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पाठ 15 : अगिसम्मस्स पराहवं पाठ-परिचय :
आठवीं शताब्दी के कथाकार हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा नामक कथाग्रन्थ चित्तौड़ में लिखा था। इस ग्रन्थ में उज्जैन के राजा समरादित्य और उसके बचपन के साथी अग्निशर्मा के नौ जन्मों का वर्णन है । इस ग्रन्थ में यह बतलाया गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी के प्रति कलुषित भावनाए मन में कर लेता है और उससे बदला लेने की सोचता है तो उसे कई जन्मों तक इसका फल भोगना पड़ता है।
प्रस्तुत गद्यांश में अग्निशर्मा और गुणसेण (समरादित्य) के बचपन की घटनाएं वरिणत हैं । अग्निशर्मा अपनी कुरूपता और निर्धनता के कारण राजकुमार गुणसेन से बहुत अपमान प्राप्त करता है । उससे दुखी होकर वह साधु बन जाने का निश्चय कर लेता है। एक आश्रम में जाकर वह साधु-जीवन व्यतीत करने लगता है। अग्निशर्मा एक माह में एक बार भोजन करने का प्रण करता है । इस प्रकार वह कठोर जीवन व्यतीत करता है ।
अस्थि इहेव जम्बूद्दीवे दीवे, अवरविदेहे वासे, उत गधवलवागार-' मंडियं, नलिरिणवणसंछन्नपरिहासणाहं, सुविभत्ततिय-चउक्क-चच्वरं, भवणेहि जियसुरिन्दभवणसोहं खिइपइट्ठियं नाम नयरं ।
जत्थ विलयाउ कमलाइ कोइलं कुवलयाई कलहंसे । वयणेहि जंपिएण य नयणेहि गईहि य जिरण न्ति ।। 1 ।। जत्थ य नराण वसणं विज्जासु, जसम्मि निम्मले लोहो । पावेसु सया भीरुत्तणं च धम्मम्मि धणबुद्धी ।। 2 ।। तत्थ य राया संपुण्णमण्डलो मयकलंकपरिहीणो। जण-मरण-नयणाणन्दो नामेणं पुण्णचन्दो त्ति ।। 3 ।।
प्राकृत गद्य-सोपान
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