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________________ तब तुमने उस प्राणियों की अनुकंपा और सत्त्वों आदि की अनुकंपा से संसार बन्धन को कम किया और मनुष्य-आयु का बन्ध किया । तब वह जंगल की अग्नि अढ़ाई दिन-रात तक उस वन को जलाती रही। जलाकर (वह दावानल) पूरी हो गयो, उपरत हो गयी, उपशान्त हो गयी और बुझ गयो । तब वे बहुत से सिंह, चिल्लाल आदि प्राणी उस वन की अग्नि को पूरा हुआ, बुझा हुआ देखते हैं । देखकर अग्नि के भय से मुक्त हुए । भूख और प्यास से पीड़ित, दुखी वे पशु उस मंडल से निकल जाते हैं । निकलकर सब ओर जाकर फैल गये । _____ तब तुम हे मेघ ! जीर्ण, जरा से जर्जरित शरीर चाले, शिथिल एवं सिकुड़ने वाली चमड़ी से च्याप्त शरीर वाले, दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, आधार रहित निर्बल, सामर्थ्यरहित, चलने-फिरने में असमर्थ ठठ की भांति हो गये । 'मैं वेग से चल्गा' ऐसा सोचकर ज्योंहि तुमने पैर पसारा कि बिजली से आघात पाये हुए रजतगिरि के शिखर के समान सभी अंगों से तुम धरती पर धड़ाम से गिर पड़े। तब तुम्हारे शरीर में बेदना उत्पन्न हुई । तीन दिन-रात तक उस वेदना को भोगते हुए रहे । तब एक सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी नामक रानी की फूख में कुमार के रूप में प्रविष्ट हुए। 000 पाठ ६: नंद मणिकार की जन-सेवा पुष्करिणी तत्पश्चात् नंद श्रेणिक राजा से आज्ञा प्राप्त करके प्रसन्न और संतुष्ट होता हुआ राजगृह नगर के बीचोंबीच से निकला । निकलेकर वास्तुशास्त्र के पाठकों द्वारा पसंद किये गये भूमिभाग में नन्दा पुष्करिणी (वावड़ी) खुदवाने में प्रवृत्त हो गया। प्राकृत गद्य-सोपान 147 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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