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________________ तइअपुत्तलिगाए कण्णं पक्खित्ता सलागा बाहिरं न निग्गया, परंतु हियए प्रोइण्णा, सा एवं उवदिसइ-- “केवि भब्वजीवा मम सरिच्छा हवंति, जे उ परलोगहियगरवयणं उवउत्ता सम्म सुरणंति । धम्मकज्जेसु जहसत्ति पवदृते, एरिसा सोयारा तइअपुत्तलिगाए समारणा नायव्वा' तो मए तइअपुत्तलिगाए मुल्लं लक्खरूवगं ति जारणाविनं। एवं कालीदासस्स वयणं सोच्चा भोयनरिंदो प्रन्ने वि य पंडिआ संतुट्ठा । सो वेएसियो पराइओ समारणो त चंदगलक्खं नरिंदग्गो ठवेइ । राया तं सनं कालिदासस्स अप्पेइ ।* I. शब्दार्थ : बेएसिमो = विदेशी विउसा = विद्वान करणट्ट = करने के लिए उइन = उचित माउ = जानने के लए तीर = समर्थ जय = संसार परिसा = सभा धिद्धि = धिक्कार गच्चा = जाकर कवडिप्रा = कौड़ी सोच्चा = सुनकर अच्छेरमग्गा= आश्चर्य युक्त किन = कार्य सोपारा = श्रोता मोइण्णा = उतर गयी उवउत्त = सावधान सम्म = अच्छी तरह * पाइयविनाणकहा (सं०-जयचन्द्रविजय), अहमदावाद, 1967, पृ० 77-80 । प्राकृत गद्य-सोपान 103 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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