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पाठ 7 : असंतोसस्स दोसो
पाठ-परिचय :
प्राकृत भाषा के जो आगम ग्रन्थ प्राप्त होते हैं उनमें उत्तराध्ययन एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की व्याख्या के लिए जिनदासगणि महत्तर ने उत्तराध्ययनरिण की रचना लगभग 6-7 वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रन्थ में प्राकृत गद्य में कई कथाएं हैं । उन्हीं में से यह कथा यहाँ प्रस्तुत क गयी है।
___ इस कथा में दो पड़ोसी वृद्धा स्त्रियों के ईर्ष्याभाव को प्रकट किया गया है। संतोष न होने से एक बूढ़ी स्त्री अपने देवता से ऐसा वर माँगती है कि उससे दुगना नुकसान उसकी पड़ोसिन को हो। इस दुष्ट प्रवृत्ति से वह स्वयं लूली-लंगड़ी हो जाती
एगा छारण-धारिया थेरी होत्था। तीए एगो बाणमंतरो तोसियो। तेरा थेरि वरो दिनो। सा जागिण छाणाणि पल्लत्थेइ ताणि रयणाणि होन्ति । सा थेरी इस्सरी जाया । तीए चाउस्सालं घरं कारियं ।
थेरीए समोसियाए पुच्छियं- 'किमयं ?' ति । तीए भरिणयं-जहा तहं । ताहे सा वि एवं चेव वाणमंतरं पाराहिउं पवत्ता। पाराहियो वाणमंतरो भरण इ- 'किं करेमि ?' तीए भणियं- 'जइ पसानो ता समोसियथेरीए जो वरो दिन्नो सो मम दुगुणो होउ ।'
वाणमंतरेण भरिणयं-- ‘एवं होउ ।'
जं जं पढम थेरी चितेइ तं तं समोसियाए थेरीए दुगुणं होइ। तो तीए पढम थेरीए नायं जहा-- 'एयाए वरो लद्धो ममाहितो दुगुणो।'
सा इमं जारिणऊरण तं असहती पुणो तं देवं भणइ-- 'मम चाउस्सालं गिह फिट्टउ । तण-कुडिया मे भवउ ।' तो इएरीए थेरीए दो तरणकूडियानो निम्मियानो । चाउस्सालागि घराणि फिट्टारिण।
'प्राकृत गद्य-सोपान
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