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उस कपिल के बचपने में ही काश्यप मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब उसके मर जाने पर उसका पद राजा के द्वारा अन्य ब्राह्मण को दे दिया गया । वह घोड़े पर छत्र धारण किये हुए वहाँ से निकला । उसे देखकर यशा रोने लगी । कपिल ने (इसका कारण ) पूछा । उसने कहा कि- 'तुम्हारा पिता भी इसी प्रकार की समृद्धि के साथ निकलता था। क्योंकि वह विद्या -सम्पन था । '
वह कपिल कहता है— 'मैं भी पढ़ेगा ।' वह कहती है- 'यहाँ पर तुम्हें ईर्ष्या के कारण कोई नहीं पढ़ायेगा । तुम श्रावस्ती चले जाओ, वहाँ तुम्हारे पिता का मित्र इन्द्रदत्त नामक उपाध्याय है । वह तुम्हें सब सिखा देगा ।' कपिल श्रावस्ती चला गया और उस उपाध्याय के पास पहुँचा । उसके चरणों पर गिर पड़ा। उसने पूछा- 'तुम कहाँ से ? कपिल ने सब कुछ कह दिया। हाथ जोड़कर विनयपूर्वक उसने कहा - 'हे भगवन् ! पिता के निधन हो जाने से आपके चरणों में मैं विद्या के लिए आया हूँ । इसलिए विद्या पढ़ाकर मेरे ऊपर कृपा करिए ।'
पुत्र की तरह स्नेह धारण करते हुए उपाध्याय ने कहा - 'पुत्र ! विद्याग्रहण करने में तुम्हारा प्रयत्न उचित है । विद्या से रहित मनुष्य पशु समान होता है। इस और पर लोक में विद्या ही कल्याण करने में साधनरूप है । इसलिए विद्या पढ़ो । विद्या पढ़ने के सब साधन तुम्हें प्राप्त हैं, किन्तु परिग्रहरहित होने के कारण मेरे घर में भोजन नहीं है। उसके बिना पढ़ना नहीं हो सकेगा ।'
कपिल ने कहा - 'भिक्षावृत्ति से भी भोजन मिल जायेगा ।' उपाध्याय ने कहा- 'भिक्षावृत्ति से पढ़ना संभव नहीं है । इसलिए आओ, तुम्हारे भोजन की व्य वस्था के लिए किसी धनी के यहाँ चलते हैं।' वे दोनों वहाँ के निवासी शालिभद्र धनी के यहाँ गये । उसे आशीर्वाद दिया । धनी ने ( आने का ) प्रयोजन पूछा । उपाध्याय ने कहा 'यह मेरे मित्र का पुत्र कौशाम्बी से विद्या पढ़ने के लिए आया है । तुम्हारी भोजन की व्यवस्था में मेरे पास यह विद्या पढ़ेगा । विद्या के साधन जुटाने से तुम्हें बड़ा पुण्य होगा ।' उस धनी ने सहर्ष इसे स्वीकार कर लिया । वह कपिल वहाँ भोजन करता हुआ पढ़ने लगा । एक नौकरानी उसे भोजन परोसती थी ।
प्राकृत गद्य-सोपान
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