पुत्र पिता से पढ़ता है। बीज से अंकुर होता है। धन से ज्ञान अच्छा है। (ख) नियम याद करें एवं उदाहरण शिक्षक से समझे : 1- अलग होने के अर्थ में और गिरने के अर्थ में पंचमी होती है। 2- भय और रक्षा की अर्थ वाली क्रियाओं के साथ पंचमी होती है । 3- उत्पन्न होने और आने के अर्थ में पंचमी होती है। 4- घृणा एवं विराम लेने के अर्थ में पंचमी होती है । 5- जिससे विद्या पढ़ी जाय उसमें पंचमी विभक्ति होती हैं। 6- जिससे तुलना की जाय उसमें पंचमी विभक्ति होती है । जैसे : दुज्जणतो सज्जणो सेठो। प्राकृत गद्य-सोपान 15 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम : कारक शब्दरूप षष्ठी विभक्ति: नियम 1 : षष्ठी विभक्ति के एकवचन में सर्वनाम अम्ह का मझ और तुम्ह का तुझ रूप बनता है। नियम 2 : पुल्लिग तथा नपुसकलिंग सर्वनाम एवं अकारान्त संज्ञा शब्दों के षष्ठी विभक्ति एकवचन में स्स प्रत्यय जुड़ता है । जैसे :सर्वनाम त =तस्स इम= इमस्स क =कस्स पु०सं० पुरिस= पुरिसस्स गर=णरस्स छत्त = छत्तस्स नपुसं0 जल =जलस्स फल= फलस्स घर -घरस्स नियम 3 : पुलिलग तथा नपु० इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों के आगे गो प्रत्यय जुड़ता है। जैसे : कवि-कविरगो दहि-दहिरणो सुधि=सुधिरणो हस्थि=हत्थिरणो वत्थु =वत्थरणो नियम 4 : (क) स्त्रीलिंग आकारान्त सर्वनाम तथा संज्ञा शब्दों के आगे षष्ठी एक वचन में अप्रत्यय जुड़ता है। जैसे :ता+अ-ताम माला+अ=माला, इमाअ, बालाअ आदि। (ख) स्त्री० इ, ईकारान्त शब्दों के आगे प्रा प्रत्यय एवं उ, ऊकारान्त शब्दों के आगे ए प्रत्यय जुड़ता है। जैसे :पा = जुवईआ, नईश्रा, साडीया ए = धेण ए, बहूए, सासूए आदि । नियम 5 : पु०, नपुं० तथा स्त्री० सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों के षष्ठी बहुवचन में रण प्रत्यय जुड़ता है तथा शब्द का ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। जैसे :सर्वनाम- तुम्ह= तुम्हाण, अम्ह=अम्हारण, त=ताण, इमा=इमारण । पु०नपु०-पुरिसारण, सुधीरण, सिसूरण, दहीग्ण, वत्थूरण । स्त्रो० – मालाण, बालारण, जुवईण, साडीरण, बहूण। चतुर्थी विभक्ति : नियम 6 : प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति में सभी सर्वनाम एवं संज्ञा शब्द षष्ठी विभक्ति के समान ही प्रयुक्त होते हैं । 16 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीया विभक्ति : नियम 7 : द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अम्ह का ममं एवं तुम्ह का तुम रूप बनता है। नियम 8 : सभी सर्वनामों एवं संज्ञा शब्दों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में (') लगता है तथा दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाते हैं । जैसे :सर्व0- तं, कं, इम, ता-तं, का=कं, इमा=इमं । पु० - बालग्रं, पुरिसं, सुधि, सिसु। नपु०- जलं, रणयर, वारि, वत्थु। स्त्री०- मालं, जुवई, बहुं, सासु। नियम 9 : सभी सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों के प्रथमा विभक्ति बहुवचन के रूप ही द्वितीया विभक्ति बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं । जैसे :सर्व० - ते, के, अम्हे, तुम्हे, कानो, इमानो, तारिण, इमारिण । पु० - पुरिसा, कविणो, सिसुणो। नपु० - जलारिण, एयराणि, वारीरिण, वत्थूरिण । स्त्री०- मालाप्रो, नईओ, बहूओ, सासूत्रो । सप्तमी विभक्ति : नियम 10 : सभी पु० सर्वनामों तथा पुo, नपु० के इ एवं उकारान्त शब्दों में सप्तमी एकवचन में म्मि प्रत्यय लगता है । जैसे :सर्व० ---- अम्हम्मि, तुम्हम्मि, तम्मि, इमम्मि, कम्मि । संज्ञा - सुधिम्मि, सिसुम्मि, वारिम्मि, वत्थुम्मि । नियम 11 : स्त्री० सर्वनामों, अकारान्त पु०, नपु० शब्दों एवं स्त्री० शब्दों में सप्तमी एकवचन में ए प्रत्यय लगता है । इ एवं उ दीर्घ हो जाते हैं । जैसे :सर्व० ---ताए, इमाए, काए। पु०- पुरिसे, छत्ते, सीसे, जले, फले । स्त्री० - बालाए, साडीए. बहूए, जुवईए, धेरण ए। नियम 12 : सभी सर्वनामों एवं संज्ञा शब्दों में सप्तमी बहुवचन में सु प्रत्यय लगता है । अकारान्त शब्दों में एकार हो जाता है तथा ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाते हैं। जैसे,सर्व0-अम्हेसु, तेसु, तासु । पुल-पुरिसेसु, जलेसु, सुधीसु, सिसूसु । स्त्री० -बालासु, जुवईसु, घेण सु, सासूसु । प्राकृत गद्य-सोपान 17 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीया विभक्ति : नियम 13 : तृतीया विभक्ति के एकवचन में अम्ह का मए एवं तुम्ह का तुमए रूप बनता है। नियम 14 : पु० एवं नपु० सर्वनाम तथा अकारान्त शब्दरूपों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में शब्द के प्रको ए होता है तथा रण प्रत्यय जुड़ता है । जैसे :- सर्व0-तेण, इमेण, केरण। संज्ञा-पुरिसेण, छत्तेण, जलेरण। नियम 15 : पु० तथा न० इ एवं उकारान्त शब्दों के आगे पा प्रत्यय जुड़ता है। ___ जैसे :- कविरणा, साहुणा, वारिणा, वत्थुरणा। नियम 16 : स्त्री० सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में ए प्रत्यय जुड़ता है । ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाते हैं । जैसे : सर्व०- ताए, इमाए, काए। संज्ञा- बालाए, नईए, बहुए। नियम 17 : सभी सर्वनामों एवं सभी संज्ञा शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुबचन में हि प्रत्यय लगता है । शब्द के अ को ए तथा ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाते हैं। जैसे :संज्ञा (पु०)-पुरिसेहि, छत्तेहि, कवीहि, सिसूहि (नपु.)-वारीहि, वत्थूहि स्त्रीo-बालाहि, नईहि । सर्वo-अम्हेहि, तेहि, ताहि । पंचमी विभक्ति : नियम 18 : पंचमी विभक्ति एकवचन में अम्ह का ममानो एवं तुम्ह का तुमानो रूप बनता है। नियम 19 : पु० एवं नपु० सर्वनामों के दीर्घ होने के बाद उनमें ओ प्रत्यय जुड़ता है। जैसे :- तानो, इमानो, कानो। नियम 20 : स्त्री० सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों में ह्रस्व होकर तथा नपु० एवं पु० शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में तो प्रत्यय जुड़ता है। जैसे :स्त्री०- ता=तत्तो, इमा=इमत्तो, बाला=बालत्तो, बहुत्तो। पु०- पुरिसत्तो, कवित्तो, सिसुत्तो, जलत्तो, वारित्तो आदि । नियम 21 : सभी सर्वनामों एवं संज्ञा शब्दों में दीर्घ स्वर होने के बाद पंचमी विभक्ति के बहुवचन में हितो प्रत्यय जुड़ता है । जैसे :अम्हाहितो, ताहितो, पुरिसाहितो, बालाहितो, बहूहितो आदि । 18 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 2 : वत्तालावं सोहणो मोहण, तुमं कमा जग्गसि ? मोहणो - अहं पभाये जग्गामि । सोहरणो तथा तुमं किं करसि ? मोहणो - अहं जणएण सह भमिउं गच्छामि । सोहरणो - तअन्तरं तुमं किं करसि ? मोहरणो - अहं पइदिणं पढामि । सोहणो तुमं संझावेलं वि पढसि ? मोहगो रण, अहं तपा खेलामि। सोहणो तुमं कत्थ खेलसि ? मोहणो अहं गिहस्स समीवं खेलामि । सोहगो - तुमं विज्जालयं का गच्छसि ? मोहरणो पायं दसवमणकाले। सोहणो तुज्झ विज्जालए रामो वि पढइ ? मोहणो प्रां, सो तत्थ पढइ। सोहणो तुमं अहुणा कत्थ गच्छसि ? मोहणो अहं अज्ज आवरणं गच्छामि । सोहणो तुमं मम गिहं चलहि। मोहणो अज्ज अवासो गत्थि । कल्लं पागच्छिहिमि । तुम सा एवं भरणसि । किन्तु कयावि ण आगच्छसि । मोहणो - तुमं मा रूसहि । कल्लं अवस्सं आगच्छिहिमि । सोहरणो - वरं, अहं मग्गं पासिहिमि । दारिणं गच्छामि । तुम सिग्धं प्रागच्छहि । मोहणो - वरं। अभ्यास (क) पाठ में से अव्यय छांटकर उनके अर्थ लिखो : कमा = कब सोहणो - .... ........ . ............ प्राकृत गद्य-सोपान 19 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 3 : जीवलोओ इमे लोए बहु जीवा सन्ति । रुक्खेसु, लग्रासु, जले, अग्गिए, पवण थले वि पाणा हवन्ति । इमे एगिन्दिया जोवा सन्ति । मक्कुणे (खटमले) दोणि इंदियारिण हवन्ति । पिवीलिपाए तिणि इंदियाणि हवन्ति । मक्खि पाए चउरो इंदियाणि हवन्ति । सप्पे पंच इंदियाणि हवन्ति । पक्खी, पसू, मणस्सो, पंचिन्दियो जीवो अत्थि । तेसु फासो, रसणा, घाणो, चक्ख सवणो य इमारिण पंच इंदियाणि सन्ति । पक्खिरणो अम्हारण सहारा हवन्ति । ते मणुस्साण मित्तारिण हवन्ति । पभाये पक्खिणो कलमलसरेण गीअं गान्ति । ताण सरो महुरो हवइ । पक्खीसू कामो कण्हो हवइ । हंसो धवलो हवइ । कोइला काली हवइ किन्तु सा महुरसरेण गाइ। मोरा अइसुन्दरा हवन्ति । ते वरिसाकाले रणच्चन्ति । सुग्गा जरणारण अइपिया हवन्ति । ते माणुसस्स भासाए वि बोल्लन्ति । कुक्कुडा पभाये जणाण पवोहयन्ति । पिवीलियामो सपरिस्समेण जणाण पेरणा देन्ति । माणुसस्स जीवणे पसूण वि महत्तं अत्थि । पसुणो जस्स सहयोगिणो सन्ति । अस्सो भारं वहइ । जणा अस्सेण सह जत्तासु गच्छन्ति । अस्सो परस्स मित्तं अस्थि । कुक्कुरो माणुसस्स रक्खं करइ । सो अम्हाण गिहारिण चोराहिन्तो रक्खइ । बइलो किसाणस्स मित्तं अस्थि । सो हलं सअडं य करिसइ । बइला खेत्तं करिसन्ति । धेरणु अम्हारण दुद्ध देइ । सा तरणारिण खाइऊरण बहुमुल्लं बलजुत्त आहारं देइ । अजा वि दुद्ध देइ । जणाण गिहेसु मज्जारा मूसा वि वसन्ति । मरुथले कमेला (ऊट्टा) संचरन्ति । वणे गया भमन्ति । तेसु अहिग्रं बलं हवइ। तत्थ सीहो वि गज्जइ। तस्स गज्जणेण मिग्रा धावन्ति । सिपाला गच्छन्ति । वाणरा साहाएसु कूदन्ति । सव्वे जीवा जीविउं इच्छन्ति, रण मरिउं । असो तेसु अभयं भविअव्वं । ते सहावेण हिंसा रण सन्ति । अमएव के वि जीवा ण पीडिअव्वा । 20 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास (क) पाठ में से दस शब्दों को छांटकर उनकी विभक्ति और वचन लिखिए :1- जीवा प्रथमा ब.व, 2. ते प्रथमा (मर्व0) ब.व. ........ 7- .... ... ........ 8. ........ ........ (ख) पाठ के संख्यावाची शब्द लिखकर उनके अर्थ लिखो : ............ एग ............. दोष्णि = दो = एक ..........." ............. (ग) पाठ की नई क्रियाएं छांटकर उनके अर्थ लिखो :क्रिया अर्थ त्रिया अर्थ क्रिया अर्थ (घ) प्राकृत में अनुवाद करो : राम गाँव को जाता है। वे फलों को खाते हैं। राजा के द्वारा कार्य होता है। कवि काव्य लिखता है। बालक भाई के साथ विद्यालय जायेगा। यह दूध उस पुत्र के लिए है। वह कमल उस कन्या के लिए है। सोहन की पुस्तक कहाँ है ? मनुष्यों का मित्र कौन है ? हाथी में शक्ति है। फूलों में सुगन्ध है। बृक्षों से पत्ते गिरते हैं । कमल से पानी गिरता है। वह मुझ से धन मांगता है। (अ) पाठ में पाये विभिन्न जीवों का मानव-जीवन में क्या महत्त्व है, इसे अपने शब्दों में लिखिए। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 4 : अम्हाण पुज्जणीआ जरणा सगुणेहि पुज्जणीया हवन्ति । मारग वजीबरणे गुरुणा, पिनरस्स, जरणगीए ठाणं महत्तपुण्ण अस्थि । जग्रो ते अम्हाण पुज्जणीमा सन्ति । सव्वेसु धम्मेसु गुरूण ठाणं उच्चं अस्थि । गुरुणा बिरणा को गाणं लहिहिइ? गुरुणो अम्हारण दोसारिण दूरं करन्ति । स-उवदेसजलेण अम्हाण बुद्धि पक्खालयन्ति । जा सीसा गुरूण समीवे पढिउं गच्छन्ति ता ते एवं उवदिसन्ति-'सच्चं बोल्लह । धम्म कूरणह । सज्झाए पमायं मा कूरणह । सया देसस्स धम्मस्स सेवं कुणह।' अग्रएव गुरुणो अम्हारण मग्गदरिसमा सन्ति । जे सीसा स गुरुणा सेवं करन्ति, तेसु सद्ध करन्ति, ताहिन्तो गाणं गिण्हन्ति । ते सया लोए सुहं लहन्ति । अम्हारण जीवणे पिअरस्स ठाणं वि महत्तपुण्णं अत्थि । पिअरो अम्हाण पालनो अस्थि । सो नियएण परिस्समेण धणेण य अम्हे पालइ रक्खइ य । पिपरो कुडुम्बस्स पहाणो हवइ । अग्रो अम्हेहि तस्स आरणं सपा पालगी। पिअरो केवलं पालो ग होइ, किन्तु सो बालग्राण मित्तो, विज्जादामा वि हवइ । पिपरो सपा कुटुम्बस्स कल्लाणं चिन्तइ । अग्नो गुणवन्ता पुत्ता पिअरे सद्ध करन्ति, तस्स पाणं मण्णन्ति तहा सेवं करन्ति । ___ अम्हाण पुज्जणीएसु जगणीए ठाणं सवोच्चं अत्थि । माया सिसु केवलं ण जम्मइ, किन्तु सा तस्स निम्माणं करइ । माया अम्हे जगणइ । अम्हे माअाअ दुद्ध पिबामो। माअाय दुद्ध सिसुणा जीवणं हवइ । जगणी सिसुरणेहं कुणइ । सा सधे दुक्खं सहइ, किन्तु कमावि सिसुदुक्खं रण देइ । अग्रो लोए पसिद्ध-'मात्रा कमावि कुमाया रण हवइ ।' जे पुत्ता जगणीए आणं पालन्ति, तात्र सेवं कुणन्ति, ते लोए सुपुत्ता हवन्ति । इमा पुढवी वि जणस्स मात्रा अस्थि । अम्हे भारअमाआअ पुत्ता सन्ति । अथएव जम्मभूमीए रक्खरणं अम्हारण कत्तव्वं अस्थि । अम्हाण इमं कत्तव् अस्थि जो अम्हे गुरूण, पिअरस्स, जणणीए एवं जम्मभूमीए प्रायरं सेवं य कुरणमो । इमे अम्हारण पुज्जणीमा सन्ति ।। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास (अ) पाठ में से सातों विभक्तियों के शब्द छांटकर लिखो : .... .... .. ........... ........................ प्रथमा ........................ ......... ...... ........... .... ..... .... .. द्वितीया .... तृतीया चतुर्थी पंचमी .... ................. .... .......................... पष्ठी .... ....... .... ........ सप्तमी ...... नों के उत्तर अपने शब्दों में लिखो : (क) गुरु शिष्यों को क्या उपदेश देते हैं ? (ख) पिता अपने कुटुम्ब के लिए क्या करता है ? (ग) माता के सम्बन्ध में क्या प्रसिद्धि है ? (घ) हमें पूज्यनीय व्यक्तियों के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए ? इ) प्राकृत में अनुवाद करो : वह मुझे देखता है। मैं उसे नमन करता हूँ। तुम ईश्वर को नमन करो। जीवों को मत मारो। मैं हाथ से पत्र लिखता हूँ। वह जीभ से फल चखती है। छात्र पुस्तकों के लिए धन माँगता है। बच्चा माता से डरता है। बृक्षों से पत्ते गिरते हैं। उन शरीरों में प्राण हैं। नदियों में पानी है। बालिकाओं का विद्यालय कहाँ है ? कमलों के लिए बच्चा रोता है। हम वहाँ पढ़ेगे। तुम कहाँ खेलोगे । वह वहाँ नहीं गया। वे सब आज पुस्तकें पढ़े। प्राकृत गद्य-सोपान 23 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) प्राकृत गद्य - संग्रह पाठ 5 : विज्जाविहीणो नस्सह पाठ परिचय : प्राकृत के आगम ग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र की व्याख्या करने के लिए 12 वीं शताब्दी के विद्वान् नेमिचन्द्रसूरी ने सुखबोधाटीका लिखी है । इसमें कई सुन्दर कथाएँ हैं । जर्मनी के विद्वान् हर्मन जैकोबी ने इस ग्रन्थ की कथाओं का संग्रह प्रकाशित किया था। मुनि जिनविजय ने 'प्राकृत कथा - संग्रह' में इस टीका की कुछ कथा प्रस्तुत की हैं । इस कथा में एक अज्ञानी ग्रामीण विद्या-युक्त घड़े को सिद्ध पुरुष से मांग लेता है । वह सोचता है कि इस घड़े से वह सब वस्तुएँ प्राप्त कर लेगा । किन्तु उसने इस घड़े को बनाने की विद्या नहीं सीखी थी । अतः जब उसकी असावधानी से वह घड़ा फुट गया तो वह किसान बहुत दुखी हुआ । एगो गोहो अभग्ग - सेहरो प्रईव - दोगच्चेण बाहियो । किसिकम्माई करेंतस्स वि तस्स न किंचि फलइ । तम्रो वेरग्गेण निग्गश्रो हाम्रो लग्गो पुहई हिंडिउं । कुणइ अरोग - धरणोवज्जरगोवाए, परं न किंचि संपज्जइ । तो सो निरत्यय- परिब्भमणेण निव्विण्णो पुणरवि घरं पडिरिणयत्तो । एम्मिगामे देवालए रति वासोवगयो । ताव देवालयाओ एगो पुरिसोनिग्गो चित्त - घड - हत्थ - गयो । सो एग-पासे ठाइऊरण तं चित्त-घडं पूइऊण भरगइ - 'लहुं मे परम रमणिज्जं वासहरं सज्जेहि ।' तेण तक्खरणमेव कयं । एवं समरणासण-धरण-धन्न- परियरणभोग - साहरणाई कारिनो । एवं जं जं भरणइ तं तं करेइ चित्त घडो जाव पहाए पडिसाहरइ । तेगा गोहेण सो दिट्ठो । पच्छा सो चितेइ - " किं मज्भं बहुए 24 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभमिएण ? एयं चेव अोलग्गामि ।" तस्संतियं गंतूण तेण सो विरणएण पाराहियो। सो पुच्छइ-'किं करेमि ?" तेणं भण्णइ- 'अहं मंद-भग्गो, दोग्गच्चेण कय थियो, तुम्ह सरणमागो। ता तुम्ह पसाएण अहं एवं चेव भोगे भुजामि ” सिद्ध-पुरिसेणं चितियं- 'अहो! एसो वरानो अईव दारिद्द-दुहक्कतो । दुहियारणवच्छला हवंति महा-पुरिसा । अन्न च संपत्ति पावे उं कायवो सव्व-सत्त-उवयारो। अत्तोवयाल-लिच्छू उयरं पूरेइ कानो वि ।।।। ता करेमि इमस्स उवयारं' ति । तो तेण भण्णइ - "कि विज्ज देमि, उयाह विज्जभिमंतियघडयं?" तेण विज्जा-साहण-पुरच्चरण-भीरुणा मंद-बुद्धिरणा भोगतिसिएण भरिणयं"विज्जाहिमंतियं घडं देहि ।" तेरण दिनो। सो तं गहाय हटु-तुटु-मणो गयो सगासं । चितियं च तेण 'किं तीए सिरीए पीवराए जा होइ अन्न-देसम्मि । जा य न मित्तेहि समं जं चामित्ता न पेच्छन्ति ॥2॥' तत्थ बंधूहि मित्तेहि य समं जहाभिरुइयं भवरणं विउविऊण भोगे भुजंतो मच्छइ । सो कालंतरेण अइ-तोसेण घडं खंधे काऊण "एयस्स पहावेण अहं बंधु-मज्झे पमोयामि" त्ति भरिणऊरण पासव-पीश्रो पणच्चियो । तस्स पमाएण सो घडो भग्गो। सो विज्जा-करो उवभोगो नट्ठो। पच्छा सो पलईभूय-विहवो पर-पेसरगईहिं दुक्खागि अणुहवइ । जइ पुरण सा विज्जा गहिया हुंता तो भग्गे वि घडे पुणो करितो ।* * उत्तराध्ययन सुखबोधाटीका (नेमिचन्द्रसुरि), निर्णयसागर प्रेस, 1937 . पाना 110-111। 25 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास 1. शब्दार्थ : गोहो = ग्रामीण पोलग्ग = सेवा करना उवयाल = हित पीवर = अधिक पलई = नष्ट बाहिरो = पीड़ित वासहरं = महल दोग्गच्च = दुर्गति प्रत्त = अपना लिच्छ = चाहने वाला उयाहु = अथवा विउव्व = बनाना तोस = संतोष पेसरगई = प्रयोजन भग्ग = नष्ट भर 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. ग्रामीण ने सिद्ध-पुरुष से मांगा - (क) धन (ख) विद्या (ग) विद्या से युक्त घड़ा (घ) भवन [ ] 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. ग्रामीण ने देवमन्दिर में किसे देखा ? 2. सिद्ध-पुरुष को देखकर ग्रामीण ने क्या सोचा ? 3. ग्रामीण से सिद्ध-पुरुष ने कौन-सो वस्तु लेने के लिए पूछा ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) विद्यायुक्त घड़े से क्या-क्या प्राप्त होता था ? (ख) महापुरुष का स्वभाव कैसा होता है ? (ग) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखिए । प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 6 : लोहस्स न अन्तो पाठ-परिचय : उत्तराध्ययन सुखबोधाटीका में नेमिचन्द्रसूरि ने कई शिक्षाप्रद कथाएं दी हैं। इस कथा में बतलाया गया है कि कपिल अपने नगर से दूर शिक्षा प्राप्त करने गया था, ताकि वह अपनी माँ का दुःख दूर कर सके । किन्तु वह वहाँ शिक्षा की उपेक्षा कर भोजन कराने वाली स्त्री को खुश करने के लिए धन कमाने के लोभ में पड़ गया। दो माशा स्वर्ण की जरूरत होने पर वह लाखों-करोड़ों की इच्छा करने लगा। फिर भी लोभ का कोई अन्त नहीं था। अत: कपिल को अन्तःप्रेरणा से सद्बुद्धि आ गयी और वह लोभ को छोड़कर ज्ञानार्जन में लग गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी नाम नयरी। जियसत्त राया। कासवो उवज्झायो विज्जाठाणपारगो राइगो बहुमो। वित्ती से उवकप्पिया । तस्स जसा नाम भारिया । तेसिपुत्तो कविलो नाम । __ कासवो तम्मि कविले खुड्डलए चेव कालगयो। ताहे तम्मि मए तं पयं राइणा अन्नस्स विप्पस्स दिन्न । सो य आसेरण छत्तेण य धरिज्जमारणेण वच्चइ । तं दट्ट ण जसा परुण्णा । कविलेण पुच्छिया। ताए सिट्ठ जहा'पिया ते एवं विहाए इड्ढीए निग्गच्छियाइनो, जेण सो विज्जासंपन्नो।' ___ सो कविलो भणइ- 'अहं पि अहिज्जामि ।' सा भरणइ- 'इह तुम मच्छरेण न कोइ सिक्खावेइ, वच्च सावत्थीए नयरीए पिउमित्तो इंददत्तो नाम उवज्भारो सो तुमं सिक्खावेही ।' सो गो सावत्थीं, पत्तो य तस्स समीवं, निवडियो चलणेसु । पुच्छियो- 'को सि तुमं?' तेण जहावत्तं कहियं । विणयपुव्वयं च पंजलिउडेण भणियं- 'भयवं! अहं विज्जत्थी तुम्हं तायनिविसेसाणं पायमूलमागो। करेह मे विज्जाए अज्झावरणेण पसायं ।' उवज्झाएण वि पुत्तयसिणेहमुव्वहंतेण भरिणयं- 'वच्छ! जुत्तो ते कृत गद्य-सोपान 27 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जागहरगुज्जमो, विज्जाविहीरणो पुरिसो पसुरगो निव्विसेसो होइ । इहपरलोए य विज्जा कल्लारणहेऊ । ता प्रहिज्जसु विज्जं साहीरणा रिण य तुह सव्वाणि विज्जासाहारिण, परं भोयरणं मम घरे निष्परिग्गहत्तणम्रो नत्थि । तमंतरेण न संपज्जए पढरणं ।' तेरण भरिणयं - 'भिक्खावित्तेण वि संपज्जइ भोयणं ।' उवज्झाएरण भरियं- 'न भिक्खावित्तीहि पढिउं सक्किज्जए, ता आगच्छ पत्थेमो किंचि इब्भं तुह भोयर निमित्तं ।' गया ते दो वि तन्निवासिणो सालिभ इन्भस्स सयासं । कया उवसत्थी । पुच्छिम्रो इब्भेण पप्रोयणं । उवज्झाएण भरिणयं - 'एस मे मित्तस्स पुत्तो कोसंबीश्रो विज्जत्थी प्रागयो । तुज्झ भोएण निस्साए हिज्जइ विज्जं मम सयासे । तुज्झ महंतं पुण्णं विज्जोवग्गहकरणेण ।' सहरिसं च पडिवन्न तेण । सो कविलो तत्थ जिमिउं जिमिउं प्रहिज्जइ । एगा दासी तस्स परिवेसइ । अन्ना सा दासी उव्विग्गा दिट्ठा । तेण पुच्छित्रा - 'कम्रो ते अरई ?" तीए भणियं - 'मम समीवे पत्त- फुल्लागं वि मोल्लं नत्थि । सहीण मज्मे विपि तुमं मज्झ किंचि धरणं प्राह । एत्थ धरणो नाम सेट्ठी । अप्पहाए चेव जो गं पढमं वद्धावेइ सो तस्स दो सुवव्णमासए देइ । तत्थ तुमं गंतूरण वद्धावेहि ।' । 'आम' ति तेण भरिए तीए सो प्रइपभाए तत्थ पेसियो । वच्चंतो य आरक्खियपुरिसेहि' गहिलो बद्धो य । तो पभाए पसे इस्स सो उवणी | राणा पुच्छिन । तेण सब्भावो कहियो । राइगा भरिणयं'जं मग्गसि तं देमि ।' सो भरणइ 'चितिउं मग्गामि ।' राइरणा 'तह' त्ति efore असोगवfरयाए चिंतेउमारद्धो 'दोहिं मासेहिं वत्थाभरणाणि न भविस्संति ता सुवण्णसयं मग्गामि । ते वि भवरण- जारणवाहणारं न भविस्संति ता सहस्सं मग्गामि । इमेण वि डिंभरुवाणं परिणयगाइवम्रो न पूरेइ ता लक्खं मग्गामि । एसो वि सुहि 28 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण-बन्धु- सम्मारणदीरगागाहाइ दारण - विसिट्ठ-भोगोवभोगारण रण पज्जत्तो ता कोडि कोडिस कोडसहस्सं वा मग्गामि । ' एवमाइ चिततो सुहकम्मोदएण तक्खरणमेव सुहपरिणाममवगयो संवेगमावन्नो लग्गो परिभाविउं- 'अहो ! लोभस्स विलसियं, दोण्ह सुवण्णमासारण कज्जेणागम्रो लाभमुवद्वियं दठ्ठ रण कोडीहि पि न उवरमइ मणोरहो । अन्न ं च विज्जापढगत्थं विदेसमागम्रो जाव तात्र अवहीरिकरण जरा रिंग, अवगरिणऊण उवज्झाय हिय उवएसं अवमन्निऊरण कुल एएण लोहेण जारामारणोवि मोहियां ।' इय चितिकरण सो कविलो आगो राइसगासं । राइगा भरिणयं किं चितियं ?' ते य निय मरणो रह - वित्थरो कहियो । * 1. शब्दार्थ : खुड्डलश्र = छोटा साहीरा == प्राप्त अरई * दु:ख डिभरूव = सन्तान 2 वस्तुनिष्ठ प्रश्न : = अभ्यास प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International सिट्ठ इब्भं विगुप्प पज्जत = कहा धनी श्रज्भावरण= अध्यापन निस्सा = आश्रय == सरलता विस्तार लज्जित होना सम्भाव पर्याप्त विलसियं सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. कपिल के पिता को राज्य-सम्मान प्राप्त था (क) धनी होने के कारण (ख) ब्राह्मण होने के कारण (ग) बलशाली होने के कारण (घ) विद्या- सम्पन्न होने से उत्तराध्ययन सुखबोधाटीका ( नेमिचन्द्रसूरि) निर्णयसागर प्रेस, 1937 qrar 124-125 1 = For Personal and Private Use Only [ ] 29 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1- कपिल को उसकी माता ने कहाँ भेजा था ? 2- कपिल के भोजन की व्यवस्था किसने की ? 3- कपिल में धन का लोभ किसने जागृत किया ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) कपिल विद्याध्ययन के लिए क्यों गया ? (ख) लोभ में पड़ जाने पर कपिल ने क्या सोचा ? (ग) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखिए। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 7 : असंतोसस्स दोसो पाठ-परिचय : प्राकृत भाषा के जो आगम ग्रन्थ प्राप्त होते हैं उनमें उत्तराध्ययन एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की व्याख्या के लिए जिनदासगणि महत्तर ने उत्तराध्ययनरिण की रचना लगभग 6-7 वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रन्थ में प्राकृत गद्य में कई कथाएं हैं । उन्हीं में से यह कथा यहाँ प्रस्तुत क गयी है। ___ इस कथा में दो पड़ोसी वृद्धा स्त्रियों के ईर्ष्याभाव को प्रकट किया गया है। संतोष न होने से एक बूढ़ी स्त्री अपने देवता से ऐसा वर माँगती है कि उससे दुगना नुकसान उसकी पड़ोसिन को हो। इस दुष्ट प्रवृत्ति से वह स्वयं लूली-लंगड़ी हो जाती एगा छारण-धारिया थेरी होत्था। तीए एगो बाणमंतरो तोसियो। तेरा थेरि वरो दिनो। सा जागिण छाणाणि पल्लत्थेइ ताणि रयणाणि होन्ति । सा थेरी इस्सरी जाया । तीए चाउस्सालं घरं कारियं । थेरीए समोसियाए पुच्छियं- 'किमयं ?' ति । तीए भरिणयं-जहा तहं । ताहे सा वि एवं चेव वाणमंतरं पाराहिउं पवत्ता। पाराहियो वाणमंतरो भरण इ- 'किं करेमि ?' तीए भणियं- 'जइ पसानो ता समोसियथेरीए जो वरो दिन्नो सो मम दुगुणो होउ ।' वाणमंतरेण भरिणयं-- ‘एवं होउ ।' जं जं पढम थेरी चितेइ तं तं समोसियाए थेरीए दुगुणं होइ। तो तीए पढम थेरीए नायं जहा-- 'एयाए वरो लद्धो ममाहितो दुगुणो।' सा इमं जारिणऊरण तं असहती पुणो तं देवं भणइ-- 'मम चाउस्सालं गिह फिट्टउ । तण-कुडिया मे भवउ ।' तो इएरीए थेरीए दो तरणकूडियानो निम्मियानो । चाउस्सालागि घराणि फिट्टारिण। 'प्राकृत गद्य-सोपान 31 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं थेरी पुणो चिंतेड़-- 'मह एक्कमच्छि कारणं होउ ।' इयरीए दो वि च्छोरण कारिण भूयारिण । पुरणो विसा चितेइ - 'मम एगो हत्थो भवउ ।' समोसियाए दो वि हत्या नट्टा | पुरणो सा चितेइ - 'मम एगो पाओ होउ ।' समोसियाए थेरीए दो विपाप्रा नट्ठा | सापडिया अच्छइ । 1. शब्दार्थ : 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सिरी मतिमं तुस्से श्रइ सिरिं तु न पत्थए । इ - सिरिमिच्छंतीए थेरीए विणासि अभ्यास == कण्डा छारण समोसिय= पड़ौसी इयरो = दूसरी * 32 पल्लत्थ = पार्थना नायं अच्छी सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1- पहली बूढ़ी स्त्री को व्यंतर ने (क) सुन्दर होने का (ग) धनवान होने का 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : = ज्ञात किया आँख Jain Educationa International = वर दिया था प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए: 1- दूसरी पड़ौसिन ने व्यंतर से क्या वरदान मांगा ? 2- पहली वृद्धा ने अपना भवन क्यों गिरवा दिया ? अप्पा ||1|| * (ख) बुद्धि प्राप्त करने का (घ) ईर्ष्या करने का 4. निबन्धात्मक प्रश्न : ( क ) व्यंतर ने प्रथम वृद्धा को क्या वरदान दिया ? (ख) प्रथम बृद्धा ने अपनी पड़ोसन के नुकसान के लिए क्या किया ? (ग) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखो । उत्तराध्ययनरिंग (जिनदासगरि महत्तर) रतलाम, 1933 से उद्धत इस्सरी : फिट्ट पात्र For Personal and Private Use Only =धनवान स्त्री = नष्ट होना = पैर [ ] प्राकृत गद्य-सोपान Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 8 : मेरुप्पभस्स हत्थिणो अणुकंपा पाठ-परिचय : ज्ञाताधर्मकथा प्राकृत आगम ग्रन्थों में प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें भगवान् महावीर के उपदेशों को कथाओं और दृष्टान्तों के द्वारा समझाया गया है। इस ग्रन्थ की रचना ईसा के पूर्व 2-3 री शताब्दी में हो चुकी थी। इस ग्रन्थ में प्रमुख रूप से 19 कथाएं हैं। उनमें एक मेधकुमार की कथा है, जिसमें उसके वैराग्यपूर्ण जीवन का वर्णन है। इस मेघकुमार की कथा में उसके पूर्व-जन्मों की कथा भी भगवान् महावीर द्वारा कही गयी है । उसमें एक बार मे वकुमार मेरुप्रभ हाथी था। मेरुप्रभ हाथी ने एक बार जंगल में आग लग जाने पर स्वयं कष्ट सहकर एक खरगोश के जीवन की रक्षा की थी। जीव-रक्षा के प्रति उसकी इसी अनुकम्पा का वर्णन इस कथा में है। इस गद्यांश की भाषा अर्धमागधी प्राकृत है। तए णं तुमं मेहा! पुत्वभवे चउद्दते मेरुप्पभे नाम हत्थी होत्था । अन्नया तं वरणदवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था- 'तं सेयं खलु मम इयारिंग गंगाए महानदीए दाहिणल्लंसि कूलंसि विझगिरिपायमूले दवग्गिसंजायकारणट्ठा सएणं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए' त्ति कटु एवं संपेहेसि । संपेहित्ता सुहं सुहेणं विहरसि । अन्नया कयाइं कमेण पंचसु उउसु समइक्कतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूले मासे पायव-संघस-समुट्ठिएणं संवट्टिएसु मिय-पसु-पक्खि-सिरीसिवेसु दिसोदिसि विप्पलायमाणेसु तेहिं बहूहि हत्थीहि य सद्धि जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमरणाए। तत्थ णं अण्णे बहवे सोहा य, वग्घा य, विगया दीविया, अच्छा य, रिच्छतरच्छा य, पारासरा य, सरभा य, सियाला, विराला, सुणहा, कोला प्राकृत गद्य-सोपान 33 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससा, कोकंतिया, चित्ता, चिल्लला पुव्वपविट्ठा अग्गिभयविदुया एगयो बिलधम्मेणं चिट्ठति । तए णं तुम मेहा! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छिसि, उवागच्छत्ता तेहिं बहूहिं सीहेहि चिल्लएहिं य एगयो बिलधम्मेणं चिट्ठसि । तए णं तुमं- 'पाएणं गत्तं कंडुइस्सामि' त्ति कटटु पाए उक्खित्ते, तंसि च णं अंतरसि अन्नहिं बलवंतेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमाणे ससए अरणुपविट्ठ तुम 'गायं कंडुइत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामि' त्ति कटु तं ससयं अणुपविट्ठ पाससि पासित्ता पाणाणुकंपयाए भूयारणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपाए से पाए अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं रिण क्खित्ते । तए तुमं ताए पाणाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए माणुस्साउए निबद्ध । तए णं से वरणदवे अड्ढाइज्जाइं राइंदियाई त वरणं झामेइ, झामेत्ता निट्ठिए-उवरए, उवसंते विज्झाए यावि होत्था । तए णं ते बहवे सीहा य चिल्ला य तं वणदवं निट्ठयं विज्झायं पासंति, पासित्ता अत्गिभयविप्पमुक्का तण्हाए य छुहाए य परब्भाहया समारणा तो मंडलायो पडिनिक्खमंति । पडिनिक्खमित्ता सव्वो समंता विप्पसरित्था। तए णं तुम मेहा! जुन्न जरा-जज्जरियदेहे सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते दुब्बले किलते भुजिए पिवासिए अत्थामे अबले अपरक्कमे अचंकमणे वा ठारगुखंडे- 'वेगेण विप्पस रिस्सामि' त्ति कटु पाए पसारेमाणे विज्जुहए विव रययगिरिपब्भारे धरणियलंसि सव्वंगेहि य सन्निवइए। तए णं तव सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया। तिन्नि राइंदियाइं वेयरणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेरिणयस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए ।* * ज्ञाताधर्मकथा (सं०- पं० शोभाचन्द भारिल्ल) ब्यावर, 1981 पृ० 83-88 । 34 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. शब्दार्थ : प्रज्झतिथए उउ दोविया ससए काम - चिन्तन ऋतु चीते खरगोश = जलना 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : Jain Educationa International अभ्यास प्राकृत गद्य-सोपान जूह सिरोसिव कोकंतिया = गायं विज्झायं = = समुदाय सरकने वाले लोमड़ी शरीर बुझा हुआ सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1- जंगल में आग लगने पर खरगोश ने शरण ली ( क ) शेर की गुफा में (ख) जमीन के नीचे (ग) हाथी के पैर के नीचे (घ) घास की झोपड़ी के नीचे - प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1- मेरुप्रभ हाथी ने जंगल में मैदान क्यों बनाया 2- उस मैदान में मेरुप्रभ हाथी ने अपना पैर क्यों उठाया ? 3- मेरुप्रभ को अनुकम्पा करने पर क्या फल मिला ? घाइत्तए = बनाऊ पहारेत्थ दौड़े पाय पैर संधारिए = धारण किया प्रत्थामे शक्तिहीन ** 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) मेरुप्रभ हाथी ने जंगल की अग्नि को देखकर क्या किया ? ( ख ) मेरुप्रभ ने खरगोश के जीवन की रक्षा के लिए क्या कष्ट सहे ? ( ग ) 'प्राणी - रक्षा' पर 10-15 पंक्तियाँ लिखिए । For Personal and Private Use Only - [ ] 35 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 9 : नंदमणिआरस्स जरासेवा पाठ-परिचय : जाताधर्मकथा में एक ओर धर्म कथाएँ हैं तो दूसरी ओर लौकिक जीवन के भी कई दृष्टान्त हैं। तेरहवें अध्ययन की दर्दु रक (मेंढक) की कथा के प्रसंग में नंद नामक मणिकार (स्वर्णकार) की कथा वरिणत है । इस कथा में बतलाया गया है कि एक बार नंद को बहुत प्यास लगी। उमसे दुःखी होकर उसने सोचा कि भूख-प्यास से बहुत से प्राणी दुःखी होते हैं। अत: उनके लिए प्याऊ एवं भोजनशाला आदि बनवानी चाहिए। इसी भावना से नंद ने एक बावड़ी, एक बगीचा, एक चित्रसभा (मनोरंजनशाला), एक रसोइशाला, एक औषधालय और एक अलंकारसभा (सेवाकेन्द्र) बनवायी। इनके द्वारा जनता की उसने निस्वार्थ भाव से सेवा की। नंद के इन्ही लोक-कल्याणकारी कार्यों का वर्णन इस कथा में है। इस गद्यांश की भाषा अर्धमागधी प्राकृत है । पोक्खरिणी : तएणं गंदे सेणिएणं रण्णा अब्भणूण्णाए समारणो हट्ठ-तुट्ठ राजगिहं मज्झमझणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता वत्थुपाढयरोइयंसि भूमिभागसि णंद पोक्खरिरिंग खणाविउं पयत्ते यावि होत्था । तएणं सा गंदा पोक्खरिणी अणुयुवेणं खणमाणा-खरणमारणा पोक्खरिणी जाया यावि होत्था-चाउकोणा, समतीरा, अणुपुवसुजायवप्पसीयलजला, संछण्णपत्तविस-मुणाला, बहुप्पल-पउम-कुमुदनलिणीसुभगसोगंधिय-पुडरीय-महापुंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्त-पफुल्लकेसरोववेया, परिहत्थ-भमंत-मत्तछप्पय-प्रणेग-सउरणगरण-मिहुण-वियरिय-सदुन्नइय-महुरसरनाइया, पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । 36 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरणसंडा : त्तएरणं से रणंदे मरिणयारसेट्ठी गंदाए पोखरिणीए चउद्दिसि चत्तारि चरणसंडे रोवावेइ। तएण ते वरणसंडा अरणुपुत्वेणं सारक्खिज्ज मारणा य संगोविज्जमाणा य संवड्ढियमारणा य वसंडा जाया किण्हा निकुरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरिय ग रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमारणा चिट्ठति । चित्तसभा: तएणं णंदे मणियारसेट्ठी पुरच्छिमिल्ले वणसंडे एगं महं चित्तसभं कारावेइ, अरणेगखंभसयसंनिविपासादीयं दरिसणिज्ज अभिरूवं पडिरूवं । तत्थ रणं बहरिण किण्हारिण य नीलागि य लोहियारिण य हालिद्दारिण य सुक्किलारिण य कटठकम्मारिग य पोत्थकम्माणि य चित्तकम्माणि य लिप्पकम्मारिण य गंथिम-वे ढिम-पूरिम-संघाइमाइं उवदंसिज्जमारणाई उवदंसिज्जमारणाई चिट्ठन्ति । ___ तत्थ णं बहूणि पासणाणि य सयगीयारिण य अस्थुयपच्चत्थुयाई चिट्ठति । तत्थ णं बहवे नडा य गट्टा य जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलवंग-कहगपवग--लासग-माइक्खग-लंख-मंख-तूरणइल्ल-तुबवीरिणया य दिनभइभत्तवेयरणा तालायरकम्मं करेमारणा विहरंति । रायगिहविरिणग्गयो तत्थ बहुजणो तेसु पुव्वन्नत्थेसु पासणसयणेसु संनिसन्नो य संतुयट्ठो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ । महारणससाला: तएणं णंदे मणियार सेट्ठी दाहिरिगल्ले वरणसंडे एगे महं महारणससालं कारावेइ, अणेग-खंभसय-संनिविट्टपासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूबं पडिरूवं । तत्थ रणं बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयरणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खणेति, बहूणं समरण-माहण-अतिहि-किवणवणीमगाणं परिभाएमाणा परिभाएमाणा विहरति । प्राकृत गद्य-सोपान 37 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेगिछियसाला: तएणं णंदे मणियारसेट्टी पच्चथिमिल्ले वरणसंडे एग मह तेगिच्छियसालं कारेइ, अणेगखंभसयसन्निविट्ठ षडिरूवं । तत्थ रणं बहवे वेज्जा य, वेजपुत्ता य, जाणुया य,जाणुयपुत्ता यं, कुसला य, कुसलपुत्ता य, दिनमइभत्तवेयरणा बहूणं वाहियारणं, गिलाणारण य, रोगियारण य, दुब्बलारण य तेइच्छं करेमारणा विहरंति । अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेवणा तेसिं प्रोसह-भेसज्ज-भत्त-पारणेणं पडियारकम्मं करेमारणा विहरति । अलंकारियसभा : तएणं वंदे मणियारसेट्ठी उत्तरिल्ले वसंडे एगं महं अलंकारियसभं कारेड, अणेगखंभसयसन्निविट्ठ पडिरूवं । तत्थ रणं बहवे अलंकारिय पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा बहूरणं समरणाण य, प्रणाहारण य,गिलाणारण य, रोगियाण य, दुब्बलारण य अलंकारिय कम्मं करेमाणा विहरंति। तए णं तीए णंदाए पोक्खरिणीए बहवे सणाहा य, अरणाहा य, पंथिया य, पहिया य, करोडिया य, कारिया य, तणाहारा य, पत्तहारा य, कट्टहारा य, अप्पेगइया पहायंति, अप्पेगइया पारिणयं पियंति, अप्पेगइया पारिणयं संवहंति, अप्पेगइया विसज्जिय सेयजल्ल-मल्ल-परिस्समनिद्दखुष्पिवासा सुहंसुहेशं विहरंति । रायगिहविरिणम्गो वि जत्थ बहुजणो कि ते ? जलरमण-विविहमज्जण-कयलिलयाघरय-कुसुमसत्थरय अणेग सउणगणरुयरिभितसंकलेसु सुहसुहेणं अभिरममाणो अभिरममारणो विहरइ । तएणं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य, पीयमाणो, पागियं च संवहमाणो य अन्नमन्न एवं वयासी-धण्णे णं देवाणुप्पिया! गंदे मणियारसेट्टी, कयत्थे, जम्मजीवियफले जस्स णं इमेयारूवा गंदा पोक्खरिणी जत्थ बहुजणो पासणेसु य सयणेसु य सन्निसन्नो य संतुयट्ठो य पेच्छमाणो य 38 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ । सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले गंदस्स मरिणयारस्स। तए णं गंदे मणियारे बहुजणस्स अतिए एयमट्ट सोच्चा हट्टतुट्टे धाराहयकलंबगं पिव समूससियरोमकूवे परं सायास्रोक्खमणुभवमाण बिहरइ ।* अभ्यास 1. शब्दार्थ : अब्भरएण्रपाए = आज्ञा प्राप्त कर छप्पय = भौंरा तालायर नाटक चरणीमग = भिखारी गिलास = अशक्त रोगी पडियारकम्म = सेवा कार्य अप्पेगइया = कोई-कोई परिहत्थ = जलजन्तु पुरिच्छमिल्ले = पूर्व दिशा में उवक्खड - पकाना जाण्या == जानकार तेइच्छ == चिकित्सा कारिया = मजदुर संघाडग = चौपाल 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का कमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. पथिकों को भोजन मिलता था(क) बावड़ी में (ख) चित्र-सभा में (ग) महानसशाला में (घ) अलंकार-सभा में [ ] । ज्ञाताधर्मकथा (सं०-पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल), व्यावर, 1981, पृ 342-346 । प्राकृत गद्य-सोपान 39 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. वावड़ी आदि का निर्माण किसलिए कराया गया ? 2. नंद मरिणकार ने कितने सेवा-केन्द्र बनवाये थे ? 3. इन सेवाकेन्द्रों से कौन व्यक्ति लाभ लेते थे? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) नंद मणिकार द्वारा बनवायी गयी संस्थाओं की उपयोगिता पर निबन्ध लिखिए। (ख) जन-सेवा के महत्त्व को अपने शब्दों में लिखिए। (ग) पाठ के आधार पर किसी एक सेवाकेन्द्र का वर्णन कीजिए। 