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पाठ १४ : शिल्पी कोक्कास
इसके बाद वह कोक्कास पड़ोस में रहने वाले शास्त्र पढ़े हुए शिल्पी बढ़ई के घर जाकर दिन व्यतीत करता । उस शिल्पी के पुत्र नाना प्रकार के काष्ठकर्म सीखते थे। किन्तु उस शिल्पी पिता के द्वारा सिखाये जाने पर भी ( शिक्षा ) ग्रहण नहीं करते थे । तब उस कोक्कास के द्वारा उन्हें कहा जाता - 'ऐसा करो तो ऐसा होगा' यह सुनकर तब उस आचार्य ने विस्मित हृदय से कहा - 'पुत्र ! तुम उपदेश सीखो। मैं तुम्हें सिखाऊँगा ।' तब कोक्कास ने कहा - 'स्वामी ! जैसी आपकी आज्ञा ।' ऐसा कहकर तब से वह सीखने में लग गया । आचार्य के सिखाने के गुण से सब प्रकार का काष्ठकर्म वह सीख गया। गुरु की आज्ञा से निपुरग वह कोक्कास जहाज पर चढ़कर ताम्रलिप्ति वापिस आ गया ।
वहाँ शान्ति से समय व्यतीत हो रहा था। तब उसने अपनी जीविका के उपाय के लिए राजा को पता कराने के लिए एक वपोत विमान का जोड़ा बनाया । वे कपोत प्रतिदिन जाकर छत पर सूख रहे राजा धान को लेकर आ जाते । तब रक्षकों ने धान को चोरी जाते हुए देखकर शत्रु का दमन करने के लिए राजा को निवेदन किया । राजा ने मन्त्री को बुलाकर कहा - 'पता लगाओ' ।
तब उन नीतिकुशलों ने आकर राजा को निवेदित किया कि -' 'देव ! कोक्कास के घर का यन्त्र कपोतों का जोड़ा आकर (धान्य) ले जाता है । राजा ने आदेश दिया- 'उसको पकड़कर लाओ'। ऐसा कहने पर वह कोवकास लाया गया और उससे पूछा गया । उसने सब कुछ पूरी तरह राजा को कह दिया ।
तब संतुष्ट राजा के द्वारा कोक्कास का सम्मान किया गया और उसे कहा गया --- 'आकाश में जाने के लिए यन्त्र तैयार करो। उस विमान के द्वारा हम दोनों जनें इच्छित स्थान को जाकर वापिस आते हैं । तब कोक्कास ने राजा की आज्ञा के साथ ही यन्त्र तैयार कर दिया। राजा और वह उस पर चड़े तथा इच्छित स्थान को कर वापिस आ गये । इस प्रकार से समय व्यतीत होता रहा ।
प्राकृत गद्य-सोपान
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