________________
पाठ १७ : मित्र का कपट
महानगरी वाराणसी के पश्चिम-दक्षिण दिशाभाग में शालिग्राम नामक गाँव है । वहाँ एक वैश्य जाति का गंगादत्त नामक व्यक्ति रहता था । अनेक धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण से समृद्ध लोगों वाले उस गाँव में वह अकेला ही एक जन्म से दरिद्र था। उसके कपटपूर्ण व्यहार से उसका मायादित्य नाम प्रसिद्ध हो गया । और उसी गाँव में पहले से प्राप्त वैभव वाला स्थाणू नामक एक वरिणक रहता था। किसी प्रकार मायात्यि के साथ उस स्थागू का स्नेह हो गया। उनमें मैत्री हो गयी।
एक बार धन कमाने के लिए एक दिन वे दोनों मंगल-उपचार करके, स्वजन और स्नेहीवर्ग को पूछकर रास्ते का नास्ता लेकर निकल पड़े। तब अनेक पर्वतों, सैकड़ों नदियों से युक्त अटवियों (जगलों) को पारकर किसी-किसी प्रकार वे प्रतिष्ठान नामक नगर को पहुंचे । अनेक धन, धान्य, रत्नों से युक्त महास्वर्ग नगर के समान उस नगर में अनेक प्रकार के वाणिज्यों को किया गया और व्यापारिक कार्यों को करते हुए उन दोनों के द्वारा किसी-किसी प्रकार एक-एक ने पांच-पांच हजार स्वर्ण रत्न कमा लिये।
उन्होंने आपस में विचार किया 'अहो ! जो धन हम चाहते थे वह हमने । कमा लिया है। किन्तु चोरों के उपद्रवों के कारण से अपने देश इसको ले जाना
सम्भव नहीं हैं। इसलिए इस धन से एक हजार स्वर्ण के मोल के पांच-पांच रत्न ले लेते हैं। अपने देश में जाकर वे रत्न बराबर मूल्य में अथवा अधिक मूल्य में बेच दिये जायेंगे ।' ऐपा कहकर प्रत्येक ने हजार स्वर्ण मोल के रत्न ले लिये । इससे एकएक के पास पांच-पांच रत्न हो गये। तब उन दोनों जनों के द्वारा उन दसों रत्नों को एक ही मैल और धूली से धूसरित कपड़े में अच्छी तरह बांध लिया गया। और उन्होंने अपना वेष भी परिवर्तित कर लिया।
उनके द्वारा मुडे सिर करा लिये गए । छाते ले लिये गये। डंडे के अग्रभाग में तुम्बी लटका ली गयी । गेरुए रंग के कपड़े पहिन लिये गये । रस्सी के सींकों से बनी हुई काँवरें लटका ली गयीं । सब प्रकार से दूर जाने वाले तीर्थ-यात्रियों का वेष
164
प्राकृत गद्य-सोपान
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org