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तब मैंने कहा' हे भगवन् ! आपके इस आदेश से मैं अनुग्रहीत हूँ। तो कहाँ पर और किस दिन मुझे क्या करना है ? ऐसा आप आदेश करें। उसके बाद ही जटाधारी ने कहा कि-'हे महाभाग ! इसी कृष्ण चतुदर्शी को तुम्हें हाथ में तलवार लिये हुए नगर के उत्तर की ओर के बगीचे में अकेले श्यमशान भूमि में रात्रि के एक पहर के बीत जाने पर आना है । वहाँ पर मैं तीन जनों के साथ बैठा हुआ मिलूंगा।' तब मैंने कहा-'ऐसा करूंगा।'
मन्त्र के सिद्ध हो जाने के अन्त में भैरवाचार्य ने कहा 'हे महाभाग ! तुम्हारी कृपा से मन्त्र सिद्ध हो गया । मन की इच्छा पूरी हो गयी, दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी,मानुषोत्तर पराक्रम प्राप्त हो गया है, अन्य प्रकार की देहप्रभा भी उत्पन्न हो गयी है । अत: आपके उपकार के लिए क्या कहूँ ? परोपकार करने में ही लगे हुए तुम्हें छोड़कर दूसरा कौन व्यक्ति स्वप्न में भी इस प्रकार के मार्ग को स्वीकार कर सकता है ? मैं तुम्हारे गुणों से उपकृत हो गया हूँ। कहने में समर्थ नहीं हूँ कि 'जा रहा हूँ' यह स्वार्थ पर की पराकाष्ठा होगी। 'परोपकार करने में तुम तत्पर हो' ऐसा कहना प्रत्यक्ष ही परोपकार देख लेने वाले के लिए यह पुनरोक्ति होगी। 'तुमने मुझे जीवन दिया है' स्नेहभाव से यह कहना उचित नहीं है । 'तुम बान्धव हो' यह कहना दूरी दिखना है । 'निष्कारण परोपकारी हो' यह कहना कृतघ्न वचनों का अनुवाद होगा । 'मुझे याद रखना' यह कहना आज्ञा देना है।' इस प्रकार के वचन कहकर अपने तीनों शिष्यों के साथ भैरवाचार्य चले गये।
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पाठ २० : चन्दनबाला |
श्रेष्ठि ने पूछा-'हे पुत्रि ! तुम कौन हो ? किस कुल मैं उत्पन्न हो ? किसकी पुत्री हो ?' यह सुनकर आंसू गिराती हुई शब्द रहित वह वसुमती रोने लगी। सेठ ने सोचा-'आपत्ति में पड़ा हुआ श्रेष्ठ व्यक्ति अपने कुल आदि को कैसे कहेगा ? मुझे अब नहीं पूछना।' ऐसा सोचकर उसने कहा-'हे पुत्रि ! रोओ मत ।
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प्राकृत गद्य-सोपान
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