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पाठ 31 : कवि-गोट्ठी
पाठ-परिचय :
महाकवि राजशेखर ने 10 वीं शताब्दी में कर्पूरमंजरी नामक नाटक (सट्टक) प्राकृत भाषा में लिखा है । इसमें चन्द्रपाल राजा और कर्पूरमंजरी की प्रेमकथा वरिणत है। सौन्दर्य-वर्णन एवं काव्य-चर्चा की दृष्टि से यह नाटक महत्वपूर्ण है ।
प्रस्तुत कथोपकथन में राजा के दरबार में उसके मित्र कपिंजल नामक विदुषक तथा रानी की प्रमुख दासी विचक्षणा के बीच काव्यात्मक नोंक-झोंक होती है । राजा विचक्षणा का पक्ष लेता है । इससे क्रोधित होकर विदूषक सभा से चला जाता है।
रामा - सच्चं विप्रक्खरणा विअक्खणा, चतुरत्तणेण उत्ती
विचित्तदाए रीदीणं । ता कि अण्णं क इचूडामरिणत्तणे ठिदा
एसा। विऊसतो - (सकोह) ता उज्जुन जेव कि ण भरणीअदि अच्चुत्तमा
विअक्खणा कवम्मि, अच्चहमो कविजलो बम्हणो त्ति । विभक्खणा - अज्ज ! मा कुप्प । कव्वं जेव दे कइत्तणं पिसुणेदि । जदो
कान्तारत्तणणिन्दणिज्जे वि अत्थे, सुउमारा दे बाणीलम्बत्थरणीए विअ एक्कावली, तुन्दलाए विग्र कंचुलिया,
कारणए वित्र कज्जलसलामा रण सुट्ट दरं रमणिज्जा । विऊसो - तुज्ज उण रम
तुज्ज उरण रमणिज्जे वि अत्थे रण सुन्दरा सद्दावली। करणअकडिसुत्तए विप्र लोहकिंकिणीमाला, पडिवट्टए विध तसरविरप्रणा, गोरंगीए विन चंदणचच्चा ण चंगत्तणं
अवलम्बेदि । तधा वि तुमं वण्णीअसि ।। विभक्खणा - अज्ज ! मा कुप्प । का तुम्हेहिं समं पाडिसिद्धी ? जदो
तुमं णारापो विष णिरक्खरो वि रदरणतुलाए रिणउज्जी
प्राकृत गद्य-सोपान
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