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उस गाँव मैं शूद्र जाति का धन देव नामक सार्थवाह (बड़े व्यापारी) का एक पुत्र था । वहाँ अपने जैसे सार्थवाह पुत्रों के साथ खेलते हुए उसका समय व्यतीत होता था। किन्तु वह लोभी, धन ग्रहण करने में तल्लीन, मायावी, ठग, झूठ बोलने वाला और दूसरों के धन को हरण करने वाला था। तब उसके समान सार्थवाह युवकों के द्वारा ऐसे उसका धनदेव नाम बदलकर लोभदेव नाम प्रतिष्ठित कर दिया गया । तब लोभदेव नाम वाला वह दिनों के बीतने पर बड़े युवक की तरह हो गया ।
तब बाहर जाने के लिए इसके लोभ उत्पन्न हुआ, इसलिए उसने अपने पिता से कहा-'हे पिता ! घोड़े लेकर दक्षिणापथ को जाऊँगा और वहाँ बहुत अधिक धन कमाऊँगा, जिससे सुख का उपभोग करेंगे।'
ऐसा कहने पर उसके पिता ने कहा-'हे पुत्र ! तुम्हें धन से क्या प्रयोजन ? तुम्हारे और मेरे पुत्र-पौत्रों के लिए भी विपुल सारयुक्त धन मेरे पास है । इसलिए गरीबों को दान दो, याचकों की मांग पूरी करो, ब्राह्मणों को दक्षिणा दो, मंदिरों को बनवाओ, तालाब और बांध खुदवाओ, वांपियों को बंधवाओ, निशुल्क भोजन. शालाओं को चलाओ, औषधालयों को बनवाओ, दीन एवं विह्वल लोगों का उद्धार करो। किन्तु हे पुत्र ! विदेश जाने से रहने दो।
तब लोभदेव ने कहा- 'हे पिता ! जो यहाँ है वह तो अपने अधीन है ही। किन्तु अपनी बाहुओं के पुरुषार्थ से अन्य अपूर्व धन कमाना चाहता हूँ।' तब उस सार्थवाह ने सोचा - 'इसका उत्साह ठीक ही है । यह करने योग्य, उचित एवं हमारे अनुकूल है । हमारा धर्म ही है - अपूर्व धन कमाना । इसलिए मुझे इसकी इच्छा को नहीं तोड़ना चाहिए । अतः यह जाय ।' ऐसा सोचकर उसने कहा-'हे पुत्र ! यदि तुम नहीं रुक सकते तो जाओ।'
ऐसा कहे जाने पर वह जाने को तैयार हो गया । घोड़े सजाये गये। गाड़ीवान सज्जित की गयीं, रास्ते का खाना रखा गया, दलालों को सूचना दी गयी, मजदूर लोगों को एकत्र किया गया, गुरुजनों से पूछा गया, दिशा-देवता की बन्दना की
प्राकृत गद्य-सोपान .
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