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________________ दो (प्रकार की) चिकित्साए व्यवस्थित हैं- मनुष्यों की चिकित्सा और पशुओं की चिकित्सा। 2. मनुष्योपयोगी और पशूपयोगी जो औषधियां जहाँ-जहाँ नहीं हैं (वे) सब जगह लायी गयी हैं और रोपी (उत्पन्न की) गयी है। 3. और मूल (जड़े) तथा फल जहाँ जहाँ नही हैं (वे) सब जगह लाये गये हैं। 4. पशु और मनुष्यों के उपयोग के लिए पंथों (रास्तों) में कुए खोदे गये हैं और वृक्ष रोपे गये हैं। ३. समन्वय ही श्रेष्ठ है 1. देवानांप्रिय, प्रियदर्शी राजा सभी धार्मिक सम्प्रदायों और प्रवजितों (साधु जीवन वालों) और गृहस्थों को पूजता है तथा वह दान और विविध प्रकार की पूजा से (उन्हें) पूजता है । 2. किन्तु दान और पूजा को देवानांप्रिय उतना नहीं मानता, जितना इस बात ___ को (महत्त्व देता है ) कि सभी सम्प्रदायों के सार (तत्व) की वृद्धि हो। 3. सार-वृद्धि कई प्रकार की होती है। किन्तु उसका यह मूल है- बचन का संयम । कैसे ? अनुचित अवसरों पर अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरों के सम्प्रदाय की निन्दा नहीं होनी चाहिए। 4. किमी-किसी अवसर पर (कारण से) हलकी (आलोचना) होनी चाहिए । किन्तु उन-उन प्रमुख कारणों से दूसरे सम्प्रदाय पूजे जाने चाहिए। ऐसा करते हुए (मनुष्य) अपने सम्प्रदाय को बढ़ाता है तथा दूसरे सम्प्रदाय का उपकार करता है। 5. इसके विपरीत करता हुआ (व्यक्ति) अपने सम्प्रदाय को क्षीण करता है और दूसरे सम्प्रदाय का भी अपकार करता है --- 6. जो कोई (व्यक्ति) अपने सम्प्रदाय की पूजा करता है तथा दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है- सब अपने सम्प्रदाय की भक्ति (पक्ष) के क रण । कैसे ? कि किस प्रकार अपने सम्प्रदाय का प्रचार (दीपन) किया जाय । वह सा करता हुआ अपने सम्प्रदाय की बहुत हानि करता है । प्राकृत गद्य-सोपान 197 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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