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पाठ २४ : विद्य ुत्प्रभा की बहादुरी और करुणा
यहाँ पर ही जम्बूद्वीप से अलंकृत, द्वीप के मध्य में स्थित, अखण्ड छह खण्डों से सुशोभित, बहुत सम्पूर्ण लक्ष्मी का निवास स्थान कुट्ट देश है । वहाँ आनंदित एवं क्रीड़ा करने वाले लोगों से मनोहर, अप्सराओं की तरह गौरियों से सुन्दर बलासक नामक गांव है। वहाँ पर चारों दिशाओं में एक योजन तक के भूमिभाग में कभी भी वृक्ष आदि नही उगते थे ।
ऐसे उस गाँव में चारों वेदों में पारंगत, छह कर्मों का साधक अग्निशर्मा ब्राह्मण रहता था । उसके शील आदि गुणों की प्राप्ति से सुशोभित अग्निशिखा नामक पत्नी थी । परम सुख से भोगों को भोगने वाले उनके कालक्रम से एक पुत्री उत्त्पन्न हुई । माता-पिता के द्वारा उसका नाम विद्युत्प्रभा रखा गया ।
गाथा - 1. जिसके चंचल नयनों के सामने नीलकमल नौकर था ( शोभा रहित था ) तथा जिसके मुख की निर्मल शोभा को सदा पूर्ण रूप से कामदेव धारण करता था ।
2. जिसकी नाक की धार के सामने तोते की चोंच गुणहीन एवं व्यर्थ थी तथा जिसके रूप को देखकर अप्सराओं में भी निश्चित रूप से (लोगों के) आदर ( रुचि ) शिथिल हो जाते थे ।
तब क्रम से उस विद्य ुत्प्रभा के आठ वर्ष के हो जाने पर दुर्भाग्यवश रोग की व्याधि से ग्रसित उसकी माता मृत्यु को प्राप्त हो गयी । तब से वह घर के समस्त कार्यों को करती थी । प्रात:काल में उठकर गायों का दोहन कर, घर की सफाई कर, गायों को चराने के लिए बाहर जाकर फिर से दोपहर में गोदोहन आदि कर, पिता के लिए देवपूजा, भोजन आदि के कार्य कर और खाकर फिर से वह गायों को चराकर संध्या में घर आकर सांयकालीन करने योग्य कार्यों को करके क्षणमात्र के लिए नींद का सुख लेती थी । इस प्रकार से प्रतिदिन करती हुई गृहकार्यों से पीड़ित व दुखी वह एक दिन अपने पिता को कहती है- 'हे पिताजी ! मैं गृहकार्यों से अत्यन्त दुखी हो गयी हूँ । इसलिए कृपा कर आप दूसरी पत्नी ले आयें ।'
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प्राकृत गद्य-सोपान
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