Book Title: Manohar Dipshikha
Author(s): Madhusmitashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोहर पशिखा सम्पादिका साध्वी मधुस्मिता श्रीजी Jain Education InternationBrivate & Personal Usewamy.jainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोहर दीपशिखा प्रवचन शासन ज्योति परम पूज्या श्री मनोहर श्री जी म.सा. सम्पादिका साध्वी मधुस्मिता श्री जी विचक्षण स्मृति प्रकाशन अहमदाबाद Jain Education Internation Private & Personal Usevowy.jainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन ज्योति परम श्रद्धेया गुरुवर्या श्री मनोहर श्री जी म.सा. की __ ४३ वीं दीक्षा पर्याय पर समर्पित : मनोहर दीपशिखाः सम्पादिकाः साध्वी मधुस्मिता श्री अर्थ सौजन्यः श्रेष्ठिवर्य स्व. श्री वंशराज जी के सुपुत्र श्री चम्पालालजी, भंवरलालजी, बाबूलाल जी, छगनराज जी मण्डोवरा परिवार प्रथम संस्करण: वि.सं.२०५४ मिगसर सुदि ग्यारस (मौन एकादशी) बुधवार, दिनांक १०-१२-१९९७ मूल्य: सदुपयोग प्रकाशनः श्री विचक्षण स्मृति प्रकाशन श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन देरासर दादा साहबना पगलां, नवरंगपुरा अहमदाबाद, ३८० ००९. मुद्रांकनः मयंक शाह, रमणीय ग्राफीक्स ४४/४५१, ग्रीनपार्क एपार्टमेन्ट, सोला रोड, नारणपुरा, अहमदाबाद-३८० ०६३. (फोन : ७४५१६०३) Jain Education InternationBrivate & Personal Usevoply.jainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता मूर्ति विश्वप्रेम प्रचारिका जैन कोकिला, स्व. प्रवर्तिनी महोदया श्री विचक्षणश्रीजी म.सा. REASE सहज स्वभाव सुनिर्मल पावन जीवन पवित्र गंगा सी धारा। हे गुरुवर्या तुज चरण-कमल में कोटि-कोटि हो नमन हमारा॥ Jain Education Internationarivate & Personal Userowy.jainelibrary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर उदारमना, श्रेष्ठिवर्य स्व. श्री वंशराज जी मंडोवरा सिणधरी निवासी श्रेष्ठिवर्य श्री वंशराज जी की __पावन पुण्य स्मृति में आपके सुपुत्र श्री चम्पालाल जी, भंवरलाल जी, बाबूलाल जी, छगनराज जी मंडोवरा ने प्रस्तुत प्रकाशन में उदार सहयोग दे कर पुण्य का उपार्जन किया है। तदर्थ साधुवाद ! आपकी सुसंस्कारित धार्मिक भावनायें हमेशा ही प्रस्फुटित होती रहे। यही मंगल कामना! Jain Education Internation Private & Personal Usevowy.jainelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम वंदनीया, शासनज्योति, शासनउत्कर्षिणी गुरुवर्यांश्री मनोहर श्रीजी म.सा.की ४३ वीं दीक्षा पर्याय के उपलक्ष में सादर समर्पण गुरुवर्या आप शासन के ताज है आपकी सरलता क्षमता पर हमें नाज है, तुम जीओ हजारों वर्ष गूंजता नाद है नत मस्तक हो यही मंगल कामना का साज है। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. विदुषीवर्या श्री मुक्तिप्रभा श्रीजी म.सा. का जीवन परिचय १. जन्म वि.सं. १९९८ भाद्रपद कृष्ण १२ २. जन्म स्थल : पादरा (गुजरात) ३. जन्म का नाम : हसुमति कुमारी ४. गोत्र : श्री श्रीमाल ५. पिता का नाम : श्री चिमनभाई शाह ६. माता का नाम: श्रीमती चंदनबहन ७. छोटी दीक्षा : वि.सं.२०१७ माघ शुक्ल १३, स्थल : पालिताणा (गुजरात) ८. बडी दीक्षा : वि.सं.२०१७ वैशाख शुक्ल ५, स्थल : पालिताणा (गुजरात) ९. गुरुवर्या का नाम : प्रवर्तिनी श्री विचक्षण श्रीजी म.सा. १०. विचरण क्षेत्र : गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र, कर्णाटक, तामिलनाडु, सौराष्ट्र अध्ययनः . लेखनः संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, स्तवन, सज्झाय,सतीत्त्व की पराकाष्ठा साहित्यरत्न, शतावधान, ज्योतिष, दादा गुरुदेव चरित्र, हिन्दी, गुजराती, आगमसूत्रादि. विविध लेखादि. Jain Education InternationPrivate & Personal Useamly.jainelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन भौतिकवाद की चकाचौंध में लोग मतिभ्रमित होते जा रहे है। सारा वातावरण जीव को पतन की ओर ले जाने में सहायक हो रहा है। ऐसे समय में आध्यात्म साहित्य का प्रकाशन क्षतिपूर्ति में सहायक सिद्ध होता है ! इससे जैन, जैनेतर सभी समाज को लाभ प्राप्त हो रहा है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए परम पूज्य खरतरगच्छाचार्य प्रवर श्रीमज्जिन महोदय सागर सूरीश्वर जी म.सा. की आज्ञानुवर्तिनी शासन ज्योति श्री मनोहर श्री जी म.सा.की सुशिष्या आर्या मधुस्मिता श्री जी ने-“मनोहर दीपशिखा'पुस्तिका में मनोहर श्री जी म.सा.के प्रवचनो का संकलन एवं संपादन किया है।। उनका यह प्रथम प्रयास सराहनीय है। प्रवचन की कुशलता एवं बाल जीवों को समझाने की सरलता का पुस्तक में सुन्दर दर्शन होता है। जनसमुदाय को यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी ऐसा मैं मानती हूँ। गुरुदेव से यही मंगल कामना करती हूँ कि भविष्य में इसी प्रकार संयम साधना के साथ-साथ साहित्य साधना चलती रहे। गुरु विचक्षण पदरेणु मुक्ति प्रभा श्री Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय समता की गंगोत्री, करुणा की अजस्र धारा शासन ज्योति परम पूज्या गुरुवर्या श्री मनोहर श्री जी म.सा. के प्रवचनों का संकलन जन-मानस तक पहुंचाने में मैं अत्यन्त आत्मविभोर हो रही हूँ । जिनकी वाणी में अमृतपान कराने की क्षमता है, जिनके कंठ में परमात्मा की भक्ति का मिठास है, जब बोलती है तो मां सरस्वती फूट पड़ती है, प्रभु भक्ति में गाती है तो प्रभु दीवानी मीरा का स्मरण होता है, मुख से हृदय स्पर्शी वाणी निकलती है जो लोगों के हृदय को स्पर्श किये बिना नहीं रहती - वो है मनभर मनोहर श्री जी म.सा. । पू. गुरुवर्या श्री जी के प्रवचन केवल जैन समाज को ही नहीं अपितु अजैनों के लिए भी उपयोगी हैं। इनके प्रवचनों में सम्प्रदाय वाद की कोई झलक नहीं दिखती बल्कि समन्वय का आह्वान है। गुरुवर्या श्री जी के प्रवचन बहुत ही सरल एवं सहज है । जन-मानस सरलता से समझ सकता है। काफ़ी समय से लोगों की भावना थी कि गुरुवर्या श्री के प्रवचनों का संकलन पुस्तिकारूढ़ किया जायें जिसका आम जनता रसास्वादन कर सकें। गुरुवर्या श्री की वाणी को पुस्तिकारूढ़ करना मेरी शक्ति से बाहर है फिर भी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए मैने यह कार्य हाथ में लिया। संकलन एवं सम्पादन का मेरा यह प्रथम प्रयास है। गुरु कृपा से कलम हाथ में लेकर दुस्साहस कर रही हूँ । शासन उत्कर्षिणी परम श्रद्धेया गुरुवर्या श्री मनोहर श्री जी म.सा. मम जीवन उद्धारिका एवं संयम दात्री है। उन पूज्या श्री के चरणों में मैने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित किया है। उनके लिए शाब्दिक कृतज्ञता प्रगट करना मामूली बात है। उनका मंगल आशीर्वाद ही मेरे जीवन का पथ है। इस आशीर्वाद के उपलक्ष में उनके हर इंगित आदेशों को साकार रूप दे सकूं यही गुरुदेव से मंगल कामना करती हूँ। यही उनके प्रति कृतज्ञता होगी ! Jain Education InternationBrivate & Personal Use Only.jainelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम श्रद्धेया विदुषीवर्या श्री मुक्ति प्रभा श्री जी म.सा. ने अपना मंगल आशीर्वाद भेजकर मेरे ऊपर बहुत कृपा की है। उनकी करुणा एवं उदारता के लिए मैं ऋणी हूँ । संकलन में लघु भगिनि स्मितप्रज्ञा श्री जी का महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा हैं। गुरुवर्या श्री जी की ४३ वीं दीक्षा पर्याय के उपलक्ष में प्रवचनों का संग्रह करने का यह सुनहरा अवसर सहज ही मुझें प्राप्त हुआ है। प्रवचन संग्रह प्रकाशन में श्रुत पिपासु उदारमना धर्मप्रेमी श्रेष्ठीवर्य स्व. श्री वंशराज जी के सुपुत्र श्री चम्पालाल जी, भँवरलाल जी, बाबूलाल जी, छगन राज जी भण्डोवरा परिवार ने अपनी चंचल लक्ष्मी का सदुपयोग करके आध्यात्म साहित्य के प्रचार में सराहनीय योगदान दिया है। इसके लिए सद्गृहस्थ साधुवाद के पात्र है आशा है कि मेरा यह प्रथम प्रयास सभी श्रुत जिज्ञासुओं के लिए रुचिकर होगा। सम्पादन में जिन शासन के विरुद्ध कुछ भी लिखा हो तो उसके लिए त्रिविध त्रिविधमिच्छामि दुक्कडम् । अहमदाबाद वि.स. २०५४ मिगसर सुदि ग्यारस (मौन एकादशी) बुधवार दिनांक १०-१२ ९७ विचक्षण मनोहर चरण रज साध्वी मधुस्मिता श्री Jain Education InternationBrivate & Personal Use Only.jainelibrary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोहर दीपशिखा विषयानुक्रम विषय & ० ॐ ॐ ; मनोहर संयम-यात्रा संयोग-वियोग शरण-समर्पण एक वाक्य से जीवन उज्जवल क्षण की महत्ता रागी मन विरागी अवसर बार-बार नहीं आता किसे कहूँ मैं अपना अशुद्ध से शुद्धता की ओर जिनेश्वर भक्ति शक्ति ही जीवन आत्मानुभूति जीवन एक यात्रा जिन्दगी एक नाटक संयम-चरित्र कृत कर्मो का प्रायश्चित * * - * Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0 मनोहर संयम यात्रा सन्त और वसन्त, भगत और जगत को क्रमशः हरा-भरा बनाने के लिए आते हैं। सन्त के दर्शन से भगत खिलता हैं और वसन्त के आगमन से प्रकृति मुस्कुराती है। सन्त और वसन्त दोनों न अधिक ठण्डे न अधिक गर्म होते हैं। इसीलिए भाग्यशाली उनके आगमन के लिए पलक बिछाकर राह देखते रहते हैं। समता की गंगोत्री, जिनशासन की ज्योति, करुणा की अजस्र धारा, जिनवाणी का अमृतपान कराने वाली मम जीवन निर्मात्री परम पूजनीया गुरुवर्या श्री मनोहर श्री जी म.सा.की जीवन झांकी के विषय मे अपने उद्गार प्रगट करना मेरी शक्ति से बाहर है। मैं मंदज्ञानी सागर सम गम्भीर गुणों का वर्णन करने में सक्षम नहीं, मेरी लेखनी में कहां इतनी शक्ति जो गुरु-गुण का बयान करें। फिर भी गुरु चरणों में नमन कर के साहस बटोर कर कलम हाथ में ले कर लिखने का प्रयास कर रही हूँ। परम पूज्या सरल स्वभावी, ज्ञान की दीपशिखा गुरुवर्या श्री मनोहर श्री जी म.सा.का जन्म सं. 1993 सन् 1937 में श्रावण शुक्ला एकम को जैन धर्म की पावन पुण्य स्थली गुजरात राज्य के पादरा नगर में हुआ। आपश्री के पिता का नाम श्री चिमनलाल शाह एवं माता का नाम श्रीमती चन्दनबहन था। पिताजी बहुत ही भद्रिक एवं धर्मपरायण श्रावक थे। माताजी एक कर्तव्यपरायण श्राविका थी। सात पीढी पश्चात् घर में पुत्री का आगमन सबको आनंदित करने वाला हुआ। पुत्री को पा कर दादाजी की प्रसन्नता सीमातीत थी। पिताजी भी हर्ष-विभोर हो ऊठे। नन्हीं बाला का नाम मधुकान्ता रखा गया / मधुकान्ता अपने दादाजी की बहुत ही लाड़ली थी। ज़रा भी आंखों से ओझल हो जाती तो दादाजी चिंतातुर हो जाते थे। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैशव बीता, बचपन आया, बचपन को बिदा कर किशोरावस्था में पदार्पण किया। यौवन का उन्माद, षोडशी की उच्छृखलता होना स्वाभाविक था। किन्तु संगीतप्रियता ने जीवन संगीत के स्वरों से नूतन राग का निर्माण किया ।भाग्योदय से संवत् 2011 में पादरा नगर में विश्वप्रेम प्रचारिका, जैन कोकिला, व्याख्यान-भारती, समन्वय साधिका परम पूज्या श्री विचक्षण श्री जी म.सा.का चातुर्मास हेतु आगमन हुआ। पादरा की धर्मपरायण जनता ने गुरुवर्या श्री जी के आगमन को खूब आनंद और उत्साह से बधाया। अभिनंदन के लिए गहुंलियां गाना संगीत रसिको में उल्लास भर ही देता है। अद्भुत वाणी के आकर्षण से मन गुरु-गुण गाने को उत्सुक हुआ। कण्ठ में मधुरता जन्मजात थी। वाणी की मिठास ने साध्वी महोदया के मन को भी जीत लिया। नित्य प्रति आप प्रवचन श्रवण करने आती थी। उस समय उत्तराध्ययन सूत्र एवं पृथ्वीचन्द गुणसागर चरित्र पर धाराप्रवाहिक प्रवचन चलता था / साध्वी जी की साधना अनुपम थी, वाक्चातुर्य प्रखर था, जिससे जनमानस दौड़ता हुआ आता था। प्रवचन का मर्म आत्मिक स्पर्श करने लगा। चरित्र श्रवण से सांसारिक तृष्णा, भोगेषणा का निवृत्ति में परिणमन हो गया। गुरुवर्या श्री जी की पीयूषमयी वाणी के पान से प्रतिदिन सम्पर्क बढता गया। लट भंवरी के न्याय सदृश मधुकान्ता का जीवन गुरु पदरज में निवास हेतु तड़फ़ उठा। साथ में सखी सुमित्रा भी वैराग्य रंग में भीगती गई। चातुर्मास समाप्ति की वेला समीप थी। प्रस्थान से पूर्व संयम रथ पर आरूढ होने की तीव्र उत्कंठा झंकृत होने लगी। विहार पश्चात् गुरुवर्या श्री जी का इधर आना हो या न भी हो। किस प्रकार मैं पथ की पथिका बनूं, मन में चिन्तन चल पड़ा। साध्वी महोदया भी मधुकान्ता की वैराग्य भावना से अज्ञात नहीं रही, वह मधुकान्ता में वैराग्य के बीज स्पष्ट देख रही थी। गुरुवर्या श्री जी ने इस रत्न को तुरन्त ही पहचान लिया कि भविष्य में यह जैन जगत के क्षितिज को प्रकाशित करेगी। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुकान्ता ने परिवार सम्मुख अपनी संयम भावना को रखा। मातापिता ने कहा इतनी अल्पायु में संयम का निर्णय लेना सम्भव नहीं। फिर भी गुजरात की भूमि को धन्य है। जहां से प्रति वर्ष अनेकों विरल विभूतियां जिनशासन में समर्पित होती हैं। पादरा की धर्मधरा भी इन विरल आत्माओं से अक्षुण्ण नहीं थी। कितनी ही भव्यात्माएं जिनशासन में पदारूढ हुई हैं। मधुकान्ता का हृदय भी वैराग्यभावना से निर्मल बनता जा रहा था। वैराग्य की तेजस्वी ज्योति को मां की ममता मंद नहीं कर सकी और न ही पिता का वात्सल्यभाव / निर्णय अटल था। “देहं पातयामि वा कार्यं साधयामि // " आखिर में बड़ी मुसीबत से इस समस्या का समाधान हुआ। येन केन प्रकारेण संवत् 2011 मिगसर सुदि ग्यारस (मौन एकादशी)को पादरा में ही मधुकान्ता एवं सुमित्रा दोनों बालाओं में समतामूर्ति श्री विचक्षणश्रीजी म.सा.