40 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 10 : कण्हेण थेरस्स सेवा पाठ-परिचय: प्राकृत के आगम ग्रन्थों में एक आगम ऐसा है, जिसमें संसार-भ्रमण का अन्त करने वाले अहंतों (महापुरुषों) की कथाए हैं। इस ग्रन्थ का नाम अन्तकृद्दशा है । इसकी रचना ईसा की 4-5 वीं शताब्दी के लगभग हो चुकी थी। इस ग्रन्थ में गजसुकुमाल की कथा है, जो श्रीकृष्ण वासुदेव के समय में हुए थे। उसी प्रसंग में श्रीकृष्ण की करुणा और सेवाभाव का एक उदाहरण इस कथा में प्रस्तुत किया गया है। श्रीकृष्ण ने एक बूढ़े व्यक्ति के कार्य में स्वयं मदद की तो उनका अनुगमन करके उनके सभी मित्र भी सेवा में जुट गये। इस गद्यांश में अर्धमागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है । तए णं से कण्हे वासुदेवे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल-कमलकोमलुम्मिलियंमि, अह पंडुरे पभाए, रत्तासोगपगास-किसुय-सुय मुह-गुजद्धरागबंधुजीवग--पारावयचलण-नयणपरहुय--सुरत्तलोयणजासुमिणकुसुम-जलियजलण-तवणिज्जकलस-हिंगुलयनियर-रूवाइरे गरेहन्तसस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए, तस्स दिणकर-परंपरावयारपारद्धम्मि अधयारे, बालातव कुंकुमेणं खइए व्व जीवलोए, लोयणविसप्राणुप्रासविगसंत-विसददंसियम्मि लोए, कमलागरसंडबोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते, हाए, विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तोणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामरेहिं उद्धृवमारणीहिं महयाभड-चडगर-पहकरवंद-परिक्खित्त बारवई नयरिं मझ-मज्भेणं जेणेव अरहा अरिटुनेमी तेणेव पहारेत्थ गमरणाए। तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए नयरीए मझ-मज्झेणं निगच्छमाणे एक्कं पुरिसं जुण्ण जरा-जज्जरिय-देहं पाउरं झूसियं पिवासियं दुव्बलं किलितं प्राकृत गद्य-सोपान 41 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महइमहालयानो इट्ठगरासीमो एगमेगं इट्टगं गहाय बहिया रत्थापहाम्रो अतोगिहं अणुप्पविसमारणं पासइ ।। तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स पुरिसस्स अणुकंपणट्टाए हत्थिखंधवरगए चेव एग इट्टगं गेण्हइ, गिण्हित्ता बहिया रत्थापहामो अतोघरंसि अणुप्पवेसिए। तए रणं कण्हेणं वासुदेवेणं एगाए इट्ठगाए गहियाए समारणीए अणेगेहिं पुरिसेहिं से महालए इट्टगस्स रासी बहिया रत्थापहाम्रो अतोघरंसि अणुप्पवेसिए। __ तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए नयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ । अभ्यास 1. शब्दार्थ : तवरिणज्ज = स्वर्ण खइए = व्याप्त भूसियं = क्लान्त परहुय = कोयल संड = कमलवन महालए बड़े दिवागर= सूर्य सेय = सफेद रासि = समूह 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. श्रीकृष्ण ने वृद्ध की सहायता की(क) यश पाने के लिए (ख) बड़प्पन दिखाने के लिए (ग) वृद्ध का काम बंटाने के लिए (घ) मित्रों को प्रेरणा देने के लिए [ ] : अन्तकृद्दशा (सं.-साध्वी दिव्यप्रभा), ब्यावर,1981,पृ० 81-82 42 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : 72 प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए: 1. श्रीकृष्ण ने वृद्ध की क्या सहायता की ? 2. श्रीकृष्ण के मित्रों ने क्या किया ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) वृद्धों की सेवा करने का महत्त्व लिखिए । (ख) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखिए । प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 43 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 11 : कलहों विणास-कारणं पाठ-परिचय : प्राकृत आगम ग्रन्थों में निशीथ नामक एक ग्रन्थ है, जिसमें मुनियों के आचरण-सम्बन्धी नियम वरिणत हैं । इस निशीथ की व्याख्या के रूप में जिनदासगरिणमहत्तर ने लगभग 6-7 वीं शताब्दी में निशीथविशेषरिण लिखी है । इस ग्रन्थ में कई दृष्टान्त और कथाए दी गयी हैं। प्रस्तुत दृष्टान्त में दो गिरगिटों की लड़ाई का वर्णन है । कथाकार ने यहाँ उदाहरण प्रस्तुत किया है कि यद्यपि गिरगिट बहुत छोटे प्राणी हैं। उनके लड़ने से बड़े पशु एवं जानवरों के आराम में कोई विध्न नहीं पड़ना चाहिए। किन्तु कलह का कोई भरोसा नहीं, कब क्या रूप ले ले । इन दो गिरगिटों की लड़ाई ने सभी वनधर, थलचर एवं जलचर प्राणियों की शान्ति को नष्ट कर दिया था। अरण्णमझे अगाहजलं सरं जलयोवसहियं वरणसंडमंडियं । तत्थ य बहूरिण जलचर-खहचर-थलचराणि य सत्तारिण आसितागि । तत्थ य एगं महल्लं हत्थि जूहं परिवसति। अण्णता गिम्हकाले तं हथिजूहं पारिणयं पाउं हाउत्तिण्णं मन्झण्हदेसकाले सीयलरुक्खछायासु सुहंसुहेण पामुत्त चिट्ठति । तत्थ य अदूरे दो सरडा भंडिउमारद्धा। वणदेवयाए उ ते दळु सम्वेसि सभाए आघोसियं गागा जलवासिया, सुरणेह तसथावरा । सरडा जत्थ भंडंति, प्रभावो परियत्तई ।। 1 ।। देवयाए भरिणयं-'मा एते सरडे भंडते उवेक्खह, वारेह । तेहिं जलचरथलचरेहिं चितियं-'कि अम्हं एते सरडा भंडते काहिंति ?' तरथ य एगो सरडो भंडतो भग्गो पेल्लितो सो धाडिज्जतो सुहसुत्तस्स प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थिस्स बिले ति कारणासावुडे पविट्ठो । बितिम्रो वि पविट्ठो। ते सिरकबाले जुद्ध लग्गव । इत्थी विउलीभूतो महतीए असमाहीए वेयणट्ठो य ते वरणसंडं चूरियं । बहवे तत्त्थ वासिणो सत्ता घातिता। जलं च प्राडोहंतेण जलचरा घातिता । तलागणाली भेदिता । तलागं विट्ठ । जलचरा सव्वे विट्ठा ।* अभ्यास 1. शब्दार्थ : मंडिय = सुशोभित सरहा = गिरगिट वितिमो= दूसरप सत्त = प्राणी महल्लं = बेड़ा = लड़ना उवेक्ख - उपेक्षा करना खासावुड = नथुना तलाम = तालाब 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का कमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. सभी प्राणी सुखपूर्वक ठहरे थे(क) पेड़ पर (ग) वृक्षकुज में (घ) सड़क पर (ख) तालाब में निशीविशेषचूरिण (सं.--उपाध्याय अमरमुनि), आगरा, 1960, प्राकृत साहित्य का इतिहास (डा. जगदीशचन्द्र जैन ) पृ. 241 से उद्धत । मत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. वन देवता ने क्या घोषणा की थी ? 2. हाथी किस बात से क्रोधित हो गया ? 3. सभी प्राणियों के विनाश का कारण क्या था ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखिए । (ख) झगड़े से होने वाले नुकसान की कोई घटना लिखिए प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 12 : धुत्तो सागडिओ च पाठ-परिचय: जिनदासगरिण महत्तर ने दशवकालिकचूरिण नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें दशवकालिक के विषय को स्पष्ट किया गया है । उस प्रसंग में कई दृष्टान्त और कथाए इस चूरिण-ग्रन्थ में दी गयी हैं। प्रस्तुत कथा एक लौकिक कथा है । इसमें एक ग्रामीण किसान को शहर का एक धूर्त दलाल अपनी बुद्धि से संकट में डाल देता है। उसकी गाड़ी की ककड़ियां जूठी कर शर्त के अनुसार उससे नगर के दरबाजे से न निकलने वाली (इतना बड़ा) लड्ड मांगता है । तब वह गाड़ीवान एक बुद्धिमान् की मदद लेकर उस धूर्त की शर्त पूरी करता है। एगो मणूसो त उसारणं भरिएण सगडेरण नगरं पविसइ । सो पविसंतो धुत्त ण भण्णइ- 'जो य तउसाणं सगडं खाएज्जा तस्स तुमं किं देसि ?' ताहे सागडिएण सो धुत्तो भणियो- 'तस्स अहं तं मोदगं देमि जो नगरद्दारेणं न निप्फिडइ ।' धुत्तण भण्णइ- 'ताहे एयं त उससगडं खायामि । तुमं पुरण मोदगं देज्जासि जो नगरदारेण न निस्सरइ ।' पच्छा सागडिएण अब्भुवगए धुत्तण सक्खिरणो कया । सगडं अधि?तो, तेसिं तउसाणं एक्केक्काउ खंडं खंडं प्रवणेता पच्छा तं सागडियं मोदगं मग्गइ । ताहे सागडियो भरणइ-'इमे तउसा ना खइत्ता तुमे ।' धुत्त रण भरणइ'जइ न खइया तउसे अग्यवेहि तुमं ।' अग्धविएसु कइया आगया। पासन्ति खंडिया त उसा । ताहे कइया भरणंति-'को एते खतिए किणत्ति ?' । ततो कारणे ववहारे जानो। खत्तिय ति जितो सागडिनो। ताहे धुत्तेण मोदगं मग्गिज्जइ। अच्चइनो सागडियो। जुत्तिकए अोलग्गिता । ते प्राकृत गद्य-सोपान 24 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुट्टा पुच्छति । तेसिं जहावत्त सव्वं कहइ । एवं कहिए तेहि उत्तर सिक्खाविनो-जहा-'तुम खुडुलम मोयगं नगरदारे ठावेत्ता भरण-'एस. मोदगो सायं न निस्सरइ नमरदारेण, गिव्ह ति ।' लयो जिलो धुत्तो । अभ्यास 1. शब्दार्थ: उस = ककड़ी निफिड = निकलना लाहे = लब प्रभुवमए= स्वीकार अबरोता = तोड़कर अग्धव = बेचना खतिए = खाये हुए प्रच्चइयो = नहीं छोड़ा गया भरण = कहो खुड्डलमं = छोटा ठावेसा = रखकर गिण्ह = ग्रहण करो 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. ग्रामीण माडीवान को संकट में डाल दिया -. (क) नगर-रक्षक ने (ख) चुगी वसूल करने वाले ने जा ने (घ) चालाक धूर्त ने 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न: प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. धूर्त ने गाड़ीवान् से क्या शर्त लगाई ? 2. धूर्त ने माड़ी की पूरी ककड़ियां कैसे खा लीं ? 3. गाडीवान् ने धूर्त की शर्स कैसे पूरी की ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखो । (ख) 'जैसे के साथ तैसा' विषय पर कोई अन्य उदाहरण लिखो। - * दशवकालिक चूरिंग, रतलाम, 1933, प्राकृत साहित्य का इतिहास (डा. जैन) पू. 258 से उद्धत । 48 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 13 : कयग्घा वायसा पाठ-परिचय : प्राकृत का कथासाहित्य विशाल है। उसमें कई स्वतन्त्र कथा-ग्रन्थ लिखे गये हैं। उनमें संघदासपरिण द्वारा 2-3 री शताब्दी में लिखे गये वसुदेवहिण्डी नामक अन्य में श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भ्रमरण-वृतान्त का वर्णन है । उस प्रसग में इसमें कई कथाएं प्रस्तुत की गयी हैं। प्रस्तुत कथा में कृतघ्न कौओं की मनोवृत्ति को उजागर किया गया है। अकाल पड़ जाने से ये कौए अपने भानजे कापंजल के यहाँ चले जाते हैं, जहाँ उनको भोजन आदि मिलने लगता है। किन्तु अकाल समाप्त होने पर ये कौए बड़ी मुश्किल से अपने देश को लौटते हैं। और जाते समय यह कह जाते हैं कि हम इसलिए वापिस जा रहे हैं क्योंकि हमसे काजल का सौभाग्य नहीं देखा जाता है। . इनो य किर अतीते काले दुवालमवरसिमो दुब्भिक्खो पासि । तत्व बायसा मेलयं काऊरणं अण्णोण्णं भांति-'कि कायव्बमम्हेहिं ? वड्डो छुहमारो उवट्टिो, नस्थि जरणवएसु वायसपिंडयानो, अण्णं वा तारिसं किंचि न लब्भइ उज्झरणधम्मियं, कहियं वच्चामो ?' ति । तत्थ वुडढवायसेहिं भरिणयं-समुद्दतडं वच्चामो, तत्थ कायंजला अम्हं भायणेज्जा भवंति, ते अम्हं समुद्दामो भोयणं लाऊरण दाहिति । अण्णहा नत्थि जीवणोपायो' संपहारेत्ता गया समुद्दतडं । ततो तुदा कायंजलो, सागयाभागएण य सम्माणिया, कयं च तेसिं पाहण्रणयं । एवं ततो तत्थ कायंजली भोयरणं देति । वायसा तत्थ सुहेणं कालं गमेंति । ____तत्तो वत्त बारससंवच्छरिए दुब्भिक्खे जणवएस सुभिक्खं जायं । ततो तेहिं वायसेहिं संपहारेत्ता वायससंघाडो-'जरणवयं पलोएह' त्ति पेसियो। 'जइ सुभिक्खं भविस्सइ तो गमिस्सामो' । प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो य संघाडो अचिरकालस्स उवलद्धी करेत्ता मागतो । साहति च वायसारणं जहा- 'जगवएसु वायस पिंडयाओ मुक्कमारणीमो अच्छंति, उट्ठह, वच्चामो त्ति । ततो ते संपहारेंति-किह गंतव्वं?' ति । जइ प्रापुच्छामो नत्थि गमणं' एवं परिगणेत्ता कायंजले सद्दावेत्ता एवं वयासो- 'भागिणेज्जा! वच्चामो।' ततो तेहिं भणियं-'किं गम्मइ?' ततो ते भरणंति-'न सक्केमो पइदिवसं तुम्हं अहोभागं पासित्ता अणुट्ठिए चेव सूरे ।' एवं भरिणत्ता गया।* अभ्यास 1. शब्दार्थ : दुवालस = बारह मेलयं = झुण्ड वड्डो = भारी छ.हभारो = भुखमरी कहिय = कहाँ भायरणेज्जा= भनेज संपहारेत्ता = विचारकर वत्त = व्यतीत होने पर संघाडग्रो= मुखिया सद्दावेत्ता = बुलाकर वयासी = कहा पासित्ता = देखकर वस्तुनिष्ठ प्रश्न : का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. अकाल पड़ने पर कौओं की मदद की(क) गिद्धों ने (ख) आदमियों ने (ग) कोयल ने (घ) भानजे कापंजल ने [ ] * वसुदेवहिण्डी (सं०-मुनि पुण्यविजय), भावनगर, 1930,पृ0 33 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. लघुत्तरात्मक प्रश्न : . प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1, कौए अपना स्थान छोड़कर समुद्रतट पर क्यों गये ? 2. कौओं ने वापस लौटने पर अपने उपकारी भानजे को क्या कहा ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : ओं की कृतघ्नता पर अपने विचार लिखो। 5. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें : - 1. पिछले पाठों से कृदन्त छांटकर लिखें : भंडत = झगड़ते हुए गन्तूरण = जाकर : ............ ......... : 2. पिछले पाठों से समास छांटकर लिखें : गरजम्मंग रस्स + जम्म षष्ठी तत्पुरुष + .... ... + + प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 14 : सिप्पी कोक्कासो पाठ-परिचय : संघदासगरिण द्वारा रचित वसुदैवहिण्डी नामक प्राकृत कथा-ग्रन्थ में तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित भी कई कथाए हैं। उस समय काष्ठकला इतनी उन्नत थी कि लकड़ी के विमान बनाकर उन्हें आकाश में उड़ाया जा सकता था। प्रस्तुत कथा का नायक कोक्कास भी इसी प्रकार का कुशल शिल्पी था। उसने राजपुत्रों के साथ रहते हुए अपनी कुशाग्र बुद्धि से एक कलाचार्य से काष्ठकला सीख ली थी। कोक्कास ने एक यन्त्रकपोत विमान बनाया था, जिसमें उसके साथ बैठकर गजा भ्रमण करता था। उस विमान में चालक के साथ एक व्यक्ति ही बैठ सकता था। किन्तु एक दिन रानी भी अपनी हठ से उसमें बैठ गयो । इससे वह विमान मार्ग में टूटकर गिर पड़ा। कोक्कास की बात न मानने पर राजा-रानी दोनों दुखी हुए। अह सो कोक्कासो सएज्झयस्स सत्थसंजत्तयकुलस्स कोट्ठागस्स घरं गंतूण दिवगं खवेइ । तस्स य पुत्ता नागाविहाई कम्माइं सिक्खंति । तेण य पिउणा सिक्खाविज्जंता न गेण्हंति । ततो तेरण कोक्कासेण भरिणया-'एवं करेह एवं होउ' त्ति । ततो तेण आयरिएण विम्हियहियएण भणियो-'पुत्त! सिक्ख उवएसं ति । अहं ते कहेहामि ।' तो तेण भरणपो-'सामि ! जहा प्राणवेह' ति । ततो सिक्खिउं पयत्तो। पायरिय-सिक्खागुणेणं सव्वं कटुकम्म सिविखयो। निष्फण्णो य गुरुजणारगुण्णाम्रो पुणरवि सो वहणमारुहिऊरण तामलित्ति गतो। तत्थ य खामो कालो वट्टइ । ततो तेरण अप्पणो जीवणोवायनिमित्त रण्णो जाणावरणत्थं सज्जियं कवोयजुवलयं । ते य कपोइया गंतूण पइदिवसं प्रायासतले सुवकमारणं रायसंतियं कलमसालि चित्त ण एति । ततो रक्ख 52 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालेहिं धण्णं हीरमारणं दट्ट रणं रणो सत्तु दमणस्स निवेदितं। तेण य अमच्चा प्राणत्ता-'जारणह' ति । ततो तेहिं नीइकुसलेहिं प्रागमियं, निवेदितं च रणो- 'देव! कोक्कासघरस्स जंत-कवोय-मिहुरणयं घेत्त रणं णेइ । राइणा प्रारणत्ता-'पाणह' त्ति । प्राणीओ य सो पुच्छियो। कहिंयं च गणं सव्वं रणो अपरिसेसं । तो राइणा परितु?ण संपूइनो कोक्कासो, भरिणो य-'पागासगमं जंतं सज्जेहि त्ति । तेण दो वि जणा इच्छियं देसं गंतु एमो' ति । ततो तेण रणो प्रारणासमकालं जंतं सज्जियं । तहिं च राया सो य प्रारूढ़ो इच्छियं देसं गतूण इंति । एवं च कालो वच्चइ। __ तं च दटू गं राया अग्गमहिसीए विनविप्रो- 'अहं पि तुब्भेहिं समं प्रायासेण देसंतरं काउमिच्छामि।' ततो राइणा कोक्कासो वाहरिऊरणं भण्णइ'महादेवी अम्हेहि समं वच्चउ' त्ति । ततो तेण लवियं- 'सामि!' न जुज्जइ तइयस्स प्रारोटु, दोन्नि जणे इम जारणवत्त वहइ' त्ति । ततो सा निब्बंध करेइ । वारिज्जंती वि अप्पच्छंदिया, रायाय प्रबुहो तीए सह समारूढो । ततो कोक्कासेण लवियं- 'पच्छायावो भे, खलियमवस्सं भविस्सइ' त्ति भरिणऊरण प्रारूढेण कड्ढियानो तंतीमो, अहया जंतकीलिया गगण-गमणकारिया, तो उप्पइया प्रायासं। वच्चंताण य बहुएसुजोयणेसु समइक्कंतु सु अइभरक्कंताउ छिन्नानो तंतीमो, भट्ट जंतं, पडिया कीलिया, सरिणयं च जाणं भूमीए ट्ठियं । सो य राया देवीसहिरो असुगंत्तो पच्छायावरण संतप्पि पयत्तो। वसुदेवहिण्डी (सं० - मुनि चतुरविजय, पुण्यविजय), भावनगर, 1980, पृ. 62-63 । सकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. शब्दार्थ : स एज्झय पड़ौसी विम्हिय विस्मित जुवलयं जोड़ा श्रारणता आज्ञा दी बाहरिकरण भे भट्ट 54 11 == - 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : बुलाकर हम लोग नीचे गिरा 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : श्रभ्यास Jain Educationa International कोहाग निष्कण्ण 4. निबन्धात्मक प्रश्न : हीर जंत लवियं खलियं तंती = बढ़इ चतुर चुराना सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : = strara ने काष्टकला की शिक्षा ग्रहण की (क) विद्यालय से (ग) पड़ौसी बढ़ई से कहा गिरना मशीन विमान प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. कोक्कास ने किस विमान का निर्माण किया था ? 2. कपोत - यन्त्र पर कितने व्यक्ति घूमने जा सकते थे ? 3. तीन व्यक्तियों की सवारी से कपोत विमान का क्या हुआ ? खव वहणं जहाज श्रमच्च=== मन्त्री अग्गमहिसी निम्बंध = हठ श्रहया चोट की सरिणयं = धीरे (ख) राजकुमार से (घ) गुरुकुल से f (क) पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए (ख) कपोतयन्त्र और हवाईजहाज की तुलना कीजिए । * For Personal and Private Use Only व्यतीत करना पटरानी [ ] प्राकृत गद्य-सोपान Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 15 : अगिसम्मस्स पराहवं पाठ-परिचय : आठवीं शताब्दी के कथाकार हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा नामक कथाग्रन्थ चित्तौड़ में लिखा था। इस ग्रन्थ में उज्जैन के राजा समरादित्य और उसके बचपन के साथी अग्निशर्मा के नौ जन्मों का वर्णन है । इस ग्रन्थ में यह बतलाया गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी के प्रति कलुषित भावनाए मन में कर लेता है और उससे बदला लेने की सोचता है तो उसे कई जन्मों तक इसका फल भोगना पड़ता है। प्रस्तुत गद्यांश में अग्निशर्मा और गुणसेण (समरादित्य) के बचपन की घटनाएं वरिणत हैं । अग्निशर्मा अपनी कुरूपता और निर्धनता के कारण राजकुमार गुणसेन से बहुत अपमान प्राप्त करता है । उससे दुखी होकर वह साधु बन जाने का निश्चय कर लेता है। एक आश्रम में जाकर वह साधु-जीवन व्यतीत करने लगता है। अग्निशर्मा एक माह में एक बार भोजन करने का प्रण करता है । इस प्रकार वह कठोर जीवन व्यतीत करता है । अस्थि इहेव जम्बूद्दीवे दीवे, अवरविदेहे वासे, उत गधवलवागार-' मंडियं, नलिरिणवणसंछन्नपरिहासणाहं, सुविभत्ततिय-चउक्क-चच्वरं, भवणेहि जियसुरिन्दभवणसोहं खिइपइट्ठियं नाम नयरं । जत्थ विलयाउ कमलाइ कोइलं कुवलयाई कलहंसे । वयणेहि जंपिएण य नयणेहि गईहि य जिरण न्ति ।। 1 ।। जत्थ य नराण वसणं विज्जासु, जसम्मि निम्मले लोहो । पावेसु सया भीरुत्तणं च धम्मम्मि धणबुद्धी ।। 2 ।। तत्थ य राया संपुण्णमण्डलो मयकलंकपरिहीणो। जण-मरण-नयणाणन्दो नामेणं पुण्णचन्दो त्ति ।। 3 ।। प्राकृत गद्य-सोपान SS Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तेउरप्पहाणा देवी नामेण कुमुइणी तस्स । . सइ वड्ढियविसयसुहा इट्ठा य रइ व्व मयस्स ।। 4॥ ताण य सुप्रो कुमारो गुणसेणो नाम गुणगणाइण्णो । बालत्तणो वंतरसुरो व्व केलिप्पियो वरं ।।5।। तम्मि य नयरे अतीव सयलजणबहुमयो, धम्मसत्थ-संघायपाढरो, लोग-ववहारनीइकुसलो, अप्पारम्भपरिग्गहो जन्नदत्तो नाम उवज्झायो त्ति । तस्स य सोमदेवागब्भसंभो, महल्लतिकोणुत्तिांगो, आपिंगलवट्टलोयरणो, ठाणमेत्तोवलक्खिय-चिविडनासो, बिलमेत्तकण्णसन्नो, विजियदन्तच्छयमहल्लदसणो, वंकमुदीहरसिरोहरो, विसमपरिहस्सबाहुजुयलो, अइमडहवच्छत्थलो, गंकविसमलम्बोयरो, एक्कपासुन्नयमहल्लवियडकडियडो, विसमपइट्ठिऊरुजुयलो, परिथूलकढिरणहस्सजंघो, विसमवित्थिण्णचलणो, हुतहुयवह-सिहाजालपिंगकेसो, अग्गिसम्मो नाम पुत्तो त्ति । तं पुत्तं च कोउहल्लेण कुमार गुणसेणो पहय-पडपडह मुइंगवंसकंसालयप्पहारोग महया तूरेण नयरजगामझ सहत्थालं हसन्तो नच्चावेइ, रासहम्मि पारोवियं, पहबहुडिम्भविन्दपरिवारियं, छित्तरमयधरियपोण्डरीयं, मणहरुत्तालावज्जन्तडिन्डिमं, पारोवियमहारायसह, बहुसो रायमग्गे सुतुरियतुरियं हिण्डावेइ। एवं च पइदिणं कयन्तेणेव तेरण कयत्थिज्जन्तस्स तस्स वेरग्गभावरणा जाया। चिन्तियं च णेण - बहुजणधिक्कारहया अोहसणिज्जा य सव्वलोयस्स । पुटिव अकयसुपुण्णा सहन्ति परपरिभवं पुरिसा ।। 6 ।। जइ ता न को धम्मो सप्पुरिसनिसेवियो अहन्नोणं । जम्मन्तरम्मि परिणयं सुहावहो मूढहियएणं ॥7॥ 56 - प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरिणहं पि फलविवागं उग्गं दळूणमकयपुण्णाणं । परलोयबन्धुभूयं करेमि मुरिणसेवियं धम्मं ॥8॥ जम्मन्तरे वि जेणं पावेमि न एरिसं महाभीमं । सयलजणोहसणिज्जं विडम्बरणं दुज्जणजणाो ॥9॥ एवं च चिन्तिय पवनवेरग्ग मग्गो निग्गयो नयरायो, पत्तो य मासमेत्तण कालेण तस्विसयसन्धिसंठियं ........."सुपरिश्रोसं नाम तवोवरणं त्ति । अह पविट्ठो सो तवोवरणं । दिट्ठो य तेण तावसकुलप्पहाणो अज्जवकोडिण्ण नामो त्ति । पेच्छिऊण य पणमिनो तेणं । पुच्छिम्रो इसिणा- 'कुप्रो भवं प्रागमो?' त्ति । तो तेण सवित्थरो निवेइग्रो से अत्तरणो वुत्तन्तो। भरिणग्रो य इसिणा- 'वच्छ! पुवकयकम्मपरिणइवसेणं एवं परिकिलेसभाइणो जीवा हवन्ति । ता नरिन्दावमारणपीडियारणं, दारिद्ददुक्खपरिभूयाणं, दोहग्गकलंकदूमियारणं, इटुजरणवियोगदहणतत्तारणं य एयं परं इह-परलोयसुहावहं परमनिवुइट्ठाणं त्ति । एत्थ पेच्छन्ति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगायो। दोग्गइपडणं च तहा वणवासी सव्वहा धन्ना ।। 10 ।। एवमरणसासिएण भरिणयं अग्गिसम्मेणं- 'भगवं ! एवमेयं, न संदेहो त्ति । ता जइ भयवनो ममोबरि अणुकम्पा, उचिसो वा अहं एयस्स वयविसेसस्स, मा करेहि मे एयवयप्पयाणेणाणुग्गहं' त्ति । इसिरणा भरिणयं- 'वच्छ ! रग्गमग्गाणुगतो तुमं ति करेमि अरणग्गह, को अन्नो एयस्स उचिो ' त्ति। सो अइकन्तेसु क इवयदिणेसु संसिऊरण य सवित्थरं नियममायारं, पसत्थे तिहिकरणमुहुत्त-जोग-लग्गे दिन्ना से तावसदिक्खा । महापरिभवजरिणयवेरग्गाइसयभाविएण यारणेण तम्मि चेव दिक्खादिवसे सयलतावसलोयपरियरियगुरुसमक्खं कया महापइन्ना । जहा- 'जावजीवं मए मासानो मासानो चेव भोत्तव्वं, पारणगदिवसे य पढमपविणं सकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमगेहाम्रो चेव लाभे वा अलाभे वा नियत्तियव्वं, न गेहन्तरमभिगन्तव्वं ति ।' एवं च कयपइन्नस्स तस्स जहाकयं पइन्नमणुपालिन्तस्स अइक्कन्ता बहवे दियहा । प्रभ्यास 1. शब्दार्थ : संश्चन्न = व्याप्त विलमा = स्त्री माइग्म = भरा हुआ चिविड = चपटी = छोटा कयत्थ = अपमान संग = परिग्रह तिय = तिराहा वसणं = अभ्यास उत्तिमंग- सिर बिलमेत-छेदमात्र कंसालय = मंजीरे पवन = प्राप्त संसिऊरण = समझाकर चच्चरं = चौक इट्ठा = मनपसन्द = गोल सिरोहर - गर्दन रासह = गधा दूमिय = दुखी पसत्य = अच्छा 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. क्षितिप्रतिष्ठित नगर में लोगों का लोभ था(क) धन में (ख) सन्तान में (ग) युद्ध में (घ) निर्मल यश में 2. परलोक का एक मात्र बन्धु है(क) महल (ख) धन-पैसा (ग) धर्म (घ) मित्र समराइच्चकहा-प्रथमखण्ड (सं०-डॉ. छगनलाल शास्त्री), बीकानेर, 1966 पृ. 12-18 से संक्षेप रूप में उद्धत । .. -.... 58 प्राकृत गद्य-सोपान sa ali- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. गुण सेण के माता-पिता का क्या नाम था ? 2. अग्निशर्मा किस बात से दुखी था ? 3. अपमान से छुटकारा पाने के लिए अग्निशर्मा ने क्या किया ? 4. तपोवन में अग्निशर्मा ने क्या प्रतिज्ञा की ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) क्षितिप्रतिष्ठित नगर का वर्णन अपने शब्दों में करो। (ख) अग्निशर्मा की कुरूपता का वर्णन करो। (ग) गुणसेन अग्निशर्मा को कैसे सताता था, संक्षेप में लिखो। (घ) अग्निशर्मा की नैराग्य भावना को संक्षेप में लिखो। रिक्त स्थानों की पूर्ति करें: (क) संधिवाक्य विच्छेद नयणाणन्दो नयण+आणन्दो गुणगणाइण्णो गुणगण+आइण्णो जम्मन्तरे जम्म+अन्तरे संधिकार्य अ+आ-अ गिद्य-सोपान 59 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 15 : गुणसेगं पड़ नियाणो पाठ-परिचय : श्राचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित समराइच्चकहा में जो अग्निशर्मा एवं गुणसेन की कथा है, वह कई जन्मों तक चलती है । प्रथम जन्म में अग्निशर्मा एवं गुणसेन बचपन में मित्र थे । किन्तु गुरगसेन के अपमान से दुखी होकर अग्निशर्मा साधु बन जाता है । और गुण सेन बड़े होने पर राजा बन जाता है । इस गद्यांश में राजा गुणसेन और तापस अग्निशर्मा के पुनः मिलन तथा अनजाने में ही हुए अपमान का प्रसंग वर्णित है । राजा गुणसेन आश्रम में जाकर विनयपूर्वक अग्निशर्मा को अपने महल में भोजन लेने का निमन्त्रण देकर आता है । अग्निशर्मा भी बचपन के अपमान को भूलकर इस निमन्त्रण को स्वीकार कर लेता है । किन्तु अग्निशर्मा जब भोजन करने के लिए महल में पहुंचा तो उस दिन राजा गुणसेन के सिर में तीव्र वेदना होने से वहाँ किसी ने अग्निशर्मा की तरफ ध्यान नहीं दिया। वह वापिस लौटकर अपनी तपस्या में लीन हो गया । किन्तु राजा के द्वारा क्षमा मांगने पर वह दूसरे माह में महल में भोजन करने गया । उस दिन राजा शत्रुसेना से लड़ने चला गया । अतः अग्निशर्मा को भोजन नहीं मिला। किसी प्रकार बहुत मनाकर राजा तीसरे माह में भोजन के लिए उसे बुला गया । किन्तु उस दिन राजा के यहाँ पुत्र जन्म होने के कारण अग्निशर्मा को फिर भोजन नहीं मिला । तब उसने समझा कि यह गुणसेन बचपन की तरह अभी भी मेरा अपमान करने के लिए महल में बुलाता है । इस कारण अग्निशर्मा गुणसेन के प्रति दुर्भावना से भर जाता है । वह अपने मन में यह संकल्प करता है कि मैं जन्म-जन्मांतर तक इस गुरगसेन को इस अपमान का बदला चुकाऊँ । यही निदान उसके दुखों का कारण बनता है । इय पुण्णचन्दो राया कुमारगुणसेणं कयदारपरिग्गहं रज्जे अभि सिंचिऊण सह कुमुइणीए देवीए तवोवरणवासी जाओ । सो य कुमार - गुरणसेणो 60 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेय-सामन्तपरिणवइय-चलणजुयलो, निज्जय-नियमण्डलाहियाणेगमण्डलो, दसदिसि विसट्टनिम्मलविस्सुय-जसो, धम्मत्थकामलक्खरण तिवग्गसंपायणरमो महाराया संवुत्तो त्ति । एकदा सो राया गुणसेखो भत्ति-कोउगेहि गयो तं तवोबरणं ति । ट्ठिा य तेणं तत्थ बहवे तावसा, कुलवई य । दिट्ठो य तेण पउमासणोवविट्ठो, थिरधरियनयणजुयलो, पसन्तविचित्तचित्तवावारो, किंपि तहाविहं झाणं झायन्तो अग्गिसम्मप्तावसो त्ति । तो राइणा भरिणयं- 'भयनं ! कि ते इमस्स महादुक्करस्स सवचरणववसायस्स कारणं ?' अग्गिसम्मतावसेण भरिणयं- 'भो महासत्त! दारिद्ददुक्खं, परपरिहवो, विरूवया, तहा महासयपुत्तो य गुणसेगो नाम कल्लापमित्तो' त्ति । तो राइणा कुमारवुत्तन्तं सुमरिऊरण भरिणयं लज्जाबरणयवयणेण'भयवं ! अहं सो महापावकम्मयारी तुह हिययसंतावयारी अगुणसेरणो' त्ति । अग्गिसम्मत्तावसेण भणियं- 'भो महाराय ! सागयं ते। कहं तुमं प्रगुरणसेणो ? जेण तए परपिण्डजीवियमेत्तविहवो अहं ईइसि तवविभूई पाविनो' ति। राइणा भरिणयं- 'अहो ! ते महागुभावया, किं वा तवरिसजणो पियं चज्जिय अन्न भरिणउ जाणइ ? न य मियंकबिम्बानो अंगारवुट्टीमो पडन्ति । ता अलं एइणा । भयवं ! कया ते पारणगं भविस्सइ ?' अग्गिसम्मेण भरिणयं- 'महाराय ! पंचहि दिरणेहिं ।' राइणा भणियं'भयवं ! जइ ते नाईव उवरोहो, ता कायव्वो मम गेहे पारणएण पसायो। विन्नामो य मए कुलवइगो सयासापो तुज्झ पइन्नाविसेसो, अग्रो प्रणामयं पत्थेमि' त्ति । अग्गिसम्मेण भणि- 'महाराय! पागच्छउ ताव सो दियहो, को जागइ अंतरे किंपि भविस्सइ ।' राइणा भरिणयं-- ‘भयवं ! विग्छ मोत्तू ण संगच्छह ।' अग्गिसम्मतावरण भरिणयं- 'जइ एवं ते निब्वन्धो, ता एव पडिवना ते पत्थरणा ।' तो राया पणमिऊरण हरिसवसपुल इयंगो कंधि वेलं गमेऊण पविट्ठो नयरं । . . अइक्कन्तेसु य पंचसु दिगणेसु पारणगदिवसे पढम चेव पविट्ठो अग्गि प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतावसो पारणग-निमित्त रायगेहं त्ति । तम्मि य दियह कहंचि राइयो गणसेस्स अतीव सीसवेयरणा समुप्पन्ना । तो पाउलीहूमं सव्वं चेव रायउलं । तो सो अम्गिसम्मतावसो एवं विहे रायकुले कंचि वेलं गमेऊरणं वयणमेत गावि केणवि अकयपडिवत्ती निग्गयो रायगेहाम्रो त्ति। निम्गन्त्रण गो तवोवरणं । तेण कुलवई निवेइप्रो जहावत्त । इनो य राइणा गुणसेणेणं उबसन्तसीसवेयणेणं पुच्छियो परियणो। परियोहिं संलत्तं जहावत्तं । राइणा भरिणयं- 'अहो ! मे अहन्नया, चुक्कोमि महालाभस्स, संपत्तो य तवस्सिजणदेहपीडाकरणेण महन्तं प्रणत्थं' ति । एवं विलविऊणं बिइय दियहे पहायसमए चेव गमो तवोवणं । तेण निवेइरो कुलवई निअपमायं अवराहं च। तो कुलव इणा सद्दाविप्रो अग्गिसम्मतावसो, सबहुमारणं हत्थे गिव्हिऊरण भणियो य णेण- 'वच्छ! जं तुमं अकयपारणगो निग्गो नरिन्दगेहाम्रो, एएण दढं संतप्पइ राया। अत्थ निवस्स अवराहं नत्यि । अग्रो इण्हिं संपत्तपारणगकालेण भवया अविग्घेण मम वयणायो नरिन्दबहुमाणो य एयस्स गेहे पारणगं करियव्वं' ति । अग्गिसम्मतावसेरण भरिणयं- 'भयवं ! जं तुब्भे प्राणवेह ।' पूणो य कालक्कमेण राइणो विसयसुहमरणहवन्तस्स, अग्गिसम्मस्स यदुक्करं तवचरणविहिं करेन्तस्स समइक्कन्तो मासो त्ति । एत्थन्तरम्मि य संपत्ते पारणगदिवसे रायउले अइ सम्भमं संजायं । राया गुणसेको मन्ति-सामन्ताइसंतिम्रो ससेन्नो संगामभूमिए गच्छिउपवत्तो। तम्मि समए अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमित्तं पविट्ठो नरिन्दगेहं । तो तम्मि महाजणसमुदए प्राउलीहए नरिन्द-निग्गमरणनिमित्तं पहाणपरियणे न केणइ समुवलक्खियो अग्गिसम्मो। तो सो कंचि वेलं गमेऊण दरियकरि-तुरयसंघायचमढणभीमो निग्गनो नरवइगेहायो। तस्स निग्गमणं प्रायण्णिऊरण ससंभन्तो राया पयट्टो तस्स मग्गे, दिट्रो य गणं नयरामो निग्गच्छन्तो अग्गिसम्मतावसो । तमो सो भत्तिनिब्भरं प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवडिऊरण चलणेसु विन्नत्तो सबहुमारणं-'भयवं! करेह पसायं, विरिणयत्तसु । लज्जिो म्हि इमिरमा पमायचरिएणं' त्ति । अग्गिसम्मेण भरिणयं- 'महाराय ! अनिमित्तं ते दुक्खं । तहावि एयस्स इमो उसमोबायो। अविग्घेण संपत्ते पारस्पगदिवसे पुणो वि तुह चेव गेहे माहारगहणं करिस्सामि त्ति पडिवान मए । त्ता मा संत्तप्पसु' त्ति । तम्रो भणिये राहणा- 'भगवं! अणुगिहीनो म्हि । सरिगं इमं तुह अकारणवच्छलायाए।' एवं भरिणय पणमिऊरण य अग्गिसम्मतावसं नियत्तो राया । अग्गिसम्मो वि य गन्तुण तवोवणं निवेइगं कुलवइणो जहावित्त वुत्तन्तं । अणुदियहं च पवड्डमारणसंवेगेण राइणा सेविज्जन्तस्स तस्स समइच्छियो मासो, पत्तो घ रन्नो मरणोरहसएहिं पारणयदियहो 1 तम्मि य पारणयदियहे राइणो गुणसेरणस्स देवी वसन्तसेणा दारयं पसूब त्ति । तमो राइखा आएसेण नयरे महूसवो पवत्तो । एवंविहे य देवीपृत्तजम्मभुदयाणन्दिए महापमत्ते सह राइणा रायपरियणे अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमित्त रायउत्तं पविसिऊरण वयण मेत्ते णावि केणइ अकयपडिवत्ती असुहकम्मोदएणं अट्टझारणदूसियमणो लहुं चेव निग्गयो । ____चिन्तियं च अग्गिसम्मेण- 'अहो ! से राइपो पाबालभावापो चेव असरिसो ममोवरि वेरांणुबन्धो त्ति । पेच्छह से अइणिगूढायारमाचरियं जेण तं तहा मम समक्खं मणाणुकूलं जंपिय करणेण विवरोयमायरइ' त्ति चिन्तयन्तो सो निग्गमो नयरामो। एत्थन्तरम्मि य अन्नाणदोसेणं अभावियपरमत्थमग्गत्तणेण प गहिमो कसाएहिं, अवगया से परलोयवासणा, पणट्टा धम्मसद्धा, समागया सयलदुक्खतरुबीयभूया अमेत्ती, जाया य देहपीडाकरी अतीव बुभुक्खा । आकरिसिनो बुभुक्खाए । तमो प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमपरीसहवइएसा तेण अन्नाणकोहवसएणं । घोरं नियाणमेयं पडिवन्न मूढहियएगणं ।। 1 ।। जई होज्ज इमस्स फलं मए सुचिस्स वयविसेसस्स । ता एयस्स वहाए पइजम्मं होज्ज में जम्मो ।। 2 ।। न कुणइ पणईण पियं जो पुरिसो विप्पियं च सत्त णं । किं तस्स जरणरिणजोवरणविउडणमेत्तण जम्मेणं ।। 3 ।। सत्त य एस राया मम सिमुभावाउ चेव पावो त्ति । अवराहमन्तरेण वि करेमि तो विप्पियमिमस्स ।। 4 ।। इय काऊण नियारणं अप्पडिकन्तेरण तस्स ठाणस्स । अह भावियं सुबहुसो कोहारणलजलियचित्तरण ।। 5 ।। एत्थन्तरम्सि पत्तो एसो तवोवणं । तत्थ एगार्गी उवविट्रो अणूसयवसेण पुणो कि चिन्ति उमारद्धो- अहो ! से राइणों ममोवरि पडिणीय भावो। तहोवरिणमन्तिय असंपाडणेण पारगयस्स किल मं खलीकरेइ त्ति । अहवा अपरिचत्ताहारमेत्तसंगस्स मे एत्तहमेत्ता कयत्थरण त्ति । ता अलं मे जावज्जीवं वेव परिहवमेोण आहारेणं ति गहियं जावज्जीवियं महोववासवयं ।' सव्वं वि जाणिऊरण कुलवइरणा भणि यं- 'वच्छ ! जइ परिचत्तो आहारो गयो इयाणि कालो प्राणाए। सच्चपइन्ना खु तवस्सिणो हवन्ति । कितु तुमए नरिन्दस्स उवरि कोवो न कायव्वो । जो सध्वं पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु, गुणेसु य निमित्तमेतं परो होइ ।। 6 ।।* समरा इच्चकहा, वही, पृ. 18 से 36 संक्षेपरूप में उद्ध त । K4 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास 1. शब्दार्थ : विस्सुय = प्रसिद्ध पसन्त = शान्त झारण = ध्यान विरूवया = कुरूपता सुमरिऊरण = यादकर ईइसिः = इस प्रकार की वज्जिय = छोड़कर . बुट्ठी = वर्षा पारणगं = भोजन उवरोहो = आपत्ति पइन्ना = प्रतिज्ञा पत्थ प्रार्थना करना निबन्धो = आग्रह पाउलीय = व्याकुल परिवत्ती- खबर इहिं = इस बार समुदन = भीड़ चमढरण = कुचलना पडिवन = स्वीकार दारय = पुत्र अट्टझारण = दूषित ध्यान विभक्ति सप्तमी वचन ए. व. लिंग न. पु. ........ 2 रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूलशब्द रज्जे तावसा तावस इमस्स इम जेरण कुलवईणा वयणाओ वयण कसाएहिं कसाअ बुभुक्खाए ज ........ ........ ..... ... कुलवई ........ ........ बुभुक्खा 3. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. 'कल्लाणमित्तो' विशेषण कहा गया है(क) कुलपति के लिए (ख) गुणसेन के लिए (ग) अग्निशर्मा के लिए (घ) द्वारपाल के लिए प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अग्निशर्मा को भोजन के लिए बुलाया था(क) नगर-सेठ ने (ख) कुलपति ने (ग) गुणसेन राजा ने (घ) तपस्वी ने 4. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. अग्निशर्मा ने अपनी कठोर साधना के क्या कारण बतलाये थे ? 2. राजा के यहाँ अग्निशर्मा को भोजन न मिल पाने के क्या कारण थे ? 3. गुणसेन की हार्दिक भावना क्या थी ? 4. अन्त में अग्निशर्मा के गुणसेन के प्रति क्या विचार बने ? 5. कुलपति ने अग्निशर्मा को क्या समझाया ? 5. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस पाठ का सार अपने शब्दों में लिखो। (ख) अग्निशर्मा के स्वभाव की विशेषताए लिखिए। (ग) इस पाटी गाथा 3 एवं 6 का अर्थ समझाकर लिखिए । - - प्राकृतगद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 17 : मित्तस्स कवडं पाठ-परिचय : प्राकृत कथा साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है- कुवलयमालाकहा । इसे उद्योतनसूरि ने सन् 779 में जानौर (राज.) में लिखा था। इस ग्रन्य में क्रोध, मान, माया, लोभ, और, मोह जैसी वृत्तियों को पात्र बनाकर उनकी कथा कही गयी है। कुवलयमाला धर्म-कथा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का भी प्रतिनिधि ग्रन्य प्रस्तुत कथांश मायादित्य की कथा का है। मायादित्य और स्थाणु मित्र बन जाते हैं। दोनों धन कमाने के लिए दक्षिण भारत के नगर प्रतिष्ठान जाते हैं। लौटते समय दश रत्नों के रूप में वे अपने धन को एक पोटली में बांधकर लाते हैं । रास्ते में मायादित्य अपने मित्र स्थाणु से कपट-व्यवहार कर रत्नों की पोटली ले जाना चाहता है। किन्तु दुर्भाग्य से वह कंकड़ों की पोटली लेकर भाग निकलता है। रत्न स्थाणु के पास ही रह जाते हैं। फिर भी मायादित्य भित्र को ठगने का प्रयत्न करता रहता है और अन्त में दुःख पाता है । महारणयरीए वारणारसीए पच्छिम-दक्खिणे दिस व ए सालिग्गामं णाम गामं । तहिं च एक्को वइस्सजाई परिवसइ गंगाइच्चो णाम । तम्मि प गामे अणेय-धण-धण्ण-हिरण्ण-सुवण्णसमिद्धजणे वि सो च्चेय एक्को जम्मदरिद्दो । तस्स कवडपुण्णववहारेण मायाइच्चो नाम पसिद्ध जायं । प्रह जम्मि चेय गामे एक्को वारिणयो पुवपरियलिय-विहवो था नाम । तस्स तेण सह मायाइच्चेण कहवि सिणेहो संलग्गो । तेसि मेत्ती जाया। अण्णया धरणज्जणत्थं अण्णम्मि दियहे कयमंगलोवयारा, ग्राउच्छिकरण सयण-गिद्धवग्गं गहिय पच्छयणा रिणगया दुवे वि । तत्थ प्रय गिरिरियासयसंकूलामो अडईओ उल्लंघिऊरण कह कह वि पत्ता प.ट्टणं गाम कृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयरं । तहिं च पयरे प्रणेय धणधण्ण-रयणसंकुले महासग्गणयरसरिसे गाणा-वाणिज्जाइकयाई, पेसरणाई च करेमाणेहि कह कह वि एकेक्कमेहिं विढत्ताइपंच पंच सुवण्ण-सहस्साइ। भणियं च णेहिं परोप्परं- 'अहो ! विढत्तं अम्हेहिं जं इच्छामो अत्थं । एयं च चोराइ-उवद्वेहिं ग य णेउतीरइ सएसहत्तं । ता तं इमेण अत्थेरण सुवण्णसहस्समोल्लाइ रयणाइ पंच पंच गेण्हिमो । ताई सदेसं गयारणं सममोल्लाई अहिय-मोल्लाइ वा वच्चहि ।' ति भरिणऊरण गहियं एक्केक्क सुवरण सहस्समोल्लं । एवं च एयाई एक्केक्कस्स पंच पंच रयगाइ। ताई च दोहि मि जणेहिं दस वि रयणाई एक्कम्मि चेय मल-धूलोधूसरे कप्पडे सुबद्धाइ। कयं च णेहिं वेस-परियत्त । .. तेहिं कयाई मुंडावियाई सीसाई। गहियानो छत्तियाग्रो । लंबियं डंडयग्गे लावुय । धाउ-रत्तयाई कप्पडाइ । विलग्गाविया सिक्कए करंका। सव्वहा विरइओ दूर-तित्थयत्तियवेसो । ते य एवं परियत्तिय-वेसा अलक्खिया चोरेहि भिक्खं भममाणा पयट्टा । कहिंचि मोल्लेणं कहिंचि सत्तागारेसु कहिंचि उद्ध-रत्थासु भुजमाणा पत्ता एक्कम्मि संणिवेसे । तत्थ भरिणयं थारगुणा- 'भो भो मित्त ! ए पारेमो परिसंता भिक्खं भमिऊरणं, ता अज्ज मंडए कारावे पाहारेमो।' भरिणयं च माया इच्चेगा'जइ एवं, ता पविससु तुमं पट्टणं । अहं समुज्जुनो ण यारिणमो कय-विक्कयं, तुमं पुरण जाणसि । तुरियं च तए आगंतव्वं ।' भरिणयं च था गुरणा- 'एतं होउ, किं पुरण रयण-पोत्तडं कहं कीरउ' ति । भरिणयं मायाइच्चेण- 'को जारणइ पर-पट्टणाण थिई ? ता मा आवाग्रो को वि होहि त्ति तुह पविट्टस्स मह चेव समीवे चिट्ठउ रयण-कप्पडं' ति । तेण वि एवं भणमाणे समप्पियं तं रयण-कप्पडं । समप्पिऊरण पविट्ठो पट्टणं । चिंतियं च मायाइच्चेणं- 'अहो ! इमाइ दस रयणाई , ता एत्थ मह पंच । जइ पुण एयं कहिंचि वंचेज्ज ता दस वि महं चेव हवेज्ज' त्ति चितयंतस्स बुद्धी समुप्पण्गा 'दे घेत्त रण पलायामि । अहवा ण महंती वेला गयस्स, संपयं प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावइ ति । ता जहा ग यारण इ तहा पलाइरसामि' त्ति चितिऊरण गहिरो गण रच्छाधूलिधूसिरो अवरो तारिसो चेव कप्पडो। गिबद्धाइ ताइ रयणाइ। तम्मि त चिरंतणे रयण-कप्पडे रिणबद्धाइ तप्पमाणाइ वट्टाइ दस पाहारणा । तं च तारिसं कूड-कवडं संघडंतस्स सहसा पागमा सो थाणू। तस्स य हल्लफलेण पाव-मणेण ण णाप्रो कत्थ पर मत्थ-रयणकप्पडो, कत्थ वा अलिय-रयणकप्पडो त्ति । तमो गेण भरिणयं- 'वयंस ! कीस एवं समाउलो मम दणं ?' ति । भरिणयं मायाइच्चेणं- 'वयंस ! एस एरिसो अत्थो णाम भनो चेय पच्चक्खो, जेण तुम पेच्छिऊरण सहसा एरिसा बुद्धी जाया- 'एस चोरो' ति । ता इमिणा भएणं अहं सुसंभंतो।' भरिणयं च थाणुणा- 'धीरो होहि' त्ति । तेण भरिणयं- 'वयंस ! गेण्ह एयं रयण-कापडं, अहं बीहिमो। ण कज्जं मम इमिणा भएण' ति भरणमाणेग अलिय-रयणकप्पडो त्ति काऊरण सच्च-रयणकप्पडो वंचरणबुद्धीए एस तस्स समप्पियो । तेण वि अवियप्पेण चेय चित्तण गहिरो। .. तो तं च समुज्जय-हिययं पावहियएण वंविऊरण भरिणयमणण'वयंस ! वच्चामि अहं किंचि अबिलं मग्गिऊण आगच्छामि' ति भरिणउरण जं गो तं गयो, रण णियत्तइ । इमेण य जोयणाई वारस-मेत्ताइ दियहं राई च गंतूण रिणरूवियं णेण रयण-कप्पडं जाव पेच्छइ ते जे पाहाणा तत्थ बद्धा किर वंचरणत्थं तम्मि कप्पडे सो चेय इमो अलिय-रयण कप्पडो । तं च दटू ण इमो वंचियो इव, लुचिसो इव, पहरो इब, तत्थो इव, मत्तो इव, सुत्तो इव, मनो इव तहाविहं अणायक्खरणीयं महंत मोहमुवगो।। ___खणमेत्त च अच्छिऊरण समासत्थो। चितियं च ण- 'अहो ! एरिसो अहं मंदभागो जेण मए चितियं कि र एयं वंचिमो जाव अहमेव वंचिनो' । चिंतियं च गेण पाव-हियएणं- 'दे पुणो वि तं गंचे म समुज्जुय-हिय यं, तहा करेमि जहा पुणो मग्गेण विलग्गइ ।' त्ति चित यतो ग्यट्टो तस्स मग्गालग्गो । • कुवलयमालाक हा (सं०-डॉ. ए. एन. उपाध्ये), बम्बई, 1959, पृ 56-58। से संक्षेप रूप में उद्धृत । कित ग?