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7. नागकुमार के शरीर को छिपाये हुए मैं गारुड़िय मन्त्र की देवियों की
आज्ञा को भंग करने में समर्थ नहीं हूँ। अत: हे पुत्री ! (किसी प्रकार)
मेरी रक्षा करो। 8. हे पुत्री ! भय के संदेह को छोड़कर मेरे वचनों के अनुसार उनका पालन
करो।' तब दयालु वह कन्या भी उस नाग को अपनी गोद में छिपा लेती है।
तब उसी समय में उसके पीछे ही औषधि-लता हाथ में लिये हुए सपेरे जल्दीजल्दी आ पहुंचे। उनके द्वारा वह ब्राह्मण की पुत्री पूछी गयी--'हे. बालिके ! इस मार्ग में जाते हुए किसी विशाल नाग को क्या तुमने देखा है ? तब वह उत्तर देती है'हे राजन ! मुझसे क्या पूछते हो? क्योंकि कपड़े से शरीर को ढके हुए मैं यहाँ पर सोयी हई थी।' तब वे सपेरे आपस में बात करते हैं -'यदि इस बालिका के द्वारा उस प्रकार का (भयंकर) नाग देखा गया होता तो भय से कांपती हुई हिरणी की तरह यह उठ कर भाग गई होती। अत: यहाँ वह सांप नहीं आया है ।' तब आगे-पीछे देखकर कहीं भी उसे प्राप्त न करते हुए, हाथ से हाथ मलते हुए, दाँतो से होठों को काटते हए, कांतिहीन मुखवाले वे सपेरे लौटकर अपने घरों को चले गये।
तब उस कन्या ने सर्प को कहा-'यहाँ से अब निकल जाओ, तुम्हारे वे शत्रु चले गये।' वह सांप भी उसकी गोद से निकलकर, सर्प रूप को छोड़ कर हिलते हुए कुडल आदि आभूषणों से युक्त देवस्वरूप को प्रकटकर उसे कहता है-'हे पुत्री ! वर मांगो क्योंकि मैं तुम्हारे उपकार और साहस से संतुष्ट हूँ।'
वह बालिका भी उस प्रकार के चमके हुए शरीर वाले देव को देखकर समस्त अंगों में हर्ष को भरे हुए निवेदन करती है- 'हे तात ! आप यदि सचमुच संतुष्ट हैं तो मेरे उपर छाया कर दें। उससे गरमी से दुखी मैं छाया में सुखपूर्वक वैठी हुई गायों को चराती रहँगी।' तब उस देव के द्वारा मन में विचार किया गया- 'अहो ! यह बेचारी सरल स्वभाववाली है, जो मुझसे भी यह (तुच्छ वर) मांगती है । अतः इसका यह भी इच्छित कार्य कर देता हूँ।' ऐसा सोचकर उस विद्य प्रभा के ऊपर छाया से युक्त एक बगीचा (कुज) बना दिया गया, जो बड़े साल के वृक्षों के फूलों, सुगन्ध आदि से सन्दर था तथा मीठे फलों के द्वारा जो सदा प्राणियों के समूह को आन्नद पहुँचाता था।
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प्राकृत गद्य-सोपान
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