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(ख) प्राकृत गद्य - संग्रह
पाठ 5 : विज्जाविहीणो नस्सह
पाठ परिचय :
प्राकृत के आगम ग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र की व्याख्या करने के लिए 12 वीं शताब्दी के विद्वान् नेमिचन्द्रसूरी ने सुखबोधाटीका लिखी है । इसमें कई सुन्दर कथाएँ हैं । जर्मनी के विद्वान् हर्मन जैकोबी ने इस ग्रन्थ की कथाओं का संग्रह प्रकाशित किया था। मुनि जिनविजय ने 'प्राकृत कथा - संग्रह' में इस टीका की कुछ कथा प्रस्तुत की हैं ।
इस कथा में एक अज्ञानी ग्रामीण विद्या-युक्त घड़े को सिद्ध पुरुष से मांग लेता है । वह सोचता है कि इस घड़े से वह सब वस्तुएँ प्राप्त कर लेगा । किन्तु उसने इस घड़े को बनाने की विद्या नहीं सीखी थी । अतः जब उसकी असावधानी से वह घड़ा फुट गया तो वह किसान बहुत दुखी हुआ ।
एगो गोहो अभग्ग - सेहरो प्रईव - दोगच्चेण बाहियो । किसिकम्माई करेंतस्स वि तस्स न किंचि फलइ । तम्रो वेरग्गेण निग्गश्रो हाम्रो लग्गो पुहई हिंडिउं । कुणइ अरोग - धरणोवज्जरगोवाए, परं न किंचि संपज्जइ । तो सो निरत्यय- परिब्भमणेण निव्विण्णो पुणरवि घरं पडिरिणयत्तो ।
एम्मिगामे देवालए रति वासोवगयो । ताव देवालयाओ एगो पुरिसोनिग्गो चित्त - घड - हत्थ - गयो । सो एग-पासे ठाइऊरण तं चित्त-घडं पूइऊण भरगइ - 'लहुं मे परम रमणिज्जं वासहरं सज्जेहि ।' तेण तक्खरणमेव कयं । एवं समरणासण-धरण-धन्न- परियरणभोग - साहरणाई कारिनो । एवं जं जं भरणइ तं तं करेइ चित्त घडो जाव पहाए पडिसाहरइ ।
तेगा गोहेण सो दिट्ठो । पच्छा सो चितेइ - " किं मज्भं बहुए
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प्राकृत गद्य-सोपान
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