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गया ।' स्थाशू ने कहा --'धैर्य धारण करो।' उसने कहा-'मित्र ! इस रत्न कपड़े को वापिस लो । मैं डरता हूँ। मुझे इसके भ्य से कुछ लेना-देना नहीं है ।' ऐसा कहते हुए उस मायादित्य ने 'नकली रत्न-कपड़ा है' ऐसा विचारकर ठगी बुद्धी से उस स्थाणू को असली रत्नों का कपटा समर्पित कर दिया । उसने भी बिना किसी विकल्प वाले मन से ग्रहरण कर लिया।
तब उम सरल हृदय वाले स्थाणू को पाप हृदय वाले मायादित्य ने ठगकर इस प्रकार कहा- हे मित्र ! मैं कुछ खटाई आदि मांगकर अभी आता हूँ।' ऐमा कहकर जो गया तो गया, वापिस ही नहीं लौटा । रात-दिन चलकर बारह योजन दूर निकल जाने पर उस मायादिःय ने जब उस अपने रत्न-कपड़े को देखा तब वे जो पत्थर उसने ठगने के लिए उस कपड़े में बांधे थे वही यह नकली रत्नों का कपड़ा था । उसे देखकर वह ठगे हुए की तरह, लूट लिये गये की तरह, मार दिये गये की तरह, डरे हुए की तरह, पागल की तरह, सोए हुए की तरह, मरे हुए की तरह न कथन करने योग्य महान मूछी को प्राप्त हो गया।
वह क्षणमात्र में चेतना को प्राप्त हुआ। तब उसने सोचा-अहो ! में इतना मंदभागी हूँ कि जो मैंने सोचा था कि उसे ठगूगा तो मैं ही ठगा गया ।' ऐसा सोचकर उस पापहृदयो ने फिर विचार किया-'अच्छा, अब फिर उस सरल हृदय वाले को ठगूगा । अब ऐसा करता हैं कि वह पुनः मुझे कहीं मार्ग में मिल जाय ।' ऐसा सोचता हुआ वह मायादित्य उसी मार्ग पर चल दिया (जहाँ स्थाणू को छोड़ा था)।
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पाठ १८ : धनदेव का पुरुषार्थ
इस लोक में जम्बूद्वीप में भारतवर्ष में वैताढ्य के दक्षिण मध्यम खंड में उत्तरापथ नामक पथ है । वहाँ तक्षशिला नामक नगरी है। उस नगरी के पश्चिम-दक्षिण दिशाभाग में उच्चस्थल नामक गाँव है, जो देव भवनों से स्वर्ग नगर की तरह, विविध रत्नों से पाताल की तरह, गौ-सम्पदा से गौओं के निवास स्थान की तरह तथा-धन सम्पदा से धनकपुरी की तरह है।
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प्राकृत गद्य-सोपान
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