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पाठ 20 : चन्दणबाला
पाठ-परिचय:
वर्धमानसूरि ने सन् 1083 में मनोरमाकहा की रचना की थी। इस ग्रन्थ में मनोरमा का चरित प्रमुख है, किन्तु प्रसंगवश कई लौकिक और उपदेशात्मक कथाए भी दी गयी हैं ।
प्रस्तुत कथा भगवान् महावीर की प्रमुख शिष्या चन्दनबाला के जीवन की है। चन्दनबाला वसुमति एक राजपुत्री थी । किन्तु उसके पिता के सेनापति ने अवसर का लाभ उठाकर चन्दनबाला को निराश्रित बना दिया । चन्दनबाला जब चंपा नगरी के बाजार में बेसहारा होकर घूम रही थी तब एक सेठ ने उसकी रक्षा की थी।
वह सेठ चन्दनबाला को पुत्री बनाकर अपने घर ले जाता है । चन्दनबाला वहाँ सबकी सेवा करती है। किन्तु सेठानी मूला उससे ईर्ष्या करने लगती है । अवसर देखकर एक दिन सेठ की अनुपस्थिति में वह चन्दनबाला का सिर मुड़ाकर एवं बेड़ी पहिनाकर उसे एक कोठरी में डाल देती है । सेठ वापिस आकर जब चन्दनबाला को बन्धनमुक्त करने की व्यवस्था करता है, तभी भगवान् महावीर के वहाँ आने पर चन्दनबाला स्वयं बन्धनमुक्त हो जाती है और वह महावीर की शिष्या बन जाती है।
पुच्छिया सेट्टिणा-"पुत्ति ! का तुमं ? कम्मि कुले समुप्पणा ? कस्स वा दुहिया ?' तं सुरिणय विमुक्क-थोरंसुया निरुद्ध-सई परुण्णा वसूमई । सेट्रिणा चिंतियां-"कह उत्तमजणो वसरणाव डिनो वि नियकुलाइयं कहेहि ? प्रलं मह पुच्छिएण ?' भरिणया व पुमई-"पुत्ति ! मा रुयसु । दहिया मह तुम। [पा] सासिया कोमलवयणेहिं । दाऊण जहच्छियां दविण-जायं होढियस्स नीया मंदिरं वसुमई सेट्ठिणा । समाहूया मूला भरिणया य-"पिए ! एसा तृह दुहिया । पयत्त ण पालणीया ।" तीए वि तहेव पडिवणा । विणयसमाराहिय-सेट्ठी-परियणा सुहंसुहेण कालं गमेइ वसुमई ।
प्राकृत गद्य-सोपान
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