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तब राजा ने कहा- 'भगवन् आपका मैं अनुग्रहीत हूँ । यह आप जैसे निःस्वार्थी वत्सलता वालों के अनुरूप ही है ।' ऐसा कहकर और अग्निशर्मा को प्रणाम कर राजा वापिस लौट गया। अग्निशर्मा ने भी तपोवन में जाकर कुलपति को सारा वृतान्त कह दिया ।
तदनन्तर प्रतिदिन वैराग्य की ओर बढ़ने वाले राजा के द्वारा सेवा किये जाते हुए अग्निशर्मा का वह एक माह पूरा हुआ। तथा राजा के सैकड़ों मनोरथों से वह पारणा का दिन आया । और उस पारणा के दिन राजा गुणसेन की रानी वसन्तसेना ने पुत्र को जन्म दिया । तब राजा के आदेश से नगर में महोत्सव मनाया जाने लगा । इस प्रकार रानी के पुत्रजन्म के अभ्युदय के आनन्द से अत्यन्त मस्त राजा के साथ राजा के सेवकों के होने पर पारणा के लिए राजकुल में प्रविष्ट अग्निशर्मा को वचनों से भी किसी के द्वारा नहीं पूछे जाने पर अशुभकर्मों के उदय से आ ( दूषित ) ध्यान को प्राप्त वह अग्निशर्मा शीघ्र ही वहाँ से निकल गया ।
तब अग्निशर्मा ने सोचा- 'अहो ! यह राजा बचपन से ही मेरे प्रतिकूल एवं बैरभाव रखने वाला है । उसके अत्यन्त रहस्यपूर्ण आचरण को देखो तो सही, मेरे आगे तो मनोनुकूल बातें करके क्रिया में विपरीत आचरण करता है!' इस प्रकार से चिन्तन करता हुआ वह नगर से निकल गया ।
इसके बाद अज्ञान के दोष से पारमार्थिक मार्ग का चिन्तन न करने से वह अग्निशर्मा बुरी भावनाओं ( कषायों ) द्वारा जकड़ लिया गया । उसकी परलोकभावना चली गयी, धर्मश्रद्धा नष्ट हो गयी, समस्त दुखरूपी वृक्ष के बीज की तरह अमैत्री उत्पन्न हो गयी और उसे शरीर को पीड़ा देने वाली अत्यन्त भूख लगी । वह भूख से तिलमिला उठा । तब
गाथा - 1.
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प्रथम परीषह (भूख के दुख ) से आक्रान्त, अज्ञान और क्रोध के वशीभूत उस मूढहृदय अग्निशर्मा के द्वारा यह घोर निदान (संकल्प) किया
गया
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प्राकृत गद्य-सोपान
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