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रयणसेहरनिवकहा : जिनहर्षसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना ई० सन् 1430 में चित्तौड में की थी। यह एक प्रेमकथा है। इसमें रत्नशेखर सिंहलद्वीप की राजकुमारी रत्नवती से प्रेम करता है. अनेक कष्ट सहकर उसे प्राप्त करता ह । इसमें राजा का मंत्री मतिसागर सहायक होता है । कथा के दूसरे भाग में सात्विक-जीवन की साधना का वर्णन है । पर्व के दिनों में धर्म-साधना करना इस ग्रन्थ का प्रमुख स्वर है । किन्तु लौकिक पक्ष भी उतना ही सबल है। इस ग्रन्थ की कथावस्तु के आधार पर जायसी के पद्मावत का इसे मल आधार माना जाता है । - प्राकृत के इन कथा-ग्रन्थों के अतिरिक्त गद्य में लिखी गयी अन्य रचनाएं भी उपलब्ध हैं । लगभग 12वीं शताब्दो में प्राचार्य सुमतिसूरि ने जिनस्ताख्यान नामक ग्रन्थ लिखा है । वर्धमानसूरि द्वारा सन् 1083 में लिखित मनोरमाकहा एक सरस कथा है । संघतिलक प्राचार्य ने लगभग 12वीं शताब्दी में पारामसोहाकहा की रचना की है। यह कथा विशुद्ध लौकिक कथा है । इन सब कथा-ग्रन्थों का अभी व्यापक प्रचार नहीं हुआ है । इनकी कथा के सूक्ष्म अध्ययन से भारतीय कथा-साहित्य के कई पक्ष समृद्ध हो सकते हैं । पाइयविनाणकहा : श्री विजयकस्तूरसूरि ने 20वीं शताब्दी में प्राकृत कथाप्रणयन को जीवित रखा है । उन्होंने इस पुस्तक में 55 कथाए लिखी हैं । प्राकृत गद्य में लिखी ये कथाए लौकिक-जीवन और परम्परा के चित्र को उजागर करती हैं। रयणवालकहा : श्री चन्दनमुनि प्राकृत के प्राधुनिक लेखक हैं। उन्होंने इस ग्रन्थ में रत्नपाल की कथा को प्राकृत के प्रांजल गद्य में प्रस्तुत किया है । इस ग्रन्थ को पढ़ने से प्राकृत-कथाओं को समृद्ध परम्परा का आभास हो जाता है। २. प्राकृत चरित-साहित्य :
प्राकृत गद्य का प्रयोग पागम ग्रन्थों और कथा-ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत के चरित ग्रन्थों में भी हुआ है। गद्य-पद्य में मिश्रित रूप से लिखे गये प्राकृत के निम्न प्रमुख चरित ग्रन्थ हैं:
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प्राकृत गद्य-सोपान
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