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कथा एवं धर्मकथा तीनों का समिश्रण इस ग्रन्थ में है। प्रसंगानुसार इसमें अन्य लौकिक कथाएं भी आयी हैं। कुछ पशु-पक्षियों को भी कथाए हैं। समुद्र-यात्रा एवं वाणिज्य-व्यापार की प्रामारिगक जानकारी इस ग्रन्थ से मिलती है । अत: भारत के सांस्कृतिक इतिहास के लिए भी कुवलयमाला महत्त्वपूर्ण साहित्यिक साक्ष्य है ।
कहारयणकोस : मध्ययुग में स्वतन्त्रकथा ग्रन्थों के साथ प्राकृत में कथाओं के संग्रह-ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे थे। देवभद्रसूरि (गुणचन्द्र) ने ई. 1101 में भड़ौच में कहारयणकोस की रचना की थी। इस ग्रन्थ में कुल 50 कथाए है । गृहस्थ धर्म के विभिन्न पक्षों को इन कथाओं के माध्यम से पुष्ट किया गया है। काव्यात्मक वर्णन भी इस ग्रन्थ में हैं। कथाए प्रायः प्राकृत गद्य में कही गयीं हैं और वर्णन पद्यों में किये गये हैं। लौकिक जीवन के भी कई प्रसंग इस ग्रन्थ की कथाओं में मिलते हैं । कथा कहने की शैली विवरणात्मक है। यथा
अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे एरावयखेत्ते कलिंगदेसकुलंगणावयणं व मणोहरवाणियं, कम्मगंथपगरणं व बहुविहपया इपएसगहणं, धण-धनसमिद्ध जयत्थलं नाम खेडं । तत्थ य वथन्वो विसाहदत्तो नाम सेट्ठी । सेणा नाम से भज्जा।
-कथा नं02, पृ 24
कुमारवालपडिबोह : सोमप्रभसूरि ने सन् 1184 में इस ग्रन्थ की रचना की
थी । इस ग्रन्थ में गुजरात के राजा कुमारपालके चरित्र का वर्णन है । किन्तु उसको प्रदान की गयी शिक्षा के दृष्टान्तों के रूप में इस ग्रन्था में कई कथाएं दी गयी हैं। अतः यह चरित-ग्रन्थ न होकर कथा-ग्रन्थ बन गया है । लघु कथानकों एवं आदर्श चरितों का इसमें समन्वय है । यद्यपि इस ग्रन्थ का वातावरण धार्मिक है, फिर भी इसमें काव्यात्मक छटा देखने को मिलती है । कथानों के विकास को जानने के लिए इस ग्रन्थ का अध्ययन उपयोगी है।
प्राकृत गद्य-सोपान
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