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चरियं: यह ग्रन्थ लगभग 12वीं शताब्दी में चन्द्रावती नगरी
(बू) में लिखा गया था। इसके रचयिता नेमिचन्द्रसूरि प्राकृत के प्रसिद्ध कथाकार हैं । इस ग्रन्थ में रत्नचूड एवं तिलकसुन्दरी के धार्मिक- जीवन का वर्णन है । किन्तु उनके पूर्वजन्मों का वर्णन करते समय ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ को मनोरंजक और काव्यात्मक बना दिया है। इस ग्रन्थ की कथाए लौकिक एवं उपदेशात्मक हैं। इसका प्राकृत गद्य प्रांजल एवं समासयुक्त है ।
सिरिपासनाहचरिथं : इस ग्रन्थ की रचना देवभद्रसूरि ( गुणचन्द्र ) नेई. सन् 111 में की थी। इसमें पार्श्वनाथ के जीवन का विस्तार से वर्णन है । पूर्वभवों के प्रसंग में मनुष्य जीवन की विभिन्न वृत्तियों का इसमें अच्छा चित्रण हुआ है । अवान्तर कमाए इस ग्रन्थ के कथानक को रोचक बनाती हैं ।
महावीरचरियं: ई० सन् 1082 में गुरणचन्द्र ने मैं, की थी । इस ग्रन्थ में भगवान् महावीर के किया गया है । यह ग्रन्थ गद्य और पद्य में वर्णनों के लिए यह ग्रन्थ प्रसिद्ध है ।
इस प्रकार प्राकृत चरित साहित्य ने भी प्राकृत गद्य साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।
३. प्राकृत नाटक साहित्य :
इस ग्रन्थ की रचना छत्रावली जीवन को विस्तार से प्रस्तुत लिखा गया है । काव्यात्मक
प्राकृत भाषा में काव्य एवं कथा ( चरित) के कई ग्रन्थ उपलब्ध हैं । साहित्य की एक तीसरी विधा भी है- नाटक | नाटक जन-जीवन का प्रतिबिम्ब होता है । उसकी वेषभूषा, रहन-सहन, संस्कृति आदि नाटकों में प्रस्तुत की जाती है । अतः जनभाषा प्राकृत को भी नाटकों में उपस्थित करने के लिए प्राचीन नाटकों के पात्र प्राकृत में बातचीत करते हैं । भरतमुनि
- कई प्रकार के रूपकों (नाटकों) का उल्लेख किया हैं । उनमें से कईप्रहसन, भारण, सट्टक, रासक आदि प्राकृत भाषा में रहे होंगे । किन्तु ग्राजः वे
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प्राकृत गद्य-सोपान
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