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________________ पाठ ८ : मेरुप्रभ हाथी की अनुकंपा तब तुम हे मेघ ! पूर्व जन्म में चार दांतों वाले मेरुप्रभ नाम के हाथी हुए । एक बार उस जंगल की आग को देखकर तुम्हें यह इस प्रकार का संकल उत्पन्न हुआ'मेरे लिये यह श्रेयष्कर है कि इस समय गंगा महानदी के दक्षिणी तट पर विन्ध्याचल की तलहटी में जंगल की अग्नि से रक्षा करने के लिए अपने झुड के साथ एक बड़ा मंडल (रक्षा का बड़ा मैदान) बनाऊँ ।' ऐसा (विचार) करके इस प्रकार निरीक्षण करते हो । निरीक्षण करके सुखपूर्वक विचरण करते हो। किसी अन्य समय क्रमशः पांच ऋतुए व्यनीत हो जाने पर ग्रीष्मकाल के अवसर पर जेठ के महिने में पेड़ों की रगड़ से उत्सन्न अग्नि के फैल जाने पर मृग, पशु, पक्षी तथा सरकने वाले प्राणियों के विभिन्न दिशाओं पर दौड़ने पर उन बहुत से हाथियों के साथ (तुम भी) जिस ओर वह मंडल था उसी ओर जाने के लिए दौड़े। उस मण्डल में अन्य बहुत से सिंह, बाघ, भेड़िया, चीते, रीछ, तरच्छ (?) पाराशर, शरभ, श्रृगाल, बिडाल, कुत्ते , कोल (सुअर), खरगोश, लोमड़ी, चित्र ओर चिल्लल आदि अग्नि के भय से घबराकर पहले ही आ घसे थे और एक साथ बिलधर्म के अनुसार (कम स्थान पर अधिक प्राणी ठहराने की तरह) ठहरे थे। तब हे मेघ ! तुम भी जहाँ वह मंडल था, वहाँ आये और आकर उन बहुत से सिंहों से लेकर चिल्ललों आदि के साथ एक जगह बिलधर्म से ठहर गये । तब तुमने- 'पैर से शरीर खुजाऊँगा' ऐसा सोचकर एक पैर ऊपर उठाया, इसी समय उस खाली हुई जगह में अन्य बलवान प्रागियों द्वारा धकियाया हुआ एक खरगोश प्रविष्ट हो गया। तुमने शरीर खुजाकर फिर से पैर को नीचे रखूगा' ऐमा सोचकर नीचे घुसे हुए उस खरगोश को देखा । यह देखकर (दो इन्द्री आदि वाले) प्रारियों की अनुकंपा से, (वनस्पति आदि) भूतों की अनुकंपा से, (स्थावर) सत्त्वों की अनुकंपा से तुमने वह पैर अधर में ही उठाये रखा, उसे नीचे नहीं रखा । (अन्यया वह खरगोश मर जाता)। 146 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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