के वरद हस्तों से भागवती दीक्षा अंगीकार की। दोनों बालाओं की दीक्षा में मणिलाल पादराकर तथा बाबूभाई पादराकर का बहुत ही सराहनीय सहयोग रहा। कुमारी मधुकान्ता का नाम साध्वी मनोहरश्री जी रखा गया और कुमारी सुमित्रा का नाम सूर्यप्रभाश्री जी रखा गया। पूज्याश्री की निश्रा में श्रमण पर्याय प्रारम्भ हुआ। आपका जीवन संयमी जीवनचर्या से अनभिज्ञ था। परन्तु गुरु के सान्निध्य एवं उनके व्यक्तित्व की झलक ने स्वयमेव ही निर्माण कर दिया। आपश्री की दीक्षा के पांच वर्ष पश्चात् आपकी लघु भगिनि हसुमति भी वैराग्य रस से पल्लवित हुई / जिनकी दीक्षा महान पावन शत्रुजय तीर्थ में हुई / हसुमति का दीक्षा पश्चात् नाम मुक्तिप्रभाश्री जी रखा गया, जिनका जीवन जिनशासन की शोभा बढा रहा है। इनके पश्चात् आपश्री के ज्येष्ठ भ्राताओं की तीन पुत्रियां (आपश्री की सांसारिक तीन भतीजियों)ने मणिधारी दादाश्री जिनचन्द्रसूरिजी की स्वर्गारोहण भूमि देहली में परमपूज्या व्याख्यान वाचस्पति प्र. श्री विचक्षणश्री जी के वरद हस्तों से Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवती दीक्षा अंगीकार की। कुमारी कला का नाम साध्वी काव्यप्रभाश्री जी, कुमारी दक्षा का नाम साध्वी दिव्यगुणाश्री जी एवं कुमारी नीला का नाम साध्वी नयप्रभाश्री जी रखा गया / आपश्री के परिवार में से एक नहीं पांच-पांच रत्न निकले हैं। पादरा में आपश्री की छोटी दीक्षा हुई / परन्तु बड़ी दीक्षा दादाश्री जिनदत्तसूरिजी की स्वर्गभूमि अजमेर राजस्थान में हुई। बड़ी दीक्षा के पश्चात् करीबन 25 चातुर्मास आपश्री ने अपनी गुरुवर्याश्री जी के सान्निध्य एवं निर्देशानुसार किये। सन्त का जीवन तो बहते हुए निर्मल नीर और गगन में उड़ते हुए पक्षियों के समान है, जो कभी विश्राम ही नहीं करते हैं, और न ही अपना स्थायी ठोर-ठिकाना बनाते हैं। इसी प्रकार का भाव गुरुवर्याश्री मनोहरश्री जी का रहा है। आपके कंठ में जिनेश्वर देव की भक्ति की मिठास जन्म से ही रही है। बोलती है तो सरस्वती बरसती हैं, प्रभुभक्ति में गाती है तो प्रभु दीवानी मीराँ की याद आती है / श्रीमद् देवचन्द्रजी, आनंदघनजी, श्रीमद् राजचन्द्रजी के दर्शन और चिन्तन को आपश्री ने परखा है और अपने चिन्तन से सिरजा भी हैं। आपके नेपथ्य में अपनी गुरुवर्याश्री स्व. प्रवर्तिनी, विश्वप्रेम प्रचारिका श्री विचक्षणश्री जी म.सा.का सानिध्य और सरंक्षण रहा है। महान दीक्षागुरु स्व.प्र.श्री विचक्षण श्री जी म.सा.के हाथों सिरजा गया मनोरह कोहिनूर वर्तमान में जिनशासन की सेविका के रूप में लाखों दीपों की लौ के बीच भी न बुझने वाला अद्भुत दीप हैं, जिसके प्रकाश में हजारों लाखों भटके हुए दीप प्रज्वलित हो उठते हैं। आपका अपने गुरु के प्रति समर्पणभाव और विनयभाव अद्भुत है। गुरुवर्याश्री जी के उपकार का ही ऋण चुकाने के लिए आपका जीवन है। आपके मुख से कभी नहीं निकला कि मैं कुछ हूँ / गुरुवर्याश्री जी की वाणी ही आपके पास अमूल्य निधि हैं। जिसे आप जिनवाणी के प्रसाद स्वरूप जन-जन में बांट रही हैं। आपका अपना कुछ नहीं, ऐसा समर्पण और विनय भला कहां Jain Education InternationBrivate & Personal Usewamy.jainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखने को मिलेगा। आपके जीवन में साधना, संयम की आराधना, जिनशासनकी प्रभावना प्रभु के प्रति समर्पणभाव साक्षात् दृष्टिगोचर होता है / रोम-रोम में जिनशासन समाया हुआ हैं। जिनशासन का अनवरत स्रोत आपके अंतर में तरंगित होता रहता है। इन सभी के मध्य आपके हृदय में एक अपूर्व नाद गुंजित होता हैं, वह है अपने गुरु के प्रति अपूर्व श्रद्धा एवं समर्पण / गुरु-विरह में आज भी आपश्री के नयनों में अविरत अश्रु प्रवाह बहता रहता हैं। आज भी हम आपकी अपने गुरु के प्रति निष्ठा, भक्ति हर मोड़ पर अनुभव करते हैं। जगहजगह पर अपने गुरु की मूर्ति प्रतिष्ठापित करवा कर गुरुभक्ति का साक्षात् परिचय दे रहे हैं। गुरुवर्याश्री जी के स्वर्गारोहण पश्चात् आपश्री ने प्रधानपद विभूषित प.पू.श्री अविचलश्री जी म.सा.के आदेशानुसार तेरह चातुर्मास सम्पन्न किये। संयम लेने के पश्चात् हिन्दी साहित्य रत्न, संस्कृत प्राकृत, जैन आगम साहित्य का अध्ययन प्राप्त किया। इसके उपरान्त अमरावती, इन्दौर, मन्दोर में शतावधान का प्रयोग हजारों की जनमेदमी में अपनी गुरुवर्याश्री जी के सान्निध्य में किया। शतावधान होने का गौरव भी आपश्री ने प्राप्त किया है। शतावधान यानि एक से सौ तक प्रश्न एक साथ अलग-अलग व्यक्तिओं द्वारा पूछे जाना! पश्चात् क्रमानुसार एक-एक प्रश्न का उत्तर फरमाना! विचरण क्षेत्र, राजस्थान, देहली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्णाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, साउथ, कुलपाक, महाराष्ट्र और सौराष्ट्र रहा है / देशभर में विहार कर जैन धर्म और दर्शन का आस्वाद कराया है अपने श्रद्धालु भक्तों को / आध्यत्म की शिक्षा देना आपका मूल मंत्र रहा है। जहां जाते हैं वहां आध्यात्मिक शिक्षण शिविर आयोजित करवाते है। युवा पीढ़ी को Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का आत्मसात करवाते हैं। बाड़मेर में सैंकडो की संख्या में बालकबालिकाओं का धार्मिक शिक्षण शिविर लगवाया। जिसके निकले विद्यार्थी आज भी धार्मिक एवं सदाचारमय जीवन यापन करते हैं। जहां कहीं भी वह युवा वर्ग मिलता है कहते है म.सा.हम आपके शिविर के विद्यार्थी हैं। अवस्था परिवर्तन से आप नहीं वह आपको पहचान जाते हैं और श्रद्धा से नतमस्तक होते हैं। बाड़मेर में विधवा व निर्बल जैन महिलाओं के लिए वर्धमान उद्योग कल्याण केन्द्र की स्थापना करवाई। जो आज दिन तक उत्तरोत्तर गति से चल रही हैं। जिससे कितनी ही मां-बहनों का जीवन निर्वाह हो रहा है। चौहटन, भरतपुर, हिण्डौन, अहमदावाद, बम्बई आदि स्थानों पर भी आपकी निश्रा में धार्मिक शिक्षण शिवरों का आयोजन होता रहा है। भरतपुर, हिण्डौन, मण्डावर, खेड़ली, अलवर आदि पल्लीवाल क्षेत्र में विचरण करके जनता को धर्मोन्मुखी बनाया। नाममात्र की जैन कहलानेवाली जनता जैन दर्शन से बिल्कुल अनभिज्ञ थी। शारीरिक अनुकूलता नहीं होने पर भी विचरण करके धर्मरूपी बीज को अंकुरित किया है / भरतपुर में धार्मिक शिक्षण शिविर लगवाया। जिसमें आस-पास के पल्लीवाल क्षेत्रों के सभी बालकबालिकाओ ने भाग लिया। मैं भी अल्पज्ञ अबोध-बालिका आपके शिविर की छात्रा रही। भरतपुर का चातुर्मास एवं जैन धार्मिक शिक्षण शिविर पल्लीवाल क्षेत्र के इतिहास में अमर हो गया। शिविर दरम्यान हुए सांस्कृतिक प्रोग्राम में दिल्ली, आगरा आदि श्री संघो के समक्ष खरतरगच्छ संघ के मंत्री श्रीमान् दौलत सिहंजी जैन एवं श्रमण भारती के संपादक श्रीमान सुरेन्द्र जी लोढ़ा ने आपश्री को पल्लीवाल उद्धारिका की पदवी से अलंकृत करना चाहा। जैसे ही आपको इस विषय की जानकारी मिली आपने स्पष्ट इन्कार कर दिया। बाद में अचानक ही स्टेज पर पहुंचकर आपके मना करने पर भी आपको “शासन ज्योति की Jain Education Internation Private & Personal Usev@mily.jainelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदवी से विभूषित किया गया। आकाश “शासन ज्योति की पदवी' से गुंजायमान हो गया। भरतपुर चातुर्मास करके आपश्री ने मेरे ऊपर अद्भुत उपकार किया जिसका ऋण मैं भवोभव नहीं अदा कर सकती हूँ | संसार रूपी महाअटवीं से उगार कर मोक्ष मार्ग की पथिका बनाया है। अन्यथा यह तुच्छ पामर प्राणी संसाराटवीं में भटकता रहता ! इसके अलावा भरतपुर रणजीत नगर कोलोनी में विशाल पैमाने पर नूतन मंदिर, जिन कुशलसूरि दादावाड़ी एवं धर्मशाला का निर्माण एवं प्रतिष्ठा करवाई। जो आज श्रद्धालु भक्तों का आकर्षण केन्द्र बना हुआ है। पल्लीवाल जनता का धर्मोत्थान करके आपश्री ने जिनशासन का नाम चारों दिशाओं में गुंजायमान किया है / भरतपुर निवासी श्री प्रकाश जी(माईकोवाले)तो हमेशा यही कहते है कि आप श्री ने बन्जर भूमि को उर्वरा करके पौधा लगाकर जो वृक्ष खड़ा किया है उसके लिए पल्लीवाल जनता आपकी जन्मजन्मान्तर तक ऋणी रहगी / अलवर चातुर्मास करके नूतन जिन कुशल सूरि दादावाड़ी की प्रतिष्ठा कराकर वहां के जन-मानस को गुरुदेव का परम भक्त बनाया है। गुड़ा मालोनी में भी नूतन दादावाड़ी की प्रतिष्ठा करवाई है। सांचौर नगर में जैन श्वेतामब खरतरगच्छ संघ का पुनरोत्थान आप श्री के परिश्रम का फल है। जयउ सामिय सूत्र में “सच्चउरि मण्डण"का उल्लेख आता है / वही “सत्यपुर' सांचौर-तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है / यह पावन पवित्र भूमि खरतरगच्छ के रत्नों की जन्म-स्थली रही है। दादा श्री जिनकुशलसूरि जी के पट्टधर आचार्य श्री जिनपद्मसूरि के पट्टधर आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि जी एवं महोपध्याय श्री समय-सुन्दर जी म.सा.का जन्म इसी सत्यपुर की पावन धरा पर हुआ था। उस समय वहां खरतरगच्छ की महिमा सर्वोत्तम शिखर ऊपर थी। उत्थान और पतन की श्रृंखला को दृष्टिगत रखते हुए बीच की अवधि में खरतरगच्छ का विरह काल रहा। इस बीच चातुर्मास हुए भी परन्तु खरतरगच्छ Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो शनै-शनै विलीन हो चुका था। प.पू. स्वर्गीय प्रवर्तिनी समता मूर्ति श्री विचक्षण श्री जी म.सा.ने आप श्री को इंगित किया कि सांचौर तीर्थस्थल है। खरतरगच्छ का प्राचीन स्तम्भ है। उस क्षेत्र में विचरण करके खरतरगच्छ का पुनःउत्थान करों। गुरुआज्ञा आपके रोम-रोम में समाई हुई थी। पू. गुरुवर्या श्री के निदेशानुसार आप श्री ने पुनःउत्थान का बीड़ा उठाया। प्रथम वार सांचोर में प्रवेश हुआ / उस समय का वातावरण बड़ा ही विचित्र था। साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण अनेकानेक विघ्नों प्रतिकूल परिस्थितिर्यों एवं जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ा। सोने की कसौटी अग्नि द्वारा होती है। वैसे ही आप की हर तरह से अन्य गच्छ वालों ने परीक्षा की किन्तु अन्त में विध्न-संतोषियों को कहना पड़ा कि आपका तप, त्याग व संयम उत्तम है। साध्वी व्याख्यान का भी घोर विरोध लोगों ने किया फिर भी आपने अपनी ज्ञानधारा से सिंचित कर सभी को शान्त कर दिया। आप श्री ने अपनी धैर्यता, क्षमता, कार्यक्षमता, दीर्घकालीन सूक्ष्म दृष्टि एवं मजबूत मनोबल द्वारा खरतरगच्छ का पुनरोत्थान करने का निर्णय किया। संवत् 2031 में प.पू. प्रवर्तिनी श्री विचक्षण श्री जी म.सा. की आज्ञा से आप श्री ने प्रथम चातुर्मास किया। यह चातुर्मास गच्छ की उन्नति के लिए शानदार एवं ऐतिहासिक रहा। आप श्री के प्रवचन से जैन अजैन सभी प्रभावित हुए। विशेष खरतरगच्छ की बिखरी हुइ कड़ीयों को एक कड़ी में जोड़ने के लिए कार्य कारिणी की स्थापना हेतु बैठक बुलवाई। उसमें सांचौर खरतरगच्छ संघ के अध्यक्ष सेठ श्री छगनलालजी घमड़ीरामजी वोथरा को नियुक्त किया गया। दादागुरु देव द्वारा बनाये गये गोत्रवालों को एकत्रित कर खरतरगच्छ के 200 घरों का नूतन संघ निर्माण किया / चातुर्मास अंर्तगत चिन्तन चलता ही रहा कि-दादागुरु-देव का कुछ प्रतीक मिल जाये। जहां चाह होती है वहां राह मिल ही जाती है। खोज जारी रखी, आखिर में शान्तिनाथजी Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान के मंदिर में एक कोने में एक पत्थर पड़ा हुआ है ऐसा अनुभव हुआ। उस पर मकड़ी ने जाले और मिट्टी के थर जमा हुए थे। उसे निकलवाकर साफ करवाकर देखा तो आप श्री की खुशी का पारावार न था। “जिन खोजा तिन पाइयां' संवत् 1681 में प्रतिष्ठित जिन चंद्र सूरि चरण पादुका उपलब्ध हुई। श्रीसंघ को एकत्रित किया। एक उँगली द्वेषवश किसीने खण्डित कर दी थी। उसे ठीक करवाकर प्रक्षाल-पूजा आदि के पश्चात् शुभ मुहूर्त में शान्तिनाथ जी के मंदिरमें दादागुरुदेव एवं “पुण्याहं पुण्याह' के जयघोष के साथ अध्यक्ष श्री छगनलालजी घमडीरामजी बोथरा के कर कमलों द्वारा मंत्रोच्चार के साथ आप श्री ने गुरु-चरण को स्थापित करवाया। प्रतिदिन पूजा-आरती, गुरुइकतीसा, बड़ी पूजा आदि प्रारम्भ करवाई। उत्साह, उमंग एवं आनंद के साथ चातुर्मास सम्पन्न हुआ। __ चातुर्मास की पूर्णाहुति पर आप श्री ने दादावाड़ी एवं उपाश्रय निर्माण के लिए सत्याग्रह करने का निर्णय लिया। पूरे दिन संघ की बैठक चलती रही। कार्तिक पूर्णिमा का वह दिन सांचौर-खरतरगच्छ संग की कीनं निर्णण का उदय दिन था। खरतरगच्छ संघ ने आप श्री के समक्ष मंदिर, दादावाड़ी, उपाश्रय का कार्य शीघ्र प्रारम्भ करवाने का निर्णय ले लिया और उसी समय उपाश्रय, दादावाड़ी का चंदा प्रारम्भ हो गया। उपाश्रय का शुभ मुहुर्त श्री कालूचंद्रजी श्रीमाल के हाथों करवाया गया / आज विशाल कुशल भवन एवं विराट दादावाड़ी-जो आप देख रहे है वह गुरुवर्या श्री की प्रेरणा एवं पुरुषार्थ का फल है / सांचौर-खरतरगच्छ संघ आप श्री का ऋणी है। आप श्री के असीम उपकारों को वहां का जन-मानस विस्मृत नहीं कर सकता। आपके द्वारा वपन किया गया बीज आज वटवृक्ष बन कर चारों और लहरा रहा है / “सच्चरि मंडण"पावन तीर्थ भूमि को आज जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ का विचरण क्षेत्र बनाया है। प्रतिवर्ष वहां अब खरतरगच्छ के चातुर्मास होते रहे हैं। यहां तक Jain Education InternationBrivate & Personal Usewamy.jainelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वहां से कई आत्माएं खरतरगच्छ सम्प्रदाय में संयम ग्रहण कर महावीर पथानुगामिनि बनी है। आज जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ के अंतर्गत सांचौर का संघ सर्वोपरि दर्जा रखता हैं। संयम लेने के सत्ताईश वर्ष पश्चात् यानि संवत् 1981 में अपनी जन्मभूमि गुजरात में पदार्पण किया। गुजरात में चातुर्मास आप श्री ने अपनी गुरुवर्या श्री जी की आज्ञा से ही किया / जब समतामूर्ति प.पू.श्री विचक्षण श्री जी म.सा.को केन्सर जैसी महाव्याधि घेर रखा था। शारीरिक अवस्था बहुत ही नाजुक बनी हुइ थी फिर भी आत्मचेतना जागृत थी ! ऐसी परिस्थिति में आप श्री को पास बुलाकर निर्देश दिया कि मधु की दीक्षा करा कर गुजरात की ओर विहार कर जाना। आप श्री ने अपनी गुरुवर्या श्री के स्वर्गगमन पश्चात् प्रधानपद विभूषिता प.पू.श्री अविचल श्री जी म.सा.