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कार है । तुम्हारे सिवाय दूसरा कौन इस व्रत के लिए योग्य है।' ऐसा कहकर तब कुछ दिन व्यतीत हो जाने पर अपने नियम और आचार विस्तार से समझाकर प्रशस्त तिथि, करण, मुहूर्त एवं लगन में उस अग्निशर्मा को तापसदीक्षा दे दी गयी ।
__ महान् तिरस्कार से उत्पन्न अतिशय वैराग्य भावना के कारण उस अग्निशर्मा ने उसी दीक्षा के दिन में ही समस्त तापस लोगों से घिरे हुए गुरु के समक्ष एक महाप्रतिज्ञा की कि-' मैं जीवन-पर्यन्त एक माह के अन्तर से ही भोजन करूंगा।
और पारणा के दिन सर्वप्रथम प्रविष्ट पहले घर से ही लौट आऊँगा। भिक्षा प्राप्त हो अथवा नहीं, दूसरे घर में नहीं जाऊँगा।' और इस प्रकार प्रतिज्ञा लेने वाले तथा उसका उसी प्रकार से पालन करने वाले उस अग्निशर्मा के बहुत से दिन व्यतीत हो गये।
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पाठ १६ : गुणसेन के प्रति निदान
और इधर पूर्णचन्द्र राजा कुमार का विवाह करके उसे राज्य सिंहासन पर बैठाकर कुमुदिनी रानी के साथ तपोवन में रहने चला गया। अनेक सामन्तों के के द्वारा चरगायूगलों को नमन किये जाने वाला, अनेक राजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाने वाला, दशों दिशाओं में प्रसिद्ध निर्मल यश वाला, धर्म, अर्थ एव काम इन पुरुषार्थों का सम्पादन करने वाला वह कुमार गुणसेन महाराजा हो गया।
एक बार वह राजा गुणसेन भक्ति और कौतुक से उस तपोवन को गया । उसने वहाँ बहुत से तपस्वियों एवं कुलपति को देखा । और उसने पद्मासन में बैठे हुए, नयन-युगल को स्थिर किये हुए, विचित्र मन के व्यापारों को शान्त किये हुए, उस प्रकार से कुछ-कुछ ध्यान करते हुए अग्निशर्मा तापस को भी देखा । तब राजा ने कहा-हे भगवन् ! आपकी इस महाकठिन तपश्चर्या के प्रयत्न का कारण क्या है ?' अग्निशर्मा तापस ने कहा-'हे महाप्राणी ! दरिद्रता का दुख, दूसरों से प्राप्त अपमान, कुरूपता और महाराज-पुत्र तथा मेरा कल्याण मित्र गुणसेन (इसका कारण है)
प्राकृत गद्य-सोपान
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