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गाथा - 6. 'पूर्व जन्म में पुण्यकर्म न करने वाले बहुत से लोगों के धिक्कार से पीड़ित और सब लोगों के उपहासयोग्य पुरुष दूसरों के अपमान को सहते हैं ।
7. पूर्वजन्म में मुझ मूढहृदय अधन्य के द्वारा, जो सज्जन पुरुषों के द्वारा आचरित अत्यन्त सुख देने वाला धर्म का आचरण नहीं किया गया है । 8. सो अब पुण्य न करने वालों के इस तीव्र फलविपाक को देखकर मैं परलोक में बन्धु के समान एवं मुनियों के द्वारा सेवित इस धर्म को करूंगा ।
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इस प्रकार सोचकर वैराग्य को प्राप्त वह अग्निशर्मा नगर से निकला ओर एक महीने में उस प्रदेश की सीमा पर स्थित 'सुपरितोष' नामक तपोवन को पहुँच गया। फिर वह तपोवन में प्रविष्ट हुआ । उसने तापसकुल के प्रधान 'आर्जव कोडन्य' को देखा । देखकर उसने उनको प्रणाम किया । ऋषि ने उससे पूछा - 'आप कहाँ से आये हैं ?' तब अग्निशर्मा ने विस्तार से अपना सब वृतान्त उन्हें कह दिया । तब ऋषि ने कहा – 'हे वत्स ! पूर्व जन्मों में किये गये कर्मों के परिणाम के वश से जीव इस प्रकार दूसरों के द्वारा दुख पाने के भागी होते हैं । अतः राज- अपमान से पीड़ितों के लिए, दरिद्रता के दुख से दुखी लोगों के लिए, दुर्भाग्य के कलंक से उदास लोगों के लिए और इष्टजनों के वियोग की अग्नि में जले हुए लोगों के लिए यह आश्रम इस लोक और परलोक में सुख देने वाला तथा परम शान्ति का स्थान है। यहाँ पर
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जिससे अगले जन्म में भी दुर्जन लोगों से समस्त लोगों के द्वारा उपहास किये जानी वाली इस प्रकार की विडम्बना को पुनः प्राप्त न करू ।'
गाया - 10 वनवासी सर्वथा धन्य हैं, जो आसक्तिजनित दुख, लोगों के द्वारा किये गये अपमान और दुर्गति में गमन को नहीं देखते हैं । '
इस प्रकार से उपदेश पाये हुए अग्निशर्मा ने कहा - 'भगवन् ! ऐसी ही बात है, इसमें कोई संदेह नहीं हैं । अतः यदि आपकी मेरे ऊपर अनुकम्पा है और इस व्रत विशेष के लिए में उचित हूँ तो मुझे यह व्रत प्रदान करके अनुग्रहीत करें ।' ऋषि ने कहा- हे वत्स तुम वैराग्यपथ के अनुगामी हो अतः मुझे तुम्हारा अनुरोध स्वी
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प्राकृत गद्य-सोपान
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