की आज्ञा एवं जयपुर श्री संघ का बहुत आग्रह होने पर चातुर्मास जयपुर ही किया। चातुर्मास दरम्यान भीमराजजी वोहरा की धर्मपत्नी श्री सुशीला वोहरा ने प्रथम वार अट्टाई की / अट्ठाई उपलक्ष में उनकी भावना प्याऊआदि बनवाने की थी। आप श्री ने कहा कि प्याऊ बनवाने के साथ-साथ ऐसा कोई कार्य करो जिससे आपके परिवार का नाम चिरस्मरणीय रहे तथा साथमें युवा वर्ग में धार्मिकता का बीजारोपण हो। इसके लिए आपने उन्हें छात्रावास बनवाने की प्रेरणा दी। सुशीलाजी ने यह बात अपने बड़े जेठजी के सामने रखी। जेठजी (सेठ भंवरलालजी वोहरा)दूसरे दिन आप श्री की निश्रा में आये और बात को मंजूर कर लिया। आप श्री ने जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ जयपुर की जमीन जो टांक फाटक पर थी जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा था उस जगह पर छात्रवास बनवाने की बात संघ के समक्ष रखी। संघ ने बात मंजूर कर ली। भंवरलालजी वोहरा ने उस जमीन को देख कर तुरन्त ही वहां पर तीव्र गति से निर्माण कार्य करवा कर विचक्षण विद्याविहार का निर्माण करवा दिया। जहां पर विद्यार्थी रह कर उच्चतर शिक्षा Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त कर अपना जीवन धर्ममय बनाते है। बच्चों की पढ़ाई में सुविधा जुटाना उनको किसी भी प्रकार की असुविधा न हो-क्योकिं आज का विद्यार्थी आगे चल कर देश का कर्णधार बनता है। उनमें शिक्षा के साथ-साथ धर्म का बीजारोपण भी हो ऐसी आपकी हमेशा की रूचि रही है। जयपुर चातुर्मास पश्चात् विचक्षण विद्याविहार का उद्घाटन करवा कर आप श्री ने गुजरात की ओर विहार कर दिया। विहार करते हुए करेड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ में मधु की दीक्षा का प्रसंग आ बना। यह आपकी गुरुवर्या श्री जी का साक्षात् चमत्कार था। स्व. आचार्य श्रीमज्जिन उदय सागर सूरीश्वर जी म.सा.ने दीक्षा अवसर पर पधार कर अपनी सरलता का परिचय दिया। कु. मधु का नाम दीक्षा पश्चात् साध्वी मधुस्मिता श्री जी रखा गया / दीक्षा अवसर पर रामसर निवासी (हाल अहमदाबाद)श्री शेरमल जी. मालू आदि भोपाल सागर (करेड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ)तीर्थ पर पधारे और अहमदावाद चातुर्मास के लिए विनंति की और कहा कि आप श्री की सत्ताईस वर्ष दीक्षा पर्याय हो चुकी है। जब से आपश्री ने दीक्षा अंगीकार की है उसके पश्चात् अपनी जन्मभूमि गुजरात में आप नहीं पधारे है। इस बार को आपको गुजरात पधारना ही होगा। अपनी जन्मभूमि को भी तो संभालना चाहिए। जो खरतरगच्छ अर्ध निद्रा में सो रहा है, उसमें भी नवचेतना का संचार करिए / उस समय केकड़ी विजयनगर, भीलवाड़ा, उदयपुर आदि संघ भी चातुर्मास विनंति हेतु पधारे हुए थे। आप श्री ने दीर्घ दृष्टि से सोचा और गुरुवर्या श्री विचक्षण श्री जी म.सा.की भावना एवं अन्तिम आदेश भी यही था कि तुम अब गुजरात की ओर विहार करना। गुरुवर्या श्री जी के वचन एवं उनके जो भी आदेश होते थे वे भविष्य में स्वर्णिम इतिहास बन कर सभी के सामने प्रस्तुत हो जाते थे। जिसका आपको प्रत्यक्ष अनुभव हुआ है / आप श्री ने अपने गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके अहमदावाद श्री संघ की आग्रहभरी विनंति को स्वीकार किया। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात की राजधानी एवं जैनियों की नगरी के रूप में अहमदावाद सुप्रसिद्ध है। यहां अनेको प्राचीन जैन मन्दिर हैं। कितने ही प्राचीन जैन मन्दिर चोथे दादा गुरुदेव श्री जिनचंद्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठित है / यह धर्म धरा अध्यात्म योगी देवचंदजी म.सा., महोपाध्याय समयसुन्दर जी म.सा.आदि अनेको विद्वान आचार्यो का विचरण क्षेत्र रहा है। अतः यह निश्चित है कि यहां खरतरगच्छ का आधिपत्य सर्वोपरि था किन्तु साधु-साध्वी भगवंतो का विचरण कम रहा जिससे खरतरगच्छ के श्रावकों की संख्या कम हो गयी। कभी कभी विचरते हुए साधुसाध्वी जी आते थे, और चातुर्मास भी होते परन्तु संघ की उन्नति व संघ को मजबूत बनाने हेतु कोई ठोस कार्य नहीं हो सका। चातुर्मास हेतु नगरों एवं उपनगरों में भ्रमण करते हुए आपका अहमदावाद नगर में पदार्पण हुआ। अहमदावाद नगर में प्रथम विश्राम हठी सिंह की वाड़ी में हुआ। वही से बैंड बाजों से आपश्री का स्वागत प्रारम्भ हुआ। सत्ताईस वर्ष पश्चात् अपनी जन्मभूमि गुजरात में प्रवेश सभी को आनन्दित करने वाला हुआ। पादरा, बड़ोदा, आदि अहमदावाद के निकटवर्ती क्षेत्रों के श्रावक, श्राविकाएँ आपश्री के आगमन को बधाने के लिए उमड़ पड़े। प्रवेश के समय अपार जनमेदिनी के हृदय में आनंद और उत्साह की उर्मियां उछलती दृष्यमान हो रही थी। स्थान-स्थान पर गहुंलियो, अक्षत से बधाते एवं मंगल गीत के साथ दादासाहब की पोल से आपश्री का प्रवेश हुआ। पोल में आपश्री के आगमन को खूब उत्साह और उमंग से बधाया गया। दादा साहब की पोल का विशाल आंगन स्वागत सभा में परिवर्तित हो गया। सभी ने अपने-अपने भाव-सुमन आपश्री के चरणों कमलों में समर्पित किये / अंत में आपश्री के उद्बोधन ने सभी को कृतकृत्य कर दिया। __ आषाढ सुद एकादशी के रोज जंगम युग प्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरि जी की स्वर्गारोहण तिथि पर आपश्री दादासाहब के पगला दर्शनार्थ पधारे / Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन पश्चात् दादावाड़ी की भूमि को देख कर कुछ स्फूरणा हुई कि इस भूमि को कवर में करना आवश्यक है। इसका उपयोग होना चाहिए ! पूर्व के ट्रस्टीगण उस समय कुछ वृद्ध थे, कुछ में कार्यक्षमता कम थी और कुछ अन्य गच्छ की क्रिया करने लग गये थे। ट्रस्टी के नाम पर तो सारा तंत्र बिगड़ा हुआ था। ट्रस्टियों की ढील के कारण ही इस विशाल भूमि पर अन्य गच्छ का उपाश्रय बनने हेतु चंदा एकत्रित हो चुका था। आपश्री को यहां का माहौल ज्ञात हुआ। वैसे भी आपने अपनी कार्यवाही तो प्रारम्भ कर ही दी थी। आपका यह समय बड़ा ही कटोकटी का था। सारा वातावरण विक्षुब्ध था और उस बीच रहना बड़ा मुश्किल का काम था। चातुर्मास दरम्यान अपनी शिष्याओं को Ph.D.कराने हेतु विशेष जानकारी के लिए आपश्री भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर नवरंगपुरा पहुंची। वहां पण्डित वर्य आगम वेत्ता दलसुख भाई मालवणिया से वार्तालाप हुआ। आपकी रुचि हमेशा ही अध्ययन अध्यापन की रही है / शिष्याओं की अध्ययन में अभिवृद्धि हो यह लक्ष्य हमेशा ही आपका रहा है। शिष्याओं के अध्ययन एवं खरतरगच्छ को एकत्रित करने के लिए आपश्री ने हिम्मत और धैर्य से दो साध्वियों के साथ नवरंगपुरा दादासाहब के पगले पर छप्पर के नीचे बनी छोटी सी कुटिया में रहने की व्यवस्था की। वहां विराजते हुए आपश्री ने खरतरगच्छ जनगणना प्रारम्भ की। चातुर्मास में आपश्री के प्रवचन टाउन हॉल, दिनेश हॉल, अम्बेडकर हॉल, राजस्थान स्कूल आदि में जगह-जगह पर हुए। प्रवचन का सारांश पेपरों मे आया जिससे लोगों को पता चला कि खरतरगच्छ की साध्वी जी का चातुर्माश हो रहा हैं। जिससे भक्त जन दर्शनार्थ आने लगे / धीरे-धीरे सम्पर्क बढ़ता गया / खरतरगच्छ के फार्म भरना चालू हो गया। इसका भी कुछ लोगों ने जो खरतरगच्छ के होते हुए भी अन्य गच्छ की क्रिया करने लग गये थे, उन्होने विरोध किया। आपश्री ने उनकी परवाह किए बिना अपना कार्य आगे बढ़ाया और उन विरोधियों को Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा कि यह खरतरगच्छ की जमीन है और खरतरगच्छ की ही रहेगी। यहां किसी अन्य गच्छ का उपाश्रय नहीं बनेगा। केवल खरतरगच्छ का ही उपाश्रय बनेगा। उन लोगों का सोचना था कि एक साध्वी होकर क्या कर सकेगी। ___ अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा परन्तु आपश्री का लक्ष्य एक ही रहा। नये ट्रस्ट का गठन किया। जिसमें अध्यक्ष श्री कांतिभाई कोठारी, उपाध्यक्ष श्री शेरमल जी मालू, मंत्री श्री शांतिभाई संचेती, कोषाध्यक्ष श्री वत्सराज जी भंसाली, सहमंत्री नारायण जी महता खीमेल-वाले आदि को लिया गया। सभी ट्रस्टियों ने मिल कर कार्यभार को संभाला। विशेषता यह रही कि कोई सा भी कार्य क्यो न हो, सभी ट्रस्टियों की विचारधारा एक ही रहती। सर्व प्रथम आपश्री ने नवरंगपुरा दादावाड़ी के प्रांगण में "खरतरगच्छ जैन ट्रस्ट" पेढी की स्थापना की। जो आज उत्तरोत्तर सफ़लता की ओर अग्रसर . शारीरिक अस्वस्थता के कारण 1983 का चातुर्मास अहमदावाद श्री संघ ने आपश्री का आमली पोल के उपाश्रय में करवाया / चातुर्मास में नवरंगपुरा दादावाड़ी में श्री मुनिसुव्रत स्वामी देरासर की नींव भरी पड़ी थी उसका कार्य प्रेरणा देकर शीघ्रातिशीघ्र करवाया। मंदिर जी की प्रतिष्ठा के लिए श्री संघ को आचार्य श्री के पास विनंति हेतु भेजा / आचार्य श्री सहर्ष तैयार हो गए। यह स्व, आचार्य श्रीमज्जिन उदय सागर सूरिश्वर जी म.सा.की सरलता एवं उदारता थी। आचार्य श्री के साथ में वर्तमान आचार्य श्रीमज्जिन महोदय सागर सूरिश्वर जी म.सा.एवं प.पू.तपस्वी मुनि पूर्णानंद सागर जी म.सा.पधारे थे। प्रतिष्ठा से कुछ दिन पूर्व वैसाख वदि पंचमी को शकुन्तला की दीक्षा दादा गुरुदेव की छत्रछाया में आचार्य श्री जी के वरद हस्तों सम्पन्न हुई। दीक्षोपरान्त शकुन्तला का नाम साध्वी स्मितप्रज्ञा श्री जी रखा गया। दीक्षापश्चात् तुरन्त ही श्री मुनिसुव्रत स्वामी मंदिर जी की प्रतिष्ठा सन् 1994 में वैसाख सुदि पंचमी को Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप श्री की निश्रा में स्व. आचार्य श्रीमज्जिन उदयसागर सूरीश्वर श्री जी म.सा.के वरद हस्त से सम्पन्न हुई। प्रतिष्ठा का वातावरण सभी के दिलों को जीतने वाला बना / अहमदावाद में यह प्रतिष्ठा अभूतपूर्व थी। विरोध करने वाले दांतो तले अंगुली दबा कर देखते ही रह गये। बिखरा हुआ खरतरगच्छ एकत्रित हो गया। दादा साहब का पगला प्रसिद्धि को प्राप्त हो गया। दीक्षा एवं प्रतिष्ठा महोत्सव पर ट्रस्ट के चारों ट्रस्टियों ने तन-मन-धन से इस अभूतपूर्व कार्यक्रम में भाग लिया। यह चारों ट्रस्टीगण चार आधारभूत स्तम्भ रूप प्रसिद्ध हुए। जब से यह प्रतिष्ठा हुई है तब से ही यहां की जाहोजलाली “दिन दूनी रात चौगुनी” बढती ही जा रही है। सोमवार के दिन तो दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। तत्पश्चात् आप श्री ने जिनदत्तसूरि खरतरगच्छ भवन का कार्य प्रारम्भ करवाया। आपश्री की सतत प्रेरणा एवं ट्रस्टियों की मेहनत के परिणाम स्वरूप अतिशीघ्र ही गगनचुंबी विशाल भवन तैयार हो गया। पूरे अहमदावाद शहर में इतना सुविधाजनक व विशाल जैन निवास स्थान दूसरा नहीं है। अनेकों यात्रीगण आते हैं और पूजा-भक्ति का लाभ उठाते है। दादावाड़ी के पीछे श्री जिनदत्त सूरि विहार धाम बनवा कर समन्वय का परिचय स्थापित किया है। वहां कोई भी गच्छ के साधु-साध्वी जी भगवंत विहार करते हुए स्थिरता कर सकते हैं। आप श्री की प्रेरणा से अब यहां पर सातसौ वर्ष प्राचीन दादावाड़ी का जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ है। इसका मुख्य प्रवेशद्वार तो बन गया है। आज यह दादावाड़ी अनेक श्रद्धालुओं का श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ हैं। सोमवार के दिन हजारों की संख्या में दादागुरु-भक्त आते हैं और श्रद्धा सुमन चढ़ाकर अपने आपको धन्य मानते है। सोमवार का दिन दादामेला के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है। रात को दो-तीन बजे तक घंटी की आवाज़ सुनायी देती हैं। केवल Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदावाद से ही नहीं अपितु दूर-दूर से लोग दर्शनार्थ आते हैं। यह दादागुरु के चमत्कार-एवं आपश्री की प्रेरणा का ही प्रतिफ़ल है। कार्तिक सुदि चतुर्थी को यहां पर मेला भरता है। आप श्री को अहमदाबाद के बिखरे हुए खरतरगच्छ को एकत्रित करने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। फिर भी आप अडिग रहे। तीन चार चातुर्मास करके आपश्री ने बिखरे हुए खरतरगच्छ को एकत्रिक करके एवं मजबूत बना कर जिनशासन की शान बढ़ाई है। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को धागे में पिरोकर हार बनता है और वही हार फिर गले की शोभा बढ़ाता है इसी प्रकार आप श्री ने भी खरतरगच्छ की शोभा बढाई है। आज हमें यह मंदिर, दादावाड़ी एवं विशाल श्री जिनदत्त सूरि खरतरगच्छ भवन देखने को मिल रहा है वह आपके ही अथक प्रयासों का परिणाम है / अहमदावाद खरतरगच्छ संघ पर आप श्री के असीम उपकार हैं। आपके उपकारों से संघ कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता। आप श्री की प्रेरणा से कितने ही पदयात्री चतुर्विद्य संघ निकले हैं। बाड़मेर से जेसलमेर, बड़ौदा से धोलका, भीलवाड़ा से वनेड़ा, जोधपुर से राणकपुर और देहली से हस्तिनापुर / सभी संघ निर्भीक एवं शांति पूर्वक निकले है। जोधपुर से राणकपुर संघ पहंचा तो सम्मान की वेला पर जोधपुर निवासी जसराज जी चोपड़ा जजस्टिज ने आपश्री को चतुर्विध संघ के समक्ष शासन उत्कर्षिनी की उपाधि से विभूषित किया। देहली से हस्तिनापुर जो संघ निकला वह एक अलौकिक संघ था। देहली चातुर्मास के प्रवेश के दिन ही आप श्री के परम भक्त अतूपशहर निवासी अशोक ने कह दिया था कि गुरुवर्या श्री जी मैं आपको हस्तिनापुर की यात्रा चतुर्विध संघ सहित करवाऊंगा। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायपुर, चौहटन, बाड़मेर, भरतपुर, दहाणु, देहली आदि स्थानों पर मण्डलों की स्थापना भी की है। जो आज दिन तर प्रगति के क्षेत्र पर चल रहे है। मण्डलों की स्थापना से पता चलता है कि आपका उद्देश्य महिलाओं को आगे लाने का रहा है। जो महिलाएं परिवार की चार दीवारों में रह कर कुछ नहीं कर पाती थी वह आज मण्डलों के माध्यम से समाज में आगे आ रही है। साथ में भक्ति भावना से अपने मन को निर्मल बना रही है। जिन-शासन के प्रत्येक कार्य में आप श्री की लघु भगिनी प.पू. मुक्ति प्रभा श्री जी म.सा.