________________
पाठ 28 : साह-जीवणं
पाठ-परिचय :
- श्री चन्दनमुनि ने वर्तमान युग में प्राचीन शैली में एक प्रेरक कथानक को लेकर रयरणवालकहा नामक पुस्तक लिखी है। प्राकृत गद्य में लिखी गयी यह कथा रत्नपाल के साहस, पुरुषार्थ एवं उसकी कर्तव्यपरायणता को प्रकट करती है।
इस पुस्तक में स्थान-स्थान पर विभिन्न विषयों पर लेखक ने अपने विचार प्रकट किये हैं। प्रस्तुत गद्यांश में विभिन्न ऋतुओं में गृहस्थों और साधुओं के जीवन में क्या अन्तर होता है, इसका प्रतिपादन किया गया है।
ईसिंहसिम-दंसिप्रधवलदंतपंतिणा राउलेण वाहरिअं- 'ण एत्थ कोइ खेप्रस्स विसयो । अस्थि किमुक्किट्ठ जगणो-जण्याइरित्तं । तेसि सेवा खु देव-सेवा । तेसि दंसरणं खु देव-दंसरणं । तेसि प्राणा कि र देव-पारगा । कि तेण किमि-कोडि गएण कुलिंगालेरण जाएण, जो ण हवइ पिअराण सुहहेऊ ? परंतु ण एयं कज्ज तएजारिसाणं गिहत्थाणं । अस्थि मएजारिसारणं तु वामहत्थलीला अणुसंधारणकज्ज ।
सोमालसेहर ! ण अणुऊलो गिहत्थारण हेमंत-उऊ । जाला पवहइ-अइ सीअलो जगं कंपावेमाणो जडो ऊइणो पवरणो, ताला को सुहिनो निहत्थो गिहायो गीहरइ ? पहिरियणाणुण्णिप्रवासो, पारोग्गिअविसिट्ठ सत्तिदायगोसहमीसिअ-मिट्ठण्णो, दारापुत्तपरिवारिप्रो उवानलं द्विषो वासराइं गमेइ । तत्थ णि प्पिहो झडिलो समरणो तावसो गलि अचीवरो दिनंबरो वा साणंद रुवखमूलम्मि ठिो झारणं झायइ, परमिट्ठि सुमिरइ, छुहं अहिआसे इ सुहंसुहेण सीअालं च जवेइ ।
तहेव उण्हालो वि ण भोईणमणुलोमो। जाहे पतवई अइ तिग्म
प्राकृत गद्य-सोपान
109
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org