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पैशाची
_पैशाची का समय ईसा की दूसरी से पांचवीं शताब्दी तक माना गया है। इसके पूर्व की पैशाची के कोई उदाहरण साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। पैशाची भाषा किसी प्रदेश विशेष की भाषा नहीं थी, अपितु भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहने वाली किसी जाति विशेष की भाषा थी, जिस कारण इसका प्रचार कैकय, शूरसेन और पांचाल प्रदेशों में अधिक हमा है । ग्रियर्सन इसे पश्चिम पंजाब और अफगानिस्तान की भाषा मानते हैं । पैशाची में वर्ण परिवर्तन बहुत होता है; यथा--गकनं--गगनम् मेखो-मेघः, राचा-राजा, पंचा+-प्रज्ञा, सतनं-सदनम, कच्चं कार्य प्रादि ।
पैशाची भाषा में गुणाढ्य का बृहत्कथा नामक ग्रन्थ लिखे जाने का उल्लेख है । उसके कथा के कई रूपान्तर अाज उपलब्ध हैं। अपभ्रंश
महाराष्ट्री प्राकृत जब धीरे-धीरे केवल साहित्य की भाषा बनकर रह गयी तब जन भाषा के रूप में जो भाषा विकसित हुई उसे विद्वानों ने अपभ्रंश भाषा' कहा है । इस अपभ्रश में 7 वीं शताब्दी से 15 वीं शताब्दी तक पर्याप्त साहित्य लिखा गया है । अपभ्रंश भाषा प्राकृत और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है ।
२. प्राकृत गद्य साहित्य की रूपरेखा
प्राकृत भाषा में ई० पू० छठी शताब्दी से साहित्य की रचना होने के उल्लेख हैं। भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिये थे, उनका संकलन पद्य एवं गद्य दोनों में किया गया है । अतः रचना की दृष्टि से पागम प्राकृत साहित्य प्राचीन है । प्राकृत गद्य के प्राचीन नमूने इस पागम साहित्य में उपलब्ध हैं । छोटे-छोटे वाक्यों, सूक्तियों से प्रारम्भ होकर समासयुक्त शैलो में बड़े. बड़े गद्य भी प्राकृत आगम के ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।
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प्राकृत गद्य-सोपान
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