का पूर्ण सहयोग रहा है। तपस्या से भी आपका जीवन अछूता नहीं रहा है। आप श्री ने तप और साधना को साधन बना कर अपनी आत्मा को निर्मल एवं शुद्ध पवित्र बनाया है। आप श्री जैन साहित्य की अभिवृद्धि में भी संलग्न हैं / साहित्य का सर्जन भी आपकी चिन्तनभरी कलम से हुआ है। जिससे मानव समाज लाभान्वित हो रहा है। काव्य रचना में भी आपकी रुचि रही है। आपश्री के वरदहस्तों से चित्रसेन पद्मावती, सुरप्रिय चरित्र सतीत्व की पराकाष्ठा, विचक्षण कहानियाँ, विविध लेखस्तवन, गीत, सज्झाय, भजन, विद्याक्षाष्टक (हिन्दी, संस्कृत)का कार्य हुआ है। शिष्याओं को पढ़ाने में वात्सल्य की मातुश्री से कम नहीं हैं। आप श्री एक उच्चकोटि की वक्ता, मधुरभाषी और आगमों को जानने समझने और हृदयंगम करने वाली है। संघ का उद्धार हो युवा पीढी में धार्मिक जागृति आये यह सब कार्य आपने अपने कर्तव्य समझकर किये हैं। जैन संघ आप श्री की सेवाओं के लिए ऋणी है। आपके उपकारों की बजह से संघ आपके चरणों में सदैव नतमस्तक रहा है। अगणित है उपकार आपके जैन जगत पर। भूल नहीं पायेगा संघ कभी, जब तक सूरज चांद भूपर / / ***** Jain Education Internation Private & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // श्री गुरुदेव // परम विदुषी, आर्यारत्न श्री विचक्षणक्षी जी महाराज सा. की सुशिष्या श्री मनोहरश्री जी महाराज द्वारा शतावधान-प्रयोग रविवार दिनांक 1-8-65 स्थान: जोशी हॉल, अमरावती Jain Education Internationerivate & Personal Usenany jainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ('शतावधान क्या है ?') सुनी हुई, देखी हुई तथा पढ़ी हुई वस्तु को स्मृति में सुरक्षित रखकर समयपर पुनरावर्तन करने का नाम अवधान है। सौ वस्तुओं को एक साथ याद रखकर उन्हें क्रमशः प्रकट कर देना ‘शतावधान' कहलाता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से अवधान' का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इसके द्वारा हमारे प्राचीन साहित्य की अमूल्य निधि सुरक्षित रही है। संयम, साधना तथा एकाग्रता ता ज्वलंत उदाहरण अवधान के द्वारा प्रकट होता है। इसका प्रयोग चमत्कारी है, किन्तु वह चमत्कार हमें आत्मशक्तिओं के विकास की ओर प्रेरित करता है, तथा साधना में श्रद्धा एवं निष्ठा को जगाता है। Jain Education Internation@rivate & Personal Usevenly.jainelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतावधान-प्रयोग 1 देव देवी नाम स्मरण किसी भी पूछे हुए देव और देवी का नाम स्मरण रखना 2 वाक्यावधारण पांच शब्दोंका एक वाक्य अथवा पद्य का एक चरण सुनकर याद रखना. (गुजराती भाषा) 3 वस्तु दर्शन एक व्यक्ति दो वस्तुएं दिखायेगा जिसे स्मरण रखना 4 शब्दावधान हिन्दी, गुजराती, प्राकृत या संस्कृत भाषा के शब्दों को याद रखना. (यहां हिन्दी भाषा के दो शब्द कहे जाएंगे) 5 अंकाबधारण-तीन अंक याद रखना 6 जीजिविषा प्रश्न आप कितने वर्ष और जीना चाहते है. यह गणित द्वारा प्रकट करना 7 भाई बहन बताना भाई बहन की संख्या प्रकट करना 8 वाक्यावधारण-(हिन्दी भाषा) 9 भाषण का सारांश किसी भी व्यक्ति द्वारा दिए गए भाषण का सारांश स्मरण रखना / भाषण लगभग 3 मिनट का होगा। 10 अंकावधारण-तीन अंक याद रखना 11 ऊँकार गर्भित यंत्र Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamiy.jainelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव कोष्टक का यंत्र भरवाना, दी जानेवाली संख्या 3 से भाग देनेपर बराबर कटे तथा 15 से कम न हो तथा दो अंक से बडी न हो. 12 देव देवी का नाम स्मरण 13 वस्तु दर्शन 14 शब्दावधारण 15 अंकावधारण 16 जेब के रुपये बताना जेब में रखे गए रुपये गणित क्रिया द्वारा प्रकट करना. 17 सम संख्या का सर्वतोभद्र यंत्र सोलह कोष्टक का सर्वतोभद्र यंत्र भरवाना, प्रदेय संख्या 34 से कम न हो, तथा दो अंक से बडी न हो. 18 सोचा हुआ शब्द प्रकाशन __पांच कार्ड पर से सोचा हुआ शब्द प्रकट करना 19 घनमूल बताना घन समान दो संख्याओं को दो बार वर्ग करने को घन कहते हे, घन की संख्या का मूल प्रकट करना 20 टेलीफोन नंबर स्मरण प्रश्नकर्ता द्वारा बताए गए टेलीफोन का नंबर याद रखना 21 देव देवी का नाम स्मरण 22 वाक्यावधारण (प्राकृत) 23 वस्तुदर्शन 24 शब्दावधारण 25 अंकावधारण 26 तारीखवार प्रकाशन Jain Education Internation Private & Personal Usewamy.jainelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ई.स.के उन्नीसवी सदी के किसी बर्ष के मास की तारीख का वार बताना 27 पूर्णांक प्रकाशन एक संख्या को सुनकर पूर्ण संख्या प्रकट करना 28 गुणाकार गुप्तांक प्रकाशन प्रश्नकर्ता द्वारा गुणा की हुई संख्या का गुप्त अंक प्रकट करना 29 घडी, पैन, रूमाल का अवधान नव व्यक्तिओं मे से रखे गए घडी, पेन, रूमाल किस किस व्यक्ति के पास है यह बताना 30 सर्वतो भद्र यंत्र __ अवधान नं.११ के नियमानुसार 31 वाक्यावधारण (संस्कृत) 32 सिद्धांक-अवधान 33 सीलबंध लिफाफा अवधान प्रश्नकर्ताओ द्वारा गणित करने पर जो संख्या आएगी वह लिफाफे में पहले ही बंद कर के रख दी जाएगी 34 महापुरुष नाम स्मरण प्रश्नकर्ता द्वारा सुनाए गए भारत के दो महापुरुषों के नाम याद रखना 35 वस्तुदर्शन 36 योगफल गुप्तांक प्रकाशन 37 पुस्तक, पृष्ठ, पंक्ति बताना नव पुस्तकों मे से निकाली हुई पुस्तक का नंबर उसका सोचा हुआ पृष्ठ तथा पंक्ति गणित क्रिया द्वारा प्रकट करना (संख्या एक अंक से अधिक न हो) Jain Education Internation@rivate & Personal Usevaply.jainelibrary.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 विस्मय बोधक गणित अनेक व्यक्तिओं द्वारा किए गए गणित का आश्चर्यकारक परिणाम 39 प्रश्न प्रकाशन पांच कार्ड पर से चिंतित प्रश्न को प्रकट करना 40 शब्दावधारण 41 इच्छित अंक प्रकाशन प्रश्न कर्ता द्वारा सोचे गए अंक का स्वतः प्रकट करना 42 अंकावधारण तीन अंक 43 सर्वतो भद्र यंत्र (नव कोष्टक का, नं.११ के नियमानुसार) 44 चित्र दर्शन प्रश्नकर्ता द्वारा दिखाए गए चित्र को याद रखना 45 कवि नामस्मरण प्रश्नकर्ता द्वारा दिए हुए भारत के किसी प्रमुख कवि का नाम स्मरण रखना 46 नव कोष्टक का मध्य अंक बताना 47 भागाकार गुप्तांक 48 अंक अवधारण- तीन अंक 49 शब्दावधारण 50 देव देवी स्मरण 51 बाकी का गुप्तांक 52 महासर्वतोभद्र यंत्र 25 कोष्टक का महासर्वतोभद्र यंत्र भरवाना (यहां पर आधा भराकर छोड़ दिया जायगा) Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 53 समान्तर जोड़ समान अन्तर वाली 101 संख्याओं को सुनकर तुरंत उनका योगफल प्रकट करना (यहांपर 50 संख्याए सुनी जावेगी) 54 शब्दस्मृति पांच शब्दों को याद रखना 55 माला का अवधान नव व्यक्तिओं में रखे गए माला, मणका आदि प्रकट करना 56 आश्चर्यजनक जोड़ एक संख्या के आधार पर पूरा योग फल पहले ही प्रकट कर देना। 57 पांच कोष्टक का मध्य अंक प्रकाशन 58 पंचघात मूल 59 दान फल का गुप्तांक प्रकाशन 60 वाक्यावधारण 61 वस्तु स्पर्शन दो समान वस्तुओं को स्पर्शज्ञान द्वारा उनके क्रम को पहचानना 62 चित्रदर्शन 63 121 कोष्टक का महासर्वतोभद्र यंत्र (आधा यंत्र भरवाना) 64 अंकावधारण 65 वर्ग फल का गुप्तांक प्रकाशन 66 समान्तर जोड़ अवधान नं. 53 के आगे की संख्याएं सुनकर योग फल प्रकाशित करना 67 कथा श्रवण Jain Education Internation Private & Personal Usevomly.jainelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी भी व्यक्ति द्वारा सुनाई गई कथा का भावार्थ स्मरण रखना 68 जन्म वर्ष मास तिथि प्रकाशन 69 पुस्तकालयकी पुस्तक संख्या प्रकाशन 70 घड़ी का समय बताना 71 चित्र अवलोकन प्रश्नकर्ता द्वारा दिखाए चित्र की किसी सूक्ष्म विशेषता का अवलोकन कर के स्मरण रखना 72 महासर्वतोभद्र यंत्र अवधान नं. 52 को पूर्ण करना 73 मुद्रागणना हाथ में छिपाए हुए रुपयों, व मोतियों की गणना द्वारा सही संख्या बताना 74 वस्तु स्पर्शन 75 चश्मे का नंबर बताना 76 आठ समान अंको का गुणक व गुण्य बताना 77 वाक्यावधारण (संस्कृत) 78 अंकावधारण 79 संत नाम स्मरण प्रश्नकर्ता द्वारा बताए गए किसी संत का नामस्मरण रखना 80 121 कोष्टक का महासर्वतोभद्र यंत्र अवधान नं.६३ को पूर्ण करना 81 प्रश्न प्रकाशन तीन व्यक्तिओं द्वारा सोचे गए प्रश्न कार्ड के आधार पर प्रकट करना 82 रिसंधान Jain Education Internationarivate & Personal Usevownly.jainelibrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन प्रश्नकर्ताओं द्वारा एक साथ तीन वस्तुएं दिखाई जायगी जिसे एक साथ ही ग्रहण किया जाएगा। 83 चित्र दर्शन 84 वस्तु स्पर्शन 85 वाक्यावधारण (प्राकृत) 86 कथा श्रवण अवधान नं.६७ की तरह 87 देव देवी नामस्मरण 88 श्लोकानुस्मरण संस्कृत के किसी श्लोक के एक पद को व्यतिक्रम से सुनकर अनुक्रम से प्रकट करना 89 घर की सदस्यसंख्या प्रकाशन 90 भाषा स्मृति विश्व की भाषा के पांच शब्दों का एक वाक्य सुनकर नाम स्मरण रखना .91 अंकावधारण 92 नवपद स्मरण नवपद में से मन मे सोचे गए पद को प्रकट करना 93 श्लोकानुस्मरण अवधान नं.९९ की भांति 94 आशु भाषण तत्काल दिए गए विषय पर भाषण देना 95 वस्तु दर्शन 96 शब्दानुप्रास Jain Education InternationBrivate & Personal Useamly.jainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नकर्ता द्वारा दिए शब्द पर सम अनुप्रासवाले तीन शब्द तत्काल बताना 97 विस्मय बोधक गणित अवधान नं.३९ की भांति 98 शब्दावधारण 99 अंकावधारण 100 देव देवी नामस्मरण ***** Jain Education Internation Private & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चातुर्मास सूचि) भरतपुर अलवर जयपुर जयपुर अहमदाबाद बडौदा अहमदाबाद जामनगर पालीताना अजमेर कोटा जयपुर जयपुर पालीताना मन्दसौर रावजी पीपलियां रतलाम इन्दौर अमरावती हैदराबाद मद्रास बैंगलोर हैद्राबाद रायपुर दहाणू 11. बम्बई अहमदाबाद भरतपुर दिल्ली अहमदाबाद अहमदाबाद सूरत दिल्ली अनूप शहर बाड़मेर चौहटन 21. सांचौर 22. जयपुर अहमदाबाद जोधपुर भरतपुर दिल्ली कोटा Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((1. संयोग-वियोग) इच्छित वस्तु की प्राप्ति यह है-संयोग ! इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होना यह है-वियोग ! शरीर में प्राण का होना-यह हुआ संयोग ! शरीर से प्राण का निकल जाना यह हुआ वियोग ! मकान बनाने के लिए ईंट, चूने मिट्टी, पत्थर, पानी आदि का संयोग मिलेगा तभी ईमारत खड़ी हो सकती है वरना नहीं। मुक्ति का संयोग ठीक इसके विपरीत है वह पर पदार्थो के वियोग से होता है। अनन्त बार-अनन्तों से संयोग स्थापित किया। यह एक सिक्के के दो पहलू है। जब से जन्म लिया तब से ही किस-किस से संयोग किया उसका चिन्तन किया ? अगर नहीं किया तो अब करना है ? जन्म के साथ ही विविध प्रकार के संयोग प्रारम्भ हो गये! नाना प्रकार के पदार्थो को भोगा! जिस वस्त्र को आज पहना उसका फिर वियोग / संयोग के समय खुशी और वियोग के समय दुःख का अनुभव होता है। संयोग और वियोग के बीच यदि उसका उपयोग कर लिया जावे तो उसका दुःख नहीं होगा, पीड़ा नहीं होगी। सर्जन, विसर्जन यह तो सृष्टि का नियम है, इसके बीच यदि उपयोग को ध्यान में रख कर चले तो वियोग पश्चात् दुःख नहीं होगा। ज्ञानी पुरुष हमेशा ही उपयोग को लक्ष्य में ले कर चलते हैं इस लिए उन्हें हर्ष और शोक की अनुभूति नहीं होती। प्रवेश-प्रस्थान, उन्नत-अवनत हर चीज के दो पहलू है। इन दो पहलूओं के बीच हमारी जीवन नैया पसार हो रही है। कहीं प्रवेश हें तो कहीं प्रस्थान, कहीं जन्म हैं तो कहीं मरण / महापुरुष इन दोनों के बीच सदुपयोग को साध कर चले। महादेवी वर्मा ने कहा है। Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 विकसते मुरझाने को फूल, उदित होता छिपने को चंद। शून्य होने को मरते मेघ, मन्द होता जलने को द्वीप // पुष्प खिलते हैं मुरझाने के लिए, चंद्र निकलता छुपने के लिए, मेघ भरते है शून्य होने के लिए, दीप जलता है मन्द होने के लिए। यही जीवन की महिमा है। जन्म है वहां मरण निश्चित है / महापुरुषों ने इसको समझा है / उन्होने कहा-वह मर गया मुझें भी मरना है। यह बात समझ में आ गई तो वह शून्य के बाद चिंतन में चल पड़ता है वह फिर आंख मीच कर, किसी की रोटी छीनके नहीं, अन्याय, अनीति करके नहीं, ध्वंस करके अपना निर्माण नहीं करेगा। वह दूसरो को बना कर, सर्जन करके जियेगा / हमें चिंतन करना हैं कि हमें यहां से एक न एक दिन अवश्य ही जाना है। एक घण्टे के बाद क्या होगा, किसी को पता नहीं। जिस, धन दौलत, सत्ता और सम्पत्ति के आगे सभी मशहौल बन रहे हैं, क्या वह स्थायी रहने वाला है। यह नहीं समझते कि इन सबका एक दिन अवश्य वियोग होगा। पल्लव राजा के पास एक सन्यासी बाबा आया। राजा सोया हुआ है / सन्यासी बाबा बैठ गया। जिसका जीवन गति से प्रगति की ओर बढ़ रहा है, जिसके पास संवर है उसी का प्रदर्शन करने में वह लगा हुआ है। एक व्यक्ति बंगला बनाता है, वह चाहता है कि मेरा बंगला बहुत ही अच्छा है। सब उसकी प्रसन्नसा करें यहां तक कि साधु भगवंतों को भी ले जाया जाता है कि महाराज हमारे बंगले में पगले करों। पगले के साथ-साथ यह भी बताते है कि महाराज यह हमारा डाइनिंग रूम है, यह बैडरूम है, यह किचन है, यह स्टोर है, यह बाथरूम है, यह घूमने-फिरने के लिए बगीचा है। बताने के साथ महाराज के मुख की तरफ दृष्टि रहती हैं कि महाराज क्या फरमाते है, आशा रखता हैं कि महाराज मेरे घर की प्रशंसा करें। महाराजों से भी यह अपेक्षा रखी जाती है ।अरे ! भले मानस साधु महात्माओं को तुम्हारे बंगले से क्या लेना देना, वह तो इन सबसे विमुख है। