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बना लिया गया। तब इस प्रकार परिवृतित वेष वाले वे दोनों चोरों के द्वारा न लक्ष्य किये जाते हुए, भिक्षा मांगते हुए चल दिये । कहीं पर मोल खरीदकर, कहीं पर भोजनशालाओं में, कहीं पर अतिथिशालाओं में भोजन करते हुए एक संनिवेश (नगर के नजदीक) में वे पहुंचे ।
वहाँ पर स्थाणू ने कहा-'अरे मित्र ! थके होने से अब भीख मांगते हुए घूमना हमारे वश का नहीं है । अत: आज स्वयं रोटी बनाकर खायेंगे ।' तब मायादित्य ने कहा-'यदि ऐसा है, तुम बाजार में जाओ। क्योंकि मैं भोला, खरीदना बेचना नहीं जानता, किन्तु तुम जानते हो। शीघ्र ही तुम आ जाना ।' तब स्थाणू ने कहा'ठीक है, ऐसा ही हो । किन्तु फिर इस रत्न की पोटली का क्या करें ? ' ऐसा पूछने पर मायादित्य ने कहा-'दूसरे के बाजार की स्थिति कौन जानता है ? इसलिए वहाँ प्रवेश करने वाले तुम्हें कोई आपत्ति न हो इस कारण मेरे ही पास इस रत्न-पोटली को रहने दो।' उस स्थाणू ने ऐसा कहने पर वह रत्न-पोटली उसे दे दो। देकर वह बाजार को चला गया।
तब मायादित्य ने सोचा-'अहो ! ये दस रत्न हैं। इनमें से पांच मेरे हैं । यदि इस स्थाणू को किसी प्रकार धोखा दिया जाय तो दसों रत्न मेरे ही हो जायेंगे।' ऐसा सोचते ही उसके बुद्धि उत्पन्न हुई कि-'इनको लेकर भाग जाता हूँ।' अथवा उसे गये हुए अधिक समय नहीं हुआ है । अभी वापिस आ जायेगा । इसलिए जिस प्रकार से वह नहीं जान पाये उस प्रकार से भागू गा।' ऐसा सोचकर उसने रास्ते की धूलि से वैसा ही मैला दूसरा एक कपड़ा लिया। उसमें वे रत्न बांध दिये । और उस पुराने रत्न के कपड़े में रत्नों के तौल और आकार के गोल दस पत्थर बांध दिये । और इस प्रकार उस कपट-प्रपंच को करते समय ही अचानक वह स्थाणू आ गया ।
तब घबड़ाए हुए और पाप मन वाले उस मायादित्य ने नहीं जाना कौन-सा वास्तविक रत्नों का कपड़ा है, और कौन-सा नकली रत्नों का कपड़ा । तब स्थाणू ने कहा-'मित्र ! मुझे देखकर इस प्रकार व्याकुल से क्यों दिखायी दे रहे हो ?' मायादित्य ने कहा – 'मित्र ! यहीं इस प्रकार का धन का भय प्रत्यक्ष देख लिया, कि तुम्हें देखकर सहसा ऐसी बुद्धि हुई कि-यह चोर आ गया है । अतः इस भय से मैं घबड़ा
प्राकृत गद्य-सोपान
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