-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. शब्दार्थ : परियलिय विढत्त करंका पट्टण श्रावाश्री 70 एकत्र = कमाना = कांवर 2. लघुत्तरात्मक प्रश्न : = बाजार == आपत्ति Jain Educationa International अभ्यास प्रज्जरपत्थं छत्तिया सत्तागार समुज्जुश्र चिरंतरण - कमाने के लिए पच्छया छाता लायं अतिथिशाला मंडए पोत्तड वट्ट भोला पुराना प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. गंगादित्य का नाम मायादित्य क्यों पड़ा ? 2. दोनों मित्रों ने अपने धन को किस में बदला ? 3. मायादित्य ने रत्न हड़पने के लिए क्या उपाय किया ? = For Personal and Private Use Only = 3. निबन्धात्मक प्रश्न : ( क ) मायादित्य स्वयं ही किस प्रकार छला गया, संक्षेप में लिखिए । (ख) कंकड़ों की पोटली देखने पर मायादित्य की हालत कैसी हो गयी और उसने क्या सोचा ? (ग) मित्र से कपट करने की कोई दूसरी कथा लिखिए । नास्ता तूमड़ी रोटी पोटली गोल प्राकृत गद्य-सोपान Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 18 : धणदेवस्स पुरिसत्थं पाठ-परिचय : उद्योतनसूरि द्वारा रचित कुवलयमालाकहा में कई उपदेशात्मक और प्रेरणात्मक कथाएं हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह के दुष्परिणामों को इस ग्रन्थ में मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है । इसके लिए चार जन्मों की कथा ग्रन्थकार ने प्रस्तुत की है। प्रस्तुत गद्यांश लोभदत्त (धनदेव) की कथा का है। इसमें कहा गया है कि धनदेव यद्यपि धन का लोभी था। किन्तु पिता के द्वारा कमाये गए धन को वह अपना नहीं मानता था । अत: पिता की आज्ञा लेकर वह स्वयं धन कमाने को निकलता है। उसका पिता अपने पुत्र के पुरुषार्थ और उत्साह को देखकर उसे विदेश जाने की अनुमति दे देता है। साथ ही रास्ते में आने वाली कठिनाईयों का सामना करने की शिक्षा भी देता है । इस कथा से यह भी पता चलता है कि उस समय धन का उपयोग जन-कल्याणकारी कार्यों में भी किया जाता था । अस्थि इमम्मि चेय लोए जंबूदीवे भारहे वासे वेयड्ढ-दाहिणमज्झिमखंडे उत्तरावहं णाम पहं । तत्थ तक्खसिला गणाम एयरी । तीए य णयरीए पच्छिम-दक्खिणे दिसाभाए उच्चस्थलं णाम गामं, सग्गरणयरं पिव सुरभोहि. पायालं पिव विविहरयरणेहि, गोटुगरणं पिव गो-संपयाए, धरणयपुरीविय धरण-संपधाए त्ति । - तम्मि गामे सुदृ-जाइनो धरणदेवो णाम सत्थवाहउत्तो । तत्थ तस्स सरिम सत्यवाहउत्तेहिं सह कोलंतस्स वच्चए कालो । सो पुण लोहपरो अत्यपहरण-तल्लिच्छो मायावी वंचनो अलियवयणो पर-दव्वावहारी । तो तस्स एरिसस्स तेहिं सरिस-सत्यवाहजुवारणेहिं धणदेवो ति अवहरिउ लोहदेवो त्ति से पट्टियं गगामं । तो कय-लोहदेवाभिहाणो दियहेसु वच्चंतेसु महाजुवा जोग्गो संवुत्तो। पाकृत गद्य-सोपान 71 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमो उद्घाइग्रो इमस्स लोभो बाहिउपयत्तो, तम्हा भरिणयो य गण जणग्रो- 'ताय ! अहं तुरंगमे घेत्त रण दक्खिरणावहं वच्चामि । तत्थ बहुयं अत्थं विढवेमो। जेण मुहं उवभुजामो' त्ति । भणियं च से जगएण- 'पुत्त ! केत्तिएण ते प्रत्येण ? अत्थि तुहं महं पि पुत्त-पवोत्ताणं पि विउलो अत्थसारो। ता देसु किवणाणं, विभयसु वणीमयाणं, दक्खेसु बंभणे, कारावेसु देवउले, खाणेसु तलाय-बांधे, बंधावेसु वावीपो, पालेसु सत्तायारे, पयत्त सु आरोग्ग-सालापो, उद्धरेसु दीरण-विहले त्ति । ता पुत्त ! अलं देांतर-गएहिं ।' - भरिणयं च लोहदेवेणं- 'ताय ! जं एत्थ चिट्ठइ तं साहीणं चिय, अण्णं अपुष्य अत्थां प्राहरामि बाहु-बलेणं ति ।' तो तेण चिंतियं सत्थवाहेणं'सुदरो चेय एस उच्छाहो । कायव्वमिणं, जुत्तमिणं, सरिसमिणं धम्मो चेय प्रम्हाणं जं अउ अत्थागमणं कीरइ त्ति । ता रण कायवो मए इच्छा-भंगो, ता दे वच्चउ' ति चिति उ तेण भणियो- 'पुत्त ! जइ ण टायसि, तो वच्च।' एवं भणियो पयत्तो । सज्जीकया तुरंगमा, सज्जियाई जाण-वाहणाइं, गहियाइ पच्छयणाइ चित्तविया आडियत्तिया, ठविप्रो कम्मयरजरणो, आउच्छिनो गरुयणो, नंदिया रोयणा, पयत्तो सत्थो, चलियानो वलत्थाउ । तम्रो भणिो सो पिउरणा- 'पुत्त ! दूरं देसंतरं, विसमा पंथा, गिटू रो लोग्रो, बहए दुज्जरणा, विरला सज्जणा, दुप्परियल्लं भंडं, दुद्धरं जोवणं, दुल्ललियो तुम, विसमा कज्जगई, अगत्थरुई कयंतो, अरणवरद्ध-कुद्धा चोर त्ति । ता सहा कहिंचि पंडिएणं कहिंचि मुक्खेणं कहिंत्रि दक्खिणेणं, कहिंचि णि रेणं कहिंचि दयलुगा, कहिंचि रिणक्किवेणं, कहिंचि सूरेणं, कहिंचि कायरेण कहिंचि चाइणा, कहिंचि किमणेणं, कहिंचि माणिणा, कहिंचि दीगणं, कहिचि वियड्ढेणं, हिचि जडेणं ।' एवं च भणिऊरण रिणयत्तो सो जणग्रो। ___ इमो वि लोहदेवो संपत्तो दक्खिणावहं केण वि काल तरेण । समावासियो सोप्पारए रणयरे भइरेट्ठी रणाम जुण्णसेट्ठी तस्स गेहम्मि । तयो केण प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि कालंतरेण महग्घ - मोल्ला दिण्णा ते तुरंगमा । विढत्त महंतं प्रत्थसंचगं । तं च घेत्तणं सदेहुत्त गंतुमरणो सो सत्थवाहपुत्तोति । * 1. शब्दार्थ : सग्ग तल्लिच्छ उद्धाइयो * = डयत्तिय = दलाल 2. लघुत्तरात्मक प्रश्न : अभ्यास स्वर्ग धरणय अलिय तल्लीन उत्पन्न करना पवोत्त कांत प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International कुवलयमालाकहा, वही, पृ. 64-651 कुबेर झूठ प्रपौत्र == यमराज == सुद्दजाइ पट्टिगं For Personal and Private Use Only खारण रिणयत्त - प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. धनदेव का नाम लोभदेव क्यों रखा गया ? 2. धनदेव के पिता ने उसे विदेश जाने क्यों रोका ? 3. अन्त में पिता ने क्या सोचकर धनदेव को अनुमति दे दी ? 3. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) धनदेव के पिता ने किन कार्यों में धन खर्च करने के लिए कहा था ? (ख) विदेश जाते समय धनदेव को उसके पिता ने क्या शिक्षा दो थी ? (ग) धनदेव कहाँ गया और उसने कैसे धन कमाया ? = = शूद्र जाति रख दिया खुदाना लौटना 73 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या महुर-वयरण - विनय-सीलसमा [ रा ] हरण - पमुहगुरण - रंजिएग सेट्ठिा गुण निchori 'चंदरणबाल' त्ति बीयं नामं पइट्ठियं । एवं सा तत्थ जहा नियमंदिरे तहा सुहेरण कालं गमेइ । तग्गुरणावज्जियमाणसो नयरलोगो वितं पसंसेइ | "अहो ! सीलं । अहो ! सुसीलत्तणं । अहो ! श्रमय-महुरं वयणं । कि बहुरा ? सव्वमुरमई एसा विहिरणा विरिणम्मिया ।" एवं सव्वत्थ - पत्तपसंसा तरुणमरण - हरिण -हरण- वागुरोवमं जोव्वरणमारुतीए पत्तो गिम्हकालो चंद बालाए । तो जहा जोव्वणं समारुहइ पसंसिज्जइ य घर-नयर - लोएण, तहा समुप्पण्ण-मच्छरा सयलारणत्थमूला मूला दूमिज्जइ । निय-चित्तेण चिते - "अहो ! एसा मह अभोयरा विसूइया, निन्निबंधरा विसकंदलि व्व पवड्ढमारणा सव्वाणत्थनिबंधरणा, किंपाग - फल- भक्खरणं व विरसावसारणा, लहु-वाहि oa उब्वेक्खिया दुक्खदायगा भविस्सइ । एवं कुवियप्प-सय- संकुलाए वच्चइ कालो मूलाए । या मज्झण समए एगागी चेव सभत्ररणमागश्रो सेट्ठी, नत्थि घरे को विपरियण-मज्झायो । मूला वि धवलहरोवरि मत्तालंबगया चिट्टइ । विरणीयया करवयं गहाय निग्गया चंदणबाला । दिन्नमभुक्खणं सज्जीकयमासरणं, चलणसोयरागत्थमुवट्टिया । निवारियां सेट्ठिणा तह वि धोवंतीए पविलुलि दीहर - कसिण-कुडिल- सण्हसिरिगद्ध-कु तल- कलाओ मणागमप्पत्तो चेव भूमीए 'मा पंके पडउ' त्ति लीला लट्ठीए धरेऊण पुट्टिए आरोविश्रो सेट्ठिा बद्धो य सिणेहसारं । मूला वि उल्लोयरण - गया तं पेच्छिऊरण दूमिया चित्तेण । चितिउ पवत्ता - "अहो ! विनट्ठे । परूढ पण सेट्ठी दीसइ । पडिवण्ण- दुहिया य एसा । न नज्जइ कज्ज परिणामो । जइ कह वि घरिरणी कीरइ, तोहं घरसामिणी न हवामि । एयमेत्थ पत्तयालं - तरुणी चेव वाही छिज्जइ । को नाम सयन्नो नहच्छेज्जं [..... .. ] क रेज्जा ? ।" एवमरणप्प - कुवियप्पिधरण-संवुfara को वाणलाए सेट्ठिम्मि निग्गए, व्हावियं सद्दाविय बोड़ाविया चंदरणबाला 78 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाए । भरिया नियलाण । पहया पण्हिप्पहारेहिं । निब्भच्छिया खर फरुसवयणेहिं ! सद्दाविऊरण भगिनो नियपरियणो-"जो एयं सेट्ठिस्स साहिस्सइ सो सयमेव मए निद्धाडेयव्वो" भिडिं काऊण भेसिया । पवेसिया य एगम्मि उवरगे। संजमियं दुवारं । दिण्णं तालयं । कया निय-करे कुचिया। खणंतरानो समागमो सेट्ठी । पुच्छइ परियणं-"कहिं चंदणबाला?" मलाभय-भीग्रो न साहइ परियरणो। सो जाएगइ बाहिं रमंति उवरि वा चिट्ठइ । रत्ति पि समा|ग]ो पुच्छइ । न को वि साहइ । नूणं सुत्ता भविस्सइ । सुत्तो सेट्ठी । बीय-दिवसे वि न दिट्ठा । पुट्ठो परियणो। न केण वि सिट्ठा। संकियो मरणागं चित्तण। पुच्छिया मूला-"पिए ! चंदणबाला न दीसइ को एस वुत्तंतो?" उत्थुगकिय-मुहीए सकोवं जंपियमिमीए-"कि नत्थि ते किंपि कम्मंतरं जेण दासरूय-चितासमाउलो एवं खिज्जसि ? सेट्ठिणा भरिणयं-- 'पिए! पियं पयंपसु । न एस सुदरो समुल्लावो । का तम्मि मच्छरो ?" तीए भरिणयं-"जइ एवं अहं मच्छरिणी जारिगया तो कीस मं पुच्छसि ?" सेट्टिणा भरिणयं-"संपयं मए वि याणियं जहा तुमं मूलं सयलाणत्थारण । प्रमो पर न पुच्छामि ।" वोलीणो बीमो विं वासरो। तइय दियहे कुद्धो पुच्छइ परियणं"साहह, नो भे मारीहामि ।"तो एगा थेरदासी चितेइ-'कि ममवजीविएणं । एसा जीवउ वराई ।' साहिऊण तीए वुत्तत्तं भरिणो सेट्टि-'एत्थोरगे चिट्टइ।' गमो तत्थ संभंतो। न पेच्छइ कुचियं । तो भग्गाणि कहकहवि कबाडाणि । तहाविहावत्थं दठ्ठण बालं बाहाविल-लोयणेण खलंतक्खरं जंपियं सेट्टिणा-"पुत्ति, चंदरण-सीयला! तुमं कहं एरिसं दसंतरं पाविया ? अहवा नत्थि अविसनो दुज्जण-जण-विलसियस्स।" तो असणं पमग्गियो। तं पुणं अणागयमेव अोसरियं मूलाए। इनो तो गवेसयंतेण दिठ्ठा सुप्पकोणे कुम्मासे ते तहेव तीए समप्पिऊरण नियल-भंजण-निमित्तं गो अप्परणा लोहार-धरं। सा वि एलुगं विक्खंभइत्ता प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपन्न समीहियं जाया दिव्वदिट्ठी, उल्लसियं प्रमाणुसोच्चियं वीरियं, समुअण्णच्चिय देहप्पहा, ता किं भणामि तुमं ? को सुविरणे वि तुम मोत्तणो एवंविहं मग्गं परोवयारेक्करसियं पडिवज्जइ ? अहं तुम्ह गुणेहि उवकरणीको ण सक्कुणोमि भासिउं 'गच्छामि' त्ति सकज्जरिगट्ट रया, 'परोपयारत परो सि' त्ति प्रत्थेरणं चेव दिट्ठस्स पुरणरुत्त', 'तुम्हायत्तं जीवियं' ति ण णेहभावोचियं, 'बंधवोसि' त्ति दूरीकरण, णिक्कारणं परोपयारित्तणं, ति अणुवाओ कयग्घलावेसु, 'संभरणीओ अहं' ति श्ररणत्तियादाणं । एवमादि भरिणऊण गो भइरवायरियो सह तेहिं सीसेहिं । * 1. शब्दार्थ : 76 अभ्यास aruकत्ती = प्रातः काल - पच्चूस खलीकार्ड : भइयजरण = मज़ाक करना श्राढत्त fuक्किचरण भक्तजन श्रत्थिजरग = याचक श्रायत्ता 2. निबन्धात्मक प्रश्न : व्याघ्रचर्म मियकत्ती मृगछाला == प्रारंभ करना संवासिय = युक्त धन रहित सच्छ निर्मल निर्भर प्राणशिया = आज्ञा Jain Educationa International = 1. भैरवाचार्य द्वारा आसन देने पर राजा ने क्या कहा ? 2. राजा को भैरवाचार्य ने क्या कार्य बतलाया ? 3. मन्त्रसाधना पूरी होने पर आचार्य ने किन शब्दों में कृतज्ञता प्रकट की ? 4. पाठ की गाथा नं. 1 एवं 2 का अर्थ समझाकर लिखो । = चप्पनमहापुरिसचरियं (सं.- मुनि पुण्यविजय), वाराणसी, 1961 एवं मुनिचन्दकथानक (सं.--डॉ. के. आर. चन्द्रा), अहमदाबाद, 1973, पृ. 41-421 For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 20 : चन्दणबाला पाठ-परिचय: वर्धमानसूरि ने सन् 1083 में मनोरमाकहा की रचना की थी। इस ग्रन्थ में मनोरमा का चरित प्रमुख है, किन्तु प्रसंगवश कई लौकिक और उपदेशात्मक कथाए भी दी गयी हैं । प्रस्तुत कथा भगवान् महावीर की प्रमुख शिष्या चन्दनबाला के जीवन की है। चन्दनबाला वसुमति एक राजपुत्री थी । किन्तु उसके पिता के सेनापति ने अवसर का लाभ उठाकर चन्दनबाला को निराश्रित बना दिया । चन्दनबाला जब चंपा नगरी के बाजार में बेसहारा होकर घूम रही थी तब एक सेठ ने उसकी रक्षा की थी। वह सेठ चन्दनबाला को पुत्री बनाकर अपने घर ले जाता है । चन्दनबाला वहाँ सबकी सेवा करती है। किन्तु सेठानी मूला उससे ईर्ष्या करने लगती है । अवसर देखकर एक दिन सेठ की अनुपस्थिति में वह चन्दनबाला का सिर मुड़ाकर एवं बेड़ी पहिनाकर उसे एक कोठरी में डाल देती है । सेठ वापिस आकर जब चन्दनबाला को बन्धनमुक्त करने की व्यवस्था करता है, तभी भगवान् महावीर के वहाँ आने पर चन्दनबाला स्वयं बन्धनमुक्त हो जाती है और वह महावीर की शिष्या बन जाती है। पुच्छिया सेट्टिणा-"पुत्ति ! का तुमं ? कम्मि कुले समुप्पणा ? कस्स वा दुहिया ?' तं सुरिणय विमुक्क-थोरंसुया निरुद्ध-सई परुण्णा वसूमई । सेट्रिणा चिंतियां-"कह उत्तमजणो वसरणाव डिनो वि नियकुलाइयं कहेहि ? प्रलं मह पुच्छिएण ?' भरिणया व पुमई-"पुत्ति ! मा रुयसु । दहिया मह तुम। [पा] सासिया कोमलवयणेहिं । दाऊण जहच्छियां दविण-जायं होढियस्स नीया मंदिरं वसुमई सेट्ठिणा । समाहूया मूला भरिणया य-"पिए ! एसा तृह दुहिया । पयत्त ण पालणीया ।" तीए वि तहेव पडिवणा । विणयसमाराहिय-सेट्ठी-परियणा सुहंसुहेण कालं गमेइ वसुमई । प्राकृत गद्य-सोपान 77 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : प्राकृत भाषा में 54 महापुरुषों के जीवन को प्रस्तुत करने के लिए 9 ब शताब्दी (सन 868 ) के विद्वान् शीलांकाचार्य (विमलमति ) ने चउप्पन - महापुरिसचरि नामक एक विशालकाय ग्रन्थ लिखा है । इसमें तीर्थंकरों, राम, कृष्ण, भरत आ के जीवन-चरितों का वर्णन है । किन्तु इसमें प्रसंगवश कई लौकिक कथाएं भी प्रस्तु की गयी हैं । पाठ 19 : णरवडणो ववहारो प्रस्तुत कथा एक मुनिचन्द साधु की है । बलदेव के पूछने पर मुनिचन अ ने गृहस्थ जीवन का वर्णन करता है, जिसमें वह गुणधर्म नाम का राजा था गुणधर्म ने अपने गुरु भैरवाचार्य की मन्त्रसाधना में रक्षा की थी । प्रस्तुत गद्यांश रे गुरु-शिष्य के सौजन्यपूर्ण व्यवहार का ज्ञान होता है । वीय दिवसे पच्चूसे कयसयलकर गिज्जो गम्रो भइरवायरियदसरथ उज्जाणं । दिट्ठो य वग्धकतीए उवविट्ठो भइरवायरियो । अब्भुट्ठियो य अह ते । पडि य अहं चलणेसु । श्रासीसं दाऊरण मियकत्ति दंसिकरण भरिणयं तेरा जहा - 'उवविससु' ति । मए भणियं- 'भयनं ! ग जुत्तमेवं प्रवर रवतिसमाणतरण मं खलीकाउं । अवि य रंग तुम्ह एस दोसो, एस इमीए एहि गरवइ सय सेवियाए रायलच्छीए दोसो त्ति, जेरण भयवन्तो वि सीसजणे ममम्मि यि श्रासरणप्पयारोणं एवं ववहरन्ति । भयगं ! तुम्हे मज्भ दूरट्टिया वि गुरवो', श्रहं पुण निययपुरिसुत्तरीए उवविट्ठो । थेववेलाए भणिउमादत्तो- 'भयवं ! कयत्थो सो देसो णयरे गाम पएसो वा जस्थ तुम्हारिसा पसंगेणावि आगच्छति किमंग पुण उद्दिसिउत्ति, ता अग्गहि श्रहं तुम्हागमणेन ।' जडहारिणा भरिणयं - 'गिरीहा वि गुरणसंदाणिया कुरणंति पक्खवाय 74 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाइयजणे, ता को ण तुम्ह गुणेहि समागरिसिप्रो ? त्ति, अवि य तुम्हारिसाण वि समागयाणं णिक्किंचणो अम्हारिसो किं कुरण उ ? ण हु मया जम्मप्पभिति परिगहो को, दविणजाएण य विणा " लोगजता संपज्जइ' त्ति । एवमायण्णिऊण भणियं मए- 'भयनं ! कि तुम्ह लोगजत्ताए पनोपणं ? तुम्हासीसाए चेव अत्थितं लोयस्स ।' पुणो भणियं जडहारिणा'महाभाय ! गुरुयणपूया पेम्म भत्ती सम्माणसंभवो विणो । दाणेण विरणा ण हु रिणब्वडंति सच्छम्मि वि जणम्मि ।। 1 ॥ दाणं दविणेण विणा ण होइ, दविणं च धम्मरहियाणं । धम्मो विरणयविहूणाण, माणजुत्ताण विणो वि ।। 2 ।। एयमायण्णिऊरण भणियं मए- 'भयवं! एवमेवेयं, किन्तु तुम्हारिसाणं अवलोयणं चेव सम्माणं, ता पाइसंतु भयवन्तो कि मए काय ?' ति । भरिणयं भइरवायरिएण- 'महाभाग ! तुम्हारिसाणं परोवयार-करण तल्लिच्छाणं अत्थिजगदंसणं मरणोरहपूरणं ति,ता अस्थि मे बहूणि य दिवसारिण 'कययुध्वसेसस्स मन्तस्स, तस्स सिद्धी तुमए प्राथत्ता, जइ एगदिवसं महाभागो समत्तविग्धपडिघायहे उत्तणं पडिवज्जइ तो महं सहलो अट्ठवरिस-मंतजावपरिस्समो होइ' त्ति । तमो मए भणियं- 'भयव ! अरणग्गहिरो इमिणाएसेणं ति ता कि मए कहि वा दिवसे काय ?' त्ति पाइसंतु भयवन्तो।' तयणंतरमेव भणियं जडहारिणा जहा- 'महाभाग ! इमीए किण्हच उद्दसीए तए मंडलग्गवावडकरेण एयरुत्तरबाहिरियाए एगागिणा मसाणदेसे जामिणीए समइक्कते जामे समागन्तव्वं ति, तत्थाहं तिहिं जणेहिं समेमो चिठ्ठिस्सामि त्ति ।' तो मए भरिणयं- 'एनं करेमि ।' आयरिएण सिद्धमन्तेण भणियं–'महाभाग! तुहाणुहावेण सिद्धो मंतो, प्राकृत गद्य-सोपान 75 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बइठ्ठा । तो दळूण उच्छंग-गय-सुप्पकोण-कय-कुम्मासे अहिणवालाणबद्धकरि व्व विझं नियकुलं सरिऊरण रोविउमारद्धा। तपणंतरं चिंतियं च णाए–'कह महं तइयदिणायो अकय-सुपत्तसंविभागा पारेमि ? सोहणं हवइ जइ किंचि सुपत्तं समागच्छइ ।' तमो भगवया महावीरो दिण्णो उवयोगो जाव पडिपुण्णो चउब्विहो वि अभिग्गहो ताहे पाणी-पसारियो। दिण्णा तीए सुप्पकोणेण कुम्मासा । पारियो । एत्थं चलियासणा समागया सुरगणा । पाउब्भूयाणि पंचदिवाणि पडिपुण्णपइण्णे, सयल-जगजीव-निक्कारणबंधवे दुठ ठुकम्मकंद उक्कंदरणे पाराविए तिसलानंदणे चंदणबाला वि तित्थयरदाण-धम्मोवज्जिय पुण्णपब्भारेण इह लोगे वि धन्ना जाया । तहा वित्थरिया सयले वि तिहयणे कूदिद-निम्मला कित्ती । अहो ...धण्णा, अहो कयत्था, कर,लक्रूणा चदणबाला। सुलद्ध जम्मजीवियफलं 'चंदण बालाए । अभ्यास . 1. शब्दार्थ : दुहिया = पुत्री वसण - आपत्ति प्रासास = सान्त्वना देना हों ढिय = अपहर्ता सम्वत्य = सब जगह वागुर = फंदा अगस्थ = अनर्थ दूम = दुखी होना वाहि ___= रोग मत्त लंब = बालकनी सोयरण = साफ करना मरणार्ग = थोड़ा लीलालट्ठी- हाथ परूढ = दृढ़ पण संधुक्क = धोंकना बोडाविया= मुड़ाया नियल = बेड़ी उबरग = कोठा निद्धड = निकाल दो व.सर = दिन बराई = बेचारी एलुगं = देहरी सुपत्त = सत्पात्र अभिग्गह = प्रतिज्ञा कुमास = उड़द कित्ती = यश पृ0 49-51 से संक्षिप्त मनोरमाकहा (सं०- पं० रूपेन्द्र) अहमदाबाद, 1982 रूप में उद्ध त । x0 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. चन्दनबाला से ईर्ष्या थी(क) सेठ को (ख) राजा को (ग) मूला सेठानी को (घ) नगरजनों को [ ] 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. वसुमति का नाम चन्दनबाला क्यो पड़ा? 2. मूला सेठानी को चन्दनबाला से क्या भय था ? 3. चन्दनबाला ने किसको आहार दिया था ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) चन्दनबाला की कथा संक्षेप में लिखो। (ख) भगवान् महावीर की क्या प्रतिज्ञा थी, इसे पताकर लिखो। कृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 21 : जहा गुरु तहा सीसो पाठ-परिचय: नेमिचन्द्रसूरि ने उत्तराध्ययनसुखबोधाटीका आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त लगभग 11 वीं शताब्दी में चन्द्रावती नगरी (राज.) में रयणचूडरायवरियं नामक चरितग्रन्थ भी लिखा है । इस ग्रन्थ में रत्नचूड राजा के पूर्व जन्म एवं जीवन-चरित आदि का वर्णन है। प्रसंगवश अन्य लौकिक कथाए भी हैं। प्रस्तुत कथा स्वप्न की सत्यता का निराकरण करने के लिए कही गयी है। एक मठ के आचार्य ने स्वप्न में मठ के कमरों को मिष्ठान से भरा हुआ देखा । नींद खुलने पर उन्होंने यह बात अपने शिष्य से कही। उस शिष्य ने स्वप्न के मिष्ठान्न को खिलाने के लिए मारे गांव का निमन्त्रण कर दिया । अन्त में लोगों के सामने उन्हें अपनी मूर्खता पर अपमानित होना पड़ा। __ एगम्मि गामे बहु-वक्खारिगे मढे एग-सीसेण संजुप्रो परमायरियो वसइ । अन्नया तेण रयणीए सुविणे दिट्ठा-मोयगपडिपुन्ना वक्खारिगा। विउद्धण संहरिसं साहियं चेल्लगस्स । तेण भरिणयं- 'जइ एवं ता निमं तेमो अज्ज गामं । भुत्तपुव्वं बहुसो गामगिहेसु ।' एवं ति पडिवन गंतूण उक्कुरुडियाए निमंतिम्रो सठक्कुरो गामो चिल्लगेण । 'कत्थ तुम्ह भोयरणसामग्गि, त्ति ? अणिच्छन्तो वि धम्माणुभावेण सव्वं भविस्सइ' त्ति बला मन्नावियो । काराविमो भोयरणमंडवो. ठावियानो आसणपंतीयो। उचियवेलाए समागमो गामलोपो। उवविट्ठो पासणेस दिनाइ भायणाई। एत्थंतरे पविट्टो मोयगनिमित्तम्भन्तरे परसमायरियो। जाव न किंचि तत्थ पेच्छइ । तमो 'अदन्नचित्तो भुल्लो अहं मोयगवक्खारियाए, तो पुणो वि तइंसणत्थं सुवामि । तं पुरण लोगरोल निवारेहि' त्ति भरिणऊण चेल्लयं सो पसुत्तो। 82 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत्यंतरे लोएहिं भणियं - 'छुहाइप्रो जरगो, उस्सूरं च बट्टइ ताकि चरावेह ?' चेल्लिएरण भरिणयं- 'मा रोल करह, जा मे गुरु निद्द लहइ त्ति ।' हि भरियं - 'को सुवरणकालो ?' चेल्लिएण भरिणयं - 'तुम्ह भोयरणट्ठा [विणोवलद्धमोयग वक्खारिगाए भुल्लो, पुणो तदंसणत्थं सुबइ' त्ति । एवं सो- 'अहो मुरुक्खा एए' त्ति दिन करतालो हसमारगो गो गोसभवणेसु । ता न सुत्रिरणयं दिठ्ठ पारमत्थियं ति । * 1. शब्दार्थ : बक्खारिग साह बला रोलं करताल - = !. लघुत्तरात्मक प्रश्न : अभ्यास - स्वप्न कोठा सुविरण कना चेल्लग चेला बलपूर्वक भायरण = वर्तन शोरगुल उस्सूर ताली एए Jain Educationa International कृत गद्य-सोपान - प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए: 1. इस पाठ का मूल उद्धेश्य क्या है ? 2. गांव के लोगों के लिए भोजन-सामग्री कहाँ थी ? सन्ध्या ये लोग 3. गांव के लोगों के आ जाने पर मठ का गुरु क्यों सो गया ? 4. असलियत जानने पर लोगों ने क्या कहा ? विउद्ध उक्कुरुडिया: सुव मुरुक्त्वा दिट्ठ For Personal and Private Use Only - = रयणचूडरायचरियं (सं० - विजयकुमुदसूरि ), खम्भात, 1942, पत्र 28 | जागना घूरा सोना मूरख देखा हुआ 83 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 22 : मयणसिरीए सिक्खा पाठ-परिचय : नेमिचन्द्रसूरि द्वारा रचित रचयचडरायचरियं में कई नारी पात्रों के उदात्त चरितों को प्रस्तुत किया गया है । तिलकसुदरी आदि रानियों के पूर्वभवों के प्रसंग में उदाहरण-स्वरूप मदनश्री की कथा कही गयी है । प्रस्तुत कथा में मदनश्री राजा विक्रमसेन को सदाचरण की शिक्षा देती है । विक्रमसेन के प्रेम-प्रस्ताव को सुनकर मदनश्री घबराती नहीं है, अपितु राजा को अपने यहां बुलाकर एक ही भोजन को कई सुन्दर थालियों में परोसकर वह समझातो है कि सभी युवतियों के भीतर मांस-मज्जा, रुधिर, हड्डियां आदि सभी समान है । वे केवल बाहर से आकर्षित दिखती हैं । अतः अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी युवती में आसक्त होना व्यर्थ है। राजा विक्रमसेन अपनी भूल के लिए क्षमा मांगता हुआ मदनश्री को पुरस्कृत करता है। उज्जेणीए नयरीए विक्कमसेणो राया। तेणं कयाइ कीलपत्थं निग्गच्छतेणं दिट्ठा गवक्खदुवारेण पासायतलसंठिया देसंतरगयपिययमा मयण सिरी सेट्ठिभारिया । पासत्तनिवेण य पेसिया तीए समीवं नियदासी । भरिणयं च गंतूण तीए- "मयणसिरि ! कयत्था तुमं जा महाराएण वि पत्थिज्जसि । जो, संदिळू तेण- सुदरि ! अमयमयस्सेव तुहदसणस्सुक्कंट्टियं मे हिययं । आगच्छंतु में दिणमेगमेत्थ, अहं वा तत्थेव पच्छन्नुभागच्छामि त्ति । ता देसु सुयणु ! पडिसंदेसं ।" तीएवि 'अहो राइणो ममोरि गरुनो अणुबंधो। न तीरए दूरट्ठिएहिं पडिबोहिउं' ति चिंतिऊण- 'पागच्छउ महारापो एत्थेव महप्पसाएणं' ति भणिकरण पेसिया सा दासी। 84 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहिया तीए राइणो वत्ता । परितुट्टो एसो गयो मज्झण्हे अंजणपअोगेण अदिस्समाणो तीए गेहं । पक्खालियंजरपो पयडीभूप्रो। ससभमाए य दिट्ठो । चितियं च तीए- 'अणुरायग्गहगहियो खु एसो। न मए पारणच्चाए वि सीलं खंडियव्वं । जग्रो- 'वरं विसभक्खणं, वरं जलगप्पवेसो, वरं उबंधणं, वरं भिग्गुपडणं, न सोल खंडणं'। ता पडिबोहेमि एवं केरणइ उवाएणं' इति चितिऊरण - 'सागमं महारायस्स' त्ति सहरिसं भरिणऊरण दाऊरण य आसणं कयं तीए चलणसोयं । कयं मरणोहरं भोयण । एक्कमेव भोयरणं ठावियं बहुयाहिं थालियाहिं । तायो वि ठइयायो विचित्त-चित्तपडिपट्ट-दुकूलखंडेहिं । भणियं च- 'महाराय ! करेह ममाणुग्गहं । भुजह मणुन्न चेव भोयरणं' राया वि अणुराएरण तमणुवट्टमाणो उवविट्ठो भुजिउ । पेच्छइ य मणोहर-नत्तणय-नत्तियानो बहयायो थालियाओ। 'अहो, ममावभरणाय कयाओ इमीए विविहामो रसवईप्रो' त्ति परितुट्टो एसो । तीए वि सवथालियाहिंतो दिन्न कमेणं थेव-थेवं एगमेव भोयणं ।। तयो राइणा सकोउगेण भरिणयं -- 'को एयासि बहुत्ते हेऊ?' तीए भरिणयं 'नत्तणयविसेसो' । राणा भरिणयं- 'किमेइणा निरत्थगेण विसेसेण?' मयणसिरीए भणियं- 'महाराय ! जइ एवं ता जुवइ-कडेघरेसु वि नत्तरणय सरिसबाहिरतया को चेव दिसेसो ? जो अंतो वसा-मस-मिंज-सुक्कप्फिप्फिस-रुहिरट्टिण्हारु-संगयं असुइनिहारण तुल्लं सव्वं चेव जुधइसरीरं । एववेव महारय ! विज्जमारणेसु वि सदारेसु किं परदारेसु अणुरायकारण' ति । ___एयं सोऊरण सविग्गो विक्कमसेणो राया- 'सू दरि ! सोहरणं तए कयं । जमहं अन्नाणमूढो बोहियो' ति भरिणऊरण दाऊण य महतं पारियोसिर गमो सभवरणम्मि । * रयण चूडरायचरियं, वही, पृ. 53-54 । प्राकृत गद्य-सोपान 85 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास 1. शब्दार्थ : कयाई = कभी प्रासत = आसक्त - उक्कंठिय = उत्कंठित पडिबोह = समझाना जगंधणं = फांसी रणनं = मनोनुकूल गवक्ख = झरोखा पासाय = महल कयत्थ - कृतार्थ पत्थ = याचना करना पच्छन्न = छिपा हुआ सुयरण = सुन्दरी पारगच्चान-प्राण त्याग जलग = अग्नि = बनाया दुकल = रेशम नत्तणय = नवीनता रसवई = रसोई 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. राजा ने मदनश्री के पास अपना संदेश भेजा(क) पत्र के द्वारा (ख) कबूतर के द्वारा (ग) दासी के द्वारा (घ) स्वयं जाकर [] 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. मदनश्री ने राजा का प्रेम-निवेदन क्यों स्वीकार किया ? 2. मदनश्री ने किस दृष्टान्त से राजा को समझाया ? 3. विक्रमसेन राजा ने अन्त में क्या कहा ? 2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूल शब्द विभक्ति वचन नयरीए नयरी सप्तमी , ए. व. तीए महाराएग महाराज हिययं हियय विसेसेरण सदारेसु सदारा लिग स्त्री . सर्व. .... ....... ............ ............ ........... 86 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 23 : दमयंती स्वयंवरो पाठ-परिचय : सोमप्रभसूरि ने ई. सन् 1184 में कुमारवालपडिवोह नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्य में गुजरात के राजा कुमारपाल का चरित वरिणत है। किन्तु आचार्य हेमचन्द्र द्वारा उनको दिया गया प्रतिबोध भी इस ग्रन्थ का विषय है । इसमें कुल 58 कथाए आयी हैं, जो प्रेरणादायक हैं। प्रस्तुत प्रसंग नलकथा का है, जो मूलतः द्य तक्रीड़ा के दोषों को प्रकट करने के लिए कही गयी है। प्रस्तुत अंश में दमयन्ती के स्वयंवर का वर्णन है। उसकी सखी भद्रा प्रत्येक राजा का वर्णन करती है और दमयन्ती उस पर अपनी इच्छा प्रकट कर देती है । अन्त में वह नल को वरमाला पहिना देती है। अस्थि इह भारह खित्ते कोसलदेस म्मि कोसल नयरी। तत्थ इक्खागुकुलुप्पन्नो निरुवमनयचायविक्कमजुत्तो निसहो नाम नियो । तस्स सुदरीदेवीकुक्खिसंभूया जरणमणाणं हे दुवे नंदरणा नलो कूबरो य । इप्रो य विदब्भदेस मंडणं कुडिणं नयरं। तत्थ परिकरिजू हसरहो भीमरहो राया। तस्स सयलते उरतरुपुप्फ पुप्फदंती देवी । ताणं विसयसुहमणु हतारण समुप्पन्ना सयलतइलोक्कालंकारभूया धूया । तीए तिलो जानो सहजो भालम्मि तरणिपडिबिंबं । सप्पुरिसस्स व वच्छत्थलम्मि सिरिवच्छवररयणं ।।।।। 'जणणीगभगयाए इमीए मए सव्वे वेरिणो दमिय' त्ति पिउणा कयं तीए दमयंति त्ति नामं । सियपक्खचंदलेह व्व सबजरगनयणाणंदिणी पत्ता सा वुड्डि समए समप्पिया कलोवज्झायस्स । प्राकृत गद्य-सोपान 87 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायंसे पडिबिंब व बुद्धिजुत्ताइ तीइ सयलकलाप्रो । संकतानो जानो य सक्खिमत्तं उवज्झायो ।। 2 ।। पत्ता य सा जुम्वरणं । तं दट्टण चिंतियं जणणीजणएहिं- 'एसा असरिसरूवा, विहिणो विन्नाणपगरिसो य । ता नत्थि इमीए समारणरूवो वरो । अस्थि वा तहवि सो न नज्जइ । अग्रो सयंवरं का जुत्तो।' तम्रो पेसिऊरण दूए हक्कारिया रायाणो रायपुत्ता य । प्रागया गयतुरयरहपाइक्कपरियरिया ते । नलो वि निरूवमसत्तो पत्तो तत्थ । भीमनिवइणा कयसम्मारणा ठिया ते पवरावासेसु । कराविमो कणयमयक्खंभमंडियो सयंवरमंडवो । ठवियाइ तत्थ सुवत्तसिंहासणाई । निविट्ठा तेसु रायाणो। एत्यंतरे जणयाएमेण समागया पसरियपहाजालभालतिलयालंकिया पुवदिस व्व रविबिबंधुरा पसन्नवयणा पुन्निमनिस व्व संपुन्नससिसुदरा धवलदुक्लनिवसणा सयंवरमंडवं मंडयंती दमयंती। तं दठू ण विम्हियमुहेहि महिनाहेहिं स च्चेव चक्खुविक्खेवस्स लक्खीकया । तो रायाएसेणं भद्दा अंतेउरस्स पडिहारी । कुमरीए पुरो निवकुमरविक्कमे कहिउमाढत्ता ।। 3 ।। 'कासिनयरीनरेसो एसो दढभ्यबलो बलो नाम । वरसु इमं जइ गंगं तुगत रंगं महसि दठ्ठ।। 4 । दमयंतीए भरिणयं- 'भद्दे, परवंचणवसणिणो कासिवासियो सुव्वंति, ता न मे इमम्मि रमइ मणं ति अग्गो गच्छ ।' तहेव काऊण भरिणयं तीए 'कुकरणवई नरिंदो एसो सिंहो त्ति वेरिकरिसिंहो । वरिऊरण इमं कयलोवरणेसु कीलसु सुहं गिम्हे ।। 5 ।। दमयंतीए भणियं- 'भद्दे, अकारणकोवणा कुकरणा, ता न पारेमि 88 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए ए अनुकूलिउ । तो अन कहेसु ।' अग्गश्रो गंतूरण भरिणयं तीए -- कम्हीर भूमिनाहो इमो महिंदो महिंदसमरूवो । कुंकुम | रेसु कोलिउकामा इमं वरसु 11 6 ।। कुमरी वृत्तं- 'भद्दे, तुसारसंभारभीरुयं मे सरीरयं । किं न तुमं जागसि ? तो इम्रो गच्छामो ।' त्ति भरणंती मंतूरा मग्गो भणि पवत्ता पडिहारी - एसा निवो जयकोसो कोसंबीए पहू पउरकोसो मयरद्धयसमरूत्र किं तुह हरिणच्छि हरइ मणं ।। 7 ।। कुमरीए वृत्त - 'कगिंजले, इरमणीया वरमाला विरगम्मविया । भद्दाए चितियं - 'अप्पडिवयरणमेव इमस्स नरिदस्स पडिसेहो ' तो अंग् गंतरण वृत्तं भद्दाए कंठे कलिंगवइरणो जयस्स खिव मालं । कलयंठकठि करवाल राहुरगा जस्स कवलिया वेरि जस - सरिगो ।। 8 ।। कुमरी वृत्तं- 'ताय-समाण वयपरिणामस्स नमो एयस्स ।' तो भड़ाए अग्गन गंतूण भणियं - गयगमरिण ! वीरमउडो गउडवई तुज्झ रुच्चइ किमेसो । जस्स करिनियर घंटारवेण फुट्टइ व बंभंड || 9 || कुमरीए जंपिगं - 'अम्मो ! एरिस पि कसिर भेसणं मानुसार रूगं होइ त्ति तुरियं अग्गो गच्छ । वेवइ मे हियां ।' तम्रो ईसिं हसंती गया अग्ग भद्दा जंपिउ पवत्ता 'पउमच्छि पउमनाहं प्रतिनाहं इमं कुरणसु नाहं । सिप्पातरंगिणीतीरतरुवणे रमिउमिच्छंती ॥ 10 ॥ प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 89 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमरीए वृत्तं- 'हद्धि ! परिस्संत म्हि इमिणा सयंवरमंडवसंचरणेग, ता किच्चिरं प्रज्ज वि भद्दा जंपिस्सइ ।' चितियं च भद्दाए- 'एसो वि न मे मणमाणंदइ ति कहियं कुमरीए । ता अग्गो गच्छामि' त्ति तहेव काउं जंपिउपवत्ता भद्दा 'एसो नलो कुमारो निसहसुनो जस्स पिच्छिउ रूनं । मन्नइ सहस्सनयणो नयणसहस्सं धुवं सहलं ।।1।। चिंतियं विम्हियमणाए दमयंतीए- 'अहो ! सयलरूवनंतपच्चाएसो अंगन्निवेसो, अहो ! असामन्नं लावण्णं, अहो ! उदग्गं सोहग्गं, प्रहो ! महरिमनिवासो विलासो । ता हियय, इमं पई पडिवज्जिऊरण पावेसु परमपरिप्रोसं' ति । तो खित्ता नलस्स कंठकंदले वरमाला । 'अहो ! सुवरियं, सुवरियं' ति समुट्टिो जरणकलयलो।' अभ्यास 1. शब्दार्थ : निरुपम = अनुपम सरह = सिंह सियपक्ख = शुक्लपक्ष नग्न = जानना . पवर = श्रेष्ठ तुसार = ठंड चाय = त्याग तरणि = सूर्य बुडी = वृद्धी हक्कार = बुलाना महिनाह = राजा पर = प्रचुर नंदरण = पुत्र दमिय = शान्त परिस = प्रकर्ष पाइक्क = पैदल सैनिक मह = चाहना साय = पिता • कुमारपालप्रतिबोध, बड़ोदा, 1920, पृ. 47-50 । 90 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. 'परवंचरण बसरिगो' कहा गया है(क) कोसाम्बी - वासियों को (ग) काशी - वासियों को 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. कोंकरण के राजा के सम्बन्ध में दमयन्ती ने क्या कहा ? 2. ' वरमाला अत्यन्त सुन्दर बनी है' दमयन्तो के इस कथन से भद्रा ने क्या . समझा ? 3. कलिंग का राजा कैसा दिखता था ? 4. दमयन्ती ने किसको वरमाला पहिनायी ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस पाठ के आधार पर प्रत्येक देश के राजाओं का वर्णन लिखो । (ख) अच्छे वर के क्या गुण होने चाहिए, पाठ के आधार पर लिखो । 5. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : पिछले पाठों से समास छांटकर लिखें महिनाह .000.000.000 (ख) अवन्ती के लोगों को (घ) चंपा के लोगों को *********** प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International महीए + नाह + ........ ******** ****** For Personal and Private Use Only [ ] तत्पुरुष 91 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 24 : विज्जुपहाए साहस-करुणा पाठ-परिचय : संघतिलक आचार्य ने लगभग 12 वीं शताब्दी में हरिभद्रसूरि द्वारा रचित सम्यक्त्वसप्तति नामक ग्रन्थ की वृत्ति लिखी है । उसमें उन्होंने पाराममोहाकहा प्राकृत मद्य में प्रस्तुत की है । यह आरामशोभाकथा एक लौकिक कथा है। इसमें विद्य तप्रभा एवं उसकी सौतेली मां के व्यवहार का सूक्ष्म वर्णन है । प्रस्तुत गद्यांश में विद्युतप्रभा के बचपन की एक घटना का वर्णन है, जिसमें वह निडर होकर एक सर्प की रक्षा करती है । सर्प देवता के रूप में प्रकट होकर उसे वरदान देता है कि उसके सिर पर छाया के लिए हमेशा एक कुज बना रहेगा। इहेव जम्बूरुक्खालंकियदीवमज्झट्ठिए अक्खंडछक्खंडमंडिए बहुविहसुहनित्रहनिवासे भारहे वासे असेसलच्छिसांनिवेसो अत्थि कुसट्टदेसो । तत्थ पमुइयपककीलियलोयमणोहरो उग्गविग्गहुव्व गोरीसुदरो सयलधन्नजाईअभिरामो अत्थि बलासपो नाम गामो । जत्थ य चाउद्दिसि जोयरणपमाणे भूमिभागे न कयावि रुक्खाइ उग्गइ । इनो य तत्थ चउव्वेयपारगो छक्कम्मसाहगो अग्गिसम्मो नाम माहणो परिवसइ । तस्स सीलाइगुणपत्तरेहा अग्गिसिहा नाम. भारिया। ताणं च परमसुहेगा भोगे भुजंताणं कमेण जाया एगा दारिया। तीसे 'विज्जुप्पह' त्ति नाम कयं अम्मापियरेहिं : "जीसे लोलविलोयणाण पुरो नीलुप्पलो किंकरो। पुग्नो रत्तिवई मुहस्स वहई निम्मल्ललील सया' ।। 1 ।। . प्राकृत गद्य-सोपार . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासावंसपुरो सुप्रस्स श्रपडू चंचूपुडो निज्जराज sa farar श्रच्छरासु वि धुगं जायंति ढिल्लायरा ॥ 2 ॥ तो कमेण तीसे टूवरिसदेसियाए दिव्ववसा रोगायंकाभिभूया माया कालधम्ममुत्रगया । तत्तो सा सयलमवि घरवावारं करेइ । उट्टिऊण पायसमए विहियगोदोहा कयघरसोहा गोचारणत्थं बाहिं गंतुरण मज्झण्हे उण गोदोहाइ निम्मिय जरणयस्स देवपूयाभोयणाई संपाडिऊरण सयं च भुत्तण पुरणरवि गोणीय चारिऊरण सञ्झाए घरमागंतूरण कयपाओसियकिच्चा खरणमित्तं निद्दासुहं सा अरगुहवइ । एवं पइदिणं कुग्णमारणी घरकम्मेहिं कयत्थिया समाणी जरणयमन्नया भरणइ - ताय ! अहं घरकम्मुरगा अच्चतं दूमिया तापसिय घर संगहं कुरणह ।' इय तीइ त्रयणं सोहरणं मन्नमारणेण तेण एगा माहणी विसद्दमसारणी गहिरणी कया । सा विसायसीला आलसुया कुडिला तहेव घरवावारं तीए निवेसिय सयं महारणविलेवरणभूमरणभोयगाइभोगेसु वावडा तरणमवि मोडिऊण न दुहा करेइ । तम्रो सा विज्जुपहा विज्जुव्व पञ्जलती चितेइ'अहो ! मए जं सुहनिमित्त जगाओ कारियं तं निरउव्व दुहहेउयं जायं । तान छुट्टिज्जई प्रवेइयस्स दुट्ठ कम्मुरणो, अवरो उरण निमित्तमित्तमेव होई ।' जनो - - सव्वो पुव्वकारणं, कम्मारणं पावए फलविवागं । वराहेसु गुणेसु य, निमित्तमित्तं परो होइ ॥ 3 ॥ एवं सामरणदुम्मणा गोसे गावीश्रो चारिऊरण मज्झरहे श्ररस - विरसं सीयलं लुक्खं मक्खियासयसंकुलं भुत्तद्धरियं भोयां भुजइ एवं दुक्खमरणुहवंतीए बारसवरिसा वइक्कंता । अन्नमि दिगो महे सुरहीसु चरंतीसु गिम्हे उन्हकर-तावियाए रुक्खाभावाम्रो पात्रो च्छायाबज्जिए सतिणप्पएसे सुवंतीए तीए समीवे एगो भुयंगो आगो प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 93 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो उण अइरत्तच्छो, संचालियजीहजामलो कालो। उक्कडफुकारारव-भयजसो सव्वपारगीरणं ।।4।। सो य नागकुमाराहिटियतणु माणुसभासाए सुललियपयाए तं जग्गवेइ, तप्पुरमओ एवं भणइ य भयभीमो तुहपास, समागो वच्छि ! मज्झ पुट्ठीए । जं एए गारुडिया, लग्गा बंधिय गहिस्संति ।। 5 ।। ता नियए उच्छंगे, सुइरं ठाविएवि पवरवत्थेणं । मह रक्खेसु इहत्थे, खणमवि तं मा विलंबेसु ।। 6 ।। नागकुमाराहिट्टिय-कामो गारुडियमंतदेवीणं । न खमो प्राणाभंगं, काउ तो रक्ख मं पुत्ति ।।7।। भयभंति मुत्त णं, वच्छे! सम्म कुरणेसु मह वयणं । तत्तो. साऽवि दयालू, तं नागं ठवइ उच्छंगे ॥ 8 ॥ तम्रो तंमि चेव समए करठवियोसहिवलया तप्पिट्टो चेव तुरियतुरियं समागया गारुडिया, तेहिं पि सा माहणतणया पुढा बाले ! एयंमि पहे कोऽवि गच्छंतो दिठ्ठो गरिठ्ठो नागो ?, तो सावि पडिभण इ- भो नरिंदा ! कि मं पुच्छेह ?, जं अहमित्थ वत्थछाइयगत्ता सुत्ता अहेसि । तो ते परुप्परं संलवंति । जइ एयाए बालियाए तारिसो नागो दिठो हुत्थो तो भयवेविरंगी कुरंगीव उत्तट्ठा हुत्था । अग्रो इत्थ नागमो सो नागो । तयणु ते अग्गरो पिठ्ठो य पलोइय कत्थवि अलहंता हत्थेण हत्थं मलंता दंतेहिं उट्ठसं. पुडं खंडता विच्छायवयरणा पडिनियत्तिऊरण गया सभवरणेसु गारुडिया। तो तीए भरिणो सप्पो-'नीहरसु इत्ताहे, गया ते तुम्ह वेरिया'। सोऽवि तीए उच्छंगाप्रो नीहरिऊरण नागरूवमुज्झिऊण चलतकुडलाहरणं सुररूवं पयडिय पभरणेइ- 'वच्छे ! वरेसु वरं जं अहं तुहोवयारेण साहसेण य संतुम्हि । 