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तो जानते है जिस चीज़ का निर्माण किया है उसका विध्वंस निश्चित है / जिस चीज़ का संयोग पाया वह वियोग की स्थिति को अवश्य प्राप्त करेगा। रावण की स्थिति भी यही थी। औरंगजेब भी आया सिकंदर भी आया, सब छोड़ कर चले गये। “नन्दन की नौ गई, वीसल की वीस गई, रावण की सब गई, उतने न आये साथ, इतने न जाये साथ, इतही को ओरो तोरो इतही, गुमाओगे। हेम चीर हाथी-घोड़ा कांहु के न चले साथ, बाट के बटाऊं, जैसे कल ही उठ जाओगे। कहत छज्जू कुमार, सुन लो माया के यार, मुट्ठी बांधे आये है, पसार हाथ जाओगे।" . राजा उठा / सन्यासी महाराज ने उनके मस्तिष्क तथा हाथ के ऊपर की रेखाओं को दृष्टिपात किया, और हंसी आ गई। राजा ने पूछा महाराज क्या हुआ मुझे देख कर आप हंसे क्यो ? सन्यासी बाबा ने कहा महाराज बताने से कुछ नहीं होगा बल्कि आप चिन्ता के सागर में डूब जायेगे। राजा माना नहीं, हार कर सन्यासी बाबा को बताना पड़ा। आज दिन तक जिस वैभव को तुम पा रहे हो उन्हीं सुखों को त्याग कर आज से सातवें दिन तुम्हारा वियोग हो जायेगा। धक्का लग गया। आज 50 हज़ार का घाटा हो गया, सुना उस समय चाहे हम धार्मिक क्रिया कयों न कर रहे हो मन लगेगा नहीं। पल्लव राजा के जीवन में भी धक्का लगा / जिस वैभव को देख कर मैं फूला नहीं समाता हूँ उसका वियोग हो जायेगा। पुनः पूछा, बाबा मैं मर कर जाऊंगा कहां! मरोगे निश्चिंत एक वस्त्र से दूसरा वस्त्र बदलोगे। मकान, मौहल्ला, कमरे, एशआराम नहीं बदलेगा, तुम्हारा चोला, यानि शरीर बदल जायेगा। तुम अपनी रानियों के नहाने के गटर में पंचरंगी कीड़ा बन जाओगें। मैं इस योनि में जाऊंगा मुझें तो Jain Education Internationerivate & Personal Usevowily.jainelibrary.org Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत नफ़रत है। व्यक्ति जिसका मोह करता है उसी के अनुसार योनि मिलती है। तुमने किसी की पीड़ा को नहीं देखा, किसी का हित नहीं किया। व्यक्ति जैसा करता है वैसा ही उसे फल मिलता है। जीवन एक प्रतिध्वनि का कुंआ है / खाली कुएं में आवाज़ लगाने पर प्रतिध्वनि के रूप में वापस आती है। उपकार के बदले उपकार, अपकार के बदले अपकार / तुमने ऐसा ही किया है इसलिए ऐसा ही फल मिलेगा। राजा ने नौकरों से कहा कि तुम तलवार ले कर खड़े रहना मैं मरु और-जैसे ही पंचरंगी कीड़ा बनू उस पर तलवार से वार कर देना। ऐसा ही हुआ, नाले के पास सारे सैनिक खड़े हो गये / कीड़ा उत्पन्न हुआ, सब चिल्लाने लगे मारो-मारो! यह आवाज़ सुनते ही वह छुप गया। जो जिसमें है उसी में राजी रहता है। जब वियोग हो रहा था तब दुःख हो रहा था। अव मरने से डर रहा था। यह संयोग-वियोग की अवस्था है। महादेवी वर्मा जब पल भर का है मिलना, फिर चिर वियोग में छिपना। एक ही प्रातः है खिलना, फिर सूख-धूल में मिलना। यह संयोग चिर वियोग में ले जाने वाला है। संयोग-वियोग की कड़ी को जिसने समझा नहीं-उसे सुख-दुःख का अनुभव होगा! पंचवर्षीय चुनाव में सत्ता पाने के लिए हाथ पसारना पड़ता है। झोली लेकर भीख मांगनी पड़ती है। दौडादौडी होती है। सर्दी, गर्मी का अनुभव नहीं होता। सीट के पीछे पागल हो जाता है / सत्ता के पीछे एयर कन्डीशन में बैठने वाला सब कुछ सहने को तैयार हो जाता है। झोपड़ियों में चक्कर काटता है, वोट मांगता है। साधु संगति के लिए उसके पास टाइम नहीं / मांग पूरी हुई तो हंसता है नहीं हुई तो दुःख होता है / यह सब नश्वर है, जानता है। एक करोड़पति सेठ अल्ला नसरुद्दीन के पास धन की गठरी ले कर आया / गठरी उनके पैरों में रख कर बोला 'मुझे जीवन शान्ति का उपाय बताओ?'अल्ला नसरुद्दीन ने कहां शेठ तुम संयोग की वस्तुओं के वियोग को Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहन नहीं कर सकते तो शांति कहां से मिलेगी। मन को धन वैभव के ढेरों से नहीं तोड़ोगे तब तक तुम छुटोगे नहीं / श्वास का संचय कब छूटेगा यह नहीं पता। शेठ जागृत बनने के लिए आये हो तो सब कुछ छोड़ना पडेगा। "कितने ही घर बसाये, कितने ही घर उजाड़े। स्थायी रहा न राही, श्वासों के घटते-घटते॥" सेठ तुम अपने आपको सेठ मानते हो, केवल बचनो से ही कह रहे हो मुझे शान्ति पानी है / नहीं मिलेगी जबतक अन्तरात्मा इससे विमुख नहीं होगा। "तुम मत बनना भैया, जड़ दृश्यो में दिवाना // " यह लक्ष्मी का वैभव-धन नाशवान है। इसकी अवस्था का हमें पता नहीं यह तुझें छोड़ कर जायेगा या तू इसे छोड़ कर जायेगा। दो में से एक अवस्था निश्चित है। ज्ञानी कहते हैं। "तन से सेवा कीजिए, मन से भले विचार। धन से इस संसार में, कीजे पर उपकार॥" एक ठेकेदार ने 30 लाख का ठेका लिया। पुल निर्माण हो गया। 2 लाख अपने पास रख लिया। पुल पर आवागमन चालू हो गया। एक सुबह ठेकेदार कुर्सी पर बैठा पेपर पढ़ रहा है अचानक पेपर पढ़ते-पढ़ते कुर्सी से लुढक गया। होश आया अरे यह क्या जिस पुल का मैने निर्माण कराया उसी पुल पर से आने वाली गाड़ी में मेरा परिवार आ रहा था / गाड़ी पुल पर आई, वैसे ही पुल टूट गया, गाड़ी के डिब्बे नीचे नदी में पड़ गये। सारा परिवार खत्म हो गया। अव वह रो रहा है। दुनिया ने पूछा क्या हुआ? कहां “गड्डा खोदा और को खुद को कुंव तैयार / ' जो करता है उसी को पकड़ा जाता है / जैसा बीज़ बोया जायेगा वैसा ही फल तैयार होगा। जैसी नींव होगी वैसी ही ईमारत तैयार होगी। किसी की रोटी छीनोगें, प्रेम छीनोगे तो तुम्हारी रोटी तथा प्रेम Jain Education InternationBrivate & Personal Usevowy.jainelibrary.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छीना जायेगा। समझ लो सोंच लो इसका विपर्यास अवश्य ही होगा। चाहे पुण्य रूप में या पाप रूप में। भोग, योग, संयोग सब मिला उसके साथ उपयोग जोड़ दिया तो वह संयोग उपयोग सद उपयोग बन जायेगा, जिन्दगी स्वर्णिम बन जायेगी। वियोग की कड़िया सतायेगी नहीं, दुःख नहीं होगा / खाना खाया तीन घंटे पश्चात, पुनः भूख लग आती है। संसार के कार्य किये उसके बाद कामना-वासना बढती चली जाती है, पूर्ति करते है वापिस बढ़ती है। ___ मानव जन्म को समझते हुए जिये, आंख मूंद कर नहीं, आंख खोल कर जिये। संत-पुरुष, ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा, चक्रवर्ती सभी चले गये। उनकी चाम से जो कार्य हुए उनकी तरफ हमें अपना ध्येय ले जाना है ! सबको जाना है, मार्ग सबका एक ही हैं। लेकिन एक सद् उपयोग से गया, एक उपयोग बिना गया। जो उपयोग पूर्वक गया उसका जन्म-और मरण सार्थक हुआ। जो उपयोग बिना गया उसका जन्म-और-मरण निरर्थक गया। यानि खाली की खाली चला गया। संयोग और वियोग इन दोनों कड़ियों के बीच उपयोग की शृंखला को नहीं भूलना चाहिए। जिन्दगी का उपयोग महापुरुषों ने किया-हम भी उपयोग मय जिन्दगी बनाये। जगाने वाले मिल जाये जग पड़े। सद् प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर हो जाये। जाना निश्चित जीना अनिश्चित है यह ध्यान में रख कर चलना है। न जाने कब मृत्यु का हिमपात हो जाये कुछ पता नहीं / इसलिए ज्ञानी कहते हैं सदैव ही जागृत हो कर उपयोग मय जीवन व्यतीत करते हुए आंख खोल कर जीना चाहिए जिससे वियोग की स्थिति प्राप्त न हो। औरआत्मा के चिद्स्वरूप को हम प्राप्त कर ले / जन्म-मरण की श्रृंखला से मुक्त हो कर यह आत्मा परमात्मा स्वरूप बन जाये। *** Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((२.शरण-समर्पण) अनन्त-अनन्त समय व्यतीत हो गया, संसार में भ्रमण करते करते / शरण नहीं पकड़ा जिनेश्वर का दर्शन सामर्थ्य देने वाला होता है। अशुभ से शुभ प्रवृत्तियों की ओर ले जाने वाला है। आध्यात्मिक जागृति लाता है। आज दिन तक मित्थात्व में पड़ा रहा, कामना-वासनाओं में समय बर्बाद किया। अब आत्मा में निवास करना है, रमण करना है ! रमण किसके माध्यम से करेगें? वह है शरण / शरण ! किसकी ? वीतराग प्रभु की, महापुरुषो की। पहले शरण बाद में समर्पण / शरण किसी की भी प्राप्त करो वह हर प्रकार से हमारी रक्षा करती है। शरण के माध्यम से रक्षा होती है, सरंक्षण होता है, सुरक्षा होती है ! शरण दो प्रकार की होती हैं। (1) लौकिक शरण (2) लोकोत्तर शरण लौकिक शरण: जड़ पदार्थो के साथ इसका सम्बन्ध रहता है। अनन्त भवभ्रमणा को बढ़ाने वाला है। बालक-बालक में जब मनमुटाव हो जाता है, झगड़ा होता है, मारना, पीटना चालू हो जाता है तब दो बालकों में से एक बालक अपनी मां की गोद में जा कर बैठ जाता है। मां की गोद में पहुंचने पर वह अपने आपको सुरक्षित समझता है। वहां उसे किसी प्रकार का भय नहीं, डर नहीं रहता है। उसके लिए यह शरण रक्षक बनती है / पत्नी पति की शरण लेती है। वह सोचती है मैं अबला हूँ, नारी हूँ। यह हुई लौकिक शरण जो अनादि अनन्त काल से स्वीकारते चले आ रहे है। लोकोत्तर शरण : लोकोत्तर शरण आत्मिक उन्नति का शरण है। जिसे प्राप्त करने पर भवभ्रमण मिट जाता है। जितने भी सांसारिक प्राणी है शरण अवश्य लेते Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 है।शरण उसका पकड़ना चाहिए जो सुरक्षित हो, सलामत हो। ऐसी शरण इस जगत में वीतराग-देव की है। उसके पास जाने वाले को अशरणता का अनुभव नहीं होता / दुःख आने पर भी अदीनता ऐसी-की ऐसी ही बनी रहती है। परमात्म की शरण में ऐसी ताकत कहां से आई / यह जानने के लिए परमात्मा के जीवन को जानना पड़ेगा। भगवान महावीर का जन्म हुआ तब देवता, तथा इन्द्र महाराजा भगवान को मेरु पर्वत पर ले जाकर अभिषेककरने लगे। पानी ऊपर तक आने लगा। सभी घबराने लगे। प्रभु पानी में बह जायेगें। भगवान तीन ज्ञान के धनी थे। उन्होंने जाना सभी धबरा रहे हैं / तुरन्त पैर का अंगूठा पानी को लगाया ।पानी थम गया। प्रभु की शक्ति को जन्मते ही सभी ने देखा। "सभी जीव करु शासन रसी, ऐसी भाव दया मन उल्लसी।" सर्व जीवों के प्रति करूणाभरी भावना से जो साधना करता है, वह आत्मा प्रबल पुण्य का स्वामी अवश्य बनता है। इतिहास ऐसे अनेकों उदाहरणों से भरा पड़ा है। वर्तमान में मानव अकसर जिसकी शरण में जा रहा है वह भौतिक शरण है। भौतिक शरण अमुक समय के लिए बेभान बना देती है। आध्यात्मिक शरण परिपूर्ण है, वह सदा सर्वदा सुखी सम्पन्न बनाती है। इन्द्र धनुष जिस प्रकार थोड़े समय के लिए अपने रंगो का प्रदर्शन करता है बाद में विलीन हो जाता इसी प्रकार की दशा लौकिक शरण की है। साधना के माध्यम से जिसने ख्याति प्राप्त की है वह शरण लोकोत्तर है, स्थायी है। लौकिक शरण के विषय में एक स्त्री जिसका पति 12 वर्ष पश्चात विदेश से आ रहा है। कौन सी ट्रेन से किस समय आयेगा सब निचित समाचार आ गये है। मां कहती है मेरा बेटा आ रहा है मैं लेने जाऊंगी। बेटा कह रहा है पापा आ रहे है मैं पहले पापा के चरणों में पडूंगा। भाई कहता है, भइया आ रहा है में पहले भइया से मिलूंगा / पनि कहती है पतिदेव आ रहे है मैं पहले दर्शन करूँ। घर पर रहना भी आवश्यक। प्रातः काल होते ही सभी तैयार हो कर Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवाना हो गये। पत्नी को घर पर छोड़ दिया। पत्नी ने सोचा मेरा मन बैचेन है, दर्शन किये बिगर रहा नहीं जाता। इसलिए बिना तैयार हुए ही घर से निकल पड़ी। सोचती है दूर से दर्शन करके शीघ्र ही वापिस आ जाऊंगी, किसी को पता भी नहीं चलेगा। बाल बिखरे हुए है। वस्त्र भी अस्त-व्यस्त है। दौड़ती हुई चली जा रही है। रास्ते में बादशाह नमाज पढ़ रहे थे। मखमल का गलीचा बिछा हुआ था। वह महिला गलीचे पर पैर रखती हुई दौड़ती जा रही है। बादशाह ने देखा यह स्त्री कौन-इसकी इतनी हिम्मत कि बादशाह के गलीचे पर पैर रख कर मस्ती से दौड़ती जा रही है। क्या इसे पता नहीं यह कालीन किसका बिछा हुआ है / बादशाहने आवाज़ लगाई पक़ड़ो पक़ड़ो / महिला ने कहां बादशाह अभी मुझे जाने दो, आते समय मैं स्वयं पक़ड़ जाऊंगी। महिला स्टेशन पर पहुंची। गाड़ी से उतरते हुए अपने पति के दूर से ही दर्शन करके वापिस रवाना हो गई। बादशाह नमाज पढ़ रहा था। उसी जगह आ कर खड़ी हो गई। पूछा ! बादशाह मुझें क्यों रोक रहे थे। बादशाह ने कहा क्या तुम्हें मालुम नहीं था कि यह गलीचा बादशाह का है। अपनी धुनमें पैर रख कर दौड़ती हुई जा रही थी ! महिला ने कहा बादशाह आप उस समय क्या कर रहे थे। मैं नमाज पढ़ रहा था। महिला ने तुरन्त पूछा / किससे मिलने जा रहे थे। मैं अपने खुदा से मिलने जा रहा था। बादशाह माफ़ करना ! मैं अपने शरीर के देव से मिलने जा रही थी। इसलिए भान भूली हुई थी , पता नहीं चला यह गलीचा किसका है। इसलिए मुझे शरीर के दैव के दर्शन हो गये। परन्तु बादशाह आप तो आत्मा के देव से मिलने जा रहे छे। उस बीच कौन आया, कौन गया अपना लक्ष्य भूल गये तो फिर आत्मा का देव (खुदा)की प्राप्ति कैसे होगी। मेरी शरण तो लौकिक थी। आपकी तो लोकोत्तर थी। बादशाह ने कहा बहन तुमने आज मेरी आंखे खोल दी। जीवन को झखझोर दिया। लोकोत्तर शरण-कैसी इस विषयमें, कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहां Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज // " “है अर्जुन, सब धर्मो को छोड़ कर मेरी शरण में आ जा। कृष्ण जिस युग में बोल रहे थे वह युग अत्यन्त सरल, मृदुल श्रद्धा का था। किसी के मन में उस समय ऐसा नहीं हुआ कि कृष्ण कैसे अहंकार की बात कर रहे हैं कि तू सब कुछ छोड़ मेरी शरण में आ। अर्जुन के मन में किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं उठा। लेकिन बुद्ध और महावीर तक आदमी की चित्त दशा में बहुत फर्क है। इसलिए हिन्दु मत “मामेकम् शरणम् व्रज पर केन्द्र मान कर खड़ा है। बुद्ध और महावीर को अपनी दृष्टि में आमूल परिवर्तन करना पड़ा। महावीरने नहीं कहा कि तुम सब छोड़ कर मेरी शरण में आ जाओ। नाहिं बुद्ध ने कहां। दूसरे छोर से सूत्र को पकड़ना पड़ा। जो बुद्ध का सूत्र है वह साधक की तरफ़ से है और जो महावीर का सूत्र है वह भी साधक की तरफ़ से है। सिद्ध की तरफ़ से नहीं हिन्दू और जैनमत में मौलिक भेद यही है कि हिन्दू मत में सिद्ध कह रहा है-आ जाओ मेरी शरण में ! जैन मत में साधक कहता है कि मैं आपकी शरण में आता हूँ। इससे पता चलता है कि कृष्ण जब बोल रहे थे तव श्रद्धा का युग था। और जब महावीर बोल रहे थे तव तर्क का युग था। कल्पसूत्र में भी इसका वर्णन आता है। महावीर कहें मेरी शरण में आ जाओ तो तत्काल लोगों को लगेगा कि बड़े अहंकार की बात है। बुद्ध के समय बुद्ध के शिष्यों ने कहां-बुद्धं सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि / बुद्ध की शरण में जाता हूँ, संघ की शरण में जाता हूँ, धर्म की शरण में जाता हूँ। यहां महावीर और बुद्ध के सूत्रों में भी फर्क है। वह दृष्टि में लेना जरूरी है। ऊपर से देखने पर दोनों सूत्र समान दिखते है। गच्छामि हो, वा पवज्जामि हो शरण में जाता हूँ या स्वीकार करता हूँ। एकसे ही मालूम पड़ते है / परन्तु यहां भेद है / जब कोई कहता है "बुद्धं सरणं गच्छामि'' अर्थात् बुद्ध की शरण में जाता हूँ तो यह शरण में जाने की शुरूआत है। पहला कदम है / और जब कोई कहता है कि “अरिहंते सरणं पवजामि'' Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 तव यह शरण में जाने की अन्तिम स्थिति है। शरण स्वीकार करता हूँ तव आगे कोई गति नहीं है ,अवरोध नहीं है / शरण में जाता हूँ वहां बीच में व्यवधान आ सकता है, लौट भी सकता है। महावीर का सूत्र है “अरिहंते सरणं पवज्जामि"अर्थात् अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूँ। यहां कोई व्यवधान नहीं। एक भक्त भगवान की शरण में चला जा रहा हैं। उस समय कृष्ण भोजन कर रहे थे, रूकमणी परोस रही थी। वह भक्त हरे राम हरे कृष्ण, हरे हरे कहता चला जा रहा था / थोड़े समय में बोलते-बोलते शरीर का भान भूल गया। लोगों ने पागल समझ कर पत्थर मारना शुरू कर दिया, वह तो तान के साथ हरे राम, हरे कृष्ण हरे हरे बोलता ही जा रहा है, लोगों ने उसे खूब परेशान किया कृष्ण महाराज के पास तार पहुंच गया, भक्त ने मुझे पुकारा है, मेरी शरण में आ रहा है, फौरन उठे और दौड़ते-दौड़ते आगे, सहायता हेतु जाने लगे। इतने में ही भक्त ने स्वयं पत्थर उठाया और लोगों को मारने लगा। कृष्ण यह देख धीरे-धीरे लौटने लगें। रूकमणी ने पूछा महाराज खाना खाते-खाते इतनी तेज दौड़ कर कहां गये थे और अब धीरे-धीरे आ रहे है / कृष्ण ने कहा एक भक्त मेरी शरण में आ रहा था। बीच में व्यवधान आया, उसने अपनी सुरक्षा अपने हाथ में ले ली, भक्ति का तार टूट गया / पत्थर हाथ में ले लिया। इसलिए में वापिस आ गया। अर्पण वाली भक्ति और समर्पण वाली भक्ति को पावर हाऊस से Light मिलती है। समर्पण भाव कम हुआ, पावर हाऊस से कनेक्शन कट जाता है / मीरां ने कृष्ण भगवान की शरण ली। “मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।।" सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भगवान को समर्पित था। राजा ने जहर का प्याला भेजा। मीरा ने भगवान का स्मरण कर पी लिया। 