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पाठ 27 : परोवगारिणो पक्खिणो
पाठ-परिचय :
आचार्य विजयकस्तूरसूरि ने स्वतन्त्र कथानक को लेकर भी प्राकृत में ग्रन्थ लिखे हैं। प्राचीन साहित्य में प्रसिद्ध श्रीचन्द्रराजा की कथा को लेकर उन्होंने वर्तमान युग में सिरिचंदरायचरिय नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है। श्रीचन्द्रराजा के पुत्रजन्म से लेकर दीक्षा तक के नाना प्रसंगों का सजीव वर्णन इस ग्रन्थ में हुआ है।
प्रस्तुत गद्यांश उस समय का है, जब रानी वीरमती उद्यान में अकेली बैठी थी और संतान न होने से उदास थी। उसी समय वहाँ एक तोता आया । उस तोते और रानी के बीच जो वार्तालाप हुआ उससे पता चलता है कि पक्षी मानव का कितना उपकार करते हैं । अतः पक्षियों के प्रति करुणा की जानी चाहिए।
तइया तीए पुण्णपेरिमो कोवि सुगो को वि समागंतूण सहयारतरुसाहाए उवविट्ठो। मिलारणमुहपंकयं वीरमइ पेक्खित्ता परुवयार-तल्लिच्छो सो सुगो मणुसभासाए तं भासे इ- 'सुदरि ! किं रोएसि ? वसंतकीलारंग चइऊरण कि दुहट्टिया भायसि ? नियदुहं मम निवेयसू ।'
सा वीरमई एवं सुगवयणं सोच्चा उड्ढं पेक्खिन मणअभासाभासगं सुगवरं निरिक्खऊरण जायकोउगा मउणं चइत्ता भासेइ- 'विहग ! मम मरणोगयभावं नच्चा तु किं विहेहिसि ?
फलभक्ती लहू-पक्खी, भमंतो गयणो सया। तिरिच्छो सि वणे वासी, विवेगविगलो तुमं ।। 1 ।।
जइ मम दुहभंजगो सिया तया तव पुरो रहस्सकहणं समुइयं ।
प्राकृत गद्य-सोपान
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