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पाठ 25 : वरस्स णिण्यं
पाठ-परिचय :
जिनहर्षसूरि ने सन् 1430 में चित्तौड़ में रयणसेहरनिवकहा नामक ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ में राजा रत्नशेखर और सिंहल की राजकुमारी रत्नवती की कथा का वर्णन है। पर्व के दिनों में धर्मसाधना करने का फल बतलाना इस ग्रन्थ का प्रमुख उद्देश्य है । इस ग्रन्थ को जायसी के पद्मावत का पूर्वरूप कहा जाता है। ग्रन्थ में अन्य भी कई कथाए हैं।
प्रस्तुत कथा में एक कन्या से विवाह करने चार वर उपस्थित हो गये। अतः कन्या ने उनमें युद्ध की सम्भावना देखकर स्वयं आत्मदाह कर लिया, इससे दुखी होकर उन चारों वरों ने जो कार्य किये, उसी के आधार पर उस कन्या के साथ उनका सम्बन्ध निश्चित किया जाता है।
हस्थियाउरे नयरे सूर-नामा रायपुत्तो नारणा-गुण- रयण-संजुत्तो वसइ । तस्स भारिया गंगाभिहाणा। सीलाइगुणालंकिया परमसोहग्ग-सारा सुमइनामा तेसि धूया । सा कम्मपरिणामवसो जणयजणणी-भाया-माउलेहि पुढो पुढो वराणं दत्ता।
चउरो वि ते वरा एगम्मि चेव दिणे परिणणेउ आगया परोप्परं कलहं कुति । तो तेसिं विसमे संगामे जायमाणे बहुजणक्खयं दठ्ठण अग्गिम्मि पविट्ठा सुम इ-कन्ना । तीए समं निबिडमोहेण एगो वरो वि पविट्ठी । एगो अस्थीरिण गंगा-पवाहे खिविउ गयो। एगो चिया-रक्खं तत्थेव जलपूरे खिविऊण तद्द खेण माहमहा-गह-गहिरो महीयले हिंडइ । चउत्थो तत्थेव ठिो तं ठाणं रक्खंतो पइदिणं एगमन्न-पिंडं मुयंतो कालं गमइ । : अह तइयो वरो महीयलं भमंतो कत्थ वि गामे रंधरणघरम्मि भोयणं
प्राकृत गद्य-सोपान
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