94 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावि तं तहारूवं भासुरसरीरं सुरं पिच्छिऊरण हरिसभरनिन्भरंगो विन्नवेइ ताय! जइ सच्चं तुठोऽसि, ता करेसु मझोवरि च्छायं, जेणायवेणापरिभूया सुहंसहेण च्छायाए उवविट्ठा गावीपो चारेमि' । तो तेरण तियसेण मणमि वीसंमियं- 'अहो! एसा सरलसहावा वराई ज ममानो वि एवं मग्गइ । ता एयाए एयं पि अहिलसियं करेमि' त्ति तीए उवरि को पारामो महल्लसालद्द मफुल्लगंधंपुफ्फंधयगीयसारो च्छायाभिरामो सरसप्फलेहिं पीणेइ जो पारिणगणे सयावि। तत्तो सुरेण तीइ पुरो निवेइयं- 'पुत्ति ! जत्थ जत्थ तुमं वच्चिहिसि तत्थ तत्थ महमाहप्पाओ एस प्रारामो तए सह गमिही। गेहाइगयाए तुह इच्छाए अत्तारणं संखेविय च्छत्त व्व उवरि चिट्ठिस्सइ । तुमईए उण संजायपोयगाए भावइकाले अहं सरेयन्वू' त्ति जंपिय गो सट्टाणं सो नागकुमारो।' अभ्यास 1. शब्दार्थ : दिए = स्थित निवह = समूह छक्कम्म = षट्कर्म माहरण = ब्राह्मण ढिल्लयर = शिथिल कालधम्म = मृत्यु पासोसिय = सांयकालीन साय = स्वाद निरउ = नरक ___ गोसे = प्रातः पय = वाणी पुट्ठी = पीछे गारुडिय = सपेरा विच्छाय = दुखी असेस = सम्पूर्ण पत्तरेह = प्राप्त गोणी = गाय मोउ = तोड़ना सुरही = गाय सुइरं = अच्छी तरह मारामो = बगीचा * आरामसोहाकहा (सं.--डॉ. राजाराम जैन), आरा, 1980, पृ. 1-31 प्राकृत गद्य-सोपान 95 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. विद्य तप्रभा पर घर का काम क्यों आ पड़ा ? 2. विद्युतप्रभा ने पिता को क्या सलाह दी ? 3. विद्य तप्रभा ने शरणागत नाग की रक्षा क्यों की ? ... 4. नाग ने विद्यु तप्रभा की मां क्या मदद की ? 5. सौतेली मां की दिनचर्या क्या थी ? . 3. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) बलासक गाँव कैसा था, उसकी कुछ विशेषताए' लिखिए । (ख) विद्य तप्रभा ने सौतेली मां के व्यवहार पर क्या चिन्तन किया ? (ग) सपेरे क्या कहकर वापिस लौट गये ? (घ) विद्य तप्रभा के गुणों पर 10-15 पंक्तियां लिखिए। 4. रिक्त स्थानों की प्रति करें : पिछले पाठों से कृदन्त छांटकर लिखोभरिणऊरण भरण + ऊरण ........ ....." + सम्बन्ध कृ. + ............ + ......... ............ ... ........ + 96 प्राकृत गद्य-सोपान STATER Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 25 : वरस्स णिण्यं पाठ-परिचय : जिनहर्षसूरि ने सन् 1430 में चित्तौड़ में रयणसेहरनिवकहा नामक ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ में राजा रत्नशेखर और सिंहल की राजकुमारी रत्नवती की कथा का वर्णन है। पर्व के दिनों में धर्मसाधना करने का फल बतलाना इस ग्रन्थ का प्रमुख उद्देश्य है । इस ग्रन्थ को जायसी के पद्मावत का पूर्वरूप कहा जाता है। ग्रन्थ में अन्य भी कई कथाए हैं। प्रस्तुत कथा में एक कन्या से विवाह करने चार वर उपस्थित हो गये। अतः कन्या ने उनमें युद्ध की सम्भावना देखकर स्वयं आत्मदाह कर लिया, इससे दुखी होकर उन चारों वरों ने जो कार्य किये, उसी के आधार पर उस कन्या के साथ उनका सम्बन्ध निश्चित किया जाता है। हस्थियाउरे नयरे सूर-नामा रायपुत्तो नारणा-गुण- रयण-संजुत्तो वसइ । तस्स भारिया गंगाभिहाणा। सीलाइगुणालंकिया परमसोहग्ग-सारा सुमइनामा तेसि धूया । सा कम्मपरिणामवसो जणयजणणी-भाया-माउलेहि पुढो पुढो वराणं दत्ता। चउरो वि ते वरा एगम्मि चेव दिणे परिणणेउ आगया परोप्परं कलहं कुति । तो तेसिं विसमे संगामे जायमाणे बहुजणक्खयं दठ्ठण अग्गिम्मि पविट्ठा सुम इ-कन्ना । तीए समं निबिडमोहेण एगो वरो वि पविट्ठी । एगो अस्थीरिण गंगा-पवाहे खिविउ गयो। एगो चिया-रक्खं तत्थेव जलपूरे खिविऊण तद्द खेण माहमहा-गह-गहिरो महीयले हिंडइ । चउत्थो तत्थेव ठिो तं ठाणं रक्खंतो पइदिणं एगमन्न-पिंडं मुयंतो कालं गमइ । : अह तइयो वरो महीयलं भमंतो कत्थ वि गामे रंधरणघरम्मि भोयणं प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराविऊरण जिमि उवविठ्ठो । तस्स घर-सामिणी परिवेसइ । तो तीए लहु पुत्तो अईव रोयइ। तो रोस-पसर-वसंगयाए सो बालो जलगम्मि खिविप्रो। सो वरो भोयणं कुरणंत्तो उट्ठिउलग्गो । सा भरण इ- 'अबच्च-रूवाणि कस्स वि अप्पियाणि न हुति, जेसिं कए पिउणो प्रणेम-देवया-पूजा-दारण-मंतजावाइं किं किं न कुणंति । तुमं सुहेण भोयणं करेहि । पच्छा एयं पुत्तं जीवइस्सामि । __ तमो सो वि भोयणं काऊण सिग्घं उठ्ठियो जाव ताव तीए निय घरमज्झाओ अमयरस-कुप्पियं आरिणऊण जलणम्मि छ डुक्खेवो को । बालो हसंतो निग्गयो । जगणीए उच्छंगे णीयो । तो सो वरो झायइ- 'अहो, अच्छरियं जं एवंविह जलण-जलियो वि जीवायइ । जइ एसो अमयरसो मह हवइ ता अहमवि तं कन्न जीवावेमि ।' एवं चिंतिऊरण धुत्तत्तणेण कूडवेसं काऊरण रयणीए तत्थेव ठियो । अवसरं लहिऊण तं अमयकूवयं गिहिकरण हत्थिणाउरे प्रागो। तेण पुण तीए जणणाइ-समक्खं चियामझे अमयरसो मुक्को । सा सुमई कन्ना सालंकारा जीवंती उट्ठिया। तो तीए समं एगो वरो वि जीवाविमो। कम्मवसमो पुणो चउरो वि वरा एगो मिलिया। कन्नापारिक गहणत्थं विवायं कुणंता बालचंदरायमंदिरे गया। चऊहि वि कहियं राइणों निय-निय सरूवं । राइणा मंतिणो भणिया जहा- 'एयारणं विवायं भंजिऊर एगो वरो पमाणी कायव्यो । मंतिणो वि सम्वे परोप्परं वियारं करेंति, न पुरण केरणावि विवा भंजइ । तया एगेण मंतिणा भरिणयं- 'जइ मन्नह ता विवायं भंजेमि ।' तेहिं जंपियं- 'जो रायहंसो व्व गुणदोसपरिक्खं काऊण पक्खवार्य रहिरो विवायं भंजइ तस्स वयण को न मन्नइ ?' प्राकृत गद्य-सोपा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमो तेण भरिणयं- 'जेरण जीवाविया सो जम्म-हेउत्तणेण पिया जायो । जो सह-जीवियो सो एग-जम्म-ठाणेण भाया । जो अत्थीणि गंगामज्झम्मि खिविउ गमो सो पच्छा-पुण्ण-करणेण पुत्तो जायो । जेण पुण तं ठाणं रक्खियं सो भत्ता।' एवं मंतिणा विवाए भग्गे चउत्थेरण वरेण रूवचंदाहिहाणेण सा परिणीया। कमेण सो स-नयरमागयो । सो पच्छा तीए पभावेण राया जामो तम्मि चेव नयरे । जो कस्थ वि वर-पुण्णेणं कत्थ वि महिला-सुपुण्ण-जोएण । दुण्ह वि पुण्णण पुणो कत्थ वि संपज्जए रिद्धी ।। 1 ॥ अभ्यास 1. शब्दार्थ : माउल = मामा रंधरणघर = रसोई कुप्पियं = कुपिया भंज = निपटाना भत्ता = पति पुढो = अलग अपच्च - संतान कडवेसं= बनावटी मन = मानना च उत्य = चौथा निविड = अत्यन्त जेसि कए = जिनके लिए लह = प्राप्त करना हेउत्तण = कारण जानो = हो गया * रयणसेहरीनिक कहा (सं० - सेउ हरगोविंददास), वाराणसी। प्राकृत गद्य-सोपान 99 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. एक कन्या के लिए चार वर क्यों एकत्र हुए ? 2. सुमति कन्या ने आत्मदाह क्यों किया ? 3. कन्या पुनः जीवित कैसे हुई ? 4. मन्त्री ने चारों वरों का निपटारा कैसे किया ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस पाठ के आधार पर पिता, भाई, पुत्र एवं पति के सम्बन्धों को स्पष्ट कीजिए। (ख) कैसा न्याय सबको मान्य होता है, समझाकर लिखिए । (ग) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखिए । 4. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें : पिछले पाओं से कृदन्त छांटकर लिखो - भरिणऊरण भरण + ऊरण ....... सम्बन्ध कृ. ..." + ........ + ............ ........ ... .... .... + ........ .... + + 100 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 26 : सेठ्ठयमा पुत्तलिगा पाठ-परिचय : मुनिश्री विजयकस्तूरसूरि ने प्राकृत भाषा में वर्तमान युग में कई ग्रन्थ लिखे हैं। उनके द्वारा रचित पाइअविनाणकहा नामक पुस्तक में कुल 55 कथाए हैं। सरल गद्य में लिखी हुई ये कथाएं विभिन्न विषयों से सम्बन्धित हैं। .. प्रस्तुत कथा लोकप्रचलित कथा है । भोज राजा की सभा में एक कलाकार तीन पुतलियां लाता है। वे रूप, रंग, वजन, धातु आदि में बिल्कुल समान हैं। उन पुतलियों में श्रेष्ठतम पुतली कौन-सी है, इसका निर्णय कालिदास नामक विद्वान् करता है । पुतलियों के माध्यम से हितकारी वचन को सुनकर हृदय में धारण करने वाले व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया गया है । भोयनरिंदसहाए एगया को वि वेएसियो समागमो । तया तीए सहाए कालीदासाइणो अरणेगे विउसा संति । सो वेएसियो नरिंदं पणमित्र कहेइ'हे नरिंद ! अणेगविउसवरालंकिय तुच सहं नच्चा पुत्तलिगात्तिगमुल्लंकरण? तुम्ह समीवे हं प्रागो म्हि ।' एवं कहिऊरण सो समुच्च-वण्ण-रूवं पुत्तलिगातयं रणो करे अप्पिऊरण कहेइ- "जइ सिरिमंतारणं विउसवरा एमआसि उइनं मुल्लं करिस्संति, तया अज्ज जाव अन्ननरवरसहासु जएण मए लद्धा जे विजयंकंकिग्रा लक्खचंदगा ते दायव्वा, अन्नह अहं विजयक चन्हिप्रसुवण्णचंदगमेगं तुम्हारी गिहिस्सं" । रणा तानो पुत्तलीग्रो मुल्लक रगत्थं विउसारणमप्पियानो । को वि विउसो कहेइ- "पुत्तलिगागयसुवरणस्स परिक्खं णिहसेण हे मरिणगारा ! तुम्हे कुरणेह, तुलाए वि पारोविऊरण मुल्लं अकेह" । तया सो वइएसिप्रो ईसि हसिऊरण कहेइ- एरिसप्पयारेण मुल निरूवगा जयंमि बहवो संति, अस्स सच्चं मुल्लं जं सिया, तं गाउ भोयनरिंदसभाए समागमो म्हि' प्राकृत गद्य-सोपान 101 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सोच्चा पंडिया पुत्तलिगायो करे गहिऊरणं सम्मं निरूविति, पंरतु पुत्तलिगातिगस्स रहस्सं गाउं न तीरंति । तया कुद्धो नरिंदो वएइ- "एयाइ महईए परिसाए किमु कोवि एयासि मुल्ल काउं न समत्थो ?, धिद्धि तुम्हाणं"। तया कालीदासो कहेइ- 'दिरणत्तएणावस्सं मुल्लं काहामि' त्ति कहिऊण सो पुत्तलिगाओ गहिऊरण घरंमि गयो । वारंवारं ताओ दठूठूण बहु विमारेइ । सुहुमदिठ्ठीए तानो निरिक्खेइ । तया ताणं पुत्तलीरणं कण्णेषु छिद्दईपासेइ, पासित्ता तेसु छिद्देसु तणुगं सलागं पक्खिवेइ, एवं सव्वानो सलागापक्खेवेण निरूवित्र तासि मुल्लं पि अंकेइ । तिदिणंते नरिंदसहाए गच्चा निवस्स पुरनो कमेण तापो ठविऊरण तेण वुत्तं- "पढमाए पुत्तलिगाए मुल्लमेगकवड्डिामेत्तं, बीमाए एगं रूवगं, तइमाए मुल्लमेगलक्खरूवगमस्थि" । तं मुल्लं सोच्चा सव्वा सहा अच्छेरमग्गा जाया । वइएसिएण कहिअं- "एएण सच्चं मुल्लमुत्तं, ममावि तं चित्र अरणमयं" । राइणा कालीदासो पुट्ठो- 'तुमए समपमारण-वण्ण-रूवाणं एमासि कहं विसमं मुल्लं कहिअं" ति ! । कालीदासो कहेइ-हे नरिंद ! मए पढमपुत्तलिगाए मुल्लं कवड्डिामेत्तं कहि अं, जो इमीए कण्णच्छिद्दे सलागा पक्खिविया, सा बीअकन्नच्छिद्दामो निग्गया। तो सा एवं उवदिसेइ'जयंमि धम्मसोयारा तिविहा उत्ता, पढमो सोयारो एरिसो होइ, जो अप्पहियगरं वयणं सुरणेइ, सुणित्ता अवरकण्णाप्रो निस्सारेड, न य तय गुसारेण पय?'इ । सो सोयारो पढमपुत्तलिगासरिसो रणेनो, तस्स किपि मुल्लं न, असो मए पढमसोयारसमपढमपुत्तलिगाए मुल्लं कवड्डियामेत्तं कहिअं"। बीअपुत्तलिगाए करणे पक्खित्ता सलागा मुहेण निग्गया, सा एवं कहेइ --- "जयंमि केवि सोयारा एप्रारिसा हुति, जे उ अप्पहियगरं वयए सुगंति, अन्नं च उवदिसंति, किंतु सयं धम्मकिच्चेसु न पट्टति, एरिस सोयारा बीअपुत्तलिगा सरिसा नायव्वा" तो बीअपुत्तलिगाए मुल्लं मा रूवगमेगं कहिन 102 प्राकृत गद्य-सोपा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइअपुत्तलिगाए कण्णं पक्खित्ता सलागा बाहिरं न निग्गया, परंतु हियए प्रोइण्णा, सा एवं उवदिसइ-- “केवि भब्वजीवा मम सरिच्छा हवंति, जे उ परलोगहियगरवयणं उवउत्ता सम्म सुरणंति । धम्मकज्जेसु जहसत्ति पवदृते, एरिसा सोयारा तइअपुत्तलिगाए समारणा नायव्वा' तो मए तइअपुत्तलिगाए मुल्लं लक्खरूवगं ति जारणाविनं। एवं कालीदासस्स वयणं सोच्चा भोयनरिंदो प्रन्ने वि य पंडिआ संतुट्ठा । सो वेएसियो पराइओ समारणो त चंदगलक्खं नरिंदग्गो ठवेइ । राया तं सनं कालिदासस्स अप्पेइ ।* I. शब्दार्थ : बेएसिमो = विदेशी विउसा = विद्वान करणट्ट = करने के लिए उइन = उचित माउ = जानने के लए तीर = समर्थ जय = संसार परिसा = सभा धिद्धि = धिक्कार गच्चा = जाकर कवडिप्रा = कौड़ी सोच्चा = सुनकर अच्छेरमग्गा= आश्चर्य युक्त किन = कार्य सोपारा = श्रोता मोइण्णा = उतर गयी उवउत्त = सावधान सम्म = अच्छी तरह * पाइयविनाणकहा (सं०-जयचन्द्रविजय), अहमदावाद, 1967, पृ० 77-80 । प्राकृत गद्य-सोपान 103 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. सभा में विदेशी कलाकार पुतलियों को लाया था(क) बेचने के लिए (ख) नचाने के लिए (ख) नचान क । (ग) उचित मूल्य तय कराने (ब) कला-प्रदर्शन हेतु ] 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न । प्रश्न का उसर एक वाक्य में लिखिए : 1. उन पुतलियों का बाहरी रूप कैसा था ? 2. पुतलियों का वास्तविक मूल्य कैसे ज्ञात हुआ ? 3. श्रेष्ठतम पुतली कौन-सी थी ? 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) पुतलियों और श्रोताओं की तुलना अपने शब्दों में करिए। 5. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : पिछले पाठों से समास छांटकर लिखें धम्मस्स + कज 1 धम्मकज्ज + तत्पुरुष """ L + ......re ........... + me.... ...0000 eron.... + - - - 104 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 27 : परोवगारिणो पक्खिणो पाठ-परिचय : आचार्य विजयकस्तूरसूरि ने स्वतन्त्र कथानक को लेकर भी प्राकृत में ग्रन्थ लिखे हैं। प्राचीन साहित्य में प्रसिद्ध श्रीचन्द्रराजा की कथा को लेकर उन्होंने वर्तमान युग में सिरिचंदरायचरिय नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है। श्रीचन्द्रराजा के पुत्रजन्म से लेकर दीक्षा तक के नाना प्रसंगों का सजीव वर्णन इस ग्रन्थ में हुआ है। प्रस्तुत गद्यांश उस समय का है, जब रानी वीरमती उद्यान में अकेली बैठी थी और संतान न होने से उदास थी। उसी समय वहाँ एक तोता आया । उस तोते और रानी के बीच जो वार्तालाप हुआ उससे पता चलता है कि पक्षी मानव का कितना उपकार करते हैं । अतः पक्षियों के प्रति करुणा की जानी चाहिए। तइया तीए पुण्णपेरिमो कोवि सुगो को वि समागंतूण सहयारतरुसाहाए उवविट्ठो। मिलारणमुहपंकयं वीरमइ पेक्खित्ता परुवयार-तल्लिच्छो सो सुगो मणुसभासाए तं भासे इ- 'सुदरि ! किं रोएसि ? वसंतकीलारंग चइऊरण कि दुहट्टिया भायसि ? नियदुहं मम निवेयसू ।' सा वीरमई एवं सुगवयणं सोच्चा उड्ढं पेक्खिन मणअभासाभासगं सुगवरं निरिक्खऊरण जायकोउगा मउणं चइत्ता भासेइ- 'विहग ! मम मरणोगयभावं नच्चा तु किं विहेहिसि ? फलभक्ती लहू-पक्खी, भमंतो गयणो सया। तिरिच्छो सि वणे वासी, विवेगविगलो तुमं ।। 1 ।। जइ मम दुहभंजगो सिया तया तव पुरो रहस्सकहणं समुइयं । प्राकृत गद्य-सोपान 105 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो मूढमई अण्णेसि नियरहस्सियवृत्तंतं कहेइ सो केवलं पराभवपयं पावेइ । वुत्तं च रहस्स भासए मूढो, जारिसे तारिसे जणे। कज्जहारिण विवत्ति च, लहए हि पए-पए ।। 2 ।। अप्रो रहस्सवुत्तंत अणुग्घाडियं चेव वरं ।' तो सो सुगो वएइ- 'महादेवि ! किं एवं संकसे ? पक्खिणो जं जं कज्जं साहिति तं विहेउ नरा वि असक्का ।' तं सुरिणऊण विम्हियचित्ता सा कहेइ- 'सुग ! असच्चं वयंतो कि न लज्जेसि ? मणसानो नाणविरहिमा पक्खिजाई कहं दक्खा ?' तया सुगो कहित्था- 'देवि ! जगम्मि पक्खिसरिसो को अत्थि ? तिखंडाहिवइ वासुदेवविण्हुस्स वाहणं पक्खि राम्रो गरुलो अस्थि । कवियणमुहमंडणं वरप्पयाइणी जडयावहारिणी भगवई सरस्सई हंसवाहणविराइमा अस्थि । एत्थ तीए सोहाकारणं विहगो च्चिन। कासइ सेट्ठिवरस्स मयबाणबाहा-असहाए वल्लहाए सुगरानो नव-नव-कहाहिं अखंडसीलं रक्खित्था, इस तुमए न सुग्रं ? नलराय-दमयंतीसंबन्धजणगो मरालो होत्था, एवं जयम्मि पक्खिवरेहिं प्रणेगुवयारा कया । पढियक्खरमेता विहगा वि जीवदयं कुरणंति । प्रागमे वि तिरिक्खा पंचमगुणवाणाहिगारिणो कहिना संति । अम्हे गयणचारिणो तहवि सत्थसारवेइणो होमो । नियजाइपसंसा समुइया, न उ अगल हुत्तरगट्ट ।' एवं सुगरायवयणं सुरिणता पमुइयमणा वीरमई वएइ- 'सुगराय ! तुम सच्चवयणो बुहोसि । तव वयणविलासेण पुलगियदेहा अहं तुमं जीविपायो वि पिययमं मप्णेमि । इह उववरणम्मि तुह आगमणं अण्णपेरणाए वा निय-इच्छाए संजायं ?' सो सुगो वएइ- 'केणइ विज्जाहरेण पालियो ससिणेहं च सुवण्णपंजरे ठविप्रो अहं. तेण उवइट्ठ सयलकजं कुणतो तस्स चित्तं रंजित्था । -106 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह अन्नया मं घेत्त ण विज्जाहरो मुग्गिदवंदण' गरो। मुरिंणदं पण मिऊरण कयंजली तप्पुरमो उवविट्ठो। मुरिगवरदंसरणेण पावरहिनो अहं पि तं चित्र झायंतो संठियो। मुणिवरो महरवायाए धम्मुवएसं कासी । देसणंते पंजरस्थिग्रं मं निरिक्खित्ता कहेइ- 'जो तिरिक्खबंधरणासत्तो होइ तस्स महापावं सिया तस्स हिययम्मि दया न हवइ, दयं बिरणा कहं धम्मसिद्धी सिया? बंधणपडिया पारिगणो परं दुहं अरणभांति, तमो धम्मत्थीहिं को वि जीवो बंधणगो न विहेयव्यो । सव्वेसिं सुहं चिय पियं । वुत्तं च सव्वाणि भूग्राणि सुहे रयारिण, सव्वाणि दुक्खाउ समुग्वियंति । तम्हा सुहत्थी सुहमेव देइ, सुहप्पदाया लहए सुहाइ ।। 3 ।। इच्चाइ वयणेण पडिबुद्धो सो विज्जाहरो गहिय नियमो बंधणामो मं मुचित्था । तो हं मुरिंणदं नच्चा तस्स उवयारं सुमरंतो वणंतरं अइक्कमंतो रमंतो एत्थ समागंतूण अंबतरुसाहाए उवविठ्ठो तए पेक्खियो । देवि ! तम्हा मम पुरो गोवरिणज्ज किंचि बि न, असच्चं न वएमि । तव चितं अवस्सां मंजिस्सं । अभ्यास 1. शब्दार्थ : सहयार विह तिखंड कासइ बुहो देसरण = आम साहा = डाली चइऊरण = ऊपर मउणं = मौन चइत्ता = करना विगल = रहित दक्खा = तीन लोक अहिवइ = स्वामी जडया = किसी मराल = हंस वेइणो = विद्वान् घेत्तरण = लेकर कासी = उपदेश पदाया = देनेवाला इच्चाइ = छोड़कर = त्यागकर = चतुर - अज्ञान = जानकर = किया = इत्यादि • सिरिचंदरायचरियं (सं.- चन्द्रोदयविजयगणी), सूरत, 1971, पृ० 14-16 । प्राकृत गद्य-सोपान 107 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए - 1. मन के दुख कहना चाहिए(क) सबके सामने (ग) दुख दूर करने वाले को 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : 108 प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए: 1. जिस किसी के सामने अपना रहस्य कहने से क्या हानि है ? 2. पक्षी मनुष्य के लिए क्यों उपकारी हैं ? 3. पक्षियों को बन्धन में क्यों नहीं रखना चाहिए ? 5. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : --- 4. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) पाठ के आधार पर प्रमुख पक्षियों और महापुरुषों से उनके सम्बन्ध बताईए । (ख) मुनि के उपदेश को अपने शब्दों में लिखिए । पिछले पाठों से समास छांटकर लिखें धम्मकज्ज ******* .............. Jain Educationa International (ख) राजा के सामने (घ) किसी को भी नहीं धम्मस्स + ज्ज + + *** ....... ........ For Personal and Private Use Only [ ] तत्पुरुष प्राकृत गद्य-सोपान Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 28 : साह-जीवणं पाठ-परिचय : - श्री चन्दनमुनि ने वर्तमान युग में प्राचीन शैली में एक प्रेरक कथानक को लेकर रयरणवालकहा नामक पुस्तक लिखी है। प्राकृत गद्य में लिखी गयी यह कथा रत्नपाल के साहस, पुरुषार्थ एवं उसकी कर्तव्यपरायणता को प्रकट करती है। इस पुस्तक में स्थान-स्थान पर विभिन्न विषयों पर लेखक ने अपने विचार प्रकट किये हैं। प्रस्तुत गद्यांश में विभिन्न ऋतुओं में गृहस्थों और साधुओं के जीवन में क्या अन्तर होता है, इसका प्रतिपादन किया गया है। ईसिंहसिम-दंसिप्रधवलदंतपंतिणा राउलेण वाहरिअं- 'ण एत्थ कोइ खेप्रस्स विसयो । अस्थि किमुक्किट्ठ जगणो-जण्याइरित्तं । तेसि सेवा खु देव-सेवा । तेसि दंसरणं खु देव-दंसरणं । तेसि प्राणा कि र देव-पारगा । कि तेण किमि-कोडि गएण कुलिंगालेरण जाएण, जो ण हवइ पिअराण सुहहेऊ ? परंतु ण एयं कज्ज तएजारिसाणं गिहत्थाणं । अस्थि मएजारिसारणं तु वामहत्थलीला अणुसंधारणकज्ज । सोमालसेहर ! ण अणुऊलो गिहत्थारण हेमंत-उऊ । जाला पवहइ-अइ सीअलो जगं कंपावेमाणो जडो ऊइणो पवरणो, ताला को सुहिनो निहत्थो गिहायो गीहरइ ? पहिरियणाणुण्णिप्रवासो, पारोग्गिअविसिट्ठ सत्तिदायगोसहमीसिअ-मिट्ठण्णो, दारापुत्तपरिवारिप्रो उवानलं द्विषो वासराइं गमेइ । तत्थ णि प्पिहो झडिलो समरणो तावसो गलि अचीवरो दिनंबरो वा साणंद रुवखमूलम्मि ठिो झारणं झायइ, परमिट्ठि सुमिरइ, छुहं अहिआसे इ सुहंसुहेण सीअालं च जवेइ । तहेव उण्हालो वि ण भोईणमणुलोमो। जाहे पतवई अइ तिग्म प्राकृत गद्य-सोपान 109 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस्सीहि अंसूमाली। वण्डिसरिच्छा हवइ धरणी । सव्वं पि वायावरणं तातप्पावेमाणो पवहइ असहरिणज्जो मारुओ। वारं वारं परिफुसिगं पि ण सुक्कत्तणमुवेइ सेमजलं । सुपीन पि उदयं रण कयाइ पी पिव अणुहवंति, तण्हालुमाइ ओट्टतालुकंठ विवराई ताहे पत्तसमग्गभोगसामग्गोनो णाणाविहं सी-पेज्जं पिबेंतो वायारणूकूलिअगिहम्मि अल्लीणो सुकई को हम्मिनचएउ चयइ ? तत्थवि मुणी जत्थ कत्थइ ठिो, जं किमवि सीउण्हं भुजतो, उसिणं जलं पिबेंतो, तत्तभूमीले वि अपत्थुम सुवेतो, परममुइयो लक्खिज्जइ । केण अरणहविज्जइ गिम्हकालतत्ती जो अगुवेलं सरेइ परमं पयं ? जस्स सव्वं पि बाहिरं वत्थुजायं बाहिरं तस्स का सुहस्स दुहस्स वा कप्पणा ? महो विचित्तो मुणीण मग्गो। तहेव पाउससमयो वि ण जेट्टासमीहिं सुसहो, जया वासेंति पयोवाहा, जया-तया हवंति पच्छरण-रविविबारिण दुहिणाणि । हिअयं कंपिन कुणेमारणी विज्जोइ विज्जू। गडगडायमाणो कण्णमूलं भिंदेइ पुण थरिणअसद्दो । पिच्छिला हवंति वत्तणीयो। सवेपारो वहंति पिण्णायो । अब्भंतरिओ वि अक्को अईव अंतरंगगिम्हिमं अणुहवावेइ जाउ, तम्मि को सुही जुवइजणविरहियो चिठ्ठिउखमो ? विहिपरतंतो पउत्थो वि कोइ गिहं संभरेइ रतिदिअहं । उक्किट्ठमंतव्वेप्रणं मारणेइ काइ पवसिमभत्तिमा “पिउ-पिउ' त्ति बप्पीहसद्देण पिन संसरेमाणी मा गणी। तहि पाउसम्मि वि पच्चक्खाय-पाणभोप्रणा गिरिकंदरासु समल्लीण', ववगयसव-सरीरमाणपचिता, अक्खयबंभचेर-परिवढिप्रलेस्सा, झारणकोट्ठोवगया अलविखन तक्करणारहिन सुहं बेलमइवाहयंति । अग्रो संति सव्वे वि उउणो मुणीणं दाहिणावट्टा ।' * रयणबालकहा (चन्दनमुनि), अहमदाबाद, 1971, पृ० 178-182 110 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास 1. शब्दार्थ : ईसि = थोड़ा इरिक्त = अतिरिक्त कुलिंगाल = कुल-नाशक ऊईगो = उत्तरी उणि = ऊनी रिणपिहो = अनासक्त अहिमास = सहन करना उहाल = गर्मी सुकई = पुण्यवान अणवेलं = प्रतिक्षण प्रारणा = आज्ञा ताला - तब झडिलो = जटाधारी भोई = गृहस्थ पयोबाह = बादल 2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : 1. सभी ऋतुओं में धर्म ध्यान में लीन रहते हैं(क) संसारी मनुष्य (ख) विद्वान् (ग) राजा लोग (घ) साधु मुनि 3. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए: 1. शीतकाल में सच्चा साधु कहाँ रहता है ? 2. किसका स्मरण करने से साधु को गर्मी का अनुभव नहीं होता? 3. वर्षाऋतु गृहस्थों को क्यों अनुकूल नहीं होती ? 4 निबन्धात्मक प्रश्न : (क) पाठ के आधार पर तीनों ऋतुओं में गृहस्थों की दिनचर्चा का वर्णन करें। (ख) साधु-जीवन के प्रमुख कार्यों का उल्लेख करें । प्राकृत गद्य-सोगान 11 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : प्राकृत भाषा का प्रयोग नाटकों के पात्र भी करते रहे हैं। लगभग गुप्तयुग के पूर्व नाटककार शूद्रक द्वारा लिखे गये प्रहसन (नाटक) मृच्छकटिक में विभिन्न प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है । यह प्रहसन भारतीय जनता का प्रतिनिधि नाटक है | अन्यायी राजा के शासन के विरुद्ध सामान्य जनता ने जो लड़ाई लड़ी है, उसकी झांकी इस नाटक में है । प्रस्तुत कथोपकथन में राजा के विलासी साले और उसके गाड़ीवान् के बीच नगरबधू वसन्तसेना की हत्या करने के सम्बन्ध में जो बातचीत हुई है, वह गाड़ीवान् के दृढ़ चरित्र को तथा अच्छे-बुरे कर्मों के फल को प्रकट करती है । इस कथोपकथन में मागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है । समारो चैडो सगारो खेडो समारो चेडो सगारो खेडो सगारो चेडो पाठ 29 : चेडरस धम्मबुद्धी 112 Jain Educationa International - - अधम्मभीलू एशे बुड्ढकोले । भोदु, थावलनं चेडं अणुरोमि । पुत्तका ! थावलका ! चेडा ! शोवणकडाई दशं । श्रहं पिपलिशं । शोवण दे पीढके कालइश्शं । अहं उवविशशं । शां दे उच्छि दशं । अहं पि खाइश्शं । शव्वचेडाणं महत्तलकं कलशं । भट्टके ! हुविश्शं । ता मोहि मम वश्रणं । भट्टके ! शब्वं कलेमि, वज्जि कज्जं । For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगारो चेडो सगारो चेडो - सगारो चेडो - सगारो चेडो - अकज्जाह गन्धे वि गत्थि । भणादु भट्टके ! एणं वशन्तशेरिण मालेहि । पशीददु भट्टके ! इन मए अणज्जेण अज्जा पवहणपलिवत्तरणेण पाणीदा। अले चेडा ! तवावि रण पहवामि ? पहवदि भट्टके ! शलीलाह, ण चालित्ताह । ता पशीददु, पशीददु भट्टके ! भामि क्तु अहं । तुम मम चेडे भविप्र कश्श भाशि ? भट्टके ! पललोअश्श। के शे पललोए ? भट्टके ! शुकिद-दुक्किदश्श पलिणामे । केलिशे शुकिदश्श पलिणामे ? जादिशे भट्टके बहु-शोवण्णमण्डिदे । दुक्किदश्श केलिशे ? जादिशे हग्गे पलपिण्डभक्खए भूदे । ता अकज ण कलइश्शं । अले ! ण मालिश्शशि? (इति बहुविहं ताडयइ) पिट्टदु भट्टके ! मालेदु भट्टके ! अकज्ज ण कलइश्शं । सगारो सगारो - चेडो - सगारो सगारो चेडो जेण म्हि गम्भदाशे विरिणम्मिदे भारप्रदोशेहिं । अहिनौं चरण काणिस्सं तेरण अकज्ज पलिहलामि ।। 1 ।।* * मृच्छकटिक (शूद्रक), निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, अक आठों से संशोधित रूप में उद्ध त । प्राकृत गद्य-सोपान 113 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 30 : अंगुली अयस्स पति पाठ-परिचय : महाकवि कालिदास ने लगभग चौथो शताब्दी में प्रभिज्ञानशाकुन्तलं नाटक लिखा है । उसके अधिकांश पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते हैं। इस नाटक में राजा दुष्यन्त एवं ऋषिकन्या शकुन्तला के प्रेम की कथा वरित है । राजा की अंगूठी को नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका है। वही अंगूठी शकुन्तला की अंगुली से नदी में गिर जाती है । अंगूठी के अभाव में राजा शकुन्तला को अपनी पत्नी स्वीकार नहीं करता है । प्रस्तुत कथोपकथन में उसी नदी के मछुआरे को राजा के सिपाहियों और कोतवाल ने पकड़ लिया है। मछुआरा अपनी निर्दोषता प्रकट कर रहा है कि उसने चुरायी नहीं है । उसे वह मछली के पेट में मिली है । सिपाही उसे दण्ड दिलाने के लिए राज दरबार में ले जाते हैं । अंगूठी पांकर राजा उस मछुआरे को पुरष्कृत करता है । (तओ पविसइ गागरिओ सालो, पच्छा बद्धपुरिसं गेण्हंता दुवे रक्खिणा च ) वे रक्खा (ताऊ) अले, कु.भीला ! कहेहि कहि तुए एशे मणिबंध किरणरणा महेए लानकीए प्रगुलीनए शमाशादिए ? (भी गाडियए) पशीदंतु भावमिश्शे ! हगे ईदिकमकाली । किं खुशोहणे म्हणे त्ति कलि लगा पडिग्गहे दिण्णे ? 114 पुरिसो पढमो रविखरणो Jain Educationa International - पुरिसो शुगुह दारिंग | हगे शक्कावदालब्भंतरालवाशी धवले । For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीमो रक्खिरणो - पाडच्चला ! कि अम्हेहिं जादी पुच्छिदा? सालो (कोड कालो)- मुअन ! कहेदु शव्वं अणुक्कमेण । मा णं अन्तरा पडिबन्धह। दोषिण - जं आवुत्ते प्राणवेदि । कहेहि । परिसो -- अहके जालुग्गालादीहिं मच्छबन्धरणोवाएहिं कुड्डम्ब भलणं कलेमि । सालो - (हसिऊरण) विसुद्धो दाणि आजीवो । पुरिसो – भट्ट ! मा एव्वं भण शहजे किल जे वि णिन्दिए ग हु दे कम्मविवज्जणीपए। पशुमण्लणकम्मदालुणे अणुकम्मामिदु एळां शोत्तिए ।। 1 ।। सालो - तदो तदो। पुरिसो - एक्कश्शिं दिअशे खंडशो लोहिप्रमच्छे मए कप्पिदे । जाव तश्श उदलब्भंतले एदं लदणभाशुलं अंगुलीअनदेक्खिन। पच्छा प्रहके शे विक्का दंशअते गहिदे भाव मिश्शेहि । मालेहि वा मुचेह वा, अनशे प्राअमवृत्तंते। सालो जाणुन ! विस्सगंधी गोहादी मच्छबंधो एव्व णिस्सं स। अंगुलीग्रप्रदंसरणं शे विमरिसिदव्वं । राम उलं एव्व गच्छामो। दुवे रक्खिरणा - तह । गच्छ अले गंडभेदन !• अभिज्ञानशाकुन्तलं, (कालिदास), निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, अंक छठे से उद्धत । प्राकृत गद्य-सोपान 115 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास (पाठ 29) 1. प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : .. 1. शकार ने अनुचित कार्य करने के लिए गाड़ीवान् को क्या-क्या प्रलोमन दिये ? 2. गाड़ीवान् पर शकार का कितना अधिकार था ? 3. चेट ने अच्छे-बुरे कर्मों के फल का क्या उदाहरण दिया ? 2. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस कथोपकथन की भाषा के सम्बन्ध में अपने शिक्षक से समझे और उसकी विशेषताएलिखें। अभ्यास (पाठ 30) 1. प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. मछुआरे को सिपाहिओं ने क्यों पकड़ा था ? 2. मछुआरे ने अपनी जीविका के सम्बन्ध में क्या सूचना दी ? 3. अंगूठी की प्राप्ति के सम्बन्ध में मछुआरा क्यों निर्दोष था ? 2 निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस कथोपकथन की भाषा के सम्बन्ध में अपने शिक्षक से समझें और उसकी विशेषताएं लिखें। (ख) अभिज्ञानशाकुन्तलं में अंगूठी के महत्त्व को स्पष्ट करें। 116 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 31 : कवि-गोट्ठी पाठ-परिचय : महाकवि राजशेखर ने 10 वीं शताब्दी में कर्पूरमंजरी नामक नाटक (सट्टक) प्राकृत भाषा में लिखा है । इसमें चन्द्रपाल राजा और कर्पूरमंजरी की प्रेमकथा वरिणत है। सौन्दर्य-वर्णन एवं काव्य-चर्चा की दृष्टि से यह नाटक महत्वपूर्ण है । प्रस्तुत कथोपकथन में राजा के दरबार में उसके मित्र कपिंजल नामक विदुषक तथा रानी की प्रमुख दासी विचक्षणा के बीच काव्यात्मक नोंक-झोंक होती है । राजा विचक्षणा का पक्ष लेता है । इससे क्रोधित होकर विदूषक सभा से चला जाता है। रामा - सच्चं विप्रक्खरणा विअक्खणा, चतुरत्तणेण उत्ती विचित्तदाए रीदीणं । ता कि अण्णं क इचूडामरिणत्तणे ठिदा एसा। विऊसतो - (सकोह) ता उज्जुन जेव कि ण भरणीअदि अच्चुत्तमा विअक्खणा कवम्मि, अच्चहमो कविजलो बम्हणो त्ति । विभक्खणा - अज्ज ! मा कुप्प । कव्वं जेव दे कइत्तणं पिसुणेदि । जदो कान्तारत्तणणिन्दणिज्जे वि अत्थे, सुउमारा दे बाणीलम्बत्थरणीए विअ एक्कावली, तुन्दलाए विग्र कंचुलिया, कारणए वित्र कज्जलसलामा रण सुट्ट दरं रमणिज्जा । विऊसो - तुज्ज उण रम तुज्ज उरण रमणिज्जे वि अत्थे रण सुन्दरा सद्दावली। करणअकडिसुत्तए विप्र लोहकिंकिणीमाला, पडिवट्टए विध तसरविरप्रणा, गोरंगीए विन चंदणचच्चा ण चंगत्तणं अवलम्बेदि । तधा वि तुमं वण्णीअसि ।। विभक्खणा - अज्ज ! मा कुप्प । का तुम्हेहिं समं पाडिसिद्धी ? जदो तुमं णारापो विष णिरक्खरो वि रदरणतुलाए रिणउज्जी प्राकृत गद्य-सोपान 117 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असि । अहं उण तुला विअ लद्धक्खरा वि ण सुवण्णतुलणे रिणउज्जीग्रामि। विऊसपो - एवं मं हसंतीए तुह वामं दक्खिणं च जुहिटिरजेट्ठभाअर रणामहे अंग तडत्ति उप्पाडइस्सं । विभक्खरणा- अहं पि उत्तरफग्गुणीपुरस्सर-णक्खत्तणामहे अंग तुह तडत्ति खंडिस्सं । राम्रा - वास्स ! मा एवं भरण । कइत्तणे ठिदा एसा । विऊसनो - (सकोहं ) ता उजु जेव किं रण भणीअदि अम्हाणं चेडिया हरिउड्ढ-णंदिउड्ढ-पोट्टिस-हालप्पहुदीणं पि पुरिदो सुकइ त्ति । अभ्यास 1. प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. विचक्षणा ने विदूषक की कविता में क्या दोष बतलाया ? 2. विदूषक ने विचक्षणा की कविता में क्या दोष बतलाया ? 3. विचक्षणा ने विदूषक के साथ अपनी तुलना किस उदाहरण को देकर की ? 2. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) इस कथोपकथन की भाषा के सम्बन्ध में अपने शिक्षक से समझे और और उसकी विशेषताए' लिखें। (ख) इस पाठ में प्रयुक्त उपमाओं की एक सूची बनाईए। (ग) अच्छी कविता में दो गुण कौन-से प्रमुख हैं, इस पाठ के आधार पर लिखिए। • कर्पूरमंजरी (सं.-डॉ. आर. पी. पोद्दार), वैशाली, 1974, प्रथम जवनिका, पृ. 138-139 से उद्ध त । 118 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 32 : पाइय- अहिलेहाणि पाठ-परिचय : सम्राट अशोक ने धर्मप्रचार के लिए एवं शासन की आज्ञाएं प्रसारित करने के लिए अपने राज्य की सीमाओं में शिलाओं पर अपनी आज्ञाएं खुदवा दी थीं । उसकी ये आज्ञाएं तत्कालीन जन भाषा प्राकृत में थीं, किन्तु उनमें पालि एवं संस्कृत के भी कुछ प्रयोग सम्मिलित हो गये हैं । अशोक के ये शिलालेख प्राकृत गद्य के सबसे प्राचीन लिखित नमूने हैं 1 अशोक के प्रमुख शिलालेख 14 हैं । उनमें से प्रथम, द्वितीय एवं बारहवां शिलालेख यहाँ प्रस्तुत है । इनमें जीवदया, मांसभक्षण- निषेध, चिकित्सासेवा, वृक्षारोपण, धर्म-समन्वय एवं दान आदि के कार्यों पर प्रकाश डाला गया है । १. जीवदया : मंसभक्खण-नि सेहो इयं धंमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना राम्रा लेखापिता । इध न किं चि जीवं प्रारमित्वा प्रजू हितव्यं । न च समाजो कतव्यो । 1. 2. 3, 4. बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवानंप्रियो प्रियद्रसि राजा । 5. अस्ति पितु एकचा समाजा साधुमता देवानंप्रियस प्रियदसिनो राम्रो । 6. पुरा महानसम्हि देवानं प्रियदसनो राम्रो अनुदिवस बहूनि प्रारण सत सहखानि प्रारभिसु सुपाथाय । 7. से अज यदा श्रयं धमलिपी लिखिता ती एव प्राणा श्रारभरे सूपाथाय द्वौ मोराएको मगो, सो पि मगो न घुवो । 8. एते पित्री प्रारणा पछा न प्रारभिसरे । प्राकृत ग्रह-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 119 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. लोगोवयारी कज्जाणि 1. सवंत विजितम्हि देवानंप्रियदसनो रामो एवमपि प्रचंतेसु यथा-चोडा पाडा सतियपुत केतलपुतो आतंबपणी प्रतियोको योनराजा, ये वा पि तस प्रतियकस सामीपं राजानो सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राम्रो द्व चिकीछ कता-मनुसचिकीछा च पशुचिकोछा च । 2. अोसुडानि च यानि मनुसोपगानि च पसोपगानि च यत यत नास्ति, सर्वत्र हरा पितानि च रोपापितानि च । 3. मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्रा हारापितानि रोपापितानि च । 4., पंयेसू कूपा च खानापिता, ब्रछा च रोपापिता पसुमनुसानं । ३. समवायो एव साधु 1. देवानांपिये पियदसि राजा सव पासंडानि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन च विविधाय च पूजाय पूजयति ने । न तु तथा दानं व पूजा व देवानपिनो मंजते यथा किति सारवढी अस सब पासंडानं । ___ सारवढी तु बहुविधा । तस तु इदं मूलं य वचिगुती किंति आत्मपासंड पूजा व परपासंडगरहा व न भवे अप्रकरण म्हि । 4. लहका व अस तम्हि तम्हि प्रकरणे। पूजेतया तु एव परपासंडा तेन तेन प्रकरणेन । एवं करुं प्रात्मपासंडं च वढयति परपासंडस च उपकरोति । 5. तदंाथा करोतो आत्मपासंडं च छरणति परवासंडस च पि प्रयकरोति । 6. यो हि कोचि आत्मपासंडं पूजयति परपासंडं वा गरहति सवं आत्मपासंड भतिया किंति आत्मपासंडं दीपयेम इति सो च पुन तथ करातो प्रात्मपासंडं वाढतरं उपहनाति । 120 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. त समयावो एव साधु किंति मंत्रमंत्रास घमं स्र ुणारु च सुसु सेर च । एवं हि देवानंपियस इछा किंति सवपासंडा बहुश्रुता च असु कलाणागमा च असु । 8. ये च तत्र तते प्रसंना तेहि वतव्यं - देवानंपियो नो तथा दानं व पूजां व मंत्रते यथा किंति सारवढी अस सर्वपाखंडानं । 9. बहुका च एताय ग्रथा व्यापता घममहामाता य इथीभखमहामाता च वचभूमीका च अंशे च निकाया । अयं च एतस फल य आत्मपासंडवढी च होती घमस च दीपना । * 1. प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : 1. अशोक ने किस प्रकार के 'समाज' को न करने का आदेश दिया है ? 2. अशोक ने मांस भक्षरण का निषेध कहाँ से प्रारम्भ किया ? 3. उस समय चिकित्सा की क्या व्यवस्था अशोक ने की थी ? अभ्यास 4. पथिकों के लिए क्या सुविधाएं थीं ? 5. अशोक के मत में 'सारवृद्धि' का क्या अर्थ है ? 6. 'समवाय' का क्या अर्थ है ? 2. निबन्धात्मक प्रश्न : (क) अशोक ने धर्म - समन्वय के लिए कौन-कौन से अधिकारी नियुक्त किये थे ? (ख) अशोक के द्वारा जन-कल्याणकारी कार्यों का वर्णन कीजिए । अपने शिक्षक से समझें और (ग) इन शिलालेखों की भाषा के सम्बन्ध में उसकी विशेषताएं लिखें । अशोक के अभिलेख (सं. - डॉ. राजबली पाण्डेय); ज्ञानमण्डल वाराणसी, 1965, से उद्धत । प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 121 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) प्राकृत भाषा एवं साहित्य १. प्रमुख प्राकृत भाषाए भारत की प्राचीन भाषाओं में प्राकृत-भाषा साहित्य एवं संस्कृति की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध है। प्राकृत भाषा की प्राचीनता एवं उसकी विशेषताओं के सम्बन्ध में प्राकृत-स्वयं-शिक्षक एवं प्राकृत-काव्य-मंजरी की भूमिका आदि में प्रकाश डाला जा चुका है। प्राकृत भाषा के भेद-प्रभेदों का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है । प्राकृत भाषा की उत्पत्ति एवं विकास की दृष्टि से उसके मुख्यतः दो भेद किये जा सकते हैं। प्रथम कथ्य-प्राकृत, जो बोल-चाल में बहुत प्राचीन समय से प्रयुक्त होती रही है। किन्तु उसका कोई लिखित उदाहरण हमारे समक्ष नहीं है। दूसरी प्रकार की प्राकृत साहित्य की भाषा है, जिसके कई रूप हमारे समक्ष उपलब्ध हैं। इस साहित्यिक प्राकृत के भाषा-प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं- 1. आदियुग, 2. मध्ययुग एवं 3. अपभ्रंशयुग। ई. पू. छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी के बीच प्राकृत में निर्मित साहित्य की भाषा प्रथमयुगीन प्राकृत कही जा सकती है। इस प्राकृत भाषा के पांच रूप हैं - 1. आर्ष प्राकृत : भगवान बुद्ध और महावीर के उपदेशों की भाषा क्रमशः पालि और अर्धभागधी के नाम से जानी गयी है । धार्मिक प्रचार के लिए सर्व प्रथम इन भाषाओं का महापुरुषों द्वारा उपयोग हुआ इसलिए इनको ऋषियों की भाषा पार्षप्राकृत कहना उचित है। 2. शिलालेखी प्राकृत : जन-भाषा प्राकृत को प्रचोन राजाओं ने अपने राजकाज की भाषा भी बनाया। लिखित रूप में प्राकृत भाषा का सबसे पुराना 122. प्राकृत गद्य-सोपानः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप शिलालेखों की भाषा में सुरक्षित है। सर्व प्रथम सम्राट अशोक ने शिला. लेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग किया। उसके बाद खारबेल का हाथीगुफा शिलालेख प्राकृत में लिखा गया। फिर लगभग 400 ई० तक हजारों शिलालेख प्राकृत में लिखे पाये जाते हैं। इन सबकी भाषा जनबोलियों की मिश्रित भाषा है, जिसे विद्वानों ने 'शिलालेखी प्राकृत' कहा है। 