'जहर' भी अमृत बन गया। मीरां की भक्ति सच्ची थी, समर्पण भाव वाली थी। इसलिए उसका जीवन निर्भय था। जहां गच्छामि'शब्द आता है वहां मंजिल पहुंचने में व्यवधान आ जाता है। "पवजामि"सूत्र के पीछे Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 "Point of no return"इसके पीछे लोटने का Chance नहीं रहता है। समर्पण भाव हो जाये तो तेरा कुछ नहीं, तन नहीं, धन नहीं, जन नहीं, वैभव नहीं, मकान नहीं, तेरा स्वरूप भी कुछ नहीं रहता / वास्तविक स्वरूप तो तेर ज्ञानमय, दर्शनमय, चारित्रमय है / इस समर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग झलकता है। समर्पण और अर्पण भाव में कुछ भी अवशेष नहीं रहता है। "समर्पण लो सेवा का सार, सजल संस्कृति का यह पतवार आज से यह जीवन, उत्सर्ग, इन्ही पगतल पर विगत विकार।" समर्पण भाव नदी के वहाव की तरह है उसमें तैरने की आवश्यकता नहीं, स्वयं ही तिर कर किनारे पहुंच जायेगा। सच्ची श्रद्धा पूर्वक शरण स्वीकार की है तो समर्पण भाव स्वतः ही आ जायेगा। Jain Education Internationerivate & Personal Usenany jainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((३.एक वाक्य से जीवन उज्जवल) जीवन में धर्म की जागृति होनी चाहिए। धर्म पर रुचि होगी तो जीवन में जागृति आयेगी। जागना हैं / जाग जायेगें तो गति से प्रगति होना निचित है। वाक्य ऐसा हो जिससे जीवन में परिवर्तन आ जाये / जीवन उज्जवल बन जाये, निर्मल बन जाये, पवित्र बन जाये / मलीनता दूर हटाने से अपने मन की अपवित्रता, गन्दगी सारी दूर हो जाती है। हम सभी जगह स्वच्छता चाहते है। कपड़ों की स्वच्छता, बंगले की स्वच्छता आदि सभी स्थानों पर स्वच्छता देखना चाहते हैं। घर गन्दा है, तो नौकर को डांट लगा कर खड़े पैर घर की सफाई करवाते हैं। वस्त्र गंदे है तो धोबी से धुलवाते हैं। यहां तक कि लेटीन, बाथरूम में भी स्वच्छता चाहिए। उसके लिए फिनाइल, Acid आदि का उपयोग करवाते है / प्रातः काल होते ही घर में पानी ढोलना चालू क्योंकि घर की सफ़ाई जो करनी है। दीपावली पर घर के सारे वर्तनों को निकालकर इमली तथा मिट्टी से घिस-घिसकर साफ़ करवाते है कहीं कोई वर्तन गंदा न रह जायें। अनादि अनन्त समय पर पदार्थों की सफ़ाई में व्ययतीत कर दिया। आज दिन तक मन की स्वच्छता की तरफ़ ध्यान नहीं दिया। जिसके अन्दर अनादि से काम, क्रोध, लोभ, माया तथा-वासनाओं का कचरा भरा पड़ा है। उसकी सफ़ाई के लिए आज दिन ऐसा कोई साबुन नहीं लाये, फिनाइल नहीं लाये जिससे मन की सफ़ाई हो सकें। मन की सफ़ाई के लिए वीतराग प्रभु की वाणी, स्वाध्याय, पूजा और भक्ति ही काम आयेगी। जागों, जागों, जग जाओं, जगाने के लिए महापुरुषों ने हर समय चेतावनी दी है। कहा भी है। “जो जागत है सो पावत है। जो सोवत है वो खोवत है।"जीवन और मृत्यु कैसे ? जागृति-जीवन, मूर्छा-मृत्यु / मूर्छा हर स्थान से बधी हुई है। जहां मुर्छा है वहां मृत्यु निश्चित / जड़ पदार्थो के Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 साथ हमेशा से ही मूर्छा चली आ रही है। जागृति है वहां उजाला है, मूर्छा है वहां अंधेरा है। जहां पर उजाला है वहां अन्धकार, टिक नहीं सकता है। सूर्य उदित होते ही रात्रि का अन्धकार समाप्त / ज्ञान का दीप बुझा जीवन में अन्धकार हो गया। कमरे में दीपक जलाया, सारा कमरा प्रकाशमय हो गया, अन्धकार भाग गया। अपने जीवन में ज्ञान का द्वीप प्रगट करना है। संत एकनाथ पुजारी थे। भगवान की पूजा सेवा करते थे। एक दिन एक रूपये का हिसाब नहीं मिला / महन्त जी सो गये थे। एक रूपये के हिसाब की गड़बड़ में खाना नहीं खाया, रात को नींद नहीं आई। 10 बजे गये / 12 बजे अचानक हिसाब मिल गया तो नाचने कूदने लग गया, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, मिल गया, मिल गया। रात्रि के बारह बजे इतनी ज़ोर से चिल्लाने के कारण महन्त जी की नींद खुल गई। पूछा ! एकनाथ क्या हुआ ? इतना क्यों नाच-कूद रहे हो, जोर-ज़ोर से बोल रहे हो। एकनाथ हंसता, नाचता, कूदता हुआ महन्त जी के पास आया और बोला महन्त जी एक रूपये का हिसाब मिल गया। एकनाथ एक रूपये का हिसाब मिलने पर इतना आनन्द तो अनादि अनन्त समय से बिगड़ी हुई अपनी आत्मा का हिसाब मिल जाये तो कितना आनंद आयेगा। “अनादि का हिसाब'महन्त जी के एक वाक्य ने एकनाथ के जीवन को झखझोर दिया। जीवन उज्जवल बन गया। अनादि की नींद खुल गई। महन्त जी को कहा। सम्भालो यह चावी और में चला। इसी प्रकार बंगाली बाबू को पुत्री के एक वाक्य ने जगा दिया ! कलकत्ते के धनीमानी शेठ बंगाली बाबू के एक पुत्री थी। पुत्री छोटी थी तभी पत्नि बीमारी के कारण संसार से बिदा हो गई। पुत्री का सारा कार्यभार बंगाली बाबू पर आ गया। बड़े प्रेम तथा वात्सल्य भाव से पुत्री को रखते थे। पुत्री बड़ी हुई, पढने जाने लगी। चौमासे का समय था। एक दिन स्कूल से आई, नास्ता किया, ट्यूशन चली गई। ट्यूशन से घर आई तब तक 6 बज गये / घर में Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधेरा था। बाहर से ही आवाज़ लगाई। बाबूजी "शाम ढल गई, अंधेरा छा गया, अभी तक दीया नहीं जलाया।"बंगाली बाबू बोले बेटी कार्य की व्यस्तता बहुत थी इसलिए दीया जलाना भूल गया। जवाब तो बेटी को दे दिया लेकिन बेटी के वाक्य ने (शाम ढल गई, अंधेरा छा गया, अभी तक दीया नहीं जलाया) बंगाली बाबू के जीवन को झंखझोर दिया। चिन्तन चल पड़ा-जीवन की संध्या ढलने लगी है, मैंने अपने जीवन के अन्धकार को दूर करने के लिए साधना का दीप प्रज्वलित नहीं किया। उसी समय जागृत बन गये। बेटी की सारी व्यवस्था कर दी। बचे पैंसो से शांति निकेतन नामक आश्रम बनवा दिया। और निकल पड़े ! बेटी के एक वाक्य ने बाबूजी का जीवन उज्जवल बना दिया ! शरीर की बीमारियों के सारे Point लगाना सीख गये। जगह-जगह पर एक्युप्रेशर के केन्द्र खोले जाते है / जहां शारीरिक सभी बीमारियों का Point दबा कर उपचार किया जाता है। लेकिन आत्मा का Point आज दिन तक लगाना नहीं सीखा। जिस पर अनादि से अष्ट कर्म रूपी बिमारियों का आवरण छाया हुआ है। जिसके कारण आत्मा बौझिल हुई नीचे पड़ी हुई है। उस पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी Point नहीं लगेगे तब तक वह प्रगट में नहीं आयेगी। शालीभद्र ने एक नाथ' शब्द सुना / जीवन परिवर्तित हो गया। मगध देश की राजधानी राजगृही नगरी का स्वामी श्रेणिक था। एक समय दो व्यापारी रत्नकम्बल लेकर नेपाल से आये / राजगृही नगरी की प्रशंसा चारों तरफ़ से खूब सुनी हुई थी। इसलिए बहुत खुश थे कि-इस नगरी में रत्नकम्बल शीघ्र ही बिक जायेंगे। पहुंच गये श्रेणिक के दरबार में / राजा श्रेणिक और रानी चेलना आपस में वार्तालाप कर रहे थे / व्यापारियों को आया देख पूछा कहो क्या लाये हो। उन्होने कहां नेपाल से रत्नकम्बल लाये है। रानी चेलना ने कहा दिखाओ। व्यापारियों ने जैसे ही रत्नकम्बल निकाले प्रकाश-प्रकाश हो गया / इतने सुन्दर और बढ़िया चमक वाले रत्न कम्बल देख रानी चेलना की Jain Education Internation Private & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक कम्बल लेने की इच्छा हो गई। राजा को कहा। राजा ने उसकी कीमत पूछी। व्यापारियों ने एक लाख स्वर्ण मुद्राए बताई। सुन कर राजा दंग रह गया। एक कम्बल दिला दूं तो मुझें दूसरी रानियों के लिए भी लेना पड़ेगा! ऐसे तो सारा खजाना रिक्त हो जायेगा। स्त्रियों की तो यह आदत होती है कि एक के पास साड़ी देखी तो वैसी ही साड़ी मुझें लाने की। सासू एक बहु को गहना बनवाती है तो दूसरी बहुओं को भी बनवाना आवश्यक, नहीं तो घर में कलह उत्पन्न हो जाता है। राजा श्रेणिक ने भविष्य को देखते हुए इन्कार कर दिया। रानी चेलना को बहुत दुःख हुआ। व्यापारी निराश मन वापिस जाने लगे। रास्ते में आपस में बाते करते जा रहेहै कि इस नगरी की हमने इतनी प्रशंसा सुनी और राजदरबार में हमारा एक कम्बल भी नहीं बिका। जब राजा ही हमारा कम्बल नहीं ले सका तो प्रजा क्या लेगी। दोनों ही नगरी की निंदा करते हुए जा रहे हैं। रास्ते में गौभद्रा शेठानी का महल आया। गोभद्रा शेठानी उस समय झरोखे में बैठी हुई थी। उसने अपनी नगरी की इस प्रकार निंदा सुनी तो मन दुःखी हो गया। वर्तमान समय में भाई-भाई की निंदा करता है, बेटा बाप की निंदा करता है, उसके मन में दुःख नहीं होता। पहले के जमाने में अपनी नगरी तथा राजा की निंदा भी कोई नही सुन सकता था। गोभद्रा शेठानी ने उन दोनों व्यापारियों को अपने महल में बुलाया और पूछा क्या बात बनी जो आप हमारी नगरी की निंदा करते जा रहे है। व्यापारियों ने कहा ! माता जी जिस आशा को लेकर हम आये थे और निराश हो कर जा रहे है। आपकी नगरी में हमारा एक भी रत्न कम्बल नहीं बिका। राजदरबार से हम आ रहे है। गोभद्रा शेठानी बोली आपके पास कितने कम्बल है और क्या कीमत है। उन्होंने कहां सोलह और एक कम्बल की कीमत एक लाख सुवर्ण मुद्राए / बस ! मेरे तो 32 बहुऐं हैं, कम्बल सोलह हैं और नहीं ?यह सुन कर वयापारी आपस में कहने Jain Education Internationerivate & Personal Useverowy.jainelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 लगे, लगता है इसकी “डागली खिसक"गई है। पुनः माता ने कहा निकालो सोलह कम्बल / व्यापारियों ने निकाले हाथे में लेकर एक-एक सम्बल के दोदो टुकड़े कर दिये। सोलह के बत्तीस बना दिये। और खजांची (केशियर)को कहां इनका हिसाब कर दो। खजांची सोलह लाख स्वर्ण मुद्राए ले आया। यह देख व्यापारी चकित रहे गये / हम तो समझ रहे थे कि माताजी कि डागली खिसक गई है पर यह तो वास्तविक निकला। स्वर्ण मुद्राएं लेकर खुशी-खुशी नगरी की प्रशन्सा करते हुए अपने देश को रवाना हो गये। इधर गोभद्रा शेठानी ने बत्तीस बहुओं के लिए बत्तीस टुकड़े ही किये। उन्हों ने अपना हिस्सा नहीं किया ना ही अपनी इकलौती बेटी सुभद्रा का। आज बहूओं के लिए साड़ी लाते है तो पहले अपनी और बेटी की बाद में बहूओं की। गोभद्रा शेठानी बहूओं को बेटी समान समझती थी। जहां बहू को बेटी सदृश रखा जाता है वहां घर स्वर्ग बनता है / बहू को बहू रूप में देखा तो घर नरक बन जाता है। गोभद्रा शेठानी का घर तो स्वर्ग ही था। रोज की 33 पेटियां स्वर्ग से उतरती थी। इकलौता बेटा शालीभद्र इतना पुण्यशाली था। पूर्व जन्म में मासक्षमण के पारने मुनि भगवंत को उलट भावों से खीर बहराई थी ! पूर्व की पुन्याई से शालीभद्र बना ! सुपात्रदान की महिमा नें कहां से कहां पहुंचा दिया। गोभद्रा शेठानी ने बत्तीस बहूओं को बुलाया और एक-एक रत्न कम्बल दिया / बहूओं ने दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान किया, शरीर को पौंछा और कम्बल गटर में डाल दिये। दूसरे दिन सफ़ाई करने महतरानी आई, गटर खोला और रत्नकम्बल निकाल लिए। घर ले गई। दो दो टुकड़ो तो जोड़ कर सोलह कम्बल बना लिए / रत्नकम्बल ओढ़कर महतरानी राजदरबार में सफाई करने गई। रानी चेलना ने देखा यह कया जिस कम्बल को मैं नहीं खरीद सकी उसको एक महतरानी पहन कर आई है। गुस्सा आ गया। दुःखी मन महल में एक तरफ़ जा कर बैठ गई। राजा आए रानी को दुःखी देखा पूछा रानी क्या हुआ। कुछ Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय तक रानी बोली नहीं, राजा के बार-बार पूछने पर रानी ने कहा / राजन जिस रत्न कम्बल को आप मुझें नहीं दिला सके वह रत्नकम्बल आज राजदरवार की महतरानी ओढ़ कर आई / राजा को आश्चर्य हुआ। मेहतरानी को बुलाया पूछा तू यह कहां से लाई / महतरानी ने कहा गोभद्रा सेठानी के यहां से। ऐसा एक-नहीं सोलह कम्बल मैं लाई हूँ / राजन् आप नहीं जानते कि गौभद्रा सेठानी के पुत्र शालीभद्र तथा बत्तीस बहुएं है। वह रोज जिस वस्त्र तथा आभूषणों को पहनती है वह दूसरे दिन उतार कर गटर में डाल देती है। राजा को सुन कर बहुत ही प्रसन्नता हुई / मेरी नगरी में इस प्रकार के धनीमानी प्रतिष्ठित शेठ निवास करते है और मुझे पता ही नहीं। जरूर अव मैं उसके घर जाऊंगा और गौभद्रा तथा उसके पुत्र शालीभद्र के दर्शन करके अपने आपको धन्य मानूंगा। गौभद्रा सेठानी के यहां समाचार भिजवा दिया। गौभद्रा सेठानी को पता चला कि राजगृही नगरी के मालिक श्रेणिक उसके घर पधार रहे है तो उसने उनके आगमन की सारी तैयारियां करवा ली। इधर राजा भी