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संपन्न समीहियं जाया दिव्वदिट्ठी, उल्लसियं प्रमाणुसोच्चियं वीरियं, समुअण्णच्चिय देहप्पहा, ता किं भणामि तुमं ? को सुविरणे वि तुम मोत्तणो एवंविहं मग्गं परोवयारेक्करसियं पडिवज्जइ ? अहं तुम्ह गुणेहि उवकरणीको ण सक्कुणोमि भासिउं 'गच्छामि' त्ति सकज्जरिगट्ट रया, 'परोपयारत परो सि' त्ति प्रत्थेरणं चेव दिट्ठस्स पुरणरुत्त', 'तुम्हायत्तं जीवियं' ति ण णेहभावोचियं, 'बंधवोसि' त्ति दूरीकरण, णिक्कारणं परोपयारित्तणं, ति अणुवाओ कयग्घलावेसु, 'संभरणीओ अहं' ति श्ररणत्तियादाणं । एवमादि भरिणऊण गो भइरवायरियो सह तेहिं सीसेहिं । *
1. शब्दार्थ :
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अभ्यास
aruकत्ती = प्रातः काल
-
पच्चूस खलीकार्ड : भइयजरण =
मज़ाक करना श्राढत्त fuक्किचरण
भक्तजन
श्रत्थिजरग = याचक
श्रायत्ता
2. निबन्धात्मक प्रश्न :
व्याघ्रचर्म मियकत्ती मृगछाला == प्रारंभ करना संवासिय = युक्त धन रहित सच्छ
निर्मल
निर्भर
प्राणशिया = आज्ञा
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=
1. भैरवाचार्य द्वारा आसन देने पर राजा ने क्या कहा ?
2. राजा को भैरवाचार्य ने क्या कार्य बतलाया ?
3. मन्त्रसाधना पूरी होने पर आचार्य ने किन शब्दों में कृतज्ञता प्रकट की ? 4. पाठ की गाथा नं. 1 एवं 2 का अर्थ समझाकर लिखो ।
=
चप्पनमहापुरिसचरियं (सं.- मुनि पुण्यविजय), वाराणसी, 1961 एवं मुनिचन्दकथानक (सं.--डॉ. के. आर. चन्द्रा), अहमदाबाद, 1973, पृ. 41-421
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प्राकृत गद्य-सोपान
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