3. निया-प्राकृत : निया प्रदेश (चीनी तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा को 'निया प्राकृत' कहा गया है। इस प्राकृत भाषा का तोखारी भाषा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। . 4. धम्मपद को प्राकृत : पालि धम्मपद की तरह प्राकृत में भी लिखा गया एक धम्मपद मिला है। इसकी लिपि खरोष्ठी है । इसकी प्राकृत पश्चिमोत्तर प्रदेश की बोलियों से सम्बन्ध रखती है । 5. अश्वघोष के नाटकों को प्राकृत : अश्वघोष के नाटकों में प्रयक्त प्राकृत जैन सूत्रों को प्राकृत से भिन्न है । यह भिन्नता प्राकृत के विकास को सूचित करती है। इस समय तक मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी नाम से प्राकृत के भेद हो चुके थे। ___ इस प्रकार प्रथम युगीन प्राकृत भाषा इन आठ सौ वर्षों में प्रयोग की दृष्टि से विभिन्न रूप धारण कर चुकी थी। ईसा की द्वितीय से छठी शताब्दी तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा गया है, उसे मध्ययुगोन प्राकृत कहा जाता है । इस युग की प्राकृत को हम साहित्यिक प्राकृत भी कह सकते हैं । किन्तु प्रयोग की भिन्नता की दृष्टि से इस समय तक प्राकृत के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन हो गया था, अतः प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृत के ये पांच भेद निरूपित किये हैं-अर्धमागधी, शौर. सेनी, महाराष्ट्री, मागधी एवं पैशाची। इनका स्वरूप एवं प्रमुख विशेषताए इस प्रकार हैं: प्राकृत गद्य-सोपान 123 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। प्राचीन आचार्यों ने मगध प्रदेश के ग्रर्धाशि में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है । कुछ विद्वान् इसमें मागधी भाषा की कतिपय विशेषताएं होने के कारण इसे अर्धमागधी कहते हैं । मार्कण्डेय ने शौरसेनी के निकट होने से मागधी को ही अर्धमागधी कहा है। वस्तुतः अर्धमागधी में ये तीनों विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी भाषा के बीच के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसका अर्धमागधी नाम सार्थक होता है । यद्यपि इसका उत्पत्ति स्थान प्रयोध्या को माना जा सकता है, फिर भी इसका महाराष्ट्री प्राकृत से अधिक सादृश्य है । इसके अस्तित्व में आने का समय ई. पू. चौथी शताब्दी माना जा सकता है । अर्धमागधी का रूप - गठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओं से मिलकर हुआ है । इसमें लुप्त व्यंजनों के स्थान पर यश्रुति होती है । यथाकिम् + सेणियं । क का 'ग', न का 'रण' एवं प का 'व' में परिवर्तन होता है । प्रथमा एकवचन में 'ए' तथा 'प्रो' दोनों होते हैं। धातु-रूपों में भूतकाल के बहुवचन में 'इंसु' प्रत्यय लगता है; तथा कृदन्त में एक धातु के कई रूप बनते हैं । यथा - कृत्वा के कट्टु, किच्चा, करिता, करित्ताणं आदि । शौरसेनी शौरसेनी प्राकृत शूरसेन (मथुरा) की भाषा थी। इसका प्रचार मध्यदेश में हुआ था | जैनों के षट्खंडागम प्रादि ग्रन्थों की रचना इसी में हुई थी। बाद में दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों की यह मूल भाषा बन गयी । उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से यह सब में प्राचीन प्राकृत है। जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त नाटकों में भी इसका प्रयोग हुआ है। इसमें कृत्रिम रूपों की अधिकता पायी जाती है । 124 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरसेनी में त का 'द', थ एवं ह का 'ध' भ का 'ह' में परिवर्तन होता है । यथा-जानाति-+जाणादि, कथयति+कधेदि आदि । गच्छतिगच्छ दि, गच्छदे; भवति+भोदि, होदि; इदानीम्+दारिंग; पठित्वा--पढिया, पढिदूण प्रादि रूप शोरसेनो के विशिष्ट प्रयोग हैं। महाराष्ट्री __ सामान्य प्राकृत का दूसरा नाम महाराष्ट्री प्राकृत है, ऐसी कई विद्वानों की धारणा है; किन्तु इसका यह नाम उत्पत्ति-स्थल के कारण ही अधिक प्रचलित हुआ है । महाराष्ट्र प्रदेश में जो प्राचीन प्राकृत प्रचलित थी, उसी के बाद काव्य और नाटकों की महाराष्ट्री प्राकृत का जन्म हुआ है। इस प्राकृत में संस्कृत के वर्गों का अधिकतम लोप होने की प्रवृत्ति पायी जाती है । इस कारण महाराष्ट्री प्राकृत काव्य में सबसे अधिक प्रयुक्त हुई है । अतः इसे साहित्यिक प्राकृत भी कहा जा सकता है। जैन काव्य-ग्रन्थों और नाटक प्रादि काव्य-ग्रन्थों की महाराष्ट्री प्राकृत में कुछ भिन्नता है; अतः कुछ विद्वान् महाराष्ट्री और जैन महाराष्ट्री, इसके ऐसे दो भेद भी मानते हैं । मागधी अन्य प्राकृतों की तरह मागधी में स्वतन्त्र रचनाएं नहीं पायी जातीं । केवल संस्कृत-नाटकों और शिलालेखों में इसके प्रयोग देखने में आते हैं । अतः प्रतीत होता है कि मागधी कोई निश्चित भाषा नहीं थी, अपितु उन कई बोलियों का उसमें सम्मिश्रण था, जिनमें ज के स्थान पर य, र+ल, स-+श तथा अकारान्त शब्दों में ए का प्रयोग होता था । मागधी का निश्चित प्रदेश तय करना कठिन है; किन्तु सभी विद्वान् इसे मगध देश की ही भाषा मानते हैं, जो अपने समय में राजभाषा भी थी। इसकी उत्पत्ति वैदिक युग को किसी कथ्य भाषा से मानी जाती हैं, यद्यपि इसकी प्रकृति शौरसेनी को माना गया है । शकारो, चांडाली और शाबरी जैसी लोक-भाषाए मागधी को ही प्रशाखाए हैं। प्राकृत गद्य-सोपान 125 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैशाची _पैशाची का समय ईसा की दूसरी से पांचवीं शताब्दी तक माना गया है। इसके पूर्व की पैशाची के कोई उदाहरण साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। पैशाची भाषा किसी प्रदेश विशेष की भाषा नहीं थी, अपितु भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहने वाली किसी जाति विशेष की भाषा थी, जिस कारण इसका प्रचार कैकय, शूरसेन और पांचाल प्रदेशों में अधिक हमा है । ग्रियर्सन इसे पश्चिम पंजाब और अफगानिस्तान की भाषा मानते हैं । पैशाची में वर्ण परिवर्तन बहुत होता है; यथा--गकनं--गगनम् मेखो-मेघः, राचा-राजा, पंचा+-प्रज्ञा, सतनं-सदनम, कच्चं कार्य प्रादि । पैशाची भाषा में गुणाढ्य का बृहत्कथा नामक ग्रन्थ लिखे जाने का उल्लेख है । उसके कथा के कई रूपान्तर अाज उपलब्ध हैं। अपभ्रंश महाराष्ट्री प्राकृत जब धीरे-धीरे केवल साहित्य की भाषा बनकर रह गयी तब जन भाषा के रूप में जो भाषा विकसित हुई उसे विद्वानों ने अपभ्रंश भाषा' कहा है । इस अपभ्रश में 7 वीं शताब्दी से 15 वीं शताब्दी तक पर्याप्त साहित्य लिखा गया है । अपभ्रंश भाषा प्राकृत और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है । २. प्राकृत गद्य साहित्य की रूपरेखा प्राकृत भाषा में ई० पू० छठी शताब्दी से साहित्य की रचना होने के उल्लेख हैं। भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिये थे, उनका संकलन पद्य एवं गद्य दोनों में किया गया है । अतः रचना की दृष्टि से पागम प्राकृत साहित्य प्राचीन है । प्राकृत गद्य के प्राचीन नमूने इस पागम साहित्य में उपलब्ध हैं । छोटे-छोटे वाक्यों, सूक्तियों से प्रारम्भ होकर समासयुक्त शैलो में बड़े. बड़े गद्य भी प्राकृत आगम के ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। 126 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचारांगसूत्र की सूक्तियां प्राकृत गद्य की आधारशिला कही जा सकती हैं। हिंसा की सूक्ष्म व्याख्या करते हुए इसमें कहा गया है: अरिहता एवं परूवेंति - सव्वे पारणा सर्वे भूता सव्वे जीवा सच्चे सत्ता प हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा, रण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा, एग उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्ध रिगए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहि पवेइए । भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, उपासगदशांग, विपाकसूत्र रायपसेणिय, निरयावली आदि आगम ग्रन्थों में प्राकृत गद्य की प्रौढ़ शैली देखने को मिलती हैं । इनमें समासपद एवं काव्यात्मक भाषा का प्रयोग हुआ है । राजा प्रसेन जित् अपनी सम्पत्ति के चार भाग करते हुए कहता है- अहं गं सेवियानयरी पमोक्खाइ सत्त गामसहम्साइ चत्तारि भागे करिसामि । एगं भागं बलवाहरणस्स दलइस्सामि, एगं भागं कोट्टागारे छुभिस्सामि एवं भागं अतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं महइ महालयं कूडागारसालं करिस्सामि । आगम के इन ग्रन्थों में प्राकृत गद्य में छोटे-छोटे वाक्यों का भी प्रयोग हुआ है । उनके साथ उपमाए भी जुड़ी हुई हैं। जम्बुद्दीवपत्ति में ऋषभ के मुनि-जीवन का वर्णन कई उपमात्रां के साथ किया गया है । यथा कुम्मो इ इ दिए गुत्ते, जच्चकंचरणगं व जायरूवे, पोक्खरपत्तं व निरुवलेवे, दो इव सोमभावयाए, सूरो व दित्ततेए, अचले जह मंदरे गिरिवरे' । आगम के व्याख्या सहित्य में भी प्राकृत गद्य का प्रयोग हुआ है । चूरिंग एवं भाष्य साहित्य में प्राकृत गद्य के कई सुन्दर नमूने हैं । उत्तराध्ययनचूरिंग दशवैकालिकचूरिंग एवं आवश्यकचूरिंग में कई प्राकृत कथाए आयी हैं, जो गद्य में हैं । इनमें कथोपकथन शैली का भी प्रयोग हुआ है । निशीथचूरिंग का एक संवाद दर्शनीय है तेरण पुच्छित्ता सा भगति प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International - - किं ण गतासि भिक्खाए ? अज्ज ! खमरणं मे । For Personal and Private Use Only 127 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो भगति सा भरगति - अर्धमागधी आगमों के अतिरिक्त शौरसेनी आगम ग्रन्थों में भी कहींकहीं गद्य का प्रयोग मिलता है । किन्तु अधिकांश ग्रन्थ पद्य में लिखे गये हैं । 'षट्खंडागम' की टीका 'धवला' में ग्रन्थकार के परिचय के सम्बन्ध में कहा गया है कि निमित्तं ? मोहति गच्छं करेमि । तेल वि तोरट्ठ- विसय- गिरि-यर-पट्टण चंदगुहा ठिएण अट्ठग - महारिणमितपारएण गंथवोच्छेदो होहदित्ति जाइभएस पवयण - वच्छलेग दक्खिणावहाइरिय महिमाए मिलियारणं लेहो पेसिदो । इस तरह प्राकृत के काव्यग्रन्थों के गद्य की शैली को समझने के लिए प्राकृत आगम ग्रन्थों के गद्य का अध्ययन किया जाना आवश्यक है । इसमें भारतीय प्राचीन गद्य शैली के विकास के कई बीज सुरक्षित हैं । १. प्राकृत कथा साहित्य : 128 प्राकृत साहित्य में सबसे अधिक कथा-ग्रन्थ लिखे गये हैं । कथाओं की शैली और विविध रूपता के लिए प्राकृत साहित्य प्रसिद्ध है । आगम काल से लेकर वर्तमान युग तक प्राकृत में कथाएं लिखी जाती रही हैं | अतः साहित्य पर्याप्त समृद्ध है । Jain Educationa International प्राकृत कथाओं का प्रारम्भ आगम साहित्य में हुआ है, जहाँ संक्षिप्त रूप में कथा का ढांचा प्राप्त होता है । उसके बाद श्रागम के व्याख्या साहित्य में इन कथाओं को घटनानों और वर्णनों से पुष्ट किया गया है। ऐसी हजारों कथाएं इस साहित्य में प्राप्त हैं । कथा प्रधान कुछ श्रागम गन्थों का परिचय इस प्रकार है : For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) आगम कथ ! -ग्रन्थ : ज्ञाताधर्मकथा : श्रागम ग्रन्थों में कथा-तत्व के अध्ययन की दृष्टि से ज्ञाताधर्मकथा में पर्याप्त सामग्री है। इसमें विभिन्न दृष्टान्त एवं धर्मकथाएं हैं, जिनके माध्यम से जैन तत्त्व-दर्शन को सहज रूप में जन-मानस तक पहुँचाया गया है । ज्ञाताधर्मकथा आगमिक कथाओं का प्रतिनिधि ग्रन्थ है । इसमें कपों की विविधता है और प्रोढ़ता भी । मेवकुमार, थावच्चापुत्र मल्ली तथा द्रोपदी की कथाएं ऐतिहासिक वातावरण प्रस्तुत करती हैं । प्रतिबुद्धराजा, अन्नक व्यापारी, राजा रुक्मी, स्वर्णकार की कथा, चित्रकारकथा चोखा परिव्राजिका आदि कथाएं मल्ली की कथा की अवान्तर कथाए हैं। मूलथा के साथ अवान्तर कथा की परम्परा की जानकारी के लिए ज्ञाताधर्मकथा आधारभूत स्रोत है । ये कथाएं कल्पना प्रधान एवं सोद्देश्य हैं । इसी तरह जिनपाल एवं जिनरक्षित की कथा, तेतलीपुत्र, सुषमा की कथा एक पुण्डरीक कथा कल्पना प्रधान कथाएं हैं । ज्ञाताधर्मकथा में दृष्टान्त और रूपक कथाएं भी हैं । मयूरों के अण्डों के दृष्टान्त से श्रद्धा और संशय के फल को प्रकट किया गया है । दो कछुओं के उदाहरण से संयमी और असंयमी साधक के परिणामों को उपस्थित किया गया है । तुम्बे के दृष्टान्त से कर्मवाद को स्पष्ट किया गया है। चन्द्रमा के उदाहरण से आत्मा की ज्योति की स्थिति स्पष्ट की गयी है । दावद्रव नामक वृक्ष के उदाहरण द्वारा आराधक और विराधक के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । ये दृष्टान्त कथाएं परवर्ती कथा साहित्य के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं । इस ग्रन्थ में कुछ रूपक कथाएं भी हैं । दूसरे अध्ययन की कथा धन्ना सार्थवाह एवं विजय चोर की कथा है। यह आत्मा और शरीर के में सम्बन्ध का रूपक है। सातवें अध्ययन की रोहिणी कथा पांच व्रतों की रक्षा और वृद्धि को रूपक द्वारा प्रस्तुत करती है । उदकजात नामक कथा प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 129 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त है। किन्तु इसमें जल-शुद्धि की प्रक्रिया द्वारा एक ही पदार्थ के शुभ एवं अशुभ दोनों रूपों को प्रकट किया गया है। अनेकान्त के सिद्धान्त को समझाने के लिए यह बहुत उपयोगी कथा है नन्दीफल की कथा यद्यपि अर्थकथा है । किन्तु इसमें रूपक की प्रधानता है। धर्मगुरु के उपदेशों के प्रति आस्था रखने का स्वर इस कथा से तीव्र हुआ है । समुद्री अश्वों के रूपक द्वारा लुभावने विषयों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा पशुकथाओं के लिए भी उद्गम ग्रन्थ माना जा सकता है । इस एक ही ग्रन्थ में हाथी, अश्व, खरगोश, कछुए, मयूर, मेंढक, सियार आदि को कथाओं के पात्रों के रूप में चित्रित किया गया है। मेरुप्रभ हाथी ने अहिंसा का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह भारतीय कथा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है । ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय श्रु तस्कंध में यद्यपि 206 साध्वियों की कथाए हैं। किन्तु उनके ढांचे, नाम, उपदेश आदि एक-से हैं। केवल काली की कथा पूर्णकथा है। नारी-कथा की दृष्टि से यह कथा महत्त्वपूर्ण है। उपासकदशांग : उपासकदशांग में महावीर के प्रमुख दश श्रावकों का जीवनचरित वर्णित है । इन कथाओं मे यद्यपि वर्णकों का प्रयोग है। फिर भी प्रत्येक कथा का स्वतन्त्र महत्त्व भी है। व्रतों के पालन में अथवा धर्म की पाराधना में उपस्थित होने वाले विध्नों, समस्याओं का सामना साधक कैसे करे इसको प्रतिपादित करना ही इन कथानों का मुख्य प्रतिपाद्य है । कथातत्वों का बाहुल्य न होते हुए भी इन कथाओं के वर्णन पाठक को आकर्षित करते हैं । समाज एवं संस्कृति विषयक सामग्री उपासदगसानो को कथाओं में पर्याप्त है। ये कथाएं आज भी श्रावक-धर्म के उपासकों के लिए आदर्श बनी हैं । किन्तु इन श्रावकों की साधना पद्धति के प्रति पाठकों का आकर्षण कम है. उनकी वरिणत समृद्धि के प्रति उनका अधिक लगाव है। अन्तकृद्दशासूत्र : जन्म मरण की परम्परा का अपनी साधना से अन्त कर देने वाले दश व्यक्तियों की कथाओं का इसमें वर्णन होने से इस ग्रन्थ को अन्तकृद्द 130 प्राकृत गद्य-मोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांग कहा गया है । इस ग्रन्थ में वणित कुछ कथाओं का सम्बन्ध अस्टिनेमि और कृष्ण-वासुदेव के युग से है। गजसुकुमाल की कथा लौकिक कथा के अनुरूप विकसित हुई है। द्वारिका नगरी के विनाश का वणन कथा-यात्रा में कौतुहल तत्व का प्रेरक है। ग्रन्थ के अंतिम तीन वर्गों की कथानों का सम्बन्ध महावीर तथा राजा श्रेणिक के साथ है। इनमें अर्जुन मालाकार की कथा तथा सुदर्शन सेठ की अवान्तर-कथा ने पाठक का ध्यान अधिक आकर्षित किया है । अतिमुक्त कुमार की कथा बालकथा की उत्सुकुता को लिए हुए है । इन कथाओं के साथ राजकीय परिवारों के व्यक्तियों का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । साधना के अनुभवों का साधारणीकरण करने में ये कथाएं कुछ सफल हुई हैं। अनुतरोपपातिकदशा : इस ग्रन्थ में उन लोगों की कथाए हैं, जिन्होंने तप-साधना के द्वारा अनुत्तर विमानों (देवलोकों) की प्राप्ति की है। कुल 33 कथाएं हैं, जिनमें से 23 कथाएं राजकुमारों की हैं, 10 कथाए इसमें सामान्य पात्रों की। इनमें धन्यकुमार सार्थवाह-पुत्र की कथा अधिक हृदयग्राही है। विपाकसूत्र : विपाकसूत्र में कर्म-परिणामों की कथाए हैं। पहले स्कन्ध में बुरे कर्मों के दुखदायी परिणामों को प्रकट करने वाली दश कथाएं हैं। मृगापुत्र की कथा में कई अवान्तर कथाए गुपित हैं । उद्देश्य की प्रधानता होने से कथातत्व अधिक विकसित नहीं है। किन्तु वर्णनों का प्राकर्षण बना हुअा है। अति-प्राकृत तत्वों का समावेश इन कथाओं को लोक से जोड़ता है । व्यापारी, कसाई, पुरोहित, कोतवाल, वैद्य, धीवर, रसोईया, वेश्या आदि से सम्बन्ध होने से इन प्राकृत कथाओं में लोकतत्वों का समावेश अधिक हुआ है । दूसरे स्कन्ध की कथाएं अच्छे कर्मों के परिणामों को बताने वाली हैं। सुबाहु की कथा विस्तृत है। अन्य कथाओं में प्रायः वर्णक हैं। इस ग्रन्थ की कथाएकथोपकथन की दृष्टि से अधिक समृद्ध हैं । उनको इस शैली ने परिवर्ती कथा साहित्य को भी प्रभावित किया है । हिंसा, चोरी, मैथुन के दुष्परिणामों को तो ये कथाएं व्यक्त करती हैं। किन्तु इनमें असत्य प्राकृत गद्य-सोपान 131 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं परिग्रह के परिणामों को प्रकट करने वाली कथाएं नहीं हैं । सम्भवतः इस ग्रन्थ की कुछ कथाए लुप्त भी हुई हों। क्योंकि नन्दी और समवायांगसूत्र में विपाकसूत्र की जो कथावस्तु वरिणत है, उसमें असत्य एवं परिग्रह के दुष्परिणामों की कथाएं होने के उल्लेख हैं। प्रोपपातिक एवं रायपसेरिणय : प्रौपपातिकसूत्र में भगवान् महावीर की विशेष उपदेश-विधि का निरूपण है। गौतम इन्द्रभूति के प्रश्नों और महावीर के उत्तरों में जो संवादतत्व विकसित हुना है, वह कई कथाओं के लिए आधार प्रदान करता है । नगर-वर्णन, शरीर-वर्णन आदि में अलंकारिक भाषा व शैली का प्रयोग इस ग्रन्थ में है। राजप्रश्नीयसूत्र में राजा प्रदेशी और केशो श्रमण के बीच हुमा संवाद विशेष महत्त्व का है। इसमें कई कथासूत्र विद्यमान हैं। इस प्रसंग में धातु के व्यापारियों की कथा मनोरंजक है । उसे लोक से उठाकर प्रस्तुत किया गया है। (ख) आर्गामक व्याख्या साहित्य : प्राकृत आगमों पर जो व्याख्या साहित्य लिखा गया है. उसमें कई छोटी-छोटी कथाए आयी हैं । अतः प्राकृत कथा साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से इस व्याख्या साहित्य का भी विशेष महत्त्व है। प्राचारांगचरिण, सूत्रकृतांगरण और निशीथरिण में प्राकृत गद्य में लौकिक कथाए' प्राप्त होती हैं । उत्तराध्ययनरिण में बुद्धि-चमत्कार की भी कथाए हैं। प्रावश्यक चरिण कथानों का भण्डार है। इसमें लौकिक एवं उपदेशात्मक दोनों प्रकार की कथाएं मिलती हैं। इन चूणियों के लेखक जिनदासगरिण महत्तर बहुत बडे दार्शनिक एवं कुशल कथाकार थे । लोक-जीवन को उन्होंने इन कथाओं के द्वारा व्यक्त किया है । .. अ.चार्य हरिभद्र ने दशवैकालिकवृति और उपदेशपद में कई प्रकार की.कथाएं प्रस्तुत की हैं। अतः ये दोनों ग्रन्थ भी प्राकृत कथा के आधार 2132 प्राकृत गध-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ माने जा सकते हैं । टीका साहित्य में नेमिचन्द्रसूरि का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने उत्तराध्ययन-सुखबोधाटीका में कई महत्त्वपूर्ण प्राकृत कथाएं प्रस्तुत की हैं। इस व्याख्या साहित्य की कथाओं का डा. जगदीशचन्द्र जैन ने जो अध्ययन प्रस्तुत किया है, उससे इनके स्वरूप एवं महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। (ग) स्वतन्त्र कथा-ग्रन्थ : तरगवतीकहा : प्राकृत में प्राचीन समय से स्वतन्त्र रूप से भी कथा-ग्रन्थ लिखे गये हैं । पादलिप्तसूरि प्रथम कथाकार हैं, जिन्होंने प्राकृत में तरंगवइकहा नामक बड़ा कथाग्रन्थ लिखा है। किन्त दर्भाग्य से प्राज वह उपलब्ध नहीं है । उसका संक्षिप सार तरंगलोला के नाम से नेमिचन्द्रगणि ने प्रस्तुत किया है। इसको सम्पादित कर डा. एच. सी. भायारणो ने प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में तरंगवतो के आदर्श प्रेम एव त्याग को कथा वरिणत है । वसुदेवहिण्डो : यह ग्रन्य विश्व कथा-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । क्योंकि वसुदेव हिण्डी की कई कथाए विश्व में प्रचलित हुई हैं। संघदासगरिण ने इस ग्रन्थ में वसुदेव के भ्रमण-वृतान्त का वर्णन किया है। प्रसंगवश अनेक अवान्तरकथाएं भी इसमें आयी हैं । इस ग्रन्था का दूसरा खण्ड धर्मदासगरिण के द्वारा रचित माना जाता है, उसका नाम मध्यमखण्ड है । वसुदेवहिण्डी में रामकथा एवं कृष्णकथा के भा कई प्रसंग हैं तथा कुछ लौकिक कथाए हैं। इस कारण इस ग्रन्थ में चरित, कथा और पुराण इन तीनो तत्वों का समावेश हो गया है । इस ग्रन्थ का सांस्कृतिक महत्त्व भी है । इस ग्रन्थ को कुछ कथाओं अथवा घटनाओं को लेकर प्राकृत, अपभ्रश में आगे चलकर कथाएं लिखी गयी हैं। अतः प्राकृत कथा साहित्य का यह प्राधार ग्रन्थ है। समराइच्चकहा : यह प्राकृत कथा साहित्य का सशक्त ग्रन्थ है । प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने लगभग 8वीं शताब्दी में चित्तौड़ में इस ग्रन्थ की रचना की थी। प्राकृत गद्य-सोपान 133 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ की कथा का मुल आधार अग्निशर्मा एवं गुणसेन के जीवन की घटना है। अपमान से दुखी होकर अग्निशर्मा प्रतिशोध की भावना मन में लाता है । इस निदान के फल वरूप 9 भवों तक वह गुणसेन के जीव से बदला लेता है। वास्तव में समराइच्चकहा की कथावस्तु सदाचार और दुराचार के संघर्ष की कहानी है । प्रसंगवश इसमें अनेक कथाए भी गुथी हुई हैं समराइच्चकहा में प्राकृत गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है । कथाकार का कवित्व इस ग्रन्थ में पूरी तरह प्रकट हुआ है । एक स्थान पर राजा को बोमारो से व्याकुल अन्तःपुर का वर्णन करते हुए कथाकार कहता है तहा मिलाणसुरहिमल्ल दामसोहं, सुवण्णगड्ढवियलियअगरायं, बाहजल धोयकवोलपत्तलेह, करयलपॉमियपवायवयणपंकयं, उबिग्गमन्तेउर। -प्रथम भव पृ. 24 समराइच्चकहा गुप्तकालीन संस्कृति की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व की है। इस ग्रन्था में समुद्रयात्रा आदि के जो वर्णन हैं, वे भारतीय पथ-पद्धति पर विशेष प्रकाश डालते हैं। कुवलयमाला कहा : आचार्य हरिभद्र के शिष्य उद्द्योतनसूरि ने ई. ७७६ में जालौर में कुवलयमाला कहा की रचना की है। यह ग्रन्थ गद्य एवं पद्य दोनों में लिखा गया है । किन्तु इसकी विशिष्ट शैली के कारण इसे प्राकृत का चम्पू ग्रन्थ भी कहते हैं । कुवलयमाला की कथावस्तु भी एक नवीनता लिये हुए है । इसमें क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह जैसी मानसिक वृत्तियों को पात्र बनाकर उनकी चार जन्मों की कथा कही गयी है। कुवलयमाला नैतिक आचरण को प्रतिपादित करने वाला कथा ग्रन्थ है। । साहित्य. के माध्यम से जन-सामान्य के आचरण को कैसे संतुलित किया जा सकता है, इसका उदाहरण यह ग्रन्थ है। प्रेमकथा, अर्थ 134 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा एवं धर्मकथा तीनों का समिश्रण इस ग्रन्थ में है। प्रसंगानुसार इसमें अन्य लौकिक कथाएं भी आयी हैं। कुछ पशु-पक्षियों को भी कथाए हैं। समुद्र-यात्रा एवं वाणिज्य-व्यापार की प्रामारिगक जानकारी इस ग्रन्थ से मिलती है । अत: भारत के सांस्कृतिक इतिहास के लिए भी कुवलयमाला महत्त्वपूर्ण साहित्यिक साक्ष्य है । कहारयणकोस : मध्ययुग में स्वतन्त्रकथा ग्रन्थों के साथ प्राकृत में कथाओं के संग्रह-ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे थे। देवभद्रसूरि (गुणचन्द्र) ने ई. 1101 में भड़ौच में कहारयणकोस की रचना की थी। इस ग्रन्थ में कुल 50 कथाए है । गृहस्थ धर्म के विभिन्न पक्षों को इन कथाओं के माध्यम से पुष्ट किया गया है। काव्यात्मक वर्णन भी इस ग्रन्थ में हैं। कथाए प्रायः प्राकृत गद्य में कही गयीं हैं और वर्णन पद्यों में किये गये हैं। लौकिक जीवन के भी कई प्रसंग इस ग्रन्थ की कथाओं में मिलते हैं । कथा कहने की शैली विवरणात्मक है। यथा अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे एरावयखेत्ते कलिंगदेसकुलंगणावयणं व मणोहरवाणियं, कम्मगंथपगरणं व बहुविहपया इपएसगहणं, धण-धनसमिद्ध जयत्थलं नाम खेडं । तत्थ य वथन्वो विसाहदत्तो नाम सेट्ठी । सेणा नाम से भज्जा। -कथा नं02, पृ 24 कुमारवालपडिबोह : सोमप्रभसूरि ने सन् 1184 में इस ग्रन्थ की रचना की थी । इस ग्रन्थ में गुजरात के राजा कुमारपालके चरित्र का वर्णन है । किन्तु उसको प्रदान की गयी शिक्षा के दृष्टान्तों के रूप में इस ग्रन्था में कई कथाएं दी गयी हैं। अतः यह चरित-ग्रन्थ न होकर कथा-ग्रन्थ बन गया है । लघु कथानकों एवं आदर्श चरितों का इसमें समन्वय है । यद्यपि इस ग्रन्थ का वातावरण धार्मिक है, फिर भी इसमें काव्यात्मक छटा देखने को मिलती है । कथानों के विकास को जानने के लिए इस ग्रन्थ का अध्ययन उपयोगी है। प्राकृत गद्य-सोपान 135 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसेहरनिवकहा : जिनहर्षसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना ई० सन् 1430 में चित्तौड में की थी। यह एक प्रेमकथा है। इसमें रत्नशेखर सिंहलद्वीप की राजकुमारी रत्नवती से प्रेम करता है. अनेक कष्ट सहकर उसे प्राप्त करता ह । इसमें राजा का मंत्री मतिसागर सहायक होता है । कथा के दूसरे भाग में सात्विक-जीवन की साधना का वर्णन है । पर्व के दिनों में धर्म-साधना करना इस ग्रन्थ का प्रमुख स्वर है । किन्तु लौकिक पक्ष भी उतना ही सबल है। इस ग्रन्थ की कथावस्तु के आधार पर जायसी के पद्मावत का इसे मल आधार माना जाता है । - प्राकृत के इन कथा-ग्रन्थों के अतिरिक्त गद्य में लिखी गयी अन्य रचनाएं भी उपलब्ध हैं । लगभग 12वीं शताब्दो में प्राचार्य सुमतिसूरि ने जिनस्ताख्यान नामक ग्रन्थ लिखा है । वर्धमानसूरि द्वारा सन् 1083 में लिखित मनोरमाकहा एक सरस कथा है । संघतिलक प्राचार्य ने लगभग 12वीं शताब्दी में पारामसोहाकहा की रचना की है। यह कथा विशुद्ध लौकिक कथा है । इन सब कथा-ग्रन्थों का अभी व्यापक प्रचार नहीं हुआ है । इनकी कथा के सूक्ष्म अध्ययन से भारतीय कथा-साहित्य के कई पक्ष समृद्ध हो सकते हैं । पाइयविनाणकहा : श्री विजयकस्तूरसूरि ने 20वीं शताब्दी में प्राकृत कथाप्रणयन को जीवित रखा है । उन्होंने इस पुस्तक में 55 कथाए लिखी हैं । प्राकृत गद्य में लिखी ये कथाए लौकिक-जीवन और परम्परा के चित्र को उजागर करती हैं। रयणवालकहा : श्री चन्दनमुनि प्राकृत के प्राधुनिक लेखक हैं। उन्होंने इस ग्रन्थ में रत्नपाल की कथा को प्राकृत के प्रांजल गद्य में प्रस्तुत किया है । इस ग्रन्थ को पढ़ने से प्राकृत-कथाओं को समृद्ध परम्परा का आभास हो जाता है। २. प्राकृत चरित-साहित्य : प्राकृत गद्य का प्रयोग पागम ग्रन्थों और कथा-ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत के चरित ग्रन्थों में भी हुआ है। गद्य-पद्य में मिश्रित रूप से लिखे गये प्राकृत के निम्न प्रमुख चरित ग्रन्थ हैं: 136 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. चउप्पनमहापुरिसवरियं, 2. जंबुचरियं 3. रयणचूडरायचरियं, 4. सिरिपासनाहचरियं एवं 5. महावीरचरियं प्रादि । चरित साहित्य के ये ग्रन्थ प्रायः पौराणिक कथानकों पर प्राधारित हैं। उन्हीं में से ग्रन्थों के नायकों का चयन कर उनके चरितों को विकसित किया गया है। मूल चरितनायक के जीवन को उद्घाटित करने के लिए इन ग्रन्थों में जो अन्य कथाए एवं दृष्टान्त दिये गये हैं उनसे इन ग्रन्थों का कथात्मक महत्त्व बढ़ गया है। इन ग्रन्थों का गद्य भाग प्राय: सरल.. है। पद्य भाग में काव्यात्मक शैलो अपनायी गयी है। चउप्पन-महापुरिसचरियं : इस ग्रन्थ की रचना लगभग 9वीं शताब्दी (ई.868) में की गयी थी। शीलंकाचार्य ने इस ग्रन्थ में 24 तीर्थंकरों, 12 चक्रवतियों, 9 वासुदेवों एवं 9 बलदेवों इन कुल 54 महापुरुषों के जीवन-चरितों को प्रस्तुत किया है। अतः यह ग्रन्थ विशालकाय है। ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, महावीर, राम, कृष्ण, भरत सभी प्रमुख व्यक्तियों का जीवन इसमें आ गया है । अत: कुछ वर्णन तो केवल परम्परा का निर्वाह करते हैं। किन्तु कुछ चरितों का विश्लेषण सूक्ष्मता से हुआ है । प्रासंगिक कथाएं इस ग्रन्थ को मनोरंजक बनाती हैं। जबुचरियं : गुणपाल मुनि ने लगभग 9वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचर्म की है। जम्बुस्वामी के वर्तमान जन्म की कथा जितनी मनोरंजक है. उतनी ही उनके पूर्वजन्मों की कथाए हैं। इस कारण यह ग्रन्थ पर्याप्त सरस है। धार्मिक वातावरण व्याप्त होने पर भी प्राकृतिक वर्णनों से ग्रन्थकार का कवित्व प्रकट होता है। इस ग्रन्थ का प्राकृत गद्य समासयुक्त और प्रौढ़ है। वासगृह का वर्णन करते हुए कवि कहता है तत्व वि सुरहिपइन्नकुसुमदॉमविलंबियपवराहिराम, क-पूररेणुकुकुमके सरलवं. गकत्थरियसुरहिगंधपूरपुरिय ....."पविट्ठो कुमारो बासहरं ति । प्राकृत गरा-सोपान 137 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियं: यह ग्रन्थ लगभग 12वीं शताब्दी में चन्द्रावती नगरी (बू) में लिखा गया था। इसके रचयिता नेमिचन्द्रसूरि प्राकृत के प्रसिद्ध कथाकार हैं । इस ग्रन्थ में रत्नचूड एवं तिलकसुन्दरी के धार्मिक- जीवन का वर्णन है । किन्तु उनके पूर्वजन्मों का वर्णन करते समय ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ को मनोरंजक और काव्यात्मक बना दिया है। इस ग्रन्थ की कथाए लौकिक एवं उपदेशात्मक हैं। इसका प्राकृत गद्य प्रांजल एवं समासयुक्त है । सिरिपासनाहचरिथं : इस ग्रन्थ की रचना देवभद्रसूरि ( गुणचन्द्र ) नेई. सन् 111 में की थी। इसमें पार्श्वनाथ के जीवन का विस्तार से वर्णन है । पूर्वभवों के प्रसंग में मनुष्य जीवन की विभिन्न वृत्तियों का इसमें अच्छा चित्रण हुआ है । अवान्तर कमाए इस ग्रन्थ के कथानक को रोचक बनाती हैं । महावीरचरियं: ई० सन् 1082 में गुरणचन्द्र ने मैं, की थी । इस ग्रन्थ में भगवान् महावीर के किया गया है । यह ग्रन्थ गद्य और पद्य में वर्णनों के लिए यह ग्रन्थ प्रसिद्ध है । इस प्रकार प्राकृत चरित साहित्य ने भी प्राकृत गद्य साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । ३. प्राकृत नाटक साहित्य : इस ग्रन्थ की रचना छत्रावली जीवन को विस्तार से प्रस्तुत लिखा गया है । काव्यात्मक प्राकृत भाषा में काव्य एवं कथा ( चरित) के कई ग्रन्थ उपलब्ध हैं । साहित्य की एक तीसरी विधा भी है- नाटक | नाटक जन-जीवन का प्रतिबिम्ब होता है । उसकी वेषभूषा, रहन-सहन, संस्कृति आदि नाटकों में प्रस्तुत की जाती है । अतः जनभाषा प्राकृत को भी नाटकों में उपस्थित करने के लिए प्राचीन नाटकों के पात्र प्राकृत में बातचीत करते हैं । भरतमुनि - कई प्रकार के रूपकों (नाटकों) का उल्लेख किया हैं । उनमें से कईप्रहसन, भारण, सट्टक, रासक आदि प्राकृत भाषा में रहे होंगे । किन्तु ग्राजः वे 138 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध नहीं हैं। उनमें से केवल मृच्छकटिक प्रहसन आज उपलब्ध है, जिसमें सर्वाधिक प्राकृत भाषामों का प्रयोग हुआ है। मृच्छकटिकं के गद्य सरस एवं काव्यात्मक हैं। प्राकृत में सम्पूर्ण रूप से लिखे गये सट्टकों को परम्परा बाज उपलब्ध है। 10वीं शताब्दी के राजशेखर द्वारा लिखित सहक कर्पूरमंजरी प्राकृत का प्रतिनिधि सट्टक है। यह नाटक का लवु संस्करण कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त 17-18वीं शताब्दी में भी प्राकृत में कई सडक लिखे गये हैं। इनकी विषयवस्तु प्रेमकथा है । इन सट्टकों में भी प्राकृत गद्य का अच्छा प्रयोग हुमा है। इनके अतिरिक्त प्राचीन नाटककारों के नाटकों में भी अधिकांश पात्र प्राकृत बोलने वाले हैं । अतः बिना प्राकृत के ज्ञान के उन नाटकों को समझना कठिन है। महाकवि भास के नाटक प्रविमारक में विदूषक सन्ध्या का वर्णन करते हुए कहता है अहो अरस्स सोहासंपदि । अत्थं आसादिदो भअवं सुम्यो दीसह दहिपिंडपंडरेसु पासादेसु अग्गरपणालिन्देसु पसारिअगुलमहुरसंगदो विभ । कालिदास के नाटक अभिज्ञानशाकुन्तल में शकुन्तला प्राकृत में वातालाप करती है । दुष्यन्त के प्रेम को वह नहीं जानती, किन्तु अपने हृदय में उसके प्रति प्रेम का अनुभव करती हुई विरह में दुखी शकुन्तला कहती है तुज्झ रण जाणो हिअ मम उरण कामो दिवापि रत्तिमि । णि ग्धिरण तबइ बली' तुइ वुत्तमणोरहाइ अगाई ।। - इसी तरह श्रीहर्ष, भवभूति, विशाखदत्त आदि भारत के प्राचीन नाटककारों के नाटकों में अधिकांश पात्र प्राकृत बोलते हैं। उनकी उक्तियां प्राकृत गद्य-साहित्य की महत्त्वपूर्ण निधि हैं । प्राकृत गड-सोपान 139 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. प्राकृत शिलालेखी साहित्य : प्राकृत गद्य के प्राचीन नमूने शिलालेखों में देखने को मिलते हैं। शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप अशोक के शिलालेखों में प्राप्त होते हैं। ये शिलालेख ई. पू. ३०० के लगभग देश के विभिन्न भागों में अशोक ने खुदवाये थे । अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही वे तत्कालीन संस्कृति के जीते-जागते प्रमाण हैं। अशोक ने अपने शिलालेखों में प्राकृत के छोटे-छोटे वाक्यों में कई जीवनमूल्य जनता तक पहुंचाए हैं। वह कहता हैप्राणानां साधु अनारम्भो, अपव्ययता अपभाण्डता साधु -(तृतीय शिलालेख) (प्राणियों के लिए की गयी अहिंसा अच्छी है, थोड़ा खर्च और थोड़ा संग्रह अच्छा है।) ईसा की लगभग चौथी शताब्दी तक प्राकृत में शिलालेख लिखे जाते रहे हैं, जिनकी संख्या लगभग दो हजार है । खारवेल का हाथीगुफा शिलालेख, उदयगिरि एवं खण्डगिरि के शिलालेख तथा आन्ध्र राजाओं के प्राकृत शिलालेख भाषा एवं इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । प्राकृत गद्य का सबसे छोटा और महत्त्वपूर्ण नमना नमो प्ररहंतान नमो सवसिषानं खारवेल के शिलालेखों में मिलता है । अतः भारतीय गद्य साहित्य के विकास के लिए भी प्राकृत के इन शिलालेखों का अध्ययन आवश्यक है। 140 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) परिशिष्ट गद्य पाठों का अनुवाद पाठ ५ : विद्यारहित नष्ट होता है दुर्भाग्य - प्रमुख एक ग्रामीण अत्यन्त गरीबी से दुखी था। खेती का कार्य होकर वह घर से निकला करते हुए भी उसे कुछ नहीं मिलता था । तब उदासीन और पृथ्वी पर घूमने लगा। धनोपार्जन के उसने कई उपाय किये, किन्तु कुछ भी पूरा नहीं हुआ । तब निरर्थक भ्रमण से दुखी वह फिर से घर वापिस लौट आया । एक बार रात्रि में वह एक गांव के मंदिर में सोया हुआ था। तभी मंदिर से हाथ में एक विचित्र घड़ा लिए हुए एक आदमी निकला । वह एक स्थान पर खड़ा होकर उस विचित्र कड़े को पूजकर" कहता है- 'शीघ्र हो मेरे लिए अत्यन्त, रमणीय महल सजा दो ।' घड़े ने तुरंत ही वह कर दिया। इसी प्रकार शयन, आसन, धन, धान्य, परिजन, भोग की सामग्री तैयार कर लो। इस प्रकार वह जो जो कहता घड़ा उस उस को पूरा कर देता । जब तक उस विचित्र - षड्ढे की : प्रभा शान्त हो गयी । . उस ग्रामीण के द्वारा वह घड़ा देखा गया । उसके बाद वह सोचता है'मुझे अधिक घूमने से क्या लाभ ? इसकी ही सेवा करता हूँ।' उसके समीप जाकर उसने विनयपूर्वक उसकी आराधना की। वह सिद्धपुरुष पूछता है- ' ( तुम्हारे लिए) क्या करू ?' ग्रामीण ने कहा- 'मैं मन्दभानो हूँ ।' सिद्धपुरुष ने सोचा- 'अहो ! यह बेचारा अत्यन्त गरीबी के दुख से पीड़ित है । महापुरुष दुखियों के प्रति वत्सल होते हैं । और भी - प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 3 141 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 1- "अपने उपकार को चाहने वाला कौआ भी पेट भर लेता है। अतः (महापुरुषों को) सम्पत्ति पाकर सभी प्राणियों का उपकार करना चाहिए।' 'इसलिए इसका उपकार करता हूँ।' - ऐसा सोचकर वह कहता है- 'क्या तुम्हें विद्या दू अथवा विद्या से अभिमन्त्रित बड़ा ?' विद्या की साधना के आचरण से डरने वाले, मंदबुद्धि एवं भोग की इच्छा करने वाले उस ग्रामीण ने कहा'विद्या से अभिमन्त्रित घड़ा दे दें।' उसने दे दिया। वह ग्रामीण उसे लेकर प्रसन्न एवं संतुष्ट मन से गांव चला गया। उसने विचार किया गाथा 2- 'उस अत्यधिक लक्ष्मी से क्या लाभ, जो अन्य देश में मिले, जिसमें मित्रों का साथ न हो और जिसे शत्रु न देखें।' तब वह बन्धुओं और मित्रों के साथ इच्छानुसार भवन बनाकर भोगों को भोगता हुआ रहने लगा। कुछ समय बाद वह ग्रामीण अत्यन्त संतोष से कंधे पर घड़े को रखकर'इसके प्रभाव से मैं बन्धुओं के बीच में आनन्द करता हूँ। ऐसा कहकर शराब पिये हुए नाचने लगा । उसकी असावधानी से वह घड़ा टूट गया। विद्या से प्राप्त सब सम्पत्ति भी तष्ट हो गयी। बाद में दूसरों की सहायता से प्राप्त नैभव को नष्ट कर देने वाला वह ग्रामीण दुखों का अनुभव करने लगा । यदि उस समय उसने वह विद्या ग्रहण की होती तो टूटे हुए पड़े को पुनः बना लेता। 000 पाठ ६ : लोभ का अन्त नहीं उस युग और उस समय में कौशाम्बी नामक नगरी थी। राजा जितशत्रु था। विद्या का आधार-स्तम्भ काश्यप उपाध्याय राजा के द्वारा सम्मानित था। उसको नौकरी दे दी गयी। उस काश्यप के यशा नामक पत्नी थी। उनके कपिल नामक पुत्रः था। 