सजधज कर रानी चेलना सहित रथ पर असवार हो ठाठवाठ के साथ गौभद्रा सेठानी के यहां पहुंचा। सेठानी ने राजा को खूब आनंद और उत्साह के साथ बधाया। गोभद्र सेठ तो शालीभद्र छोटा था तभी इस संसार से विदा हो गये थे। सारे परिवार को संभालने का भार सेठानी पर ही था। राजा ने अन्दर प्रवेश किया -महल को देखते ही दंग रह गया। गौभद्रा सेठानी राजा को पहली मंजिल , दूसरी मंजिल, तीसरी मंजिल, चौथी मंजिल तक ले गई। महल की बनावट तथा कारीगरी देखने लायक थी। राजा सोचने लगा-इस प्रकार का महल तो मेरा भी नहीं है। राजा जहां पानी देख रहा है वहां पानी नहीं स्थान है। जहां स्थल देखता है वहां स्थान नही पानी है। चौथी मंजिल पर पहुंचने पर गौभद्रा सेठानी ने अपने पुत्र शालीभद्र को आवाज लगाई। बेटा शालीभद्र नीचे उतर / बेटा ने आवाज सुनी। हां मां क्या काम है। बेटा श्रेणिक Jain Education InternationErivate & Personal Usevownly.jainelibrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये हैं / शालीभद्र ने कहा श्रेणिक आये है तो भखार (कोठार)में डाल दो। बेटा को यह भी मालुम नहीं श्रेणिक कौन है ? उसे तो यह भी पता नहीं रहता था कि सूर्य किधर सेउदय होता है और किधर अस्त होता है। वह सातवीं मंजिल पर अपनी बत्तीस पत्निओं के साथ में भोग-विलास करता हुआ देवतायी आभूषण अलंकार को धारण करता है। कभी नीचे उतरता ही नहीं है तो क्या पता कौन आया कौन गया। उसने तो समझा कोई सामान आया है इसलिए कोठार में डालने का कह दिया। मां ने सुना वापिस पुन. आवाज़ लगाई। बेटा शालीभद्र नीचे उतरो। अपने 'नाथ'आये है / शालीभद्र ने सुना अपने नाथ आये है। मन में चिन्तन चलने लग गया। अरे मेरे ऊपर भी कोई नाथ है जरूर पुण्याई में कोई कमी रह गई है। अव ऐसी करनी करूं कि मेरे ऊपर कोई नाथ ना रहे ! शालीभद्र नीचे उतरा देखकर-राजा दंग रह गया कितना सुन्दर रूप रूई सा कोमल शरीर / अपनी वाहों में लेकर गोद में बिठा लिया। कुछ समय पश्चात् मां बोली-राजन इसे अब छोड़ दो यह अव आपके हाथों की गर्मी सहन नहीं कर सकेगा इसका शरीर बहुत ही कोमल है। राजा ने शालीभद्र को छोड़ दिया-वह ऊपर चला गया। राजा भी गौभद्रा सेठानी से वार्तालाप करके प्रसन्न वदन अपने महल के लिए रवाना हो गया। शालीभद्र ऊपर पहुंचा मन में तो “नाथ"शब्द का चिन्तन चल ही रहा था कि मेरे ऊपर भी 'नाथ'-अब मुझे ऐसा कार्य करना चाहिए जिसे मैं स्वयं नाथ बन जाऊं मेरे ऊपर कोई नाथ न रहें। विचारों की श्रेणी चढ़ते-चढ़ते लक्ष्य पहुंच गया-मन में रोज की एक-एक पत्नि को छोड़ना निश्चय कर लिया। इस प्रकार बत्तीस पत्निओं को छोड़कर-बत्तीसवें दिन निकल पडूंगा महावीर के मार्ग पर / रागी मन विरागी बन गया। एक “नाथ"शब्द ने शालीभद्र के जीवन को प्रकाशमय बना दिया। इधर सुभद्रा ने सुना कि मेरा भाई रोज की एक-एक पत्नि का त्याग Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 कर रहा है। बत्तीसवे दिन सभी को छोड़ कर चला जायेगा। मन में बहुत दुःखी है। एक दिन धन्नाजी को आठों पत्नियां स्नान करा रही है। धन्नाजी चौकी पर बैठे हुए है। कोई तेल लगाती है कोई पंखों से हवा करती है कोई पानी डालती है आदि। इतने में ही क्या हुआ धन्नाजी की पीठ पर गर्म-गर्म बूंदे गिरी पीछे मुढ़ कर देखा, पत्नि सुभद्रा की आंखों में आंसू धन्नाजी ने पूछा सुभद्रा आंखों में आसू कैसे ! क्या हुआ ! किसी ने कुछ कहां / नहीं पतिदेव किसी ने कुछ नहीं कहा। मेरा भाई नित्य की एक-एक पत्नि का त्याग कर रहा है / बत्तीसवें दिन Last पत्नि का त्याग कर वैरागी बनकर महावीर के मार्ग का अनुकरण कर लेगा। इसका मुझे बहुत दुःख है। इसी कारण याद आते ही मेरी आंखो में आसु आ गये जो आपकी पीठ पर पड़ गयें। धन्नाजी ने कहा सुभद्रा तेरा भाई तो कायर है कायर ! रोज-रोज एक-एक क्यों छोड़ना, एकसाथ सबको छोड़ना चाहिए / सुभद्रा ने सुना सहन नहीं हुआ कहां पतिदेव-"कहना सरल है और करना कठिन है।" यह वाक्य धन्नाजी ने सुना। वाक्य हृदय को चुभ गया। सुभद्रा क्या कहती हो कहना-सरल और करना कठिन अब में कहना सरल करके बताऊंगा। धनाजी खड़े हो गये। बोले हट जाओ मेरे सामने से तीन हाथ दर मैं तो यह चला / आशक्ति से अनाशक्ति आ गई। आचरण में परिवर्तन आ गया। सुभद्रा देखती रह गई यह क्या पतिदेव हमसे विमुख हो गये। खूब मांफी मांगी कि मुझसे भूल हो गई। साथ में सभी पत्नियों ने भी हाथ पैर जोड़े। परन्तु धन्नाजी को तो करके बताना था। निकल पड़े और पहंच गये शालीभद्र के दरबार पर। दरबार पर पहुंच कर नीचे से ही आवाज़ लगाई / शालीभद्र ओ शालीभद्र। कायर शालीभद्र नीचे उतर / शालीभद्र ने अपने बहनोई की आवाज़ सुनी कि मुझे कायर कहकर पुकार रहे है। आत्मा हिल उठी। पता चल गया हां वास्तव में मैं कायर हूँ। रोज की एक एक पत्नी का त्याग कर रहा हूँ / शूरवीर Jain Education Internation Private & Personal Usevawy.jainelibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिनखे के समान संसार को छोड़ देते है। फटाफट उसी समय नीचे उतर गया। पत्नियां रोती रह गई। साला-बहनोई एक साथ निकल पड़े और वैभारगिरि पर जाकर साधना करने लग गये। संत एकनाथ ने एक वाक्य सुना, “अनादि का हिसाब" बंगाली बाबू ने अपनी पुत्री का एक वाक्य सुना, "बाबूजी, शाम ढल गई। अंधेरा छा गया, अभी तक दीया नहीं जलाया।"शालीभद्र ने एक “नाथ'शब्द सुना और धन्नाजी ने “कहना सरल और करना कठिन' यह वाक्य सुना। जीवन में परिवर्तन आ गया। जीवन को उज्जवल बना लिया। हमने आज दिन तक कितने वाक्य सुने लेकिन जीवन में कुछ परिवर्तन नहीं। शादी के समय पर वरकन्या मंण्डप में बैठते है। पण्डितजी महाराज क्या कहते हैं सभी को मालुम ही होगा। वर-कन्या सावधान ! वरराजा सावधान ! सावधान किससे? संसार के कचरे में फंस रहे हो सावधान हो जाना। लेकिन फिर भी आंखे नहीं खुलती है। जानकर अन्जान बने हुए हैं। फिर शांति और सद्गति चाहते है। कैसे मिल पाएगी / वाक्य ऐसा सुनो जिस पर चिन्तन चल पड़े। जीवन में स्वच्छता, उज्जवलता आ जाये ! आत्मा अपने निज स्वभाव में आ जाये / आत्मा का स्वभाव है-सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र / मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में आधारभूत इन तीनों की प्राप्ति हो जाये। *** Jain Education Internation Private & Personal Usewamy.jainelibrary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.क्षण की महत्ता) समय के गतिशील चरण अपनी धुरी पर निरंतर बढते जाते हैं। क्षण, प्रहर, दिन-रात, ऋतु, सवंत्सर के कदमों से कालचक्र का अनंत पथ नापा जाता है। हर-चरण प्राचीनता और नवीनता का संगम स्थान बनता हुआ युग संधि का महत्त्वपूर्ण इतिहास अपने आपमें समेटे हुए आगे से आगे कदम बढाता जा रहा है। जिधर देखो उधर समय की चला चलीं लगी है / समय बदलता जा रहा है। समय को सार्थक किसने किया है ? तूफान हैं दौड़ा-दौड़ी है पर उसमें अचल क्या है ? जीवन और जगत की चंचल लहरों पर तैरता हुआ एक अचल तत्त्व है- “चिन्तन' / विचार ही शाश्वत है। जहां विचार नहीं, चिन्तन नहीं, मनन नहीं वह जीवन बेकार हैं / चिन्तन से पता चलता है कि सत्य-असत्य क्या है, अणु-परमाणु क्या हैं / ज्ञान-अज्ञान क्या है ? आत्मा का अखण्ड स्वरूप क्या है ? हमारी आत्मा की अखण्डता, शाश्वत का विश्वास सुदृढ़ बन जाना चाहिए। बाहर की अविश्वास, अधैर्य की हवा प्रवेश न पाये, उनका प्रवेश बन्द हो जाना चाहिए! आज कल हर स्थान पर बोर्ड लगा रहता है कि No Addmission Without Permition. ऑफिस में फेक्ट्री में, मकानों में, दवाखानों में सभी जगह इसी प्रकार के बोर्ड तथा घंटिया लगी रहती है। परन्तु मन पर आज दिन तक किसी प्रकार का बोर्ड तथा घंटिया नहीं लगी। इस लिए सभी अन्दर आते जाते रहे हैं। सुख-दुःख, संकल्प, विकल्प के कुत्ते और बिल्लियां बिना रोकटोंक भीतर घूस रहे हैं। जिसकी इच्छा हो घुस जाता हैं। विकारों के चूहें इधरऊधर दौड़ लगा रहे हैं। क्रोध और मान के कुत्तें चारों ओर झपट रहे हैं। वासना की बिल्लियां तुम्हारे ज्ञान का दूध पी रही हैं। विकार और असद् कल्पनाओं के चूहें धैर्य और विश्वास को कुतर-कुतर कर खा रहे हैं। अब जागृत हो जाओ Jain Education InternationBrivate & Personal Usevenly.jainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतर्क बन जाओ, सावधान रहना है। जीवन क्षण भंगुर है। जीवन के प्रत्येक पदार्थ क्षणिक हैं। भगवान महावीर स्वामी ने कहां कि:- “समयं गोयम मा पमायए' हे गौतम एक क्षण भी प्रमाद मत करों / प्रमाद करोगे तो खो डालोगें। बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे। जिस सुख का स्वाद ले रहे हैं वह सुख क्षणिकहै, सुखाभास है। सुख-दुःख दोनों क्षण भंगुर है, हर्ष शोक क्या करना। फिल्म-हॉल में बैठ के पगले, क्या हंसना क्या रोना। यह भी देखा, वह भी देख ले, इनमें क्यों वह जाता। तू क्यों पल में ललचाता। गर्मी में पंखे की हवा खा रहे हैं / ठण्डे पदार्थ पी रहे हैं। यह सब क्षणिक है, यह सब अल्प समय तक जब तक स्वाद मिला। आत्मविभोर हो गये, परिणाम सोचा नहीं कि क्षणिक सुख के पीछे अनन्त दुःख है / संसार में जितने भी भोग है वह क्षणिक है / क्षण में उन्नति, क्षण में प्रगति, सर्जन, विसर्जन होते ही रहते हैं। क्षण भंगुर जीवन की कलिका, पल पल में मुरझाती है। तुम इस क्यों इतराते हो, यह धूली सात हो जायेगी। एक राजकुमार आज ही जिसकी शादी हुई है, हाथ में कंगन डोरा बधा हुआ है, मेंहदी लगी हुई है। प्रातः काल वधाई ले कर बगीचे का माली आया, बोला बाहर राजवाटिका में संतजन, सत्पुरुष, गुरुमहाराज पधारे हैं। महल में प्रवेश करते ही राजकुमार पहले मिला, वह स्नान करने जा रहा था। समाचार पहले राजकुमार को मिले। 'लोहा सोना कब होगा। पारस मणि के संयोग से ठीक इसी प्रकार सज्जनो की संगति कथीर को कंचन बना देती है। महापुरुष दूध में शक्कर का कार्य करते हैं। राजकुमार ने सोचा यह समाचार राजा के पास जायेगा तो राजा मंत्री को आदेश देगा। मंत्री सेना को तैयार करेगा। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और प्रजा सहित राजा सज-धज कर सभी को साथ में लेकर गुरु महाराज के दर्शन करने पधारेगें। इसमें बहुत समय व्यतीत हो जायेगा। इसलिए मैं अकेला ही राजा को कहे विना रवाना हो जाऊं। तुरन्त दौड़ लगा ली, ज्ञान की पिपासा है, किसी की प्रतीक्षा नहीं की। दौड़ता जा रहा है। मन में तरंगे उठ रही है, एक ही लक्ष्य है। चल पड़ा! चल पड़ा! पहुंच गया प्रभु के चरणों में। मस्तक झुका दिया। क्षण की महत्ता को सार्थक बना लिया। मन-वचन-काया-तीनों की यूनिटि से गुरु-चरणों में समर्पित हो गया। इधर राजा, मंत्री, सेना तथा प्रजा आदि पूरे लवाजमें के साथ में राजवाटिका की तरफ़ खाना हुआ! जाते समय राजकुमार का पूछा राजकुमार कहां है दिखाई नहीं देता ? मंत्री ने कहां महाराज / राजकुमार तो कभी का रवाना हो गया उसने किसी की प्रतीक्षा नहीं की इन्तजार नहीं किया / राजा सजधज कर जुलुस के साथ गुरु-चरणों में पहुंचा / वंदन नमस्कार किया। पश्चात् देखा यह क्या सभी ने वंदन कर लिया लेकिन राजकुमार अभी तक झुका हुआ है इसका वंदन अभी तक पूरा नहीं हुआ, क्या हुआ ? राजा पास में आया बोला। बेटा! उठो काफ़ी समय हो गया हम आये उससे पहले ही आपका वंदन प्रारम्भ हो गया अभी तक पूरा नहीं हुआ उठो बेटा ! उठो! राजकुमार हो तो कुछ बोले उसने तो अपने समय को, क्षणों को सार्थक बना लिया! गुरु महाराज ज्ञानी थे बोले राजन आपका राजकुमार तो पहुंच गया लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। यह तो सिर्फ अब राजकुमार का शरीर है। सुनने के साथ तो राजा मूर्छित हो गया, यह क्या ? होश में आया रोने लगा विलाप करने लगा। मेरा बेटा कहां गया कौन ले गया। सारी प्रजा में शोक छा गया। सभी रोने लग गयें। हर्ष का वातावरण शोकमय बन गया। इधर राजकुमार का जीव स्वर्ग में अवतरित हो गया। शुभ भावों के साथ वंदन किया। जीव तो जाने वाला था ही आयुष्य की डोर तो टूटने वाली Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी ही, यह तो निचित था। निमित्त मिल गया गुरु महाराज का सुना ज्ञानी भगवंत पधारे है उसी क्षण विना विलम्ब प्रयाण कर दिया और पहुंच गया-गुरु चरणों में समर्पित हो गया श्रद्धा पूर्वक नमस्कार किया-जीवन को सार्थक बना लिया। अगर थोड़ासा विलम्ब करता, पिताजी की प्रतीक्षा करता तो शायद ही पहुंच पाता। एक बार प्रभु वन्दना रे। आगम रीते थाय / जिनवर पूजो // कारण सत्ते कार्यनी रे। सिद्धि प्रतीत कराय // जिनवर पूजो॥ पूजो पूजो रे भविक जिन पूजो / हारे प्रभु पूज्या परमानंद ॥जि.।। अनन्त गुणशाली भगवान को आगम-सिद्धान्तानुसार विधि से एक बार वन्दन हो जाय तो मोक्षरूप कार्य सिद्ध हो सकता है। वन्दन करते हुए आत्मा रूप उपादान गुणानुयायी बन गया तो निमित्त तथा उपादान दोनों कारण सत्य हो गये और दोनो की सत्यता के सद्भाव में कार्य की सत्यता निचित है। वीतराग प्रभु का शुभ निमित्त संप्राप्त होने पर आत्मा रूप उपादन कारण भी शुद्ध परिणतिमय बन जाता है और उससे शुद्ध सिद्धता रूप कार्य की सिद्धि हो जाती है। एक बार आगम की रीति से प्रभु के चरणों में समर्पित हो जाओं कार्य की सिद्ध हो जायेगी / राजकुमार ने कार्य की सिद्धि कर ली / देव रूप में अवतरित हुआ। फिर ज्ञान से देखा कि मैंने पूर्व जन्म में क्या पुण्य किया, अंतिम सयम में क्या निमित्त मिला जिससे मेरा देवयोनि में जन्म हुआ। पता चला रे मैं राजकुमार था शादी के दिन ही गुरु महाराज का आलम्बन मिल गया। आयुष्य की डोर टूट गई यहां पहुंच गया। गुरुमहाराजने मुझे यहां पहुंचाया अब मैं जाकर उनके दर्शन करुं पहुंच गया मृत्यु लोक में / राजवाटिका में जहां गुरु महाराज खड़े थे। राजा विलाप कर रहा था। प्रजाजन शोकातुर थे। प्रथम गुरु महाराज को वन्दन किया फिर राजा को जागृत बनाया कहों ? राजन् ! Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसकों रो रहे हों। राजकुमार को या राजकुमार के शरीर को ! राजकुमार को रो रहे हो तो यह खड़ा और शरीर को रो रहे हो तो यह पड़ा / गुरु-महाराज के आलम्बन ने मुझे यहां पहुंचाया है। राजा ने देखा एक देव सामने खड़ा है। चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश है और इस प्रकार बोल रहा है / क्या सत्य है क्या असत्य समझ नहीं आता / गुरु महाराज ने कहां। राजन् आपके पुत्र ने क्षणों को सार्थक बना लिया समय को पहचान लिया। सत्समागम मिल गया। देव लोक में पहुंच गया हैं। वहां से आपको जागृत करने तथा दर्शन देने यहां आया है। राजा बहुत खुश हुआ और गुरु-महाराज को वन्दन नमस्कार कर व्रत धारण किये ! आज दिन तक हमारा माथा कहां कहां झुका है / इन्कमटैक्स के ऑफिसरो के चरणों में सेलटैक्स वालों के चरणों में छापा मारने वालो के चरणों में / प्रभु वीतराग के चरणों में कितनी बार माथा झुकाया होगा परन्तु आगम की रीतिसे मन-वचन-काया त्रिकरणयोग से नहीं झुकाया कमी रही हुई है। समय की पहचान करनी है क्षणों की महत्ता को समझना है कि जो क्षणे बीत रही है वह वापिस आने वाली नहीं है श्वासकी डोर कम होती जा रही है। समय को सार्थक बना ले। झुक जाये, झुक जाये वीतराग के चरणों में अर्पण भाव से मन-वचन काया तीनों से तो लक्ष्य पर पहुंच जायेगें! श्वासे श्वासे प्रभु भजो, व्यथा श्वास न खोय।। न जाने इस श्वास का, फिर आना होय न होय // आत्मा अनन्त शक्तिवान है। उसकी शक्ति विज्ञान से भी बढ़कर है। एक क्षण के अन्दर पृथ्वी का चक्कर काटने वाले रोकेट से भी अधिक शक्ति आत्मा की है। आत्मा अनन्त शक्ति का पुंज है। एटमबम से भी अधिक शक्ति आत्मा के पास में है। एक क्षण में तीन लोक के ज्ञान को प्राप्त कर सकती है। एक बार हनुमान को दूत बना कर रामजन्द्र जी लंका में भेजते हैं। हनुमान जी Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लंका पहुंचे, रावण को समाचार मिला, उन्होनें हनुमान जी को नागपाश के बन्धन में आबद्ध करवा दिया। तुम दूत बन कर आये हो अब तुम हमारे गुलाम बन गये हो / अब तुमको काला मुंह करके सारे नगर में निकाला जायेगा। हनुमान जागृत बन गया, भगवान राम पर कलंक लग जायेगा। चिन्तन चल पड़ा। मैं सामान्य व्यक्ति का अवदूत नहीं एक अवतारी पुरुष का दूत हूँ। जिस भक्त के हृदय में भगवान का निवास नहीं वह भक्ति कैसी। जिसके हृदय में भगवान नहीं वह भक्त कैसा / जो पूर्ण रूपेण प्रभु के चरणों में समर्पित हो गया तो उसकी क्रिया स्वयं ही होने लग जायेगी। हनुमान की भक्ति अटूट थी। रोमरोम में राम समाये हुए थे। भगवान का नाम लिया और एक ही झटके में नागपाश के बन्धन को तोड़ डाला / जड़ शक्ति पीछे आत्मिक शक्ति पहले है। आत्मिक शक्ति दवी हुई है जागृत करती है। इसलिए ज्ञानियों ने कहां है समय को व्यर्थ मत खोओं। क्षणों की मौलिकता को समझों। प्रभु के स्मरण कों आत्मसात करलो तो फिर मंजिल दूर नहीं ! *** Jain Education Internationerivate & Personal Usenany jainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((5. रागी मन विरागी) मानव जीवन का अपने आप में एक विराट स्वरूप है। मनुष्य जीवन पुष्पों का खिला हुआ बाग है तो कहीं दुर्गुणों की बिछी हुई शैया / शुभ और अशुभ, अच्छाइयाँ और बुराइयाँ इस जीवन से पल्लवित होती है / देय और उपादेय क्या ग्रहण करने योग्य है और क्या छोड़ने योग्य है यह समझना है। ज्ञान-सद् समागम यह ग्रहण करने योग्य है / जीवन में जितनी बुराइयां हैं वह सब छोड़ने योग्य हैं। आत्मा के रूप को समझना है। हंस के चंचु में दूध और पानी को समझने की शक्ति है। हमें अपने आपको देखना है। “का च मे शक्ति कुतः तो आया कुत्र गमिष्यामि।" कहां से आया हूँ और कहां जाऊंगा। इस पर चिन्तन करना है। कांटो में पैर डालेंगे तो फुलवाड़ी तक नहीं पहुंच सकतें। प्रभु के सामने पुकार करो प्रार्थना करों हे प्रभु ! मुझे धन नहीं चाहिए, राग द्वेष नहीं चाहिए मुझें तो वीतराग अवस्था को प्राप्त करना है इसलिए स्वभाव में आता है। एक नाविक नौका को चलाता है तब देखता है कि मेरी नाव में कहीं छेद तो नहीं पड़ गया। समुद्र में उतरने से पहले पूरा निरीक्षण कर लेता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहां है कि “सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चई नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जंतरन्ति महेसिणो॥" संसार एक समुद्र है। उसके बीच शरीर नौका रूप है, जीव रूपी नाविक है जो उसे चलाता है। चलाने की कला उसमें नहीं है, तो वह उसमें डूब जायेगा। इसको चलाने की कला महापुरुषों को आती हैं। वह इस संसार से तिर गये है। . विभाव से स्वभाव में आना है। अनन्त अनन्त चौबीसी व्यतीत हो गई लेकिन हमारी दशा वैसी की वैसी है। किसी से पूछा तुम कौन हो ? उसने Jain Education Internation Private & Personal Usewamyjainelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहां-फलाने की बहू-फलाने की बेटी, फलाने की बहन आदि अनेको रिश्ते बताये। लेकिन सही क्या है इसका पता नहीं यह सब तो व्यवहारिक रिश्ता है। जब तक शरीर है तब तक माता-पिता, भाई-बहन यह संयोग है। एक बार भगवान राम ने हनुमान से पूछा तुम कौन हो ? हनुमान ने सोचा भगवान सब कुछ जानते हैं मैं कौन हूँ फिर भी पूछ रहे हैं तो जरूर कोई रहस्य होगा। हनुमान ने सोच कर जवाब दिया। प्रभु मैं शरीर से हनुमान हूँ और आत्मा से राम हूँ। भगवान बहुत खुश हुए! वास्तव में आत्मा-आत्मा में कोई भेद नहीं, भेद सिर्फ कर्मो का होता हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि भगवान की आत्मा कर्म विजयी बन गई और हमारी आत्मा कर्मो से आबद्ध है / चाम से काम कर लो तो शरीर सार्थक बन जायेगा। सामयिक पारने के सूत्र में आता हैं। “भयवं दसंणभद्दो" साहित्य में नाम उसका ही आता है जिसने चाम से कुछ किया है। दशार्णभद्र राजा था। एक दिन बगीचे के माली ने आकर समाचार दिया कि राजवाटिका में भगवान महावीर स्वामी पधारे हैं। राजा को बहुत खुशी हुई। मंत्रियों को बुलाया और आदेश दिया कि भगवान के दर्शनार्थ ऐसे पहुंचना कि आज दिन तक कोई नहीं गया हो। भगवान महावीर का समोशरण है वहां तक पूरे नगर को सजाना है। हाथी-घोड़ा वैण्ड बाजे आदि पूरे लवाजमें के साथ प्रभु के पास पहुंचना है और वन्दना करनी है। आज दिन तक ऐसी वन्दना किसी ने ना की हो ऐसी भक्ति मुझे करनी है। दर्शन, वन्दन की कितनी उत्कृष्ट भावना लेकिन मन में क्या विचार ऐसा दर्शन किसी ने न किया हो ऐसा दर्शन करूं / दूध का भरा भगोना उसमें काचर का बीज पड़ जाये तो क्या होगा-दूध फट जायेगा। ठीक इसी प्रकार की भक्ति दशार्णभद्र की! भावना उत्कृष्ट दर्शन की यह भगोने से भरे दूध के समान लेकिन ऐसी वन्दना किसी ने ना की हो, ऐसा दर्शन मैं करूं अहं भाव आ गया यह काचर के बीज समान हुआ। अहं और मम हो वहां नम्रता आ नहीं सकती। रीति जान लो तो नीति आ जायेगी। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 नम्रता आ गई जीवन में तो अहमता और ममता की तलवार नीचे गिर जायेगी। भगवान की तो भक्ति कोई करें या ना करें उनकी दृष्टि तो सब पर समान ही रहती है ! इन्द्र भी भगवान की शरण में आया और गौशाला भी प्रभु की शरण में आया। दोनों के अलग-अलग भाव ! गौशाला ने भगवान को उपसर्ग दियें। इन्द्र ने भगवान के पास आकर कहा। भगवान आपके ऊपर बहुत उपसर्ग आने वाले है, आपकी आज्ञा हो तो मैं आपकी सेवा में रहूँ। भगवान ने कहां! इन्द्र ! न ऐसा हुआ है न होता है और न भविष्य में ऐसा होगा। भगवान को कितने कष्ट आये लेकिन किसी का प्रतिकार नहीं। हमारे ऊपर अगर कोई छोटा सा संकट आ गया तो हम उसका चारों तरफ से प्रतिकार करते हैं / यह प्रतिकार कराने वाला अंह और मम ही है। एक बहन मंदिर गई हुई थी। उसके घर एक औरत छाछ लेने के लिए आई। बहू अकेली थी उसने कहां आज छाछ नहीं है, वह औरत वापस चली गई। रास्ते में सासू मिली उसने पूछा बहन कहां से आ रही है। उसने कहां मैं छाछ लेने तुम्हारे घर गई थी परन्तु बहू ने कहां छाछ नहीं है, इसलिए वापिस जा रही हूँ। सासू बोली बहू मना करने वाली कौन होती है घर की मालकिन तो मैं हूँ आ गया अभिमान / उस औरत को वापिस घर ले गई / घर पहुंच कर अन्दर गई, और बाहर आ कर बोली छाछ नहीं है। यह सुन बहन असमंजस में पड़ गई। यह है अभिमान कि बहू कहने वाली कौन होती है। घर में सबसे बड़ी तो मैं हूँ। अभिमान है वहां क्रोध है। मैं कुछ हूँ। बस समाप्त / प्रत्येक प्राणी के अन्दर भगवान के दर्शन करो! “ना जाने किस भेष में बाबा मिल जाये भगवान" मरुदेवी माता का जीव कहां से आया। एक केले के पत्ते में से। वहां सहन शक्ति रखीं। हम न जाने कहां-कहां घूम कर आये हैं। निगोद में भी गये होगें। एक तीर्थंकर का जीव जब मुक्ति में जाता है तव एक आत्मा अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आती है। एक श्वास में साढ़े सत्रह भव एक निगोद का Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 जीव करता है। व्यक्ति दर्शन कर लेते हैं। पर पूजा करने में शर्म आती हैं। अरे भाई ! भगवान के चरणों की पूजा करते हो तो पावर हाऊस से लाईट मिलती है। स्वीच ऑन हो जाता है। दशार्णभद्र को भगवान की भक्ति करने की भावना है। विविध प्रकार की तैयारियों में उसका मन लगा हुआ है। भक्ति के साथ अहंभाव है मेरे जैसी भक्ति आज दिन तक किसी ने नहीं की है। कुछ ज्ञान पा लिया, अभिमान आ गया कुछ नहीं सागर में बूंद के समान पाया। उसका इतना अभिमान ! जगडूशाह और पेथड़शाह को देखों इतिहास में नाम अमर हो गया उनके सामने हम तो कुछ नहीं / दशार्णभद्र ने पूरे नगर को सजाया है भगवान के समोशरण तक। हाथी, घोड़ा, रथ, सैनिक आदि सम्पूर्ण परिवार के साथ राजा सुसज्जित हो रहा है। इन्द्र भी प्रसन्नता कर रहे हैं। सूर्याभदेव ने देखा भरत क्षेत्र में दशार्णभद्र राजा कैसे प्रभु की भक्ति में जाने की तैयारी कर रहा है। मन को तो देखू ? मन को देखा ! अभिमान भरा है। भक्ति में यह क्या ? अहं आगे नहीं बढ़ायेगा। बाहुबलि के जीवन में केवल ज्ञान कितना दूर था, अहं के कारण रूक गया। कितनी तपस्या की फिर भी केवल ज्ञान नहीं। स्वीच ऑन करने की देरी केवलज्ञान प्रगट हो जाये, देव दुन्दुभि बज उठे। पांव उठाने की देरी अहमता ममता दोंनो नीचे पड़े नमता आ गई पैर उठाने की शक्ति मिली बहिनों की आवाज से तुरन्त केवल ज्ञान, जाना नहीं पड़ा। सरलता से सिद्धि प्राप्त होती ऊपर से सूर्याभदेव ने देखा / जाऊं और अभिमान को गिराऊं। देवताओं के वैक्रिय लब्धि होती हैं। शरीर पांच होते है / औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेज़स, कार्मण ! औदारिक शरीर अपना होता हैं। वैक्रिय शरीर नरक और देवताओं के होता हैं ! वैक्रिय शरीर टूटता नहीं है गिरता नहीं, पड़ता नहीं है / पारे के समान बिखर जाता है / और फिर वापिस मिल भी जाता है। सूर्याभदेव पूरी तैयारी के साथ आकाश से बादलों में से निकलता हुआ दिखाई Jain Education Internation@rivate & Personal usevaroby.jainelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता है। इधर हाथी के हौदे पर दशार्णभद्र पूरे लवाजमें के साथ गाजे बाजे से प्रभु की भक्ति के लिए जा रहा है। गाड़े के नीचे लगे खच्चर यहीं सोचते हैं। संसार मेरे ही ऊपर है। आज आबू के मन्दिरों के दर्शन करों मन प्रसन्न हो जाता है, कितने सुन्दर कलाकृति तो अद्वितीय है। भगवान की प्रतिमाओं को भी देखो मन प्रसन्न हो जाता हैं ! तृष्णा डाकिन है इससे छूटना बहुत मुश्किल है। जाना नहीं निज आत्मा ज्ञानी हुए तो क्या हुए। पंचमहाव्रत आदरे, घोर तपस्या भी करें मन की कषाय न मरी, साधु हुए तो क्या हुए। -जाना नहीं.... इधर से दशार्णभद्र प्रभु भक्ति के लिए जा रहा है ! उधर सूर्याभिदेव प्रभु भक्ति के लिए आकाश से उतर रहा है। भक्ति में अनन्त शक्ति है। भक्ति मार्ग से तीर्थंकर गोत्र का बन्ध होता है / आकाश से देव उतर रहा है उसका ऐश्वर्य देखते ही आंखे चकाचौंध होती थी। एक वावड़ी उसके अन्दर विविध प्रकार के कमल खिल रहे हैं। ऐरावत हाथी जिसके ऊपर स्वर्णजड़ित सिंहासन पर अंलकार, आभूषणों से सुसज्जित सूर्याभदेव विराजित है। वावड़ी में जितने कमल है उनकी एक-एक पाखड़ी पर आठ-आठ नाटक अलग-अलग प्रकार के हो रहे हैं। ऐसा अद्भुत दृश्य संगति की ध्वनियों से आकाश गुंजायमान है। ऐसी कान्ति देखी नहीं सुनी नहीं ऐसे सूर्याभदेव आकाश से उतर रहा है। दशार्णभद्र प्रभु के पास पहुंचता है उसी समय सूर्याभदेव पहुंच गया। दशार्णभद्र सोचने लगा यह मैं क्या देख रहा हूँ। क्या नृत्य हो रहा है दृश्य बदलते जा रहे हैं। देवताओं के नाटकों को देखते देखते भान भूल गया यह कौन भाग्यशाली, पुण्यशाली है जो भगवान की भक्ति करने जा रहा है और मैं भी जा रहा हूँ। मेरी क्या विचारधारा मेरी भक्ति जैसी किसी की न हो। इसके सामने मेरी भक्ति कुछ नहीं। चिन्तन चल पड़ा। धिक्कार पड़ो मेरी आत्मा को आज दिन तक मैं भी कुछ हूँ यहीं समझ बैठा था। मेरे पन ने मुझे भुला दिया / यह अद्भुत शक्ति Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखते तो मेरा कुछ नहीं है। मेरा मिथ्या अभिमान था। मोही मन था, यह देव धन्य है। यह पुण्यात्मा मैं पापात्मा ! इधर की पक्ति उधर मैं आ गया। रागी मन विरागी बन गया / तुम्बी का स्वभाव उर्ध्वगामी है। चिन्तन की गहराइयों में पहुंचते पहुंचते दशार्णभद्र की आत्मा ऊर्ध्वगामी बन गई। शासन प्रभावना का निमित्त प्रभु भक्ति की भावना / अपने आपको खोजने लग गया। मेरा स्वरूप कुछ और है अभिमान का नहीं। धन्य है प्रभु ! आज मुझे बचा लिया। पर्दा फटने की तैयारी हो गई ! रागी मन पूर्ण रूप से विरागी बन गया। *** Jain Education Internation Private & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((6. अवसर बार-बार नहीं आता) - - वीतराग परमात्मा का धर्म समझने का अवसर मिला है। राग में आग लगा कर ही वीतराग आत्म स्वरूप को प्राप्त कर सकते हैं। राग को मिटाना है। दिन-रात पसीना बहा रहे हैं परमात्मा के लिए क्या कर रहे हैं। एक समय ऐसा आयेगा जब तुम सारा वैभव छोड़ कर अज्ञात दