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पाठ 15 : गुणसेगं पड़ नियाणो
पाठ-परिचय :
श्राचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित समराइच्चकहा में जो अग्निशर्मा एवं गुणसेन की कथा है, वह कई जन्मों तक चलती है । प्रथम जन्म में अग्निशर्मा एवं गुणसेन बचपन में मित्र थे । किन्तु गुरगसेन के अपमान से दुखी होकर अग्निशर्मा साधु बन जाता है । और गुण सेन बड़े होने पर राजा बन जाता है ।
इस गद्यांश में राजा गुणसेन और तापस अग्निशर्मा के पुनः मिलन तथा अनजाने में ही हुए अपमान का प्रसंग वर्णित है । राजा गुणसेन आश्रम में जाकर विनयपूर्वक अग्निशर्मा को अपने महल में भोजन लेने का निमन्त्रण देकर आता है । अग्निशर्मा भी बचपन के अपमान को भूलकर इस निमन्त्रण को स्वीकार कर लेता है ।
किन्तु अग्निशर्मा जब भोजन करने के लिए महल में पहुंचा तो उस दिन राजा गुणसेन के सिर में तीव्र वेदना होने से वहाँ किसी ने अग्निशर्मा की तरफ ध्यान नहीं दिया। वह वापिस लौटकर अपनी तपस्या में लीन हो गया । किन्तु राजा के द्वारा क्षमा मांगने पर वह दूसरे माह में महल में भोजन करने गया । उस दिन राजा शत्रुसेना से लड़ने चला गया । अतः अग्निशर्मा को भोजन नहीं मिला। किसी प्रकार बहुत मनाकर राजा तीसरे माह में भोजन के लिए उसे बुला गया । किन्तु उस दिन राजा के यहाँ पुत्र जन्म होने के कारण अग्निशर्मा को फिर भोजन नहीं मिला । तब उसने समझा कि यह गुणसेन बचपन की तरह अभी भी मेरा अपमान करने के लिए महल में बुलाता है । इस कारण अग्निशर्मा गुणसेन के प्रति दुर्भावना से भर जाता है । वह अपने मन में यह संकल्प करता है कि मैं जन्म-जन्मांतर तक इस गुरगसेन को इस अपमान का बदला चुकाऊँ । यही निदान उसके दुखों का कारण बनता है ।
इय पुण्णचन्दो राया कुमारगुणसेणं कयदारपरिग्गहं रज्जे अभि सिंचिऊण सह कुमुइणीए देवीए तवोवरणवासी जाओ । सो य कुमार - गुरणसेणो
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प्राकृत गद्य-सोपान
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