142 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस कपिल के बचपने में ही काश्यप मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब उसके मर जाने पर उसका पद राजा के द्वारा अन्य ब्राह्मण को दे दिया गया । वह घोड़े पर छत्र धारण किये हुए वहाँ से निकला । उसे देखकर यशा रोने लगी । कपिल ने (इसका कारण ) पूछा । उसने कहा कि- 'तुम्हारा पिता भी इसी प्रकार की समृद्धि के साथ निकलता था। क्योंकि वह विद्या -सम्पन था । ' वह कपिल कहता है— 'मैं भी पढ़ेगा ।' वह कहती है- 'यहाँ पर तुम्हें ईर्ष्या के कारण कोई नहीं पढ़ायेगा । तुम श्रावस्ती चले जाओ, वहाँ तुम्हारे पिता का मित्र इन्द्रदत्त नामक उपाध्याय है । वह तुम्हें सब सिखा देगा ।' कपिल श्रावस्ती चला गया और उस उपाध्याय के पास पहुँचा । उसके चरणों पर गिर पड़ा। उसने पूछा- 'तुम कहाँ से ? कपिल ने सब कुछ कह दिया। हाथ जोड़कर विनयपूर्वक उसने कहा - 'हे भगवन् ! पिता के निधन हो जाने से आपके चरणों में मैं विद्या के लिए आया हूँ । इसलिए विद्या पढ़ाकर मेरे ऊपर कृपा करिए ।' पुत्र की तरह स्नेह धारण करते हुए उपाध्याय ने कहा - 'पुत्र ! विद्याग्रहण करने में तुम्हारा प्रयत्न उचित है । विद्या से रहित मनुष्य पशु समान होता है। इस और पर लोक में विद्या ही कल्याण करने में साधनरूप है । इसलिए विद्या पढ़ो । विद्या पढ़ने के सब साधन तुम्हें प्राप्त हैं, किन्तु परिग्रहरहित होने के कारण मेरे घर में भोजन नहीं है। उसके बिना पढ़ना नहीं हो सकेगा ।' कपिल ने कहा - 'भिक्षावृत्ति से भी भोजन मिल जायेगा ।' उपाध्याय ने कहा- 'भिक्षावृत्ति से पढ़ना संभव नहीं है । इसलिए आओ, तुम्हारे भोजन की व्य वस्था के लिए किसी धनी के यहाँ चलते हैं।' वे दोनों वहाँ के निवासी शालिभद्र धनी के यहाँ गये । उसे आशीर्वाद दिया । धनी ने ( आने का ) प्रयोजन पूछा । उपाध्याय ने कहा 'यह मेरे मित्र का पुत्र कौशाम्बी से विद्या पढ़ने के लिए आया है । तुम्हारी भोजन की व्यवस्था में मेरे पास यह विद्या पढ़ेगा । विद्या के साधन जुटाने से तुम्हें बड़ा पुण्य होगा ।' उस धनी ने सहर्ष इसे स्वीकार कर लिया । वह कपिल वहाँ भोजन करता हुआ पढ़ने लगा । एक नौकरानी उसे भोजन परोसती थी । प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 143 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार वह नौकरानी दुखी दिखायी दी। कपिल ने पूछा--- 'तुम किस कारण दुखी हो ?' उसने कहा- 'मेरे पास पत्ते और फूल खरीदने के लिए भी उनकी कीमत नहीं है । सखियों के बीच में मुझे नीचा देखना पड़ता है। अतः तुम मेरे लिए कुछ धन लाओ । यहाँ धन नाम का सेठ है । प्रातःकाल के पहले ही जो उसे सबसे पहले बधाई देता है, वह उसके लिए दो माशा स्वर्ण देता है । वहाँ जाकर तुम बधाई दो।' 'ठीक हैं' उसके ऐसा कहने पर उस नौकरानी ने सुबह होने के बहुत पहले ही उसे वहाँ भेज दिया। जाते हुए वह सिपाहियों के द्वारा पकड़ा गया और बांध लिया पया। तब प्रात:काल में राजा प्रसेनजित के पास उसे ले जाया गया। राजा ने उससे पूछा । उसने सरलता से सब कुछ कह दिया। राजा ने कहा- 'जो तम मांगो वह मैं देता है। कपिल ने कहा- 'सोचकर मागूगा।' राजा के द्वारा 'ठीक है। ऐसा कहने पर वह कपिल अशोक वाटिका में सोचने लगा- दो माशा सोने से बस्त्राभूषण भी न होंगे । इसलिए सौ स्वर्ण मांगूगा ।, किन्तु उनसे भी महल, रथ आदि न होंगे । अतः हजार स्वर्ण मांगूगा । इनसे भी बाल-बच्चों के विवाह - एवं जातिभोजन आदि नहीं हो सकेंगे। इसलिए लाख (स्वर्ण) मांगता है। यह भी मित्र, स्वजन, बन्धु लोगों के सम्मान के लिए, दोन, अनाथों के दान के लिए, विशिष्ट भोगउपभोगों के लिए पर्याप्त नहीं है । अत: एक करोड़ अथवा हजार करोड़ मांगता हूं।' इस प्रकार से चिन्तन करता हुआ कपिल शुभ कर्मों के उदय से उसी क्षण ही शुभभाव को प्राप्त हो गया और वैराग्य से युक्त वह सोचने लगा- 'अहो ! लोभ का फैलाव ? दो माशा स्वर्ण के कार्य से आया और लाभ प्राप्त होते देखकर करोड़ों से भी मनोरथ पूरा नहीं हो रहा है । दूसरी बात यह भी है कि विद्या पढ़ने . के लिए यहाँ विदेश में आया हुआ मैं जिस किसी प्रकार से माता की अवहेल्द ना करके, उपाध्याय के हितकारी उपदेशों को कुछ न गिनकर, कुल का अपमान करके इस लोभ से जानते हुए भी मोहित हो गया।' ऐसा सोचकर वह कपिल राजा के घस आया। राजा ने पूछा -- क्या सोचा ?' तब उसने अपने मनोरथ को , विस्तार से कहे दिया। 000 144 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७ : असंतोष का दुष्परिणाम एक कंडे पाथने वाली बुढ़िया थी । उसने एक व्यंतर को प्रसन्न किया । उस व्यंतर ने उसे वर दिया कि वह जितने कन्डे पाथेगी वे रत्न हो जायेंगे । वह बुढ़िया धनवान हो गयी । उसने चार मंजिल का मकान बनवा लिया | बुढ़िया की पड़ोसिन ने पूछा- 'यह सब क्या है ?' उसने सब कुछ बता दिया । तब वह पड़ोसन भी उसी व्यंतर को पूजने में लग गयी । पूजित व्यंतर पूछता है- 'क्या करू ँ ?' उसने कहा- 'यदि प्रसन्न हो तो पड़ोसिन बुढ़िया के लिए जो वरदान दिया जाय वह मेरे लिए दुगुना हो जाय ।' व्यंतर ने कहा - 'ऐसा ही हो ।' जो जो पहली बुढ़िया मांगती वह सब पड़ोसिन बुढ़िया के लिये दुगुना हो जाता । तब उस पहली बुढ़िया ने जाना कि इसने मुझसे दुगुना वरदान प्राप्त कर लिया है ।' वह यह जानकर उसे न सहन करती हुई उस देवता को कहती है- 'मेरा चार मंजिल का मकान नष्ट हो जाय । मेरी घास की कुटिया हो जाय । तत्र दूसरी बुढ़िया के दो घास की कुटियां बन गयीं। चार मंजिल वाले मकान नष्ट हो गये । पहली बुढ़िया फिर माँगती है- 'मेरी एक आंख कानी हो जाय ।' दूसरी बूढ़ी की दोनों आँखें कानी हो गयीं । फिर वह पहली बूढ़ी मांगती है- 'मेरा एक हाथ हो जाय ।' पड़ोसिन के दोनों हाथ नष्ट हो गये । फिर वह सोचती है- 'मेरा एक पैर हो जाय ।' पड़ोसिन बुढ़िया के दोनों पैर नष्ट हो गये । वह गिर पड़ी । गाथा - 'थोड़ी लक्ष्मी से संतोष कर लो, किन्तु अधिक लक्ष्ती की चाह मत करो । afreeमृद्धिको चाहती हुई बुढ़िया ( पड़ोसिन) ने अपने को नष्ट कर लिया। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only COO 145 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८ : मेरुप्रभ हाथी की अनुकंपा तब तुम हे मेघ ! पूर्व जन्म में चार दांतों वाले मेरुप्रभ नाम के हाथी हुए । एक बार उस जंगल की आग को देखकर तुम्हें यह इस प्रकार का संकल उत्पन्न हुआ'मेरे लिये यह श्रेयष्कर है कि इस समय गंगा महानदी के दक्षिणी तट पर विन्ध्याचल की तलहटी में जंगल की अग्नि से रक्षा करने के लिए अपने झुड के साथ एक बड़ा मंडल (रक्षा का बड़ा मैदान) बनाऊँ ।' ऐसा (विचार) करके इस प्रकार निरीक्षण करते हो । निरीक्षण करके सुखपूर्वक विचरण करते हो। किसी अन्य समय क्रमशः पांच ऋतुए व्यनीत हो जाने पर ग्रीष्मकाल के अवसर पर जेठ के महिने में पेड़ों की रगड़ से उत्सन्न अग्नि के फैल जाने पर मृग, पशु, पक्षी तथा सरकने वाले प्राणियों के विभिन्न दिशाओं पर दौड़ने पर उन बहुत से हाथियों के साथ (तुम भी) जिस ओर वह मंडल था उसी ओर जाने के लिए दौड़े। उस मण्डल में अन्य बहुत से सिंह, बाघ, भेड़िया, चीते, रीछ, तरच्छ (?) पाराशर, शरभ, श्रृगाल, बिडाल, कुत्ते , कोल (सुअर), खरगोश, लोमड़ी, चित्र ओर चिल्लल आदि अग्नि के भय से घबराकर पहले ही आ घसे थे और एक साथ बिलधर्म के अनुसार (कम स्थान पर अधिक प्राणी ठहराने की तरह) ठहरे थे। तब हे मेघ ! तुम भी जहाँ वह मंडल था, वहाँ आये और आकर उन बहुत से सिंहों से लेकर चिल्ललों आदि के साथ एक जगह बिलधर्म से ठहर गये । तब तुमने- 'पैर से शरीर खुजाऊँगा' ऐसा सोचकर एक पैर ऊपर उठाया, इसी समय उस खाली हुई जगह में अन्य बलवान प्रागियों द्वारा धकियाया हुआ एक खरगोश प्रविष्ट हो गया। तुमने शरीर खुजाकर फिर से पैर को नीचे रखूगा' ऐमा सोचकर नीचे घुसे हुए उस खरगोश को देखा । यह देखकर (दो इन्द्री आदि वाले) प्रारियों की अनुकंपा से, (वनस्पति आदि) भूतों की अनुकंपा से, (स्थावर) सत्त्वों की अनुकंपा से तुमने वह पैर अधर में ही उठाये रखा, उसे नीचे नहीं रखा । (अन्यया वह खरगोश मर जाता)। 146 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब तुमने उस प्राणियों की अनुकंपा और सत्त्वों आदि की अनुकंपा से संसार बन्धन को कम किया और मनुष्य-आयु का बन्ध किया । तब वह जंगल की अग्नि अढ़ाई दिन-रात तक उस वन को जलाती रही। जलाकर (वह दावानल) पूरी हो गयो, उपरत हो गयी, उपशान्त हो गयी और बुझ गयो । तब वे बहुत से सिंह, चिल्लाल आदि प्राणी उस वन की अग्नि को पूरा हुआ, बुझा हुआ देखते हैं । देखकर अग्नि के भय से मुक्त हुए । भूख और प्यास से पीड़ित, दुखी वे पशु उस मंडल से निकल जाते हैं । निकलकर सब ओर जाकर फैल गये । _____ तब तुम हे मेघ ! जीर्ण, जरा से जर्जरित शरीर चाले, शिथिल एवं सिकुड़ने वाली चमड़ी से च्याप्त शरीर वाले, दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, आधार रहित निर्बल, सामर्थ्यरहित, चलने-फिरने में असमर्थ ठठ की भांति हो गये । 'मैं वेग से चल्गा' ऐसा सोचकर ज्योंहि तुमने पैर पसारा कि बिजली से आघात पाये हुए रजतगिरि के शिखर के समान सभी अंगों से तुम धरती पर धड़ाम से गिर पड़े। तब तुम्हारे शरीर में बेदना उत्पन्न हुई । तीन दिन-रात तक उस वेदना को भोगते हुए रहे । तब एक सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी नामक रानी की फूख में कुमार के रूप में प्रविष्ट हुए। 000 पाठ ६: नंद मणिकार की जन-सेवा पुष्करिणी तत्पश्चात् नंद श्रेणिक राजा से आज्ञा प्राप्त करके प्रसन्न और संतुष्ट होता हुआ राजगृह नगर के बीचोंबीच से निकला । निकलेकर वास्तुशास्त्र के पाठकों द्वारा पसंद किये गये भूमिभाग में नन्दा पुष्करिणी (वावड़ी) खुदवाने में प्रवृत्त हो गया। प्राकृत गद्य-सोपान 147 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब वह नन्दा पुष्करिणी क्रम से खुदती-खुदती चार कौनों वाली एवं समान किनारों वाली हो गयी । अनुक्रम से वह वापी शीतल जल वाली हुई । वह पत्तों, बिषतंतुओं और मृणालों से आच्छादित हुई । वह अनेक उत्पल (कमल) पद्म, कुमुद, नलिनी सुन्दर, सुगंधित पु डरीक, महापुडरोक, शतपत्त एवं सहस्रपत्र वाले फूलों, कमलों की केशर से युक्त हुई । वह परिहत्थ, जलजन्तु, भ्रमणशील और मदोन्मत्त भ्रमरों और अनेक पक्षियों के जोड़ों द्वारा किये गये शब्दों से उत्पन्न मधुर स्वरवाली जानी जाने लगी । वह वापी सबको प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, सुन्दर रूपवाली और अनुपम रूपवाली थी। वनखंड उसके बाद उस नंद मरिणकार सेठ ने नन्दा पुष्करिणी की चारों दिशाओं में चार वनखण्ड (बगीचे) बनवाये (लगवाये), उन वनखण्डों की क्रमशः अच्छी रखवाली की गयी, सार-संभाल की गयो, अच्छी तरह उन्हें बढ़ाया गया । तब वे वनखण्ड हरे तथा सघन हो गये । वे पत्तों, पुष्पों, फलों से युक्त होकर हरे-भरे होते हुए अपनी शोभा से अत्यन्त शोभनीय रूप में स्थित हो गये । चित्र-सभा तब नंद मणिकार सेठ ने पूर्व दिशा के बगीचे में एक विशाल चित्रसभा बनवायी । वह कई सौ खंभों पर स्थित, प्रसन्नताजनक, दर्शनीय, सुन्दर एवं अनुपम थी। उस चित्रसभा में बहुत से काले, नीले, लाल,पीले और सफेद रंग वाले काष्ठकर्म (लकड़ी की कला), वस्त्रकर्म (कपड़े पर चित्रकारी), चित्रकर्म तथा लेप्यकर्म (मिट्टी की कलाकृतियां) किये गये थे। धागे से गूथो हुई, फूलों से लपेटी हुई, भरकर बनायी हुई. तथा जोड़-जोड़ कर बनाई हुई कई कलाकृतियों से दर्शनीय वह चित्रसभा दर्शकों को दिखाने लिए स्थित थी। ___ उस चित्रसभा में बहुत से आसन और शयन हमेशा सत्कार के लिए बिछे रहते थे। वहाँ पर बहुत से नाटक करने वाले, नर्तक, स्तुतिगायक, मल्ल, मुष्टि लड़ाने वाले, विदूषक, कथावाचक, तैराक, रास रचने वाले, ज्योतिषी, नट, चित्रपट दिखाने बाले, संगीतज्ञ, तूबा और बीणा बजाने वाले लोग जीविका, भोजन, वेतन आदि 143 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देकर रखे गये थे, जो वहाँ तालाचर (मनोरंजन) कार्य करते हुए रहते थे। राजगृह से निकलने वाले बहुत से लोग वहाँ पर पहले से बिछे हुए आसनों पर, शयनों पर बैठकर या लेटकर संतुष्ट होते हुए कथा सुनते हुए, नाटक देखते हुए और वहाँ की शोभा देखते हुए सुखपूर्वक विचरण करते थे। भोजनशाला तव नंद मरिणकार सेठ ने बगीचे के दक्षिणखण्ड में एक बड़ी महानसशाला (भोजनशाला) बनवाई। वह अनेक सैकड़ों खंभोंबाली, प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, सुन्दर एवं अनुपम थी । वहाँ पर बहुत से लोग जीविका, भोजन, वेतनभोगी थे, जो विएल भोजन, पान, खाने योग्य, स्वाद लेने योग्य पदार्थों को बनाते थे। वे बहुत से श्रमण, ब्राह्मण. अतिथि, दरिद्रों. और भिखारियों को भोजन कराते हुए वहाँ रहते थे। चिकित्साशाला तव नंद मणिकार सेठ ने पश्चिम दिशा के बगीचे में एक विशाल चिकित्साशाला (अस्पताल) बनवायी । वह अनेक खंभोंवाली सुन्दर थी । वहाँ पर अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक (वैद्यगिरि के जानकार), ज्ञायकपुत्र, कुशल (चिकित्सा में विशेषज्ञ), कुशलपुत्र आजी वका, भोजन और वेतन पर नियुक्त थे । वे बहुत से व्याधित, (मानसिक रोगी) ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों की चिकित्सा करते रहते थे । वहाँ पर दूसरे भी बहुत से लोग आजीविका, भोजन और वेतन देकर नियुक्त किये गये थे, जो उन रोगियों की औषधि, भेषज (मिश्रण), भोजन और पानी देकर सेवा, परिचर्या करते हुए रहते थे। अलंकार-सभा उसके बाद उस नंद मणिकार सेठ ने बगीचे की उत्तर दिशा में एक विशाल अलंकार-सभा (सेवा-केन्द्र) बनवायी । वह भी अनेक सैकड़ों खंभो से सुन्दर थी। उसमें प्राकृत गद्य-सोपान 149 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत से अलंकारिक व्यक्ति (शरीर की सेवा और श्रृंगार करने वाले नाई आदि) जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये । वे बहुत से श्रमणों. अनाथों, अशक्तों, रोगियों और दुर्बलों का अलंकार-कर्म (शारीरिक सेवा) करते हुए रहते थे । तब नंदा पुष्करिणी में बहुत से सनाथ, अनाथ, पंथिक, राहगीर, काँवर ढोने वाले, मजदूर, घसियारे, पत्तों के भार वाले, लकड़हारे आदि आते थे । उनमें से कोई स्नान करते. कोई पानी पीते, कोई पानी भर ले जाते और कोई-कोई पसीने, मैल, आदि को मिटाकर परिश्रम, निद्रा, भूख और प्यास को वहाँ मिटाकर सुखपूर्वक रहते थे। राजगृह नगरी से घूमने के लिए निकले हुए भी बहुत से लोग उस पुष्करिणी में क्या करते थे ? वे लोग जल में रमरण करते थे, विविध प्रकार से स्नान करते थे, कदलीगृहों, लतागृहों, फूलों की विछावनों पर आनन्द करते थे । और अनेक पक्षिओं के समूह के मनोहर शब्दों से युक्त उस पुष्करिणी आदि में क्रीड़ा करते हुए विचरण करते थे। नंद की प्रशंसा तब उस नंदा पुष्करिणी में स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भरकर ले जाते हुए बहुत से लोग आपस में इस प्रकार कहते थे-'देवानुप्रिय! नंद मणिकार सेठ धन्य है, कृतार्थ है, उसका जन्म और जीवन सफल है, जिसकी इस प्रकार की नंदा पुष्करिणी आदि है । जहाँ बहुत से लोग आसनों पर, शयनों पर बैटते हुए, संतुष्ट होते हुए, वार्ता करते हुए सुखपूर्वक घूमते हैं । अत: नंद मणिकार का जन्म सुलब्ध है और जीवन सफल है तब वह नंद मणिकार बहुत लोगों से यह प्रशंसा आदि सुनकर प्रसन्न और संतुष्ट हुआ। मेघ की धारा से आहत कदंब वृक्ष के समान उसके रोमकूप विकसित हो गये । वह सातायुक्त परमसुख का अनुभव करता हुआ रहने लगा। 000 150 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १० : कृष्ण के द्वारा वृद्ध की सेवा तब कृष्ण वासुदेब ने दूसरे दिन रात्रि के प्रातःकाल तक पहुंचने पर, फूले हुए उत्पल और कमलों के कोमल पत्ते विकसित होने वाले तया सफेदी लिए हुए प्रभात में, लाल अशोक के प्रकाग, पलाश के पुष्प, सुग्गे के मुख, चिरमु के आधे लाल मुख, बन्धुजीवक पुष्प, कबूतर के पैर और नेत्र, कोयल के लाल नेत्र, जसोदा के फूल, जलती हुई अग्नि, स्वर्ण-कलश, हिंगलू के समूह की तरह लालिमा से अधिक लाल रूप वाली शोभा से उन्हें तिरस्कृत करते हुए अनुक्रम से सूर्य के उदित होने पर, उस सूर्य की किरणों के अवतरित होने से अंधकार के समाप्त हो जाने पर, बाल सूर्यरूपी कुकम के द्वारा समस्त जीवलोक को व्याप्त कर लिये जाने पर, लोचनों के विषय के प्रसार से लोक दिखायी दिये जाने पर, सरोवरों के कमलवनों को विकसित करने वाले सूर्य के उदित होने पर, हजार किरणों वाले उस सूर्य के तेज के फैल जाने पर स्नान किया। विभूषित होने पर वे कृष्ण हाथी के कंधे पर बैठे। कोरंटपुष्पों की माला के छत्र को धारण करते हुए, श्वेत चामरों के ढोले जाते हुए, अनेक भटों. सेवकों, पथिकों से युक्त वे कृष्ण द्वारवाती नगरी के बीचोंबीच से, जहाँ अरिहंत अरिट्टनेमि थे, वहाँ जाने के लिए निकले। तब द्वारावती नगरी के बीचोंबीच से निकलते हुए वे कृष्ण वासुदेव एक वृद्ध, जरा से जर्जरित देह वाले, क्लान्त, कुम्हलाये हुए, थके हुए, दुर्बल एवं दुखी पुरुष को देखते हैं। वह पुरुष राजमार्ग के बाहर से बड़े राशि वाले ईटों के ढेर में से एक-एक ईट लेकर भीतर घर में पहुँचा रहा था। तब उन कृष्ण वासुदेव ने उस पुरुष पर हुई अनुकंपा से हाथी के कंधे पर बैठे हुए ही एक ईट को उठाया और उठाकर बाहर के राज-पथ से उसके भीतर घर में पहुंचा दी। ___ तब कुष्ण वासुदेव के द्वारा एक ईट उठाने से उनका अनुगमन करते हुए अनेक व्यक्तियों ने उस ईटों की बड़ी राशि को उठाकर वाहर के राजपथ से (उस बूढ़े के) घर के भीतर पहुँचा दिया। __तब वे कृष्ण वासुदेव द्वारावती नगरी के मध्य भाग से बाहर निकल गये । 000 प्राकृत गद्य-सोपान 151 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ११ : कलह विनाश का कारण (किसी एक) जंगल के बीच में मेघ के समान सुशोभित, वनखंड से मंडित अथाह जल से भरा हुआ एक तालाब था । वहाँ बहुत से जलचर (जल के प्रारणी), नभचर (आकाश में उड़ने वाले) और थलचर (पशु, जानवर आदि) प्राणी रहते थे। वहाँ पर हाथियों का एक बड़ा झुण्ड भी रहता था। एक बार ग्रीष्मकाल में वह हाथियों का झुड पानी पीकर और स्नान करके दोपहर के समय में वृक्ष की शीतल छाया में सुखपूर्वक सो रहा था । और वहाँ समीप में ही दो गिरगिट लड़ने लग गये । उनको देखकर वनदेवता ने सबकी सभा में यह घोषणा की गाथा 1.- 'हे हाथियो, जल में रहने वाले प्राणी, त्रस और स्थावर जीवो, सुनो-जहाँ गिरगिट लड़ते हैं, वहाँ नाश हो जाता है ।' देवता ने कहा-'इन लड़ते हुए गिरगिटों की उपेक्षा मत करो। इनको रोको।' (यह सुनकर) उन जलचर, थलचर आदि प्राणियों ने सोचा-'ये लड़ते हुए गिरगिट हमारा क्या बिगाड़ेगे ?' तभी वहाँ लड़ता हुआ एक गिरगिट पीड़ित होकर भागा और पीछा किया जाता हुआ वह सुखपूर्वक सोये हुए हाथी के नधुने में 'यह बिल है' ऐसा समझकर घुस गया। दूसरा गिरगिट भी वहीं घुस गया । वे वहीं हाथी के सिर कपाल में लड़ने लगे। इससे व्याकुल हुए और न सहन करने योग्य अधिक पीड़ा से युक्त उस हाथी ने उस वनखंड को ही नष्ट कर दिया। इससे वहाँ पर रहने वाले बहुत से प्राणी मारे गये । और जल का आलोडन करने से जलचर पीड़ित हुए । तालाब की पाल तोड़ दी गयी । तालाब नष्ट हो गया। इससे सभी जलचर मर गये । OCO 152 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १२ : धूर्त और गाड़ीवान एक मनुष्य ककड़ियों से भरी हुई अपनी गाड़ी के द्वारा नगर में प्रवेश करता है । प्रवेश करते हुए उसे एक धूर्त कहता है- 'जो व्यक्ति तुम्हारी पकड़ियों की गाड़ी को खा ले तो तुम उसे क्या दोगे ?' तब उस गाड़ीवान ने उस धूर्त को कहा'उस व्यक्ति को मैं वह लड्डू दूंगा, जो नगर के दरवाजे से भी न निकले।' धूर्त ने कहा-'तब इस ककड़ी की गाड़ी को मैं खा लेता हूँ। सुम फिर वह लड्डू दोगे जो नगर के दरवाजे से न निकले।' गाड़ीवान के यह स्वीकार लेने पर बाद में धूर्त ने गवाह भी कर लिये । फिर गाड़ी पर बैठकर वह उन ककड़ियों के एक एक टुकड़े को तोड़कर फेंक देता है। बाद में उस गाड़ीवान से लड्डू मांगने लगता है। तब गाड़ीवान ने कहा-'तुमने इन ककड़ियों को नहीं खाया है।' धूर्त कहता है-'यदि नहीं खाया है तो तुम इन ककड़ियों को बेच लो ।' बेचने पर कुछ लोग वहां आ गये । वे टूटी हुई ककड़ियों को देखते हैं । तब कुछ लोग कहते हैं --'इन खायी हुई ककड़ियों को कौन खरीदेगा ?' उस कारण से तब फैसला किया गया-'ककड़ियां खायी गयी हैं' ऐसा मानकर गाड़ीवान शर्त हार गया। तब धूर्त के द्वारा फिर लड्डू मांगा गया । गाड़ोवान को नहीं छोड़ा गया । तब गाड़ीवान ने बुद्धिमानों की सेवा की । उन्होंने संतुष्ट होकर सब पूछा। गाड़ीवान ने उनसे सब कुछ यथावत् कह दिया । ऐसा कहने पर उन्होंने उसे एक उपाय सिखा दिया कि ---- 'तुम एक छोटे लड्डू को नगर के दरबाजे पर रखकर कहो-'देखो यह लड्डू नगर के दरवाजे से स्वयं नहीं निकलता है। अतः इसे ले लो।' ऐसा करने पर तब वह धूर्त हार गया । 000 प्राकृत गद्य-सोपान 153 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज अकार में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा। उसमें कोए झुण्ड बनाकर आपस में बात करते हैं - 'हम लोगों के द्वारा अब क्या किया जाना चाहिये ? बड़ी भुखमरी उपस्थित हुई है। जनपदों में कौओं के लिये कोई भोजन नहीं है । दूसरे, उस तरह का कुछ अन्य छोड़ा हुआ खाद्य पदार्थ भी प्राप्त नहीं होता है । तो कहाँ चलें ? ' पाठ १३ : कृतघ्न कौए तब बूढ़े कौओं के द्वारा कहा गया कि - 'हम लोग समुद्रतट पर चलें । वहाँ कापिंजल हमारे भनेज होते हैं । वे हमें समुद्र से भोजन लाकर देंगे । इस के अतिरिक्त जीवन का उपाय नहीं है ।' ऐसा विचारकर वे सब समुद्रतट पर गये । वहाँ कापंजल प्रसन्न हुए । स्वागत, अतिथ सत्कार द्वारा कौओं का सम्मान किया गया । उनकी पाहुनी भी की गयी। इस प्रकार से वहाँ कापंजल उनको भोजन देने लगे । कौए वहाँ पर सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत करते हैं । उसके बाद बारह वर्ष का दुर्भिक्ष समाप्त हो गया । जनपदों में सुभिक्ष हो गया । तब उन कौओं ने कौओं के मुखिया को 'जनपद को देखकर आओ' ऐसा कहकर वहाँ भेजा । 'यदि सुकाल होगा तो हम लोग जायेंगे ।' तब वह मुखिया शीघ्र ही पता करके आ गया और कौओं को कहता है दिये हुए पड़े हैं। उठो, चलते हैं ।' तब कहा गया है तत्र क्यों जोना चाहिए ?' कहते हैं- 'भनेज ! हम जाते हैं ।' कि- 'जनपदों में कौओं के भोजन-पिण्ड दान वे कहते हैं - 'जब हमसे अभी जाने को नहीं यह जानकर कापंजल को बुलाकर इस प्रकार 154 तब उन्होंने कहा -- 'क्यों जा रहे हैं ।' तब वे कहते हैं - 'सूर्य के निकलने के पहले ही प्रतिदिन तुम्हारे अहोभाग्य को देखना सम्भव नहीं है ।' ऐसा कहकर वे चले गये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000 प्राकृत गद्य-सोपान Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १४ : शिल्पी कोक्कास इसके बाद वह कोक्कास पड़ोस में रहने वाले शास्त्र पढ़े हुए शिल्पी बढ़ई के घर जाकर दिन व्यतीत करता । उस शिल्पी के पुत्र नाना प्रकार के काष्ठकर्म सीखते थे। किन्तु उस शिल्पी पिता के द्वारा सिखाये जाने पर भी ( शिक्षा ) ग्रहण नहीं करते थे । तब उस कोक्कास के द्वारा उन्हें कहा जाता - 'ऐसा करो तो ऐसा होगा' यह सुनकर तब उस आचार्य ने विस्मित हृदय से कहा - 'पुत्र ! तुम उपदेश सीखो। मैं तुम्हें सिखाऊँगा ।' तब कोक्कास ने कहा - 'स्वामी ! जैसी आपकी आज्ञा ।' ऐसा कहकर तब से वह सीखने में लग गया । आचार्य के सिखाने के गुण से सब प्रकार का काष्ठकर्म वह सीख गया। गुरु की आज्ञा से निपुरग वह कोक्कास जहाज पर चढ़कर ताम्रलिप्ति वापिस आ गया । वहाँ शान्ति से समय व्यतीत हो रहा था। तब उसने अपनी जीविका के उपाय के लिए राजा को पता कराने के लिए एक वपोत विमान का जोड़ा बनाया । वे कपोत प्रतिदिन जाकर छत पर सूख रहे राजा धान को लेकर आ जाते । तब रक्षकों ने धान को चोरी जाते हुए देखकर शत्रु का दमन करने के लिए राजा को निवेदन किया । राजा ने मन्त्री को बुलाकर कहा - 'पता लगाओ' । तब उन नीतिकुशलों ने आकर राजा को निवेदित किया कि -' 'देव ! कोक्कास के घर का यन्त्र कपोतों का जोड़ा आकर (धान्य) ले जाता है । राजा ने आदेश दिया- 'उसको पकड़कर लाओ'। ऐसा कहने पर वह कोवकास लाया गया और उससे पूछा गया । उसने सब कुछ पूरी तरह राजा को कह दिया । तब संतुष्ट राजा के द्वारा कोक्कास का सम्मान किया गया और उसे कहा गया --- 'आकाश में जाने के लिए यन्त्र तैयार करो। उस विमान के द्वारा हम दोनों जनें इच्छित स्थान को जाकर वापिस आते हैं । तब कोक्कास ने राजा की आज्ञा के साथ ही यन्त्र तैयार कर दिया। राजा और वह उस पर चड़े तथा इच्छित स्थान को कर वापिस आ गये । इस प्रकार से समय व्यतीत होता रहा । प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 155 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस बात को देखकर पटरानी ने राजा को निवेदन किया-'मैं भी आपके साथ आकाशमार्ग से देशान्तर में जाना चाहती हूँ।' तब राजा ने कोक्कास को बुलाकर कहा- 'महादेवी भी हमारे साथ चलें ।' ऐसा कहने पर कोक्कास ने कहा-'हे स्वामी ! उस पर तीसरे का चढ़ना उचित नहीं है। दो ही जनों को यह विमान ले जा सकता है।' तब वह रानी आग्रह करके रोकी जाती हुई भी अपनी जिद करती है। अज्ञानी राजा भी उपके साथ जहाज पर चढ़ गया । तब कोक्कास ने कहा-'हमें पछताना पड़ेगा। दुर्घटना अवश्य होगी।' ऐसा कहकर विमान पर चढ़ते हुए उसने तन्त्री को खींच दिया, आकश को ले जाने वाली यन्त्र की कील पर चोट की तो वह विमान बाकाश में उड़ चला । बहुत योजन दूर चले जाने पर अतिरिक्त भार के भर जाने पर तन्त्री टूट गयी, यन्त्र नष्ट हो गया, कील गिर गयी और धीरे से वह विमान जमीन पर स्थित हो गया। वह कोक्कास और रानी सहित राजा पहले बात न सुनने से पश्चाताप से दुखी होने लगे। 000 पाठ १५ : अग्निशर्मा का अपमान यहाँ पर ही जम्बूद्वीप द्वीप में, अपरविदेह देश में ऊँचे, सफेद परकोटे से सुशोभित, कमलिनियों के वन से ढकी हुई खाई से युक्त, तिराहे, चौराहे एवं चौकों से अच्छी तरह विभक्त, भवनों से इन्द्र के भवन की शोभा को जीतने वाला क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर था। गाथा- 1. जिस देश की कामिनियां अपने मुखों से कमलों को, वाणी से कोयल को, नेत्रों से नीलकमलों को और अपनी गति से राजहंसों को जीतती हैं । 2. जहाँ पर पुरुषों को विद्याओं में व्यसन था, निर्मल यश में लोभ था, सदा पापों में भीरुता थी तथा धर्म के कार्यों में संग्रह-बुद्धि थी। . 156 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. वहाँ पर अधीनस्थ राजमंडलों से परिपूर्ण, मदरूपी कलंक से रहित, जनता के मन और नयनों को आनन्द देने वाला पूर्णचन्द्र नाम का राजा था, (जो वास्तव में पूर्णिमा के चन्द्र की तरह था ) । 4. उस राजा के अन्तःपुर में प्रधान कुमुदिनी नामक रानी थी। उसके साथ विषयसुखों की वृद्धि होती रहती थी। वह कामदेव के लिए रति की तरह राजा को प्रिय थी । 5. उनके गुण - समूहों से युक्त गुरणसेण नामक पुत्र था, जो बालकपन में ही व्यंतर देव की तरह मात्र क्रीड़ाप्रिय था । और उसी नगर में सब लोगों के द्वारा अत्यन्त सम्मानित, धर्मशास्त्र के समूह का पाठक, लोक व्यवहार में नीतिकुशल, अल्प हिंसा और अल्प परिग्रह वाला, यज्ञदत्त नामक उपाध्याय था । उसकी पत्नी सोमदेवा के गर्भ से उत्पन्न, बड़ा और तिकोने सिर वाला, पीली और गोल आंखों वाला, स्थान मात्र से मालूम पड़ने वाली चपटी नाक वाला, छेद मात्र से युक्त कानों वाला, ओठों से बाहर निकले हुए बड़े दांतों वाला, टेढ़ी और मोटी गर्दन वाला, असमान और छोटी-छोटी बांहों वाला, अत्यन्त छोटे वक्षस्थल वाला, ऊँचा-नीचा और लम्बे पेट वाला, एक ओर को उठी हुई बेडौल कमर वाला, असमान रूप से स्थित जंबाओं वाला, मोटी, कड़ी और छोटी पिडलियों वाला, असमान और चौड़े पैरों वाला तथा आग की लपटों की तरह पीले बालों वाला अग्निशर्मा नाम का पुत्र था । उम (अग्नि शर्मा नामक ) पुत्र को कोतुहलवश कुमार गुणसेन नागाड़े, पटह, मृदंग, बांसुरी, मंजीरों आदि एवं बड़े तूर की आवाज से, नगर के बीच में, हाथों से तालियां बजाता हुआ, हंसता हुआ नचाता था । गधे पर चढ़ाकर, हंसते हुए बहुत से बालकों से घिरे हुए, छत्र के रूप में फटे सूप को धारण कराये हुए, मनोहर पर बेसुरे ताल से डोंडी पिटवाता हुआ, महाराज शब्दों से सम्बोधित करता हुआ बहुत बार राजमार्ग में जल्दी-जल्दी उस अग्निशर्मा को घुमाता था । इस प्रकार प्रतिदिन यमराज की तरह उस गुरणसेन के द्वारा अपमानित किये जाते हुए उस अग्निशर्मा के ( मन में) वैराग्यभावना उत्पन्न हो गयी । वह सोचने लगा प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 157 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा - 6. 'पूर्व जन्म में पुण्यकर्म न करने वाले बहुत से लोगों के धिक्कार से पीड़ित और सब लोगों के उपहासयोग्य पुरुष दूसरों के अपमान को सहते हैं । 7. पूर्वजन्म में मुझ मूढहृदय अधन्य के द्वारा, जो सज्जन पुरुषों के द्वारा आचरित अत्यन्त सुख देने वाला धर्म का आचरण नहीं किया गया है । 8. सो अब पुण्य न करने वालों के इस तीव्र फलविपाक को देखकर मैं परलोक में बन्धु के समान एवं मुनियों के द्वारा सेवित इस धर्म को करूंगा । 9. इस प्रकार सोचकर वैराग्य को प्राप्त वह अग्निशर्मा नगर से निकला ओर एक महीने में उस प्रदेश की सीमा पर स्थित 'सुपरितोष' नामक तपोवन को पहुँच गया। फिर वह तपोवन में प्रविष्ट हुआ । उसने तापसकुल के प्रधान 'आर्जव कोडन्य' को देखा । देखकर उसने उनको प्रणाम किया । ऋषि ने उससे पूछा - 'आप कहाँ से आये हैं ?' तब अग्निशर्मा ने विस्तार से अपना सब वृतान्त उन्हें कह दिया । तब ऋषि ने कहा – 'हे वत्स ! पूर्व जन्मों में किये गये कर्मों के परिणाम के वश से जीव इस प्रकार दूसरों के द्वारा दुख पाने के भागी होते हैं । अतः राज- अपमान से पीड़ितों के लिए, दरिद्रता के दुख से दुखी लोगों के लिए, दुर्भाग्य के कलंक से उदास लोगों के लिए और इष्टजनों के वियोग की अग्नि में जले हुए लोगों के लिए यह आश्रम इस लोक और परलोक में सुख देने वाला तथा परम शान्ति का स्थान है। यहाँ पर 158 जिससे अगले जन्म में भी दुर्जन लोगों से समस्त लोगों के द्वारा उपहास किये जानी वाली इस प्रकार की विडम्बना को पुनः प्राप्त न करू ।' गाया - 10 वनवासी सर्वथा धन्य हैं, जो आसक्तिजनित दुख, लोगों के द्वारा किये गये अपमान और दुर्गति में गमन को नहीं देखते हैं । ' इस प्रकार से उपदेश पाये हुए अग्निशर्मा ने कहा - 'भगवन् ! ऐसी ही बात है, इसमें कोई संदेह नहीं हैं । अतः यदि आपकी मेरे ऊपर अनुकम्पा है और इस व्रत विशेष के लिए में उचित हूँ तो मुझे यह व्रत प्रदान करके अनुग्रहीत करें ।' ऋषि ने कहा- हे वत्स तुम वैराग्यपथ के अनुगामी हो अतः मुझे तुम्हारा अनुरोध स्वी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार है । तुम्हारे सिवाय दूसरा कौन इस व्रत के लिए योग्य है।' ऐसा कहकर तब कुछ दिन व्यतीत हो जाने पर अपने नियम और आचार विस्तार से समझाकर प्रशस्त तिथि, करण, मुहूर्त एवं लगन में उस अग्निशर्मा को तापसदीक्षा दे दी गयी । __ महान् तिरस्कार से उत्पन्न अतिशय वैराग्य भावना के कारण उस अग्निशर्मा ने उसी दीक्षा के दिन में ही समस्त तापस लोगों से घिरे हुए गुरु के समक्ष एक महाप्रतिज्ञा की कि-' मैं जीवन-पर्यन्त एक माह के अन्तर से ही भोजन करूंगा। और पारणा के दिन सर्वप्रथम प्रविष्ट पहले घर से ही लौट आऊँगा। भिक्षा प्राप्त हो अथवा नहीं, दूसरे घर में नहीं जाऊँगा।' और इस प्रकार प्रतिज्ञा लेने वाले तथा उसका उसी प्रकार से पालन करने वाले उस अग्निशर्मा के बहुत से दिन व्यतीत हो गये। 000 पाठ १६ : गुणसेन के प्रति निदान और इधर पूर्णचन्द्र राजा कुमार का विवाह करके उसे राज्य सिंहासन पर बैठाकर कुमुदिनी रानी के साथ तपोवन में रहने चला गया। अनेक सामन्तों के के द्वारा चरगायूगलों को नमन किये जाने वाला, अनेक राजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाने वाला, दशों दिशाओं में प्रसिद्ध निर्मल यश वाला, धर्म, अर्थ एव काम इन पुरुषार्थों का सम्पादन करने वाला वह कुमार गुणसेन महाराजा हो गया। एक बार वह राजा गुणसेन भक्ति और कौतुक से उस तपोवन को गया । उसने वहाँ बहुत से तपस्वियों एवं कुलपति को देखा । और उसने पद्मासन में बैठे हुए, नयन-युगल को स्थिर किये हुए, विचित्र मन के व्यापारों को शान्त किये हुए, उस प्रकार से कुछ-कुछ ध्यान करते हुए अग्निशर्मा तापस को भी देखा । तब राजा ने कहा-हे भगवन् ! आपकी इस महाकठिन तपश्चर्या के प्रयत्न का कारण क्या है ?' अग्निशर्मा तापस ने कहा-'हे महाप्राणी ! दरिद्रता का दुख, दूसरों से प्राप्त अपमान, कुरूपता और महाराज-पुत्र तथा मेरा कल्याण मित्र गुणसेन (इसका कारण है) प्राकृत गद्य-सोपान 159 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब राजा ने वचपन के वृतान्त को यादकर लज्जा से झुकाये हुए मुख से कहा - 'भगवन् ! मैं वह महापाप कर्म करने वाला और आपके हृदय को संताप देने वाला अगणसेन है।' अग्निशर्मा तपास ने कहा-'हे महाराज ! आपका स्वागत है। आप अगुणसेन कैसे हुए ? क्योंकि आपके द्वारा ही दूसरों के भोजन पर पलने वाले मैंने अब इस प्रकार की तप-विभूति प्राप्त की है ।' राजा ने कहा-'अहो ! आपकी महानता, अथवा क्या तपस्वीजन प्रिय वचनों को छोड़कर अन्य बोलना जानते हैं ? चन्द्रबिम्ब से अग्नि की वर्षा नहीं होती है । अतः अब इसको रहने दें । हे भगवन् ! आपकी पारणा (भोजन) कब होगी ?' 'अग्निशर्मा ने कहा-'महाराज ! पांच दिनों के बाद ।' राजा ने कहा-'भगवन् । यदि आपको कोई अधिक आपत्ति न हो तो मेरे घर पर भोजन के द्वारा कृपा की जानी चाहिए । मैंने कुलपति के पास से आपकी विशेष प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में जान लिया है । अतः पहले से ही प्रार्थना कर रहा हूँ।' अग्निशर्मा ने कहा-'महाराज तब तक वह दिन आने दीजिए । कौन जानता है कि बीच में क्या होगा ?' राजा ने कहा-'भगवन् ! विघ्न को छोड़कर आप अवश्य आयें ।' अग्निशर्मा ने कहा-'यदि आपका ऐसा आग्रह है तो आपकी प्रार्थना स्वीकार की जाती है ।' तब प्रसन्नता से पुलकित अंग वाला राजा उन्हें प्रणाम कर कुछ समय वहाँ व्यतीत कर नगर को चला गया। पांच दिन व्यतीत होने पर पारणा के दिन अग्निशर्मा तापस पारणा के लिए सर्व प्रथम राजा के महल में ही प्रविष्ट हुआ। उस दिन में किसी प्रकार राजा गुणसेन के सिर में अत्यन्त पीड़ा उत्पन्न हो गयी । अतः पूरा राजकुल व्याकुल हो उठा । तब वह अग्निशर्मा तापस इस प्रकार के राजकुल में कुछ समय व्यतीत कर किसी के द्वारा शब्दों से भी उसकी खबर न लेने पर उस राज-गृह से वापिस आ गया । निकल कर तपोवन को चला गया। उसने कुलपति को सब समाचार निवेदित कर दिये । ___ इधर सिर की पीड़ा शान्त होने पर राजा गुणसेन के द्वारा सेवकों से पूछा गया। सेवकों ने यथास्थिति कह दी। राजा ने कहा-'अहो ! मेरी अधन्यता, महालाभ से मैं चूक गया और तपस्वी के शरीर को (भोजन ने मिलने से) पीड़ा पहुंचने के 160 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण महा अनर्थ हो गया है ।' ऐसा पश्चाताप कर दूसरे दिन प्रातः काल में ही वह तपोवन को गया । उसने कुलपति को अपना प्रमाद और अपराध निवेदित किया । तब कुलपति ने अग्निशर्मा तापस को बुलवाया। और सम्मानपूर्वक उसके हाथों को पकड़ कर उन्होंने कहा - ' हे वत्स ! राजा के घर से जो तुम्हें बिना भोजन किये लौटना पड़ा है उसके लिए यह राजा बहुत दुखी हो रहा है । इसमें राजा का कोई दोष नहीं है । अत: अब पारणा का दिन आने पर निर्विघ्न पूर्वक, मेरे कहने से और इस राजा के बहुत आग्रह से तुम्हारे द्वारा इसके घर ही भोजन किया जाना चाहिए ।' अग्निशर्ना तापस ने कहा- 'भगवन् ! जो आपकी आज्ञा ।' फिर कालक्रम से राजा के द्वारा विषय सुखों का अनुभव किये जाते हुए एवं अग्निशर्मा के द्वारा कठिन तपचर्या की विधि को करते हुए एक माह व्यतीत हो गया। इसके उपरान्त पारणा का दिन उपस्थित होने पर राजकुल में अत्यन्त भागदौड़ मच गयी । राजा गुणसेन मन्त्री, सामन्तों के साथ और सेना सहित युद्धभूमि में जाने के लिए तैयार था । उसी समय में अग्निशर्मा तापस पारणा के लिए राजमहल में पहुँचा । तब उस अपार लोगों की भीड़ में राजा के प्रस्थान के लिए व्याकुल प्रधान सेवकों में से किसी ने भी अग्निशर्मा की तरफ ध्यान नहीं दिया । तब कुछ समय वहाँ बिताकर मदोन्मत्त हाथियों और घोड़ों के समूह की चपेट में आ जाने के भय से वह अग्निशर्मा राजा के महल से निकल गया । ( युद्ध से वापिस लौटने पर ) अग्निशर्मा के वापिस लौट जाने को सुनकर घबड़ाया हुआ वह राजा तुरन्त उसके रास्ते में चल पड़ा। नगर से नकलते हुए उसने अग्निशर्मा को देखा । तब वह राजा भक्तिपूर्वक उसके चरणों पर गिरकर आदरपूर्वक निवेदन करता है - 'हे भगवन् ! कृपा करिए, वापिस लौट चलिए । इस प्रकार की असावधानी वाले आचरण के लिए मैं लज्जित हूँ ।' तब अग्निशर्मा ने कहा'महाराज ! आपका यह दुःख बिना कारण के है। फिर भी इस दुःख को शान्त करने का उपाय है । विघ्नरहित फिर से पारणा का दिन आने पर आपके महल में आहार ग्रहण करूंगा । यह मैंने स्वीकार कर लिया है । अत: आप संताप न करें ।' प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 161 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब राजा ने कहा- 'भगवन् आपका मैं अनुग्रहीत हूँ । यह आप जैसे निःस्वार्थी वत्सलता वालों के अनुरूप ही है ।' ऐसा कहकर और अग्निशर्मा को प्रणाम कर राजा वापिस लौट गया। अग्निशर्मा ने भी तपोवन में जाकर कुलपति को सारा वृतान्त कह दिया । तदनन्तर प्रतिदिन वैराग्य की ओर बढ़ने वाले राजा के द्वारा सेवा किये जाते हुए अग्निशर्मा का वह एक माह पूरा हुआ। तथा राजा के सैकड़ों मनोरथों से वह पारणा का दिन आया । और उस पारणा के दिन राजा गुणसेन की रानी वसन्तसेना ने पुत्र को जन्म दिया । तब राजा के आदेश से नगर में महोत्सव मनाया जाने लगा । इस प्रकार रानी के पुत्रजन्म के अभ्युदय के आनन्द से अत्यन्त मस्त राजा के साथ राजा के सेवकों के होने पर पारणा के लिए राजकुल में प्रविष्ट अग्निशर्मा को वचनों से भी किसी के द्वारा नहीं पूछे जाने पर अशुभकर्मों के उदय से आ ( दूषित ) ध्यान को प्राप्त वह अग्निशर्मा शीघ्र ही वहाँ से निकल गया । तब अग्निशर्मा ने सोचा- 'अहो ! यह राजा बचपन से ही मेरे प्रतिकूल एवं बैरभाव रखने वाला है । उसके अत्यन्त रहस्यपूर्ण आचरण को देखो तो सही, मेरे आगे तो मनोनुकूल बातें करके क्रिया में विपरीत आचरण करता है!' इस प्रकार से चिन्तन करता हुआ वह नगर से निकल गया । इसके बाद अज्ञान के दोष से पारमार्थिक मार्ग का चिन्तन न करने से वह अग्निशर्मा बुरी भावनाओं ( कषायों ) द्वारा जकड़ लिया गया । उसकी परलोकभावना चली गयी, धर्मश्रद्धा नष्ट हो गयी, समस्त दुखरूपी वृक्ष के बीज की तरह अमैत्री उत्पन्न हो गयी और उसे शरीर को पीड़ा देने वाली अत्यन्त भूख लगी । वह भूख से तिलमिला उठा । तब गाथा - 1. 162 Jain Educationa International प्रथम परीषह (भूख के दुख ) से आक्रान्त, अज्ञान और क्रोध के वशीभूत उस मूढहृदय अग्निशर्मा के द्वारा यह घोर निदान (संकल्प) किया गया For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 'यदि मेरे द्वारा अच्छी तरह से पालन किये गये इस व्रत विशेष का कोई फल हो तो प्रत्येक भव में मेरा जन्म इस गुणसेन के वध करने के लिए हो। 3. जो पुरुष अपने प्रिय-जनों के लिए उनका प्रिय (कार्य) एवं शत्रुओं के लिए अप्रियकार्य नहीं करता है तो केवल. माता के यौवन को नष्ट करने वाले उस व्यक्ति के जन्म से क्या लाभ ? 4. यह पापी राजा बिना किसी अपराध के बचपन से ही मेरा शत्रु है। अतः मैं इसका अप्रिय करूंगा।' 5. इस प्रकार निदान करके उस (बैर भावना के) स्थान से न लौटते हुए, क्रोध की अग्नि में जलते हुए उसे अग्निशर्मा ने अनेक बार ऐसे भाव किये। इसी बीच में वह तपोवन में पहुंचा । वहाँ अकेला बैठा हुआ वह अपमान के कारण पुनः सोचने लग गया-'अहो ! उस राजा का मेरे ऊपर कितना शत्रुभाव है ? उस प्रकार बार-बार निमन्त्रण करके और पारणा पूरी न कराके वह मेरा उपहास करता रहा। अथवा मैंने आहार-भाव की आसक्ति सर्वथा नहीं छोड़ी इसलिए मेरा इतना उपहास किया जा सकता है । अत: जिसमें मात्र तिरस्कार समाया हुआ है ऐसा आहार अब में जीवन भर नहीं करूंगा।' इस प्रकार निश्चय कर उसने जीवनभर के लिए महा उपवास व्रत ग्रहण कर लिया। यह सब जानकर कुलपति ने उसे कहा-'हे वत्स ! यदि तुमने आधार भी छोड़ दिया है तो अब तुम्हें आज्ञा देने का समा नहीं रहा। तपस्वी तो सत्य प्रतिज्ञा वाले होते हैं । किन्तु तुम्हें राजा के ऊपर क्रोध नहीं करना चाहिए । क्योंकि गाथा- 6. सब लोग पूर्वजन्मों में किये गए कर्मों के फलरूपी परिणाम को प्राप्त करते हैं । अपराध अथवा गुणों में तो दूसरा व्यक्ति मात्र निमित्त होता 000 प्राकृत गद्य-सोपान 163 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १७ : मित्र का कपट महानगरी वाराणसी के पश्चिम-दक्षिण दिशाभाग में शालिग्राम नामक गाँव है । वहाँ एक वैश्य जाति का गंगादत्त नामक व्यक्ति रहता था । अनेक धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण से समृद्ध लोगों वाले उस गाँव में वह अकेला ही एक जन्म से दरिद्र था। उसके कपटपूर्ण व्यहार से उसका मायादित्य नाम प्रसिद्ध हो गया । और उसी गाँव में पहले से प्राप्त वैभव वाला स्थाणू नामक एक वरिणक रहता था। किसी प्रकार मायात्यि के साथ उस स्थागू का स्नेह हो गया। उनमें मैत्री हो गयी। एक बार धन कमाने के लिए एक दिन वे दोनों मंगल-उपचार करके, स्वजन और स्नेहीवर्ग को पूछकर रास्ते का नास्ता लेकर निकल पड़े। तब अनेक पर्वतों, सैकड़ों नदियों से युक्त अटवियों (जगलों) को पारकर किसी-किसी प्रकार वे प्रतिष्ठान नामक नगर को पहुंचे । अनेक धन, धान्य, रत्नों से युक्त महास्वर्ग नगर के समान उस नगर में अनेक प्रकार के वाणिज्यों को किया गया और व्यापारिक कार्यों को करते हुए उन दोनों के द्वारा किसी-किसी प्रकार एक-एक ने पांच-पांच हजार स्वर्ण रत्न कमा लिये। उन्होंने आपस में विचार किया 'अहो ! जो धन हम चाहते थे वह हमने । कमा लिया है। किन्तु चोरों के उपद्रवों के कारण से अपने देश इसको ले जाना सम्भव नहीं हैं। इसलिए इस धन से एक हजार स्वर्ण के मोल के पांच-पांच रत्न ले लेते हैं। अपने देश में जाकर वे रत्न बराबर मूल्य में अथवा अधिक मूल्य में बेच दिये जायेंगे ।' ऐपा कहकर प्रत्येक ने हजार स्वर्ण मोल के रत्न ले लिये । इससे एकएक के पास पांच-पांच रत्न हो गये। तब उन दोनों जनों के द्वारा उन दसों रत्नों को एक ही मैल और धूली से धूसरित कपड़े में अच्छी तरह बांध लिया गया। और उन्होंने अपना वेष भी परिवर्तित कर लिया। उनके द्वारा मुडे सिर करा लिये गए । छाते ले लिये गये। डंडे के अग्रभाग में तुम्बी लटका ली गयी । गेरुए रंग के कपड़े पहिन लिये गये । रस्सी के सींकों से बनी हुई काँवरें लटका ली गयीं । सब प्रकार से दूर जाने वाले तीर्थ-यात्रियों का वेष 164 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बना लिया गया। तब इस प्रकार परिवृतित वेष वाले वे दोनों चोरों के द्वारा न लक्ष्य किये जाते हुए, भिक्षा मांगते हुए चल दिये । कहीं पर मोल खरीदकर, कहीं पर भोजनशालाओं में, कहीं पर अतिथिशालाओं में भोजन करते हुए एक संनिवेश (नगर के नजदीक) में वे पहुंचे । वहाँ पर स्थाणू ने कहा-'अरे मित्र ! थके होने से अब भीख मांगते हुए घूमना हमारे वश का नहीं है । अत: आज स्वयं रोटी बनाकर खायेंगे ।' तब मायादित्य ने कहा-'यदि ऐसा है, तुम बाजार में जाओ। क्योंकि मैं भोला, खरीदना बेचना नहीं जानता, किन्तु तुम जानते हो। शीघ्र ही तुम आ जाना ।' तब स्थाणू ने कहा'ठीक है, ऐसा ही हो । किन्तु फिर इस रत्न की पोटली का क्या करें ? ' ऐसा पूछने पर मायादित्य ने कहा-'दूसरे के बाजार की स्थिति कौन जानता है ? इसलिए वहाँ प्रवेश करने वाले तुम्हें कोई आपत्ति न हो इस कारण मेरे ही पास इस रत्न-पोटली को रहने दो।' उस स्थाणू ने ऐसा कहने पर वह रत्न-पोटली उसे दे दो। देकर वह बाजार को चला गया। तब मायादित्य ने सोचा-'अहो ! ये दस रत्न हैं। इनमें से पांच मेरे हैं । यदि इस स्थाणू को किसी प्रकार धोखा दिया जाय तो दसों रत्न मेरे ही हो जायेंगे।' ऐसा सोचते ही उसके बुद्धि उत्पन्न हुई कि-'इनको लेकर भाग जाता हूँ।' अथवा उसे गये हुए अधिक समय नहीं हुआ है । अभी वापिस आ जायेगा । इसलिए जिस प्रकार से वह नहीं जान पाये उस प्रकार से भागू गा।' ऐसा सोचकर उसने रास्ते की धूलि से वैसा ही मैला दूसरा एक कपड़ा लिया। उसमें वे रत्न बांध दिये । और उस पुराने रत्न के कपड़े में रत्नों के तौल और आकार के गोल दस पत्थर बांध दिये । और इस प्रकार उस कपट-प्रपंच को करते समय ही अचानक वह स्थाणू आ गया । तब घबड़ाए हुए और पाप मन वाले उस मायादित्य ने नहीं जाना कौन-सा वास्तविक रत्नों का कपड़ा है, और कौन-सा नकली रत्नों का कपड़ा । तब स्थाणू ने कहा-'मित्र ! मुझे देखकर इस प्रकार व्याकुल से क्यों दिखायी दे रहे हो ?' मायादित्य ने कहा – 'मित्र ! यहीं इस प्रकार का धन का भय प्रत्यक्ष देख लिया, कि तुम्हें देखकर सहसा ऐसी बुद्धि हुई कि-यह चोर आ गया है । अतः इस भय से मैं घबड़ा प्राकृत गद्य-सोपान 165 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया ।' स्थाशू ने कहा --'धैर्य धारण करो।' उसने कहा-'मित्र ! इस रत्न कपड़े को वापिस लो । मैं डरता हूँ। मुझे इसके भ्य से कुछ लेना-देना नहीं है ।' ऐसा कहते हुए उस मायादित्य ने 'नकली रत्न-कपड़ा है' ऐसा विचारकर ठगी बुद्धी से उस स्थाणू को असली रत्नों का कपटा समर्पित कर दिया । उसने भी बिना किसी विकल्प वाले मन से ग्रहरण कर लिया। तब उम सरल हृदय वाले स्थाणू को पाप हृदय वाले मायादित्य ने ठगकर इस प्रकार कहा- हे मित्र ! मैं कुछ खटाई आदि मांगकर अभी आता हूँ।' ऐमा कहकर जो गया तो गया, वापिस ही नहीं लौटा । रात-दिन चलकर बारह योजन दूर निकल जाने पर उस मायादिःय ने जब उस अपने रत्न-कपड़े को देखा तब वे जो पत्थर उसने ठगने के लिए उस कपड़े में बांधे थे वही यह नकली रत्नों का कपड़ा था । उसे देखकर वह ठगे हुए की तरह, लूट लिये गये की तरह, मार दिये गये की तरह, डरे हुए की तरह, पागल की तरह, सोए हुए की तरह, मरे हुए की तरह न कथन करने योग्य महान मूछी को प्राप्त हो गया। वह क्षणमात्र में चेतना को प्राप्त हुआ। तब उसने सोचा-अहो ! में इतना मंदभागी हूँ कि जो मैंने सोचा था कि उसे ठगूगा तो मैं ही ठगा गया ।' ऐसा सोचकर उस पापहृदयो ने फिर विचार किया-'अच्छा, अब फिर उस सरल हृदय वाले को ठगूगा । अब ऐसा करता हैं कि वह पुनः मुझे कहीं मार्ग में मिल जाय ।' ऐसा सोचता हुआ वह मायादित्य उसी मार्ग पर चल दिया (जहाँ स्थाणू को छोड़ा था)। 000 पाठ १८ : धनदेव का पुरुषार्थ इस लोक में जम्बूद्वीप में भारतवर्ष में वैताढ्य के दक्षिण मध्यम खंड में उत्तरापथ नामक पथ है । वहाँ तक्षशिला नामक नगरी है। उस नगरी के पश्चिम-दक्षिण दिशाभाग में उच्चस्थल नामक गाँव है, जो देव भवनों से स्वर्ग नगर की तरह, विविध रत्नों से पाताल की तरह, गौ-सम्पदा से गौओं के निवास स्थान की तरह तथा-धन सम्पदा से धनकपुरी की तरह है। 166 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस गाँव मैं शूद्र जाति का धन देव नामक सार्थवाह (बड़े व्यापारी) का एक पुत्र था । वहाँ अपने जैसे सार्थवाह पुत्रों के साथ खेलते हुए उसका समय व्यतीत होता था। किन्तु वह लोभी, धन ग्रहण करने में तल्लीन, मायावी, ठग, झूठ बोलने वाला और दूसरों के धन को हरण करने वाला था। तब उसके समान सार्थवाह युवकों के द्वारा ऐसे उसका धनदेव नाम बदलकर लोभदेव नाम प्रतिष्ठित कर दिया गया । तब लोभदेव नाम वाला वह दिनों के बीतने पर बड़े युवक की तरह हो गया । तब बाहर जाने के लिए इसके लोभ उत्पन्न हुआ, इसलिए उसने अपने पिता से कहा-'हे पिता ! घोड़े लेकर दक्षिणापथ को जाऊँगा और वहाँ बहुत अधिक धन कमाऊँगा, जिससे सुख का उपभोग करेंगे।' ऐसा कहने पर उसके पिता ने कहा-'हे पुत्र ! तुम्हें धन से क्या प्रयोजन ? तुम्हारे और मेरे पुत्र-पौत्रों के लिए भी विपुल सारयुक्त धन मेरे पास है । इसलिए गरीबों को दान दो, याचकों की मांग पूरी करो, ब्राह्मणों को दक्षिणा दो, मंदिरों को बनवाओ, तालाब और बांध खुदवाओ, वांपियों को बंधवाओ, निशुल्क भोजन. शालाओं को चलाओ, औषधालयों को बनवाओ, दीन एवं विह्वल लोगों का उद्धार करो। किन्तु हे पुत्र ! विदेश जाने से रहने दो। तब लोभदेव ने कहा- 'हे पिता ! जो यहाँ है वह तो अपने अधीन है ही। किन्तु अपनी बाहुओं के पुरुषार्थ से अन्य अपूर्व धन कमाना चाहता हूँ।' तब उस सार्थवाह ने सोचा - 'इसका उत्साह ठीक ही है । यह करने योग्य, उचित एवं हमारे अनुकूल है । हमारा धर्म ही है - अपूर्व धन कमाना । इसलिए मुझे इसकी इच्छा को नहीं तोड़ना चाहिए । अतः यह जाय ।' ऐसा सोचकर उसने कहा-'हे पुत्र ! यदि तुम नहीं रुक सकते तो जाओ।' ऐसा कहे जाने पर वह जाने को तैयार हो गया । घोड़े सजाये गये। गाड़ीवान सज्जित की गयीं, रास्ते का खाना रखा गया, दलालों को सूचना दी गयी, मजदूर लोगों को एकत्र किया गया, गुरुजनों से पूछा गया, दिशा-देवता की बन्दना की प्राकृत गद्य-सोपान . 167 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयी, सार्थ तैयार हुआ और जल्दी से चल पड़ा । तब उसके पिता ने उसे कहा-'हे पुत्र ! देशान्तर दूर है, रास्ते भयानक हैं, लोग निष्ठर हैं, दुर्जन अधिक हैं, सज्जन विरले हैं, मित्र कठिनता से मिलते हैं, यौवन कठिन है, बड़ी मुश्किल से तुम पाले गये हो, कार्यों की गति विषम है, यमराज अर्नथ करने वाला है. क्रोधी चोर निरन्तर मिलते हैं। इसलिए कहीं पर पंडिताई से, कहीं पर मूर्खता से, कहीं चतुरता से, कहीं निष्ठुरता से, कहीं दयालुता से, कहीं निर्दयता से, कहों शूरता से, कहीं कायरता से, कहीं त्याग से, कहीं कंजूसी से, कहीं मान से, कहीं दीनता से, कहीं बुद्धिमानी से और कहीं मूर्खता से (अपना कार्य सिद्ध करना )। ऐसा कहकर वह पिता वापिस लौट गया। वह लोभदेव किसी समय के बाद दक्षिणापथ को पहुँचा । वहाँ सोपारक नगर में भद्रश्रेष्ठि नामक पुराने सेठ के घर में वह ठहरा । तब कुछ समय के बाद उसने अत्यधिक मोल से उन घोड़ों को बेच दिया । उससे बहुत अधिक धन का संचय किया । और उसको लेकर अपने देश की ओर वह सार्थवाह-पुत्र जाने को तैयार हो गया। 000 पाठ १६: राजा का व्यवहार दूसरे दिन प्रात:काल में समस्त कर्यों को करके मैं भैरवानन्द आचार्य के दर्शन के लिए उद्यान में गया। और व्याघ्रचर्म पर बैठे हए भैरवाचार्य को मैंने देखा। उनके द्वारा मेरा स्वागत किया गया। में उनके चरणों पर गिरा । आशीष देकर मृगचर्म दिखाकर उन्होंने मुझसे कहा-'इस पर बैठिए ।' मेंने कहा-'हे भगवन् ! यह उचित नहीं है कि अन्य दूसरे राजाओं के समान मुझसे व्यवहार किया जाय। दूसरे, इसमें आपका भी कोई दोष नहीं है, इस प्रकार की अनेक राजाओं से सेवित इस राज्यलक्ष्मी का ही यह दोष हैं कि मुझ जैसे शिष्य को भी आप अपना आसन प्रदान करते हुए ऐसा व्यवहार कर रहे हैं। भगवन् ! आप तो दूर मैं स्थित रहते हुए भी मेरे गुरु हैं।' इसके बाद मैं आने सेवक के दुपट्टे पर ही बैठ गया। 168 प्राकृत गर-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोड़ी देर में ही मैंने कहना प्रारम्भ किया- 'हे भगवन् ! वह देश, नगर, गाँव अथवा प्रदेश कृतार्थ हो जाता है, जहाँ आप जैसे लोगों की चर्चा भी आ जाती है. फिर आपके स्वयं आने से तो कहना ही क्या ? इसलिए आपके आगमन से मैं अनुग्रहीत हूँ ।' उन जटाधारी ने कहा- 'निरीह साधु लोग भी गुरणों से आकृष्ट होकर भक्तजनों में पक्षपात करते हैं । अत: तुम्हारे गुणों से कौन आकर्षित नहीं होता ? और भी, तुम्हारे जैसे लोगों के आ जाने पर हम जैसे अपरिग्रही साधु लोग तुम्हारा क्या स्वागत करें ? क्योंकि मैंने जन्म से ही परिग्रह नहीं किया । द्रव्य, पैसा आदि के बिना लोक व्यवहार पूरा नहीं होता है ।' ऐसा सुनकर मैंने कहा - 'हे भगवन् ! आपको लोक व्यवहार से क्या प्रयोजन ? आपकी आशीष ही लोक का आतिथ्य है ।' तब फिर उन जटाधारी, ने कहा'हे महाभाग ! गाथा - 1. निर्मल जन में भी गुरुजनों की पूजा, भक्ति और सम्मान युक्त विनय दान के बिना संभव नहीं होती है । 2. दान धन के बिना नहीं होता, धर्मरहित व्यक्तियों धन नहीं होता और विनय से रहित लोगों के धर्म नहीं, तथा अभिमान से युक्त लोगों के विनय नहीं होती है । ऐसा सुनकर मैंने कहा, भगवन् ! यह ठीक है, किन्तु आप जैसे लोगों का देख लेना ही दान है, आदेश ही सम्मान है । अत: आदेश करें कि आपके लिए मुझे क्या सेवा करनी चाहिए ?' भैरवाचार्य ने कहा- 'हे महाभाग ! आप जैसे परोपकार में तल्लीन लोगों का याचक-जन को देख लेना ही मनोरथ की पूर्ति होना है । बहुत दिनों से किये जा रहे मेरे एक मन्त्र की सिद्धि तुम्हारे द्वारा ही होनी है । यदि एक दिन समस्त विघ्नों को दूर करने के लिए आप आना स्वीकार लें तो आठ वर्ष के मन्त्रजाप का मेरा परिश्रम सफल हो जायेगा ।' प्राकृत गद्य-सोपाद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 169 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब मैंने कहा' हे भगवन् ! आपके इस आदेश से मैं अनुग्रहीत हूँ। तो कहाँ पर और किस दिन मुझे क्या करना है ? ऐसा आप आदेश करें। उसके बाद ही जटाधारी ने कहा कि-'हे महाभाग ! इसी कृष्ण चतुदर्शी को तुम्हें हाथ में तलवार लिये हुए नगर के उत्तर की ओर के बगीचे में अकेले श्यमशान भूमि में रात्रि के एक पहर के बीत जाने पर आना है । वहाँ पर मैं तीन जनों के साथ बैठा हुआ मिलूंगा।' तब मैंने कहा-'ऐसा करूंगा।' मन्त्र के सिद्ध हो जाने के अन्त में भैरवाचार्य ने कहा 'हे महाभाग ! तुम्हारी कृपा से मन्त्र सिद्ध हो गया । मन की इच्छा पूरी हो गयी, दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी,मानुषोत्तर पराक्रम प्राप्त हो गया है, अन्य प्रकार की देहप्रभा भी उत्पन्न हो गयी है । अत: आपके उपकार के लिए क्या कहूँ ? परोपकार करने में ही लगे हुए तुम्हें छोड़कर दूसरा कौन व्यक्ति स्वप्न में भी इस प्रकार के मार्ग को स्वीकार कर सकता है ? मैं तुम्हारे गुणों से उपकृत हो गया हूँ। कहने में समर्थ नहीं हूँ कि 'जा रहा हूँ' यह स्वार्थ पर की पराकाष्ठा होगी। 'परोपकार करने में तुम तत्पर हो' ऐसा कहना प्रत्यक्ष ही परोपकार देख लेने वाले के लिए यह पुनरोक्ति होगी। 'तुमने मुझे जीवन दिया है' स्नेहभाव से यह कहना उचित नहीं है । 'तुम बान्धव हो' यह कहना दूरी दिखना है । 'निष्कारण परोपकारी हो' यह कहना कृतघ्न वचनों का अनुवाद होगा । 'मुझे याद रखना' यह कहना आज्ञा देना है।' इस प्रकार के वचन कहकर अपने तीनों शिष्यों के साथ भैरवाचार्य चले गये। 000 पाठ २० : चन्दनबाला | श्रेष्ठि ने पूछा-'हे पुत्रि ! तुम कौन हो ? किस कुल मैं उत्पन्न हो ? किसकी पुत्री हो ?' यह सुनकर आंसू गिराती हुई शब्द रहित वह वसुमती रोने लगी। सेठ ने सोचा-'आपत्ति में पड़ा हुआ श्रेष्ठ व्यक्ति अपने कुल आदि को कैसे कहेगा ? मुझे अब नहीं पूछना।' ऐसा सोचकर उसने कहा-'हे पुत्रि ! रोओ मत । 170 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मेरी पुत्री हो।' ऐसे कोमल वचनों से उसे आश्वासन दिया । और अपहरणकर्ता को यथेष्ट धन देकर वह सेठ वसुमती को अपने घर ले गया। वहाँ उसने मूला सेठानी को बुलाया और उसे कहा -'प्रिये ! यह तुम्हारी पुत्री है । प्रयत्नपूर्वक इसका पालन करना ।' उसने भी उसी प्रकार स्वीकार किया। विनयपूर्वक सेठ और उसके स्वजनों को सम्मान देती हुई वसुमती सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगी। एक बार मधुर वचन, विनय, शील आदि प्रमुख गुणों से प्रसन्न सेठ ने उसका गुणसम्पन्न दूसरा नाम 'चन्दनबाला' रख दिया। इस प्रकार वह वहाँ अपने घर की तरह सुखपूर्वक समय व्यतीत करती । उसके गुणों से आकृष्ट नगर के लोग भी वसुमती की प्रशंसा करते थे-'अहो ! शील, अहो ! सौन्दर्य, अहो ! सदाचरण, अहो ! अमृत की तरह मधुर वचन, अधिक क्या कहें ? विधि ने इसे सर्वगु गसम्पन्न बनाया है । इस प्रकार सबसे प्रशंसा प्राप्त करती हुई, तरुणजनों के मनरूपी हिरण को हरण करने वाले बन्धन की तरह यौवन को प्राप्त करती हुई चन्दनबाला ग्रीष्मकाल को प्राप्त हुई। तब जैसे-जैसे वह यौवन की ओर बढ़ी और घर तथा नगर के लोगों के द्वारा प्रशंसित हुई वैसे-वैसे ईर्ष्या से युक्त सब अनर्थों की जड़ बह मूला सेठानी दुखी होने लगी। अपने मन में वह सोचती है--'अहो ! यह मेरे दुर्भाग्य की सूचक, विषकदली की तरह बढ़ती हुई मुझे फंसाने वाली, सभी अनर्थों की जड़, किंपाकफल को खाने के तरह कटु अन्त वाली, छोटे उपेक्षित रोग की तरह दुःख देने वाली होगी।' इस प्रकार के सैकड़ों कु-विकल्पों से युक्त मूला का समय व्यतीत होता था । एक बार स्नान के समय में अकेला ही सेठ अपने घर पर आया । घर पर कोई नौकर-चाकर नहीं था। मूला सेठानी भी भवन के ऊपर बालकनी पर थी । तब अत्यन्त विनय से घड़ा लेकर चन्दनवाला निकली । आदर के लिए उसने सेठ को आसन दिया। चरण धोने के लिए वह उपस्थित हुई । उस प्रकार से पैर धोती हई उस चन्दना के सुन्दर लम्बे, काले, घुघराले एवं खूब चिकने सिर के बाल जमीन से कुछ ही ऊपर गिरने लगे तब 'कहीं कीचड़ में न गिर जाय' ऐसा सोचकर हाथ से सेठ ने उन बालों को पकड़कर उसकी पीठ पर रख दिये और स्नेह से उन्हें बांध दिया। प्राकृत गद्य-सोपान 11 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूला सेठानी ऊपर बैठी हुई उस बात को देखकर चित्त में दुखी हुई । वह सोचने लगी-'अहो ! सब नष्ट हो गया । सेठ उसे प्रगाढ़-प्रणय करने वाला दिख रहा है। यह पुत्री है ऐसा स्वीकार किया है, किन्तु कार्य के परिणाम को नहीं जानता है। यदि किसी प्रकार सेठ ने इसे पत्नी बना दिया तो मैं गृह-स्वामिनी न रहूंगी। अत: प्रारम्भिक अवस्था को प्राप्त इस रोग को यहीं नष्ट कर देना चाहिए । बड़े होने पर कौन नखों को काटता है ?' इस प्रकार थोड़े क्रोध के ईधन से प्रज्वलित क्रोधअग्नि वाली उस मूला ने सेठ के निकल जाने पर नाई को बुलाकर चन्दनबाला का सिर मुड़वा दिया। बेड़ी में उसे डाल दिया। जूतों के प्रहार से उसे मारा और कठोर खरे वचनों से उसकी निन्दा की । अपने नौकरों को बुलाकर उसने कहा-'जो इस बात को सेठ को कहेगा उसे मैं स्वयं निकाल दूंगी।' ऐसा कहकर क्रोधपूर्वक उसने डराया । और एक कोठरी में चन्दनबाला को डाल दिया । दरवाजा बन्द कर दिया। ताला लगा दिया और अपने हाथ में चाबी ले ली। कुछ समय बाद सेठ आया। परिजनों को पूछता है-'चन्दनबाला कहाँ है ?' मूला के भय से डरा हुआ कोई भी नौकर नहीं बोलता है। सेठ समझता है कि वह बाहर खेल रही होगी अथवा ऊपर होगी। रात आने पर वह फिर पूछता है, किन्तु कोई नहीं बताता है। 'निश्चित ही वह कहीं सो रही होगी।' ऐसा सोचकर सेठ सो गया। दूसरे दिन भी वह चन्दनबाला न दिखी। नौकरों को उसने पूछा। किसी ने नहीं बतलाया । तब मन में उसे कुछ शंका हुई तो उसने मूला को पूछा'प्रिय ! चन्दनबाला दिखायी नहीं दे रही है। उसका क्या हाल है ?' मुह ऊँचा किये हुए क्रोधपूर्वक मूला ने कहा-'क्या आपको और कोई काम नहीं है जो दासदासियों की चिन्ता से व्याकुल हो दुःखी हो रहे हो ?' सेठ ने कहा -'प्रिय ! प्रिय वचन बोलो । यह अच्छी बात नहीं है । तुम्हें उससे क्या ईर्ष्या है ?' मूला ने कहा-'यदि मुझे इस प्रकार ईर्ष्यालु जानते हो तो क्यों मुझसे पूछते हो ?' सेठ ने कहा-'अब मैंने भी जान लिया कि सभी अनर्थ की जड़ तुम हो । अतः अब दूसरे को नहीं पूछूगा।' । दूसरा दिन भी व्यतीत हुआ। तीसरे दिन क्रोधी सेठ नौकरों को पूछता है'बताओ, अन्यथा तुम सबको मारूंगा।' तब एक बूढ़ी नौकरानी सोचती है-'मेरे 172 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन से क्या लाभ ? वही बेचारी जिन्दा रह जाय।' ऐसा सोचकर उसने सेठ को चन्दनबाला का सब वृत्तान्त बताकर कहा---' वह यहाँ एक कोठरी में है ।' घबराया हुआ सेठ वहाँ गया । किन्तु वहाँ चाबी नहीं थी । तब किसी प्रकार किवाड़ों को तोड़ा गया । चन्दनबाला को उस अवस्था में देखकर आखों से आँसू बहाते हुए सेठ ने कहा - 'हे पुत्रि ! चन्दन की तरह शीतल ! तुम कैसे इस अवस्था को प्राप्त हुई ? अथवा दुर्जन लोगों की दुष्टता की कोई सीमा नहीं है ।' तब उसने भोजन खोजा । किन्तु मूला के द्वारा भविष्य की तरह उसका अभाव था । इधर-उधर खोजते हुए सेठ ने सूपे के कौने में उड़द देखे । उनको उसी रूप में चन्दनबाला को देकर बेड़ी कटवाने के लिए स्वयं वह लोहार के घर चला गया । वह चन्दनबाला भी दरवाजे की देहरी पर आसरा लेकर बैठ गयी। तब अपनी गोद में सूप के कौने में पड़े हुए उड़दों को देखकर खंभे में बत्रे नये हाथी की तरह जैसे विन्ध्यपर्वत को याद किया जाता है वैसे ही वह अपने कुल को यादकर रोने लग गयी । उसके बाद चन्दनबाला ने सोचा- 'तीन दिनों से किसी सुपात्र को बिना दान दिये मैं कैसे आज भोजन करूँ ? अच्छा हो यदि कोई सुपात्र यहाँ आ जाय ।' तब भगवान् महावीर ने जो प्रतिज्ञा ली थी वह अभिग्रह सब तरफ से यहाँ परिपूर्ण हो रहा था । अतः उन्होंने चन्दनबाला के सामने आकर हाथ पसार दिये । उसने सूप के कौने से उड़द उन्हें दिये । उन्होंने पारणा कर लिया। इसी समय आसन चलायमान होने से देवता वहाँ आ गये। पांच दिव्य पदार्थ वहाँ उत्पन्न हुए । प्रतिज्ञा पूरी हुई | समस्त जीवलोक के निष्कारण बन्धु, दुष्ट आठ कर्मों को मूल से उखाड़ने वाले त्रिशलानन्दन ( महावीर ) का आहार हो गया । चन्दनबाला भी तीर्थंकर को आहार देने के धर्म से उपार्जित पुण्य-समूह के द्वारा इस लोक में धन्य हो गयी । प्राकुन गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 173 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तभी सारे त्रिभुवन में कुद एवं चन्द्रमा के समान उसका निर्मल यश फैल गया । अहो ! धन्या है, अहो ! कृतार्थ है, अहो चन्दनबाला लक्षणों से युक्त है। उस चन्दनबाला ने अपने जन्म और जीवन का फल प्राप्त कर लिया है। 000 पाठ २१ : जैसा गुरु वैसा चेला एक गांव में बहुत से कोठों से युक्त एक मठ मैं एक शिष्य के साथ बड़ा आचार्य रहता था। एक बार उसने रात्रि में स्वप्न देखा कि- मठ के सभी कोठे (बखरी) लड्डुओं से भरे हुए हैं । जगने पर उसने प्रसन्नतापूर्वक यह बात अपने शिध्य से कही । उसने कहा- 'यदि ऐसा है तो आज हम पूरे गाँव को निमन्त्रण कर देते हैं। गाँव के घरों में हमने बहुत बार खाया है।' - 'ठीक है' ऐसा स्वीकार करने पर घूरे पर जाकर उस चेले ने मुखिया समेत पूरे गाँव को निमन्त्रण दे दिया। 'तुम्हारे यहाँ भोजन सामग्री कहाँ से आयी ?" ऐसा पूछे जाने पर भी 'धर्म के प्रभाव से सब होगा' ऐसा कहकर शिष्य द्वारा बलपूर्वक उन्हें मना लिया गया। भोजन का मंडप बनवाया गया। आसन-पंक्तियाँ बिछायी गयीं । उचित समय पर गांव के लोग भी आ गये । आसनों पर बैठ जाने पर उन्हें भोजन-पात्र भी दे दिये गये। ___इसी समय में वह परम आचार्य लड्डुओं के लिए भीतर घुसा। किन्तु वहाँ कुछ भी नहीं देखता है । तब 'चित्त न लगाने से मैं लड्डुओं वाले कमरे को भूल गया है । अतः उसे देखने के लिए फिर सो जाता हूँ। तब तक तुम लोगों के शोरगुल को रोकना।' चेला को ऐसा कहकर वह आचार्य सो गया। इसी बीच में लोगों ने कहा- 'लोग भूखे हैं, शाम हो रही है अतः देर क्यों की जा रही है ?' चेले ने कहा-'शोर मत करो क्योंकि मेरे गुरु नींद ले रहे हैं।' 174 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा सुनने पर लोगों ने कहा-'यह सोने का कौन-सा समय है ?' चेले ने कहा'आप लोगों के भोजन के लिए स्वप्न में देखे गये लड्डुओं का कोठा गुरूजी भूल गये थे । अत: फिर से उसे देखने के लिए अब सो गये हैं।' - ऐसा सुनकर-'अहो ! इनकी मूर्खता ?' ऐसा कहकर ताली बजाते हुए हँसते हुए लोग अपने घरों को चले गये। इसलिए स्वप्न में देखा हुआ स्थायी नहीं होता। 000 पाठ २२ : मदनश्री की शिक्षा उज्जयिनी नगरी में विक्रमसेन राजा था। उसन कभी क्रीडा के लिए जाते हुए जिसका पति विदेश गया हुआ है ऐसी सेठ की पत्नि मदनश्री को भवन की मंजिल पर बैठे हुए झरोखे के द्वार से देखा । उस पर आसक्त राजा ने उसके पास अपनी दासी को भेजा । उसने वहाँ जाकर मदनश्री से कहा-'मदनधी ! तुम कृतार्थ हो जो महाराजा के द्वारा चाही गयी हो । अत: उस राजा ने संदेश दिया है-'हे सुन्दरी ! अमृत को तरह तुम्हारे दर्शन के लिए मेरा हृदय उत्कंठित है । एक दिन को मेरे पास आओ अथवा मैं ही छिपे रूप में तुम्हारे यहाँ आ जाता हूँ। हे सुन्दर शरीरवाली ! इस संदेश का उत्तर अवश्य देना ।' मदनश्री ने 'अहो ! मेरे ऊपर राजा का दृढ़ अनुराग है। दूर रहते हुए उसे समझाना संभव नहीं है ।' ऐसा सोचकर 'महाराज मेरे महल पर ही यहाँ आ जाँय' ऐसा उत्तर देकर उस दासी को वापिस भेज दिया। . दासी ने राजा को सब वृतान्त कहा । वह संतुष्ट राजा दोपहर में अंजन के प्रयोग से अदृश्य रूप में उसके घर गया और अंजल धोकर प्रकट हो गया । घबड़ायी हुई मदनश्री ने उसे देखा । उसने सोचा-'यह अनुराग के ग्रह से ग्रसित है। किन्तु मेरे द्वारा प्राण त्यागने पर भी शील को खंडित नहीं किया जाना चाहिए । क्योंकि प्राकृत गद्य-सोपान 175 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "विष खा लेना अच्छा, अग्नि में प्रवेश कर जाना अच्छा, फांसी लगा लेना अच्छा, पर्वत से गिर जाना अच्छा किन्तु शील को खंडित करना अच्छा नहीं है ।" अत: इस राजा को किसी उपाय से समझाती हूँ ।' ऐसा सोचकर - ' महाराज का स्वागत हैं' प्रसन्तापूर्वक ऐसा कहकर और आसन प्रदान कर उसने राजा के चरण धोंए । मनोहर भोजन तैयार किया । एक ही भोजन को बहुत-सी थालियों में सजाया । उन थालियों को सुन्दर चित्रों वाले रेशमी कपड़ों से ढका । तब उसने कहा- 'महाराज ! मेरे ऊपर कृपा करिये । और मनोनुकूल भोजन कीजिए ।' राजा भी अनुराग से उसका अनुकरण करता हुआ भोजन के लिए बैठा । वह मनोहर कपड़ों से ढकी हुई नयी बहुत-सी थालियों को देखता है - 'अहो ! मु रिझाने के लिए इसने विविध प्रकार की रसोई की है' ऐसा सोचकर राजा संतुष्ट हुआ। उस मदनश्री ने भी सभी थालियों से थोड़ा-थोड़ा लेकर एक ही प्रकार का भोजन परोसा दिया । तब कौतुकता से राजा ने कहा- 'एक ही भोजन के लिए बहुत-सी थालियां का क्या कारण है ?' उसने कहा - 'नयापन ही इनकी विशेषता है ।' राजा ने बह 'इस प्रकार के निरर्थक विशेषण से क्या लाभ ?' मदनश्री ने कहा - 'महाराज ! यदि ऐसा है तो युवतियों के शरीरों में भी बाठ्य नवीनता के अतिरिक्त और कौन-सी विशेषता है ? क्योंकि भीतर से वसा, मांस, मज्जा, शुक्र, फुफ्फस, रुधिर, हड्डि आदि अपवित्रता का घर होने से सभी युवतियों का शरीर एक-सा है । इसी प्रकार महाराज ! अपनी पत्नी के विद्यमान होने पर दूसरी स्त्रियों में अनुराग करने का कोई कारण नहीं है ।' यह सुनकर वैराग्य को प्राप्त वह राजा विक्रमसेन कहता है - 'हे सुन्दरी ! तुमने ठीक आचरण किया, जो अज्ञान से मोहित मुझको प्रतिबोध दिया।' ऐसा कहकर और भारी पारितोषिक देकर वह राजा अपने भवन में चला गया । 176 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000 प्राकृत गद्य-सोपाळ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २३ : दमयन्ती का स्वयंवर इसी भरतक्षेत्र में कौशल नगरी है। वहाँ इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न, अनुपम न्याय, त्याग और पराक्रम से युक्त निषध नाम का राजा है। उसके सुन्दरी नामक रानी की कूख से उत्पन्न जन-मन को आनन्द देने वाले नल और कूबर नामक दो पुत्र हैं। ___ और इधर विदर्भ देश के मंडल में कुडिन नगर है। वहाँ शत्रुरूपी हाथी-समूह को सिंह की तरह भीमरथ राजा है। उसके समस्त अन्तःपुररूपी वृक्ष के पुष्प की तरह पुष्पदन्ती रानी है। विषय-सुख का अनुभव करते हुए उनके समस्त त्रिलोक के अलंकार-स्वरूप एक पुत्री उत्पन्न हुई । गाथा-1. उस पुत्री के भाल पर सूर्य के प्रतिबिम्ब की तरह एक सहज तिलक उत्पन्न हुआ, जो मानों सज्जन पुरुष के वक्षस्थल पर श्रीवत्सरूपी सुन्दर रत्न हो । 'माता के गर्भ में इस पुत्री के आने से मेरे सभी बैरी दमित (शान्त) हो गये हैं।' ऐसा सोचकर पिता ने उसका नाम 'दमयन्ती' रखा । शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की रेखा की तरह सब लोगों की आँखों को आन्नद देने वाली वह वृद्धि को प्राप्त हुई। समय पर उसे कलाचार्य के पास भेजा गया। 2 बुद्धि से युक्त उस दमयन्ती में उपाध्याय के सिखाते ही समस्त कलाए पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह तुरन्त ही प्राप्त हो गयीं। वह दमयन्ती यौवन को प्राप्त हुई। उसे देख कर माता-पिता ने सोचा- 'यह अनुपम सुन्दरी है और सयोग से विज्ञान में प्रवीण भी । अत: इसके उपयुक्त वर प्राप्त नहीं है । और यदि हो भी तो उसे कैसे जाना जाय ? अतः स्वयंवर करना उचित है ।' ___ तब दूत भेजकर राजाओं और राजपुत्रों को बुलाया गया। हाथी, घोड़े, रथ. एव पैदल सैनकों के साथ में (राजा लोग) आ गये । वहाँ अनुपम पराक्रम वाला प्राकृत गद्य-सोपान 177 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल भी पहुंचा। भीमराजा के द्वारा सम्मान प्राप्त बे श्रेष्ठ आवासों में ठहर गये । स्वर्ण के खंभों से युक्त स्वयंवर-मंडप बनवाया गया। वहाँ गोल सिंहासन लगवाये गये। उन पर राजा लोग बैठे । इसी अवसर पर पिता के आदेश से भाल के तिलक की विस्तीर्ण प्रभा से अलंकृत, सूर्य के बिम्ब को धारण करने वाली पूर्व दिशा की तरह, प्रसन्न मुखवाली, सम्पूर्ण चन्द्रमा से शोभित पूर्णिमा की रात की तरह, श्वेतवस्त्र पहिने हुए दमयन्ती स्वयंवर मंडप को सुशोभित करती हुई वहाँ आयी। उसे देखकर आश्चर्यचकित मुखवाले राजाओं द्वारा चक्षुविक्षेप के लिए वह देखी गयी। गाथा-3. तब राजा के आदेश से अन्तःपुर की प्रतिहारी भद्रा राजकुमारी के सामने राजपुत्रों के पराक्रम (परिचय) को कहने लगी4. 'दृढ़ बाहुबल वाला बल नामक यह काशी नरेश है । यदि इसे वरोगी तो ऊँची लहरों वाली गंगा नदी को देख सकोगी।' दमयन्ती ने कहा 'भद्रे ! काशीवासी दूसरों को ढगने में अभ्यस्त सुने जाते हैं । अत: मेरा मन इसमें नहीं लगता, आगे चलो।' उसी प्रकार आगे बढ़कर भद्रा ने कहा गाथा-5. 'शत्रुरूपी हाथियों के लिए सिंहरूपी यह कोंकण का स्वामी राजा सिंह है । इसको वर कर ग्रीष्मऋतु में कदलीवनों में सुखपूर्वक क्रीड़ा करना।' दमयन्ती ने कहा- 'भद्रे ! कोंकण के लोग अकारण ही क्रोध करने वाले होते हैं । अत: क्षण-क्षण में इनको अनुकूल मैं नही कर पाऊंगी। अत: दूसरे का परिचय दो।' आगे जाकर उसने कहा गाथा-6. 'इन्द्र के समान रूपवाले ये काश्मीर के स्वामी राजा महेन्द्र हैं । कुकुम की क्यारियों में क्रीड़ा करने की इच्छा हो तो इन्हें वरण करो।' राजकुमारी ने कहा- 'भद्रे! मेरा शरीर ठंड से बहुत डरता है, क्या तुम यह नहीं जानती हो ? अत: यहाँ से चलें।' ऐसा कही जाती हुई वह प्रतिहारी आगे जाकर कहने लगी 178 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा-7. 'अत्यन्त खजाने वाला और कामदेव के समान सुन्दर कौशाम्बी का स्वामी यह राजा जयकोष है । हे मृगाक्षी! क्या यह तुम्हारा मन हरता है ?" राजकुमारी ने कहा- 'हे कपिंजला ! वरमाला अत्यन्त सुन्दर बनायी गयी है।' भद्रा ने सोचा- 'अप्रकट वचनों से ही इस राजा का निषेध कर दिया गया है ।' तब वह आगे जाकर कहती है - गाथा-8 'हे कोयल की तरह कठवाली ! जिसकी तलवार रूपी राहु से वैरी रूपी चन्द्रमा ग्रस लिया गया है उस कलिंगपति जय के माला डाल दो।' राजकुमारी ने कहा- 'पिताजी के समान आयु वाले इनको प्रणाम करती हूँ।' भद्रा ने आगे जाकर कहागाथा-9. 'हे गजगामिनी ! जिसके हाथी-समूह के घंटाओं की आवाज से ब्रह्माण्ड ___ फूटने लगता है वह गौड़ देश का राजा वीरमुकुट क्या तुझे अच्छा लगता है?' राजकुमारी ने कहा-' हे माँ ! क्या मनुष्यों का इतना काला रूप भी होता है ?' अतः तुरन्त आगे चलो। मेरा हृदय काँप रहा है ।' तब थोड़ा हंसती हुई वह आगे गयी और कहने लगीगाथा-10. 'हे कमल की तरह नयनों वाली ! क्षिप्रा नदी के किनारे बनकुज में क्रीड़ा करने की इच्छा करती हुई तुम इस अवन्ती देश के राजा पद्मनाभ को अपना पति बना लो' राजकुमारी ने कहा- 'हे सखी ! इस स्वयंवर मण्डप में चलते-चलते थक गयी हूँ। तो क्या अब भी तुम बोलती ही रहोगी ?' तब भद्रा ने सोचा 'यह भी मेरे मन को ठीक नहीं लग रहा है, ऐसा राजकुमारी ने सूचित कर दिया है तो आगे चलती हूँ।' ऐसा सोचकर वह भद्रा उसी प्रकार कहने लगीगाथा-11. 'यह राजा निषध का पुत्र राजकुमार नल है, जिसके सौन्दर्य को देखकर हजार नयनों वाला इन्द्र अपने हजार नेत्रों को सफल मानता है।' तब विस्मित मनवाली दमयन्ती ने सोचा-'अहो समस्त रूपवन्त अगो का निवासस्थान, अहो ! अदभुत लावण्य, अहो ! अपूर्व सौभाग्य, अहो ! मधुर हास्य का निवास ! इसलिए हे हृदय, इस राजकुमार के प्रति स्वीकृति देकर परम संतोष को प्राप्त करोगे ।' ऐसा सोचकर मल के कंठ में उसने वरमाला डाल दी । 'अहो ! अच्छे वर का वरण किया' इस प्रकार लोगों की आवाजें उठने लगीं। 000 प्राकृत गद्य-सोपान 179 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २४ : विद्य ुत्प्रभा की बहादुरी और करुणा यहाँ पर ही जम्बूद्वीप से अलंकृत, द्वीप के मध्य में स्थित, अखण्ड छह खण्डों से सुशोभित, बहुत सम्पूर्ण लक्ष्मी का निवास स्थान कुट्ट देश है । वहाँ आनंदित एवं क्रीड़ा करने वाले लोगों से मनोहर, अप्सराओं की तरह गौरियों से सुन्दर बलासक नामक गांव है। वहाँ पर चारों दिशाओं में एक योजन तक के भूमिभाग में कभी भी वृक्ष आदि नही उगते थे । ऐसे उस गाँव में चारों वेदों में पारंगत, छह कर्मों का साधक अग्निशर्मा ब्राह्मण रहता था । उसके शील आदि गुणों की प्राप्ति से सुशोभित अग्निशिखा नामक पत्नी थी । परम सुख से भोगों को भोगने वाले उनके कालक्रम से एक पुत्री उत्त्पन्न हुई । माता-पिता के द्वारा उसका नाम विद्युत्प्रभा रखा गया । गाथा - 1. जिसके चंचल नयनों के सामने नीलकमल नौकर था ( शोभा रहित था ) तथा जिसके मुख की निर्मल शोभा को सदा पूर्ण रूप से कामदेव धारण करता था । 2. जिसकी नाक की धार के सामने तोते की चोंच गुणहीन एवं व्यर्थ थी तथा जिसके रूप को देखकर अप्सराओं में भी निश्चित रूप से (लोगों के) आदर ( रुचि ) शिथिल हो जाते थे । तब क्रम से उस विद्य ुत्प्रभा के आठ वर्ष के हो जाने पर दुर्भाग्यवश रोग की व्याधि से ग्रसित उसकी माता मृत्यु को प्राप्त हो गयी । तब से वह घर के समस्त कार्यों को करती थी । प्रात:काल में उठकर गायों का दोहन कर, घर की सफाई कर, गायों को चराने के लिए बाहर जाकर फिर से दोपहर में गोदोहन आदि कर, पिता के लिए देवपूजा, भोजन आदि के कार्य कर और खाकर फिर से वह गायों को चराकर संध्या में घर आकर सांयकालीन करने योग्य कार्यों को करके क्षणमात्र के लिए नींद का सुख लेती थी । इस प्रकार से प्रतिदिन करती हुई गृहकार्यों से पीड़ित व दुखी वह एक दिन अपने पिता को कहती है- 'हे पिताजी ! मैं गृहकार्यों से अत्यन्त दुखी हो गयी हूँ । इसलिए कृपा कर आप दूसरी पत्नी ले आयें ।' 180 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार उसके अच्छे वचनों को मानने वाले उसके पिता के द्वारा बिषवृक्ष की तरह एक ब्राह्मणी ब्याह ली गयी । स्वादशीला, आलसी, दुष्ट वह ब्राह्मणी घर के कार्यों को पहले की तरह विद्य प्रभा को सौंपकर स्वयं स्नान, विलेपन, अभूपण, भोजन आदि भोगो में व्याप्त रहती हई ग्रास को तोड़कर भी दो नहीं करती थी। तब बिजली की तरह जलती हुई वह विद्य त्प्रभा सोचती है-'अहो ! मेरे द्वारा पिता से जो सुख के लिए कराया गया वह नरक की तरह दुख का कारण बन गया । अतः बिना भोगे हुए दुष्कर्मों से नहीं छूटा जा सकता है, दूसरा व्यक्ति निमित्तमात्र ही होता है। क्योंकि गाथा-3. 'सभी व्यक्ति पहले किये गये कार्यों के फलों के परिणाम को ही पाते हैं । अपराधों (दुखों) और गुणों (सुखों) में तो दूसरा व्यक्ति निमित्त मात्र ही होता है। इस प्रकार उदास, दुखी वह विद्य प्रभा प्रातःकाल में गायों को चराकर. दोपहर में रसरहित, स्वादहीन, ठंडा, रूखा सैकड़ों मक्खिों से युक जूठा भोजन करती थी। इस प्रकार दुःखों को भोगती हुई उसके बारह वर्ष व्यतीत हो गये। किसी एक दिन दोपहर में गायों को चराती हुई गरमी में गरम किरणों से तपी हुई, वृक्षों के अभाव से वृक्ष की छाया से रहित घास युक्त जमीन पर सोयी हुई उस विद्य त्प्रभा के पास एक सांप आया-- गाथा-4. जो अत्यन्त लाल दोनों जीभों को चलाने वाला, काला और समस्त प्राणियों के लिए विकट फुकार की आवाज से भय उत्पन्न करने वाला था । नागकुमार के शरीर को छिपाये हुए वह सांप मनुष्य की भाषा में सुन्दर वचनों से उस कन्या को जगाता है और उसके सामने इस प्रकार कहता है गाथा-5. 'हे पुत्री ! भय से डरा मैं तुम्हारे पास आया हूँ । मेरे पीछे लगे हुए जो ये सपेरे हैं, वे मुझे बांधकर पकड़ लेंगे। 6. इसलिए तुम अपनी गोद में श्रेष्ठ वस्त्र से अच्छी तरह ढककर इसी समय मेरी रक्षा करो। उसमें क्षण भर भी देर मत करो। प्राकृत गद्य-सोपान 181 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. नागकुमार के शरीर को छिपाये हुए मैं गारुड़िय मन्त्र की देवियों की आज्ञा को भंग करने में समर्थ नहीं हूँ। अत: हे पुत्री ! (किसी प्रकार) मेरी रक्षा करो। 8. हे पुत्री ! भय के संदेह को छोड़कर मेरे वचनों के अनुसार उनका पालन करो।' तब दयालु वह कन्या भी उस नाग को अपनी गोद में छिपा लेती है। तब उसी समय में उसके पीछे ही औषधि-लता हाथ में लिये हुए सपेरे जल्दीजल्दी आ पहुंचे। उनके द्वारा वह ब्राह्मण की पुत्री पूछी गयी--'हे. बालिके ! इस मार्ग में जाते हुए किसी विशाल नाग को क्या तुमने देखा है ? तब वह उत्तर देती है'हे राजन ! मुझसे क्या पूछते हो? क्योंकि कपड़े से शरीर को ढके हुए मैं यहाँ पर सोयी हई थी।' तब वे सपेरे आपस में बात करते हैं -'यदि इस बालिका के द्वारा उस प्रकार का (भयंकर) नाग देखा गया होता तो भय से कांपती हुई हिरणी की तरह यह उठ कर भाग गई होती। अत: यहाँ वह सांप नहीं आया है ।' तब आगे-पीछे देखकर कहीं भी उसे प्राप्त न करते हुए, हाथ से हाथ मलते हुए, दाँतो से होठों को काटते हए, कांतिहीन मुखवाले वे सपेरे लौटकर अपने घरों को चले गये। तब उस कन्या ने सर्प को कहा-'यहाँ से अब निकल जाओ, तुम्हारे वे शत्रु चले गये।' वह सांप भी उसकी गोद से निकलकर, सर्प रूप को छोड़ कर हिलते हुए कुडल आदि आभूषणों से युक्त देवस्वरूप को प्रकटकर उसे कहता है-'हे पुत्री ! वर मांगो क्योंकि मैं तुम्हारे उपकार और साहस से संतुष्ट हूँ।' वह बालिका भी उस प्रकार के चमके हुए शरीर वाले देव को देखकर समस्त अंगों में हर्ष को भरे हुए निवेदन करती है- 'हे तात ! आप यदि सचमुच संतुष्ट हैं तो मेरे उपर छाया कर दें। उससे गरमी से दुखी मैं छाया में सुखपूर्वक वैठी हुई गायों को चराती रहँगी।' तब उस देव के द्वारा मन में विचार किया गया- 'अहो ! यह बेचारी सरल स्वभाववाली है, जो मुझसे भी यह (तुच्छ वर) मांगती है । अतः इसका यह भी इच्छित कार्य कर देता हूँ।' ऐसा सोचकर उस विद्य प्रभा के ऊपर छाया से युक्त एक बगीचा (कुज) बना दिया गया, जो बड़े साल के वृक्षों के फूलों, सुगन्ध आदि से सन्दर था तथा मीठे फलों के द्वारा जो सदा प्राणियों के समूह को आन्नद पहुँचाता था। 182 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब देवता ने उसके सामने निवेदन किया - 'हे पुत्री ! जहाँ-जहाँ तुम जाओगी वहाँ-वहाँ मेरे महात्म्य के प्रभाव से यह बगीचा भी तुम्हारे साथ जायेगा। घर आदि पर जाने पर तुम्हारी इच्छा से अपने को समेट कर हाते की तरह यह तुम्हारे ऊपर ठहर जायेगा । और तुम आपत्तिकाल आने पर काम होने पर मुझे स्मरण करना।' ऐसा कहकर वह नामकुमार चला गया। 000 पाठ २५ : वर का निर्णय हस्तिनापुर नगर में अनेक गुणरूपी रत्नों से युक्त शूर नामक राजपुत्र रहता था। उसकी गंगा नाम की पत्नी थी। उन दोनों के परम सौभाग्यवाले शील आदि गुणों से अलंकृत सुमति नामक पुत्री थी। कर्मों के फल के वश से पिता, माता, भाई एवं मामा के द्वारा वह कन्या अलग-अलग वरों को दे दी गयी (सगाई कर दी गयी)। एक ही दिन में विवाह करने के लिए आये हुए वे चारों ही वर आपस में झगड़ा करते हैं। तब उनमें भयंकर लड़ाई हो जाने गर बहुत से लोगों के नाश को देखकर वह सुमति कन्या आग में प्रविष्ट हो गयी। अत्यन्त आसक्ति के कारण एक वर भी उसके साथ प्रवेश कर गया। (उनके जल जाने पर) एक वर (दूसरा) (उनकी) हड्डियों को गंगा की धारा में बहाने के लिए ले गया । एक (तीसरा) वर वहीं पर चिता की राख को जलसमूह में डालकर उस कन्या के दुख से मोहरूपी महान् ग्रह से ग्रसित होकर पृथ्वीमण्डल में घूमने लगा । चौथा वर वहीं पर स्थित होकर उस स्थान की रक्षा करता हुआ और प्रतिदिन वहाँ अन्न का एक पिण्ड डालता हुआ समय व्यतीत करने लगा। ___इसके बाद वह तीसरा वर पृथ्वीतल पर घूमता हुआ किमी गांव में रसोईघर में भोजन बनवाकर जीमने के लिए बैठा था । उस घर की मालकिन उसे परोस रही थी। तभी उसका छोटा पुत्र अत्यन्त रोने लगा। तब क्रोध के बढ़ जाने से उस स्त्री ने उस बालक को अग्नि में डाल दिया। (यह देखकर) वह वर भोजन करते हुए उठने लगा। तब वह स्त्री कहती है - 'सन्तान किसो के लिए अप्रिय नहीं होती है । क्योंकि जिनके लिए माता-पिता अनेक देवताओं की पूजा, दान, मंत्र-जाप आदि क्या-क्या नहीं करते हैं । तुम सुख-पूर्वक भोजन करो। मैं बाद में इस बच्चे को जीवित कर लूगी।' प्राकृत गद्य-सोपान 183 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब भी वह भोजन करके शिघ्र उठ गया। तभी उस स्त्री ने अपने घर के भीतर से अमृतरस की कुपिया लाकर अग्नि में छिड़काव किया । उससे हँसता हुआ बालक निकल आया। माता ने उसे गोद में ले लिया। तब वह घ्यान करता है-'अहो ! आश्चर्य है, आश्चर्य है जो इस प्रकार अग्नि में जले हुए को भी जीवित कर लिया गया । यदि यह अमृतरस मेरे पास हो तो मैं भी उस कन्या को जीवित कर दूं।' इस प्रकार सोचकर वह धूर्तता से कपटवेश धारण कर रात्रि में वहीं ठहर गया। अवसर पाकर उस अमृत-कुपिया को लेकर वह हस्तिनापुर आ गया। फिर उस वर ने पिता आदि के सामने चिता के बीच में अमृतरस को डाला। वह सुमति कन्या अलकारों सहित जीवित होती हुई उठ आयी। तब उसके साथ एक वर भी जीवित हो गया। कर्मों के वश से फिर वे चारों वर एक ही स्थान पर इकट्ठे हो गये । वे कन्या के साथ विवाह करने के लिए झगड़ते हुए बालचन्द्र राजा के दरबार में गये। चारों ने राजा से अपना-अपना वृतान्न कहा । राजा ने मन्त्रिों से कहा कि- 'इनके झगड़े को निपटाकर किसी एक वर को प्रमाणित करो।' सभी मन्त्री आपस में विचार करते हैं, किन्तु किसी से वह झगड़ा नहीं निपटा । तब एक मन्त्री ने कहा यदि आप सब स्वीकार करें तो मैं इस झगड़े को निपटाता हूँ। उन्होने कहा- 'जो राजहंस की तरह गुण-दोषों की परीक्षा करके पक्षपात से रहित विवाद को निपटाता है उसके वचन को कौन नहीं मानता ?' तब उस मन्त्री ने कहा-'जिम वर के द्वारा कन्या जीवित की गयी है वह वर उसे जन्म देने में कारण होने से उसका पिता हो गया। जो वर उस कन्या के साथ जीवित हुआ है वह जन्म-स्थान एक होने के कारण कन्या का भाई हो गया। जो वर उसकी अस्थियों को गंगा में डालने गया था वह मृत्यु के बाद पुण्य-कार्य करने वाला होने से कन्या का पुत्र हो गया। किन्तु जिस वर के द्वारा उस स्थान की रक्षा की मया वह वर (रक्षा करने के कारण) पति हुआ।' 000 184 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार मन्त्री के द्वारा झगड़ा निपटा देने पर रूपचन्द्र नामक चौथे वर के साथ वह कन्या व्याह दी गयी। क्रमशः वह अपने मगर को लौट आया। बाद में उस कन्या के प्रभाव से उसी नगर में ही वह राजा बन गया । क्योंकि गाथा-1. कहीं पर वर के पुण्य से, कहीं पर महिला के सत्पुण्यों के योग से और कहीं पर दोनों के पुण्य से समृद्धि प्राप्त होती है। 000 पाठ २६ : श्रेष्ठतम पुतली एक बार राजा भोज की सभा में कोई एक विदेशी आया। तब उस सभा में कालिदास आदि अनेक विद्वान् थे। वह विदेशी राजा को प्रणाम करके कहता है. 'हे राजन् ! आपकी सभा को अनेक श्रेष्ठ विद्वानों से अलंकृत जानकर तीन पुतलियों के मूल्य कराने के लिए मैं आपके समीप में आया हूँ ।' . __ऐसा कहकर वह समान ऊँची, समान रंग और समान रूप वाली तीन पुतलियों को राजा के हाथ में देकर कहता है- 'यदि श्रीमान्, आपके श्रेष्ठ विद्वान् इनके उचित मूल्य को (निश्चिंत) कर देंगे तो आज तक अन्य राजाओं की सभाओं में लोगों के द्वारा जो मैंने विजय से अकिंत एक लाख चांदी की मुद्राएप्राप्त की हैं वे उन्हें दी जायेंगी। अन्यथा विजय के चिन्ह से अंकित एक लाख स्वर्ण मुद्राएं आपसे मैं ग्रहण करूंगा।' राजा के द्वारा वे पुतलियाँ मूल्य-निर्धारण करने के लिए विद्वानों को दी गयीं। कोई विद्वान् कहता है- 'हे 'मणिकार ! तुम कसोटी से इन पुतलियों के स्वर्ण की परीक्षा कर लो। और तराजू पर रखकर उनका मूल्य अकित कर दो। तब वह विदेशी थोड़ा हंसकर कहता है- 'इस प्रकार से मूल्य-निर्धारण करने वाले तो संसार में बहुत हैं । इनका सच्चा मूल्य यदि हो सके तो उसके लिए राजा भोज की सभा में मैं आया हूँ। ऐसा सुनकर पंडित लोग पुतलियों को हाथ में लेकर उन्हें अच्छी तरह देखते हैं। प्राकृत मद्य-सोपान. 185 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु पुतलियों के रहस्य को जानने में समर्थ नहीं होते है । तब क्रोधित राजा कहता है- 'क्या इतनी बड़ी सभा में कोई भी इनका मूल्य बताने के लिए समर्थ नहीं है ? तुम सब को धिक्कार है।' तब कालिदास कहता है- 'तीन दिन के भीतर मैं इनका मूल्य अवश्य बता दंगा।' ऐसा कहकर वह पुतलियों को लेकर घर चला गया । बार-बार उनको देखकर वह बहुत विचार करता है । सूक्ष्म दृष्टि से उनको देखता है । तब उन पुतलियों के कान में वह छेदों को देखता है । देखकर उन छेदों में पतला तार डालता है । इस प्रकार तार डालकर उन सबको दे बकर ॐन पर मूल्य अंकित कर देता है। तीसरे दिन के अन्त में राजा की सभा में जाकर राजा के सामने क्रमशः उनको रखकर उस कालिदास (पंडित) ने कहा- 'पहलो पुतली का मूल्य मात्र एक कौड़ी है । दूसरी का एक रुपया तथा तीसरी का मूल्य एक लाख रुपये है।' उस मूल्य को सुनकर सारी सभा आश्चर्ययुक्त हो गयी। उस विदेशी ने कहा- 'इस विद्वान् ने सच्चा मूल्य बता दिया है। मैं भी उसी का अनुमोदन करता हूँ।' तब राजा कालिदास को पूछता है- 'समान आकार, रंग और रूप वाली इन पुतलियों के अलग-अलग मूल्य क्यों कहे हैं ? ऐसा पूछने पर कालिदास कहता है- 'हे राजन् ! मैंने पहली पुतली का मूल्य मात्र एक कोड़ी कहा है। क्योंकि इसके कान में एक तार डाला तो वह दूसरे कान के छेद से बाहर निकल गया। अत: यह पुतली उपदेश देती है कि "संसार में धर्म (अच्छी बातों) को सुनने वाले तीन प्रकार के होते हैं। प्रथम श्रोता ऐसा होता है कि जो आत्मकल्याण के वचन को सुनता है, सुनकर उसे दूसरे कान से निकाल देता है । उस वचन के अनुसार स्वयं आवरण नहीं करता है। उस श्रोता को पहली पुतली की तरह जानना चाहए.. उसका कोई मूल्य नहीं है। अत: मैंने प्रथम श्रोता के समान पहली पुतली का, मूल्य मात्र एक कौड़ी कहा है। 2: 'कूहरी पुतली के कान में डाला हुआ तार उसके मुख से निकल गया । वह ऐसा: कहती है कि संसार में कुछ श्रोता ऐसे होते हैं जो आत्महित के वचनों को सुनते हैं, प्राकृत गद्य-सोलन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरों को उपदेश देते हैं, किन्तु स्वयं धार्मिक कार्यों में संलग्न नहीं होते हैं। ऐसे श्रोताओं को दूसरी पुतली के समान जाना चाहिए।'' इसलिए मैंने दूसरी पुतली का मूल्य मात्र एक रुपया कहा है।' 'तीसरी पुतली के कान में डाला गया तार बाहर नहीं निकला, परन्तु उसके हृदय में उतर गया। वह पुतली यह शिक्षा देती है -"कुछ समझदार जीव मेरे समान होते हैं, जो परलोक के हितकारी वचनों को अच्छी तरह सुनते हैं और धर्म के कार्यों में यथाशक्ति संलग्न रहते हैं। ऐसे श्रोताओं को तीसरी पुतली के समान जानना चाहिए।" इसलिए मैंने तीसरी पुतली का मूल्य एक लाख रुपया बताया कालिदास के ऐसे कथन को सुनकर राजा भोज एक अन्य पंडित भी संतुष्ट हुए । वह पराजित विदेशी दुखी मन से उन एक लाख चांदी की मुद्राओं को राजा के आगे रख देता है। राजा उस सब को कालिदास को अर्पित कर देता है। oco पाठ २७ : परोपकारी पक्षी तब उसके पुण्य से प्रेरित कोई एक तोता कहीं से आकर आम्रवृक्ष की शाखा पर बैठा। कुम्हलाये हुए मुखकमल वाली वोरमती को देखकर परोपकार में , संलग्न वह तोता मनुष्य की भाषा में उससे कहता है-'हे सुन्दरी ! तुम क्यों से रही हो ? बसन्त ऋतु की क्रीड़ा के मनोरंजन को छोड़कर दुःख से दुखी क्यों दिख रही हो ? मुझे अपना दुःख कहो ।' ... उस वीरमती ने तोते से ऐसे वचन सुनकर ऊपर देखा । मनुष्य की भाषा में बोलने वाले उस श्रेष्ठ तोते को देखकर कौतुहल से युक्त हो मौन त्यागकर वह कहती है-'हे पक्षी ! मेरे मन की भावना को जानकर तुम क्या करोगे ? क्योंकि प्राकृत गंध-सोपान 187 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया-1. फल खाने वाले, आकाश में हमेशा घूमने वाले, जगल में रहने वाले; ... विवेक से रहित तुम एक छोटे पक्षी हो। 'यदि तुम मेरे दुःख को दूर करने वाले होते तो तुम्हारे सामने रहस्य का कथन करना उचित है । जो अज्ञानी अपने रहस्य वृतान्त- को दूसरों से कहता है वह केवल अपमान के स्थान को ही पाता है । क्योंकि कहा भी है - .. गाथा-2. जो अज्ञानी जिस-किसी व्यक्ति को अपना रहस्य कहता है वह पद-पद पर अपने कार्य की हानि और विपत्ति को ही पाता है । अतः रहस्य के वृतान्त को न उघाड़ना ही अच्छा है ।' तब वह तोता कहता है-'हे. महादेवी ! इस प्रकार की शंका करने से क्या लाभ ? क्योंकि पक्षी जिस-जिस कार्य को कर देते हैं उसे करने में मनुष्य भी असमर्थ हैं ।' यह सुनकर विस्मित मन वाली वह कहती है-'हे तोते ! झूठ बोलते हुए लज्जित क्यों नहीं होते हो ? ज्ञान से रहित पक्षी जाति मनुष्य से कैसे चतुर हो सकती है ? तब तोते ने कहा-'हे देवी! संसार में पक्षियों के समान कौन है ? तीनों खण्डों के स्वामी वासुदेव विष्णु का वाहन पक्षीराज गरुड़ है। कवियों के मुख की शोभा, वर प्रदान करने वाली, अज्ञान का अपहरण करने वाली भगवती सरस्वती हंस (पक्षी) के वाहन पर ही सुशोभित होती है । यहाँ पर उनकी शोभा का कारण प्रक्षी ही है। एक सेठ की, कामवारण की बाधा को न सहने वाली किसी प्रियतमा के मील की रक्षा एक तोले ने नयी-नयी कथाओं को सुनाकर की थी, क्या तुमने यह नहीं सुना है ? राजा नल और दमयन्ती का सम्बन्ध कराने वाला एक हंस ही था। इस प्रकार संसार में पक्षियों के द्वारा अनेक उपकार किये गये हैं। अक्षरमात्र को पढ़ने वाले पक्षी भी जीवदया का पालन करते हैं । आगम में भी तिर्यन्चों (पशुपक्षियों) को पांचवें गुणस्थान का अधिकारी कहा गया है । हम यद्यपि आकाश में चलने वाले होते हैं, किन्तु फिर भी शास्त्रों के सार को जानने वाले होते हैं । अपनी जाति की प्रशंसा उचित है, किन्तु दूसरों को हीन समझना ठीक नहीं है।' ... 188 प्राकृत मद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुकराज के ऐसे वचन सुनकर आनन्दित मन वाली वीरमती कहती है'हे शुकराज ! तुम सत्य बोलने वाले विद्वान् हो । तुम्हारे इन वचनों के कथन से पुलकित शरीर वाली मैं तुम्हें अपने जीवन से भी श्रेष्ठ मानती हूँ। इस उपवन में तुम्हारा आगमन अपनी इच्छा से हुआ है अथवा अन्य किसी की प्रेरणा से ?' - वह तोता कहता है - 'किसी विद्याधर के द्वारा स्नेहपूर्वक पाला हुआ में पिंजड़े में रख दिया गया था । उसके आदेश से समस्त कायों को करता हुआ मैं उसके चित्त का मनोरंजन करता था। एक बार मुझे लेकर वह विद्याधर मुनि की वंदना करने के लिए गया । मुनीन्द्र को हाथ जोड़कर प्रणामकर वह उनके सामने बैठ गया। मुनिवर के दर्शन से पाप रहित मैं भी उनका ही ध्यान करता हुआ वहाँ रुका। मुनिवर ने मधुर भाषा में धर्मोपदेश दिया। उपदेश के अन्त में पिंजड़े में स्थित मुझे देखकर उन्होंने कहा- 'जो व्यक्ति तिर्यन्चों (पशु-पक्षी) को बांधकर रखने में आसक्त होता है उसे महापाप होता है। उसके हृदय में दया नहीं होती है। दया के बिना धर्म की सिद्धि कैसे होगी ? बन्धन में पड़े हुए प्राणी बहुत अधिक दुख का अनुभव करते हैं । अत: धर्म चाहने वाले लोगों के द्वारा किसी भी प्राणी को बन्धन में नहीं डालना चाहिए । सबको (स्वतन्त्रता का) सुख प्रिय है । कहा भी है-... माया- 3. 'सभी प्राणी सुख में रहना चाहते हैं, सभी प्राणी दुःख से दुखी होते हैं । अतः सुख चाहने वाला व्यक्ति दूसरों को भी सुख देता है । सुख प्रदान करने वाले सुखों को प्राप्त करते हैं।' इत्यादि वचनों से प्रतिबोधित उस विद्याधर ने व्रत-नियमों को ग्रहण किया और बन्धन से मुझे मुक्त कर दिया। तब मैं उन मुनीन्द्र को नमनकर उनके उपकार को स्मरण करता हुआ कई बनों को पार करता हुआ, .आनन्दित होता हुआ यहाँ आकर आम्र के वृक्ष की शाखा पर बैठा और तुम्हारे द्वारा देखा गया । इसलिए हे देवी ! मेरे सामने कुछ भी गोपनीय नहीं है, झूठ नहीं कहता हूँ। तुम्हारी चिन्ता को अवश्य दूर करूंगा।'... 000 मात्र सब-सोपान 182 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २८ : साधु - जीवन थोड़ा हंसकर सफेद दांतों की पंक्ति को दिखाने वाले राउल ने कहा'इसमें खेद का विषय नहीं है । माता-पिता से बढ़कर और क्या श्रेष्ठ है ? उनकी सेवा तो देवता की सेवा है। उनका दर्शन तो देव-दर्शन है। उनकी आज्ञा मानना देव-आज्ञा का पालन करना है । कीड़े की तरह कुल को आग लगाने वाले उस पुत्र से क्या लाभ, जो अपने माता-पिता के लिए सुख देने वाला नहीं होता। किन्तु यह कार्य तुम्हारे जैसे गृहस्थों का नहीं है, अपितु मेरे जैसे योगियों के लिए तो इस कार्य को सम्पन्न करना बांये हाथ का खेल है।' .. . 'हे सुकुमार शेखर ! गृहस्थ : लोगों के लिए हेमन्त ऋतु अनुकूल नहीं है। जब (इस ऋतु में) जगत् को कंपाने वाली उसरी अत्यन्त शीतल तेज हवा चलती है तब कौन सुखी गृहस्थ घर से निकलता है ? अनेक ऊनी वस्त्र पहिनकर, शक्तिदायक औषधियों से मिश्रित विशेष प्रकार के मिष्ठान्न को खाकर, स्त्री और पुत्रों से घिरा हुआ, अग्नि के पास बैठा हुआ व्यक्ति (हेमन्त के दिनों को व्यतीत करता है। उस हेमन्त ऋतु में आसक्तिरहित, जटाधारी, श्रमण, तापस, फटे वस्त्र वाला अथवा दिगम्बर साधु वृक्ष के नीचे ठहर कर भी आनन्दपूर्वक ध्यान करता है, और परम इष्टदेव को स्मरण करता है, भूख को सहन करता है और सुखपूर्वक शीतकाल को व्यतीत करता है। ___इसी प्रकार सांसारिक (भोगी) लोगों के लिए ग्रीष्मकाल भी अनुकूल नहीं है । उस समय सूर्य अत्यन्त तीव्र किरणों से तपता है । धरती अग्नि की तरह हो जाती है । सारा वातावरण तपा हुआ हो जाता है और न सहने योग्य हवा चलने लगती हैं । बार-बार पोंछने पर भी पसीना नहीं सूखता है । प्यास से व्याकुल ओंठ, तालु, कंठ अच्छी तरह से पानी पीने पर भी 'पानी कभी नहीं पिया है ऐसा अनुभव करते हैं । उस गरमी में सभी भोग सामग्री को प्राप्त अनेक तरह के शीतल-पेय को पीता हुआ वातानुकूलित घर में रहता हुआ कौन पुण्यवान् व्यक्ति घर को छोड़ना चाहेगा ? ऐसी ग्रीष्मऋतु में भी मुनि जहाँ कहीं पर ठहरकर जो कुछ भी ठंडा 190 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरम ख ता हुआ, गरम पानी पीता हुआ, बिना बिछौने के गरम भूमि पर सोता हुआ परम प्रसन्न दिखायी देता है। जो साधु हमेशा परमात्मा का स्मरण करता रहता है उसे ग्रीष्मकाल की गरमी का अनुभव क्यों होगा ? जिसके लिए (सुख की) सभी बाहरी उस्तुए त्याज्य हैं उस साधु के लिए सुख-दुःख की कल्पना क्या करना ? अहो ! मुनियों का मार्ग विचित्र ही है। इसी प्रकार ज्येष्ठ आश्रम वालों (गृहस्थों) के लिए वर्षा का समय भी. सुखकारी नहीं है । जब बादल बरसते हैं तब इधर-उधर सूर्य छिपने से घना अंधकार हो जाता है । हृदय को कंपाने वाली बिजली चमकने लगती है। ग़र्जन करता हुआ मेघ का शब्द कान के छेद को फाड़ने लगता है । गलियाँ कीचड़ युक्त हो जाती हैं । नदियाँ एवं नाले वेग से बहने लगते हैं । जब (बादलो में) छिपा हुआ सूर्य भी भीतरी गर्मी का अनुभव करता है (अर्थात् बाहर से ठडा हो जाता है) तब उस वर्षा ऋतु में अपनी पत्नी से रहित कौन व्यक्ति सुखी रहने में समर्थ होगा ? भाग्य से परवश प्रवास में रहने वाला कोई व्यक्ति भी रात-दिन घर को याद करता रहता है। विदेश गये पति से रहित कोई माननी पत्नी भी पपीहा के 'पिउ-पिउ' शब्द से पति को याद करती हुई अत्यन्त आन्तरिक पीड़ा का अनुभव करती है। ऐमो उस वर्षा ऋतु में भी पानी भोजन का त्याग कर पर्वतों और गुफाओं में रहने वाले, शरीर और मन की समस्त चिन्ताओं से रहित सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन से बढ़े हुए तेज वाले, ध्यान में लीन साधु-मुनि अपूर्व एवं बाधारहित सुख का अनुभक करते हुए समय व्यतीत करते हैं । अतः मुनियों के लिए सभी ऋतुए अनुकूल होती हैं । 000 पाठ २६ : नौकर की कर्तव्य बुद्धि शकार- यह बूढा सुअर (विट) अधर्म से डरने वाला है । अच्छा, (अबस्था रक (नामक) चेट (अपने नौकर) को मनाता हूँ। हे पुत्र ! स्थावरक ! चेट ! (तुम्हें) सोने के कान दूंगा। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेट - मैं भी पहन लूगा। . साकार - तुम्हें सोने का पीढ़ा (आसन) बनवा दूगा। र - मैं (उस पर) बैठ जाऊँगा। शकार - तुम्हें सब बचा हुआ (जुठा) भोजन दूंगा। पेट - में भी उसे खा लूगा। शकार- (तुम्हें) सभी नोकरों में प्रधान बना दूंगा। बेट - हे स्वमी ! मैं (प्रधान) बन जाऊंगा। शकार- तो तुम मेरे (एक) आदेश का पालन कर दो। बेट - हे स्वामी ! अनुचित कार्य को छोड़कर सब (काम) कर दूंगा। शकार- अनुचित कार्य की तो (उसमें) गन्ध भी नहीं है। बेट - हे स्वामी ! तब कहिए। शकार- इस वमन्तसेना को मार दो। बेट - हे स्वामी ! प्रसन्न हों । मुझ अनार्य (नीच व्यक्ति) के द्वारा गाड़ी बदल जाने के कारण आर्या (वसन्तसेना) को पहले ही यहां ला दिया गया है। (अब मैं और अनर्थ नहीं कर सकता हूं)। सकार- भरे घेट ! क्या तुम्हारे ऊपर मेरा अधिकार नहीं है ? बेट - हे स्वामी ! (आपका) अधिकार है- (मेरे) शरीर पर, किन्तु (मेरे) : चरित्र पर नहीं। अतः हे स्वामी ! (मेरे ऊपर आप) कृपा करें, कृपा करें। (मुझे हत्या करने का आदेश न दें) क्योंकि मैं डरता हूँ। शकार- तुम मेरे नौकर होकर किससे डरते हो ? चेट - हे स्वामी ! परलोक (के भय) से। शकार- वह परलोक क्या है ? पेट - हे स्वामी ! अच्छे (पुण्य) और बुरे कर्मों (पाप) का फल (परलोक साकार - पुण्य का फल कैसा होता है ? 192 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेट - जैसे कि आप अनेक आभूषणों से अलंकृत हैं (यह आपकै पुण्य का फल शकार - पाप का (फल) कैसा होता है ? - चेट - जैसे कि मैं दूसरों का अन्न खाने वाला (नौकर) हुआ हूँ (यह मेरे पाप कर्मों का फल है) । अत: अब कोई अनुचित कार्य नहीं करूंगा। शकार - अरे ! (तुम वसन्तसेना को) न मारोगे ? (ऐसा कहकर शकार नौकर को अनेक प्रकार से मारता है) स मारता है) . चेट - हे स्वामी ! मुझे आप पीटें, हे स्वामी ! मुझे आप मार दें तब भी दुष्कार्य नहीं करूंगा । क्योंकिभाग्य (पूर्व जन्मों के पापों) के दोषों से मैं जन्म से ही आपका दास बना हूँ । अतः अब (वसन्तसेना को मारकर) अधिक पाप नहीं करूंगा। इसलिए मैं अनुचित कार्य को त्यागता हूँ। 000 पाठ ३० : अंगूठी की प्राप्ति (इसके बाद नगर का कोतवाल प्रवेश करता है और उसके पीछे-पीछे बंधे हुए मछुआरे को पकड़े हुए दो सिपाही)। धोनों सिपाही - (पीटकर) अरे चोर ! बता, कहाँ पर तुमने इस मणि-जड़ित एवं खुदे हुए नाम वाली राजकीय अंगूठी को प्राप्त किया है ? पुरुष - (भय का अभिनय करते हुए) हे महानुभाव ! मुझ पर प्रसन्न हों। मैं ऐसा (चोरी का) काम करने वाला नहीं हूँ। प्रथम सिपाही - तो क्या तुम उत्तम ब्राह्मण हो, ऐसा मान करके राजा के द्वारा दान __ में (यह अंगूठी) दी गयी है ? पुरुष - इस समय (मेरी बात) सुनिये । मैं शुक्रावतार (नदी के तट) के भीतर रहने वाला धीवर (मछुआरा) हूँ। प्राकृत गद्य-सोपान 193 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय सिपाही- अरे चोर ! क्या हम लोगों के द्वारा (तुम्हारी) जाति पूछी गयी परुष कोतवाल - अरे सूचक ! क्रमवार उसे सब कुछ कहने दो । उसे बीच में टोको मत । दोनों सिपाही- श्रीमान् जी ! जो आज्ञा दें। (मछुआरे) से आगे बता । परुष - मैं जाल से निकलने वाली एवं अन्य रूप से मछलियों को पकड़ने के धन्धे (उपाय) से (अपने) परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। कोतवाल - (मुस्कराकर) तब तो (तुम्हारी) बड़ी पवित्र आजीविका है । -- हे स्वामी ! ऐसा न कहें। क्योंकि--- जन्म से (परिवार में) चले आ रहे निन्दित कार्य को भी सहजता से छोड़ देना बड़ा कठिन है । अनुकम्पा से दयालु यज्ञ करने वाला ब्राह्मण भी पशुबलि करते समय कठोर हो जाता है । कोतवाल -- अच्छा आगे क्या हुआ ? पुरुष -- एक दिन जब मेरे द्वारा रोहित मछली के टुकड़े किये गये, तब उसके पेट के भीतर रत्न से चमकती हुई यह अंगूठी (मेरे द्वारा) देखी गयी । बाद में उसी अंगूठी को बेचने के लिए दिखाते हुए मैं आप महानुभावों के द्वारा पकड़ लिया गया हूँ। अत: आप मुझे मारें, चाहें छोड़ दें, इस अंगूठी के मिलने का यही वृतान्त है । कोतवाल -- जानुक ! कच्चे मांस की गंध वाला यह आदमी निश्चित ही मछुआरा . ही है । अंगूठी मिलने का उसका वृतान्त भी विचारणीय है (ठीक ___ लगता है) । अत: अब हम लोग राज-दरबार में ही चलें । दोनों सिपाही- ठीक है, ऐसा ही करें । अरे गिरहकट (चोर) ! चल । 000 पाठ ३१: कवि-गोष्ठी राजा -- काव्य के कथनों की कुशलता से तथा रीतियों (काव्य-शैली) के अनोखे पन से विचक्षणा (नामक दासी) सचमुच विचक्षणा (विदुषी) है । 194 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए अन्य (कवि से) क्या, यह ही कवियों में शिरमौर के रूप में स्थित है। विदूषक - (कोधपूर्वक) तो सीधे ही क्यों नहीं कहा जाता है कि- काव्य र चना में विचक्षणा अति श्रेष्ठ एवं कपिजल ब्राह्मण (मैं) अत्यन्त निम्न है । विचक्षणा - हे आर्य क्रोध न करें। (तुम्हारा) काव्य ही तुम्हारे कवित्व को सूचित कर रहा है। क्योंकि अपनी पत्नी को आनन्दित करने वाले (तुम्हारे काव्य के) अर्थ निन्दनीय हैं । (उन अर्थों के साथ) तुम्हारी सुकुमार वाणी उसी तरह एकदम सुन्दर नहीं लगती है, जिस तरह लटके हुए स्तनों वाली स्त्री के लिए चोली और कानी स्त्री के लिए काजल की रेखा सुन्दर नहीं लगती है। विदूषक - किन्तु तुम्हारे काव्य के रमणीय अर्थ होने पर भी उसकी शब्दावली सुन्दर नहीं है। सोने की करधनी में लोहे के घुघरू-समूह की तरहे, उल्टे कपड़े पर कढ़ाई के काम के समान और गोरी स्त्री के चन्दन के लेप के समान (तुम्हारी शब्दावलो) सुन्दरता को प्राप्त नहीं करती है। फिर भी तुम प्रशंसित हो रही हो। विचक्षणा - हे आर्य ! क्रोध न करें । आपके माथ मेरी क्या बराबरी ? क्योंकि आप नाराच (छोटी तराजू पर रखी जाने वाली चम्) के समान निरक्षर (मूर्ख) होते हुए भी रत्नों को तौलने में लगे हुए हो । किन्तु मैं बड़ी तराजू के समान लब्धाक्षर (विदुषी) होते हुए भी सोने के तौलने में भी नियुक्त नहीं होती हूँ। (अर्थात् तुम राजा के मित्र हो और मैं दासी विदूषक - इस प्रकार मुझ पर हंसती हुई तेरे बाये और दाहिने युधिष्ठिर के बड़े भाई (कर्ण) के नाम वाले अंग (कान) को जल्दी ही उखाड़कर फेंक दूंगा। विचारणा - मैं भी उत्तर फाल्गुनी के बाद आने वाले नक्षत्र के नाम वाले (हस्त) तेरे अंग (हाथ) को जल्दी ही तोड़ दूंगी। प्राकृत गद्य-सोपान 195 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा - हे मित्र ! इस प्रकार मत झगड़ो (कहो) । यह (विचक्षणा) कवित्व । में स्थापित है। विदूषक - (क्रोध सहित ) तब सीधे ही क्यों नहीं कह दिया जाता है कि हमारी (यह) दासी हरिवृद्ध, नन्दिवृद्ध, पोट्टिश, हाल आदि (प्राकृत कवियों) के समाने भी श्रेष्ठ कवि है। 000 पाठ ३२ : प्राकृत अभिलेख १. जीव-दया = मांस-भक्षण का निषेध 1. यह धर्म लिपि देवताओं के प्रिय, प्रियदर्शी राजा (अशोक) द्वारा लिखायी गयी। 2. यहाँ पर कोई जीव मारकर हवन न किया जाय । 3. और न समाज (दोषपूर्ण आयोजन) किया जाय । 4. क्योंकि बहुत दोष समाज में देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा देखता है । 5. ऐसे भी एक प्रकार के समाज हैं, जो देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा के मत में साधु । (निर्दोष) हैं। 6. पहले देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा की पाकशाला (रसोइ) में प्रतिदिन कई ... लाख प्राणी सूप (सब्जी आदि) के लिए मारे जाते थे। 7. ये तीन प्राणी भी पीछे (आगे चलकर) नहीं मारे जायेंगे। २. लोकोपकारी कार्य 1. देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा के राज्य में सर्वत्र, इसी प्रकार प्रत्यन्तों में- चोल, पाण्डय, सत्यपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपर्णी तक यवनराजा अन्तियोक, उस अन्तियोक के समीप जो राजा हैं, (वहाँ) सर्वत्र, देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा की -196 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो (प्रकार की) चिकित्साए व्यवस्थित हैं- मनुष्यों की चिकित्सा और पशुओं की चिकित्सा। 2. मनुष्योपयोगी और पशूपयोगी जो औषधियां जहाँ-जहाँ नहीं हैं (वे) सब जगह लायी गयी हैं और रोपी (उत्पन्न की) गयी है। 3. और मूल (जड़े) तथा फल जहाँ जहाँ नही हैं (वे) सब जगह लाये गये हैं। 4. पशु और मनुष्यों के उपयोग के लिए पंथों (रास्तों) में कुए खोदे गये हैं और वृक्ष रोपे गये हैं। ३. समन्वय ही श्रेष्ठ है 1. देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा सभी धार्मिक सम्प्रदायों और प्रवजितों (साधु जीवन वालों) और गृहस्थों को पूजता है तथा वह दान और विविध प्रकार की पूजा से (उन्हें) पूजता है । 2. किन्तु दान और पूजा को देवानांप्रिय उतना नहीं मानता, जितना इस बात ___ को (महत्त्व देता है ) कि सभी सम्प्रदायों के सार (तत्व) की वृद्धि हो। 3. सार-वृद्धि कई प्रकार की होती है। किन्तु उसका यह मूल है- बचन का संयम । कैसे ? अनुचित अवसरों पर अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरों के सम्प्रदाय की निन्दा नहीं होनी चाहिए। 4. किमी-किसी अवसर पर (कारण से) हलकी (आलोचना) होनी चाहिए । किन्तु उन-उन प्रमुख कारणों से दूसरे सम्प्रदाय पूजे जाने चाहिए। ऐसा करते हुए (मनुष्य) अपने सम्प्रदाय को बढ़ाता है तथा दूसरे सम्प्रदाय का उपकार करता है। 5. इसके विपरीत करता हुआ (व्यक्ति) अपने सम्प्रदाय को क्षीण करता है और दूसरे सम्प्रदाय का भी अपकार करता है --- 6. जो कोई (व्यक्ति) अपने सम्प्रदाय की पूजा करता है तथा दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है- सब अपने सम्प्रदाय की भक्ति (पक्ष) के क रण । कैसे ? कि किस प्रकार अपने सम्प्रदाय का प्रचार (दीपन) किया जाय । वह सा करता हुआ अपने सम्प्रदाय की बहुत हानि करता है । प्राकृत गद्य-सोपान 197 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. इसलिए (समवाय) ही साधु (श्रेष्ठ) है । कैसे ? एक दूसरे के धर्म को सुनना और सुनाना चाहिए । ऐसी ही देवानांप्रिय की इच्छा है । कैसी ? कि सभी सम्प्रदाय बहुश्रुत हों और कल्याणगामी हों। जो अपने अपने सम्प्रदाय में अनुरक्त हों, वे (दूसरे से) कहें--देवानांप्रिय दान और पूजा को उतना नहीं मानते जितना कि इस बात को कि सब सम्प्रदायों में सार की वृद्धि हो। 9. इस प्रयोजन के लिये बहुत से धर्ममहामात्र, और स्त्री-अध्यक्ष-महामात्र, व्रजभमिक (यात्री-रक्षक) और अन्य (अधिकारी) वर्ग नियुक्त हैं । इसका यह फल है कि अपने सम्प्रदाय की वृद्धि और धर्म का दीपन (प्रचार ) होता है। 000 198 .प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपठित प्राकृत गद्यांश १. कुवलयचंदस्त पउत्ती गयरीए उरण तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-रच्छामुह-गोउरेसु 'हा कुमार, केण णीग्रो, कत्थ गयो, कत्थ पाविरो, हा को उरण सो तुरंगमो दारुणो त्ति । सबहा तं होहिइ जं देवयानो इच्छंति' त्ति । तरुरिणयगो-'हा सुहय, हा सुदर, हा सोडिय, हा मुद्धड, हा वियड्ढ, हा कुवलयचंद-कुमार कत्थ गयो ति । सव्वहा कुमार, तुह विरहे कायरा इव पउत्थवइया' । पयरी केरिसा जाया। उवसंत-मुरय-सद्दा संगीय-विवज्जिया सुदीण-जणा। झीण-विलासासोहा पउत्थव इय व सा रणयरी ॥१॥ तो कुमार, एरिसेसु य दुक्ख-वोलावियव्वेसु दियहेसु सोय-विहले परियणे रिणवेइयं पडिहारीए महाराइणो 'देव, को वि पूसराय-मणि-पूज-सच्छहो पोम गय-मणि-वरणो। किं पि पियं व भणंतो दट्टे कीरो महइ देवं ।।२।। तं च सोऊण राइणा 'अहो, कीरो कयाइ कि पि जाणइ त्ति दे पेसेसु गं' उल्लविए, पहाइया पडिहारी पविट्ठा य, मग्गालग्गो रायकीरो। उवसप्पिऊरण भरिणयं रायकीरेण । अवि य । 'भुजसि पुणो वि भुजसु उयहि-महामेहलं पु इ-लच्छि । वड्ढसि तहा वि वड्ढसु रणरणाह ! जसेण धवलेणं ॥३॥ प्राकृत गद्य-सोपान 199 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरिए, परवइणा उब्व - दंसरणायण्णेण विम्हय-वस-रस-समुससंतरोमंच - कंचुय - च्छविरणा भरिणयं 'महाकीर, तुमं कनो, केरण वा कारणेण इहासित्ति । भरिणयं च रायसुएणं 'देव. वड् ढसि कुवलयचंद कुमार-पतीए, त्तिभरणयमेत्ते राइणा पसरतंतर- सिणेह - गिब्भर - हियएरण पसारिनोभय बाहु-डंडे गहिश्रो करयलेण, ठाविनो उच्छंगे । भरिणयं च राइणा 'वच्छ' कुमार- पती, संपारण, कुमार रिगव्विसेस - दंसरणौ तुमं । ता दे साह मे कुमारस सरीर वट्टमारणी । कत्थ तए दिठ्ठो, कहिं, वा कालंतरम्मि, कत्थ वा पसे, केच्चिरं वा दिठ्ठस्स' त्ति । एवं च भणिए भरिणयं कीरेण 'देव' एत्तियं ग याणामि, जं पुरण जाणामि तं साहिमोति । प्रत्थि इन प्रइदूरे णम्मया णाम महारणई । तीय य दाहिणे कूले देयाई गाम महाडई । तीए देयाडईए मज्भे णम्मयाए गाइदूरे विभ-गिरिवरस्स पायासणे प्रणेय - सउरण-सावग संकिण्णे पएसे एरिया णाम महातावसी । तीए प्रासम पर अम्हे वि चिट्ठामो । एवं च परिवसंतस्स इप्रो थोए चेय दियहे एगागी सत्त मेत्त-परिवारो संपत्तो तम्मि श्रासम-पएसमि कुमारो । तो म्हेहिं दिट्ठो । तत्थ य सब्भाव - णेह - गिब्भरालावो पत्त । पुणो गतुं समुट्ठियो पुच्छो म्हेहिं जहा 'कुमार, किं तुज्भ कुलं. किं वा गामं, कत्थ वा गंतु ववसियं' ति । तत्र तेण भणियं । ' सोम-वंससंभवो दढम्म महराम्रो प्रोज्झाए परिवसइ । तस्स पुत्तो अहं, कुवलयचंदो महामं, गंतव्वं च मए भगवओो मुणिरणो समाएसेा विजयाए पुरवरीए, कुवलयमालाए पलंबियस्स पादयस्स पूरणेण परिणेउ संबोहणेणं च' त्ति । एवं च भरणऊरण गयो तं दक्खिणं दिसं कुमारो । भणियं च तीय तावसीय 'कुमार, महंतो उब्वेवो तुह गुरूणं, ता जइ तुमं भरणसि ता साहेउ एस कीरो गंतूणं सरीर-पउत्ति' त्ति । भरिणयं च तेरा 'को दोसो, पूयरिणज्जा गुरुरणो, जइ. तीरइ गंतु ता वच्चउ, साहेउ गुरूणं पउति । साहेयव्वं च मज्भ वयणेणं 'पायवडणं गुरूणं' ति भरणमारणो पत्थिश्रो मरण-पवरण- वेस्रो कुमारो' त्ति । * 000 कुवलय नालाकथा (संक्षेप), सं. -डॉ. के. आर. चन्द्रा, अहमदाबाद, पृ. 36-38 1 * 200 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. आरामसोहा-परिणयं सा वि तस्सारामस्सामय र सरसारण फलारिण जहिच्छं भुजिय विगयच्छुहताहा तत्थेव ठिया सयलं दिणं । रयणीए उण गोणीमो वालिऊण पत्ता नियमंदिरं । पारामोऽवि तीए गिहं च्छाइऊरण समंतनो ठिमो । जरगरणीए उरण सा वुत्ता-'पुत्ति ! कुरणसु भोयरणं,' तो तीए वज्जरियां-'नस्थि मे अज्ज खुह' त्ति उत्तरं काऊण सा नियसयपीए निद्दासुहमणुहवइ । जाए पच्चूससमए सा गावीमो गहिय तहेव गयाऽरणं । मारामोऽवि तप्पिठ्ठीए गो । एवं कुव्वंतीए तीए अइक्कंतारिण कइवइ दिणाइ। एगया मज्झण्हे सुहप्पसुत्ताए सिरिपाडलपुराहिवो चउरंगबलकलियो विजयजत्ताए पडिनियत्तो जियसत्त नाम राया आगो तत्थ । तस्सपारामस्स रमरिणज्जयाए अक्खित्तचित्तो मंतिं खंधावारनिवासस्थमाइस इ । नियासणं च चारुअम्बतरुतले ठाविय सयमुवविसइ । सिन्नपि तस्स च उद्दिसि पि प्रावासेइ । अवि य तरल-तरंगवलच्छा, बज्झति समंतप्रो य तरुमूले । कविकालं विज्जति पल्लारगज्जुया य साहासु ॥१॥ बझंति निविडथुडपायवेसु मयमत्तदंतितंतोमो । वसहकरहाइवाहण-परंपरानो ठविति ।।२।। तम्मि य समए सिन्नकोलाहलेण विज्जुपहा विगयनिद्दा समाणी उठिऊरण करहाइपलोयणुत्तट्ठामो गावीमो दूरंगयात्रो पलोइय तासि वालगट्ठा तुरियतुरियं रायाइलोयस्स पिक्खंतस्स वि पहाविया । तीए समं च करभतरियाइसमेग्रो पारामोऽवि पत्थियो । तमो ससभंतो राया सपरियणो उठिो अहो किमेयमच्छरियं ति पुच्छइ मंति, सोऽवि जोडियकरसंपुडो रायं विनवेइ"देव ! अहमेवं वियकेमि, जइयो पएसानो विगयनिद्दमुद्दा उठ्ठिऊरण करसंपुडेण नयणे चमढ़ती उद्वित्ता पहाविया एसा बाला । इमीए सद्धि आरामोऽवि, ता माहप्पमेयमेईए चेव संभाविज्जइ। एसा देवंगणा वि न संभाविज्जइ, प्राकृत गद्य-सोपान 201 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमेसुम्मेसभावेण नणमेसा मा गुसी।" तो रणा वुत्त-'मंतिराय ! एयं मे समीवमारोह ।' मंतिणावि धाविऊरण सद्दो करो। सा वि तस्स सहसवणेण पारामसहिया तत्थेव ठिया । तो 'एहि त्ति मंतिणा वृत्ता। सा पडिभणइ-'मम गावीमो दूरं गयाो।' तो मंतिणा नियअस्सबारे पेसिऊरण प्रारणावियाओ गावीअो । सावि आरामकलिया रायसयासमाणोया। राया वि तीए सव्वमवि चंगमंगअवलोइय 'कुमारि' त्ति निच्छोय साणुरानो मंतिसंमुहमवलोएइ । तेणवि रणो मणोभिप्पायं नाऊण वज्ज. रिया । "विज्जुपहा ! नमिर-नरेसरसेहरअमंद-मयरंद-वासियकमग्गं । रज्जसिरिइ सव्वक्की, होऊण इमं वरं वरसु' ।।३।। तनो तीए साहियं- 'नाहं सवसा किन्तु जणरिणजरणयारणमायत्ता।' तो मंतिणा उत्त-को ते पिया ? कत्थ वसइ ?', तीए वि संलत्त-'इत्थेव गामे अग्गिसम्मो माहणो परिवसइ ।' तो मंति तत्थ गमणाय रण्णा आइटो । सो वि गामे गंतुरग तस्स घरे पविट्ठो। तेणावि सागयवयणपुरस्सरं पासणे निवेसिऊरण भरिणो 'जं करणिज्जं तं मे पसीय पाइसह ।' ग्रामच्चेरण भरिणयं-'तुम्हं जइ का वि कन्नगा अत्थि, ता दिज्जउ प्रम्ह सामिणो' । तेरणावि "दिन्न" त्ति पडिस्सुयं, जं अम्ह जीवियमवि देवस्स संतियं किं पुण कन्नग त्ति ?", तो अमच्चेण भणियं-"तुमं पायमवधारेसु देवस्स पासे" । सोऽवि य रायसमीवं गंतूरण दिन्नासोसवयणो, मंतिणा बाहरियं वुत्त, तो रण्णा सहत्थदिन्नासणे उवविट्ठो, भूवइणा वि कालविलंबमसहमारणेण गंधव्वविवाहेण सा परिणीया। पुघिल्लयं नामं परावत्तिऊरण 'पारामसोहं' ति तीए नाम कयं । माहणस्स वि दुवालस गामे दाऊरण पणईरिंग चारामसोहं हत्थिखंधे आरोविऊरण सनयरं पइ पत्थिनो पत्थिवो पमोयमुव्वहंतो। 000 202 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर अद्यावधि प्रकाशित ग्रन्थ १. कल्पसूत्र (सचित्र) राजस्थान का जैन साहित्य ३. प्राकृत स्वयं-शिक्षक ४. श्रागाम तीर्थ ५. स्मरण-कला २. ६. जैनागम दिग्दर्शन ७. जैन कहानियाँ ८. जाति-स्मरण क्ला ६. हाफ ए टैल (अर्ध कथानक ) १०. गणधरवाद ११ जेन इन्सकिन्सन ऑफ राजस्थान : सम्पादक एवं हिन्दी अनुवादक महोपाध्याय विनयसागर अग्रेजी अनुवादक - डॉ. मुकुन्द लाठ 2500 वां निर्वाणवर्ष प्रकाशन Jain Educationa International : : डॉ. प्र ेम सुमन जैन : डॉ हरिराम श्राचार्य अनु.: पं. धीरजलाल टो. शाह अनु. - मोहन मुनि 'शार्दूल' : मुनि नगराज : उपाध्याय महेन्द्र मुनि : उपाध्याय महेन्द्र मुनि : कवि बनारसीदास अनु. - डॉ. मुकुन्द लाठ प. दलसुखभाई मालवणिया अनु.- प्रो. पृथ्वीराज जैन सम्पा. - म. विनयसागर : श्री रामवल्लभ सोमानी १२. एग्जेक्ट साइन्स फ्राम जैन सोर्सेज, पार्ट -1 १३. प्राकृत काव्य-मंजरी १४. महावीर का जीवनसन्देश : युग के सन्दर्भ में : : प्रो. लक्ष्मी चन्द्र जैन : डॉ. प्र ेम सुमन जैन आचार्य काका कालेलकर For Personal and Private Use Only 200-00 'अप्राप्य 30.00 15.00 10.00 15.00 20.00 4.00 3.00 150.00 50.00 70.00 15.00 16.00 20.00 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainen BARA DAR 209.06 00299.gara panggangaROONEY LOGORAC Dooges 91009 PABORAR PORARI10000 PARA DAR Age 1999 Pangarap EN ORADEA DORRINDOOROCCORSA900000RPODDSDOBRODODENDORRADUC DOODOO0ORJADOD DOR 202 ASOOOOORIADCORREO NORDBRYDDORA CONDOOROOROR எனOotoSHOND