SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थ माने जा सकते हैं । टीका साहित्य में नेमिचन्द्रसूरि का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने उत्तराध्ययन-सुखबोधाटीका में कई महत्त्वपूर्ण प्राकृत कथाएं प्रस्तुत की हैं। इस व्याख्या साहित्य की कथाओं का डा. जगदीशचन्द्र जैन ने जो अध्ययन प्रस्तुत किया है, उससे इनके स्वरूप एवं महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। (ग) स्वतन्त्र कथा-ग्रन्थ : तरगवतीकहा : प्राकृत में प्राचीन समय से स्वतन्त्र रूप से भी कथा-ग्रन्थ लिखे गये हैं । पादलिप्तसूरि प्रथम कथाकार हैं, जिन्होंने प्राकृत में तरंगवइकहा नामक बड़ा कथाग्रन्थ लिखा है। किन्त दर्भाग्य से प्राज वह उपलब्ध नहीं है । उसका संक्षिप सार तरंगलोला के नाम से नेमिचन्द्रगणि ने प्रस्तुत किया है। इसको सम्पादित कर डा. एच. सी. भायारणो ने प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में तरंगवतो के आदर्श प्रेम एव त्याग को कथा वरिणत है । वसुदेवहिण्डो : यह ग्रन्य विश्व कथा-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । क्योंकि वसुदेव हिण्डी की कई कथाए विश्व में प्रचलित हुई हैं। संघदासगरिण ने इस ग्रन्थ में वसुदेव के भ्रमण-वृतान्त का वर्णन किया है। प्रसंगवश अनेक अवान्तरकथाएं भी इसमें आयी हैं । इस ग्रन्था का दूसरा खण्ड धर्मदासगरिण के द्वारा रचित माना जाता है, उसका नाम मध्यमखण्ड है । वसुदेवहिण्डी में रामकथा एवं कृष्णकथा के भा कई प्रसंग हैं तथा कुछ लौकिक कथाए हैं। इस कारण इस ग्रन्थ में चरित, कथा और पुराण इन तीनो तत्वों का समावेश हो गया है । इस ग्रन्थ का सांस्कृतिक महत्त्व भी है । इस ग्रन्थ को कुछ कथाओं अथवा घटनाओं को लेकर प्राकृत, अपभ्रश में आगे चलकर कथाएं लिखी गयी हैं। अतः प्राकृत कथा साहित्य का यह प्राधार ग्रन्थ है। समराइच्चकहा : यह प्राकृत कथा साहित्य का सशक्त ग्रन्थ है । प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने लगभग 8वीं शताब्दी में चित्तौड़ में इस ग्रन्थ की रचना की थी। प्राकृत गद्य-सोपान 133 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy