________________
पाठ ७ : असंतोष का दुष्परिणाम
एक कंडे पाथने वाली बुढ़िया थी । उसने एक व्यंतर को प्रसन्न किया । उस व्यंतर ने उसे वर दिया कि वह जितने कन्डे पाथेगी वे रत्न हो जायेंगे । वह बुढ़िया धनवान हो गयी । उसने चार मंजिल का मकान बनवा लिया |
बुढ़िया की पड़ोसिन ने पूछा- 'यह सब क्या है ?' उसने सब कुछ बता दिया । तब वह पड़ोसन भी उसी व्यंतर को पूजने में लग गयी । पूजित व्यंतर पूछता है- 'क्या करू ँ ?' उसने कहा- 'यदि प्रसन्न हो तो पड़ोसिन बुढ़िया के लिए जो वरदान दिया जाय वह मेरे लिए दुगुना हो जाय ।'
व्यंतर ने कहा - 'ऐसा ही हो ।'
जो जो पहली बुढ़िया मांगती वह सब पड़ोसिन बुढ़िया के लिये दुगुना हो जाता । तब उस पहली बुढ़िया ने जाना कि इसने मुझसे दुगुना वरदान प्राप्त कर लिया है ।'
वह यह जानकर उसे न सहन करती हुई उस देवता को कहती है- 'मेरा चार मंजिल का मकान नष्ट हो जाय । मेरी घास की कुटिया हो जाय । तत्र दूसरी बुढ़िया के दो घास की कुटियां बन गयीं। चार मंजिल वाले मकान नष्ट हो गये ।
पहली बुढ़िया फिर माँगती है- 'मेरी एक आंख कानी हो जाय ।' दूसरी बूढ़ी की दोनों आँखें कानी हो गयीं ।
फिर वह पहली बूढ़ी मांगती है- 'मेरा एक हाथ हो जाय ।' पड़ोसिन के दोनों हाथ नष्ट हो गये । फिर वह सोचती है- 'मेरा एक पैर हो जाय ।' पड़ोसिन बुढ़िया के दोनों पैर नष्ट हो गये । वह गिर पड़ी ।
गाथा - 'थोड़ी लक्ष्मी से संतोष कर लो, किन्तु अधिक लक्ष्ती की चाह मत करो । afreeमृद्धिको चाहती हुई बुढ़िया ( पड़ोसिन) ने अपने को नष्ट कर लिया।
प्राकृत गद्य-सोपान
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
COO
145
www.jainelibrary.org