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पाठ 14 : सिप्पी कोक्कासो
पाठ-परिचय :
संघदासगरिण द्वारा रचित वसुदैवहिण्डी नामक प्राकृत कथा-ग्रन्थ में तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित भी कई कथाए हैं। उस समय काष्ठकला इतनी उन्नत थी कि लकड़ी के विमान बनाकर उन्हें आकाश में उड़ाया जा सकता था।
प्रस्तुत कथा का नायक कोक्कास भी इसी प्रकार का कुशल शिल्पी था। उसने राजपुत्रों के साथ रहते हुए अपनी कुशाग्र बुद्धि से एक कलाचार्य से काष्ठकला सीख ली थी। कोक्कास ने एक यन्त्रकपोत विमान बनाया था, जिसमें उसके साथ बैठकर गजा भ्रमण करता था। उस विमान में चालक के साथ एक व्यक्ति ही बैठ सकता था। किन्तु एक दिन रानी भी अपनी हठ से उसमें बैठ गयो । इससे वह विमान मार्ग में टूटकर गिर पड़ा। कोक्कास की बात न मानने पर राजा-रानी दोनों दुखी हुए।
अह सो कोक्कासो सएज्झयस्स सत्थसंजत्तयकुलस्स कोट्ठागस्स घरं गंतूण दिवगं खवेइ । तस्स य पुत्ता नागाविहाई कम्माइं सिक्खंति । तेण य पिउणा सिक्खाविज्जंता न गेण्हंति । ततो तेरण कोक्कासेण भरिणया-'एवं करेह एवं होउ' त्ति । ततो तेण आयरिएण विम्हियहियएण भणियो-'पुत्त! सिक्ख उवएसं ति । अहं ते कहेहामि ।' तो तेण भरणपो-'सामि ! जहा प्राणवेह' ति । ततो सिक्खिउं पयत्तो। पायरिय-सिक्खागुणेणं सव्वं कटुकम्म सिविखयो। निष्फण्णो य गुरुजणारगुण्णाम्रो पुणरवि सो वहणमारुहिऊरण तामलित्ति गतो।
तत्थ य खामो कालो वट्टइ । ततो तेरण अप्पणो जीवणोवायनिमित्त रण्णो जाणावरणत्थं सज्जियं कवोयजुवलयं । ते य कपोइया गंतूण पइदिवसं प्रायासतले सुवकमारणं रायसंतियं कलमसालि चित्त ण एति । ततो रक्ख
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प्राकृत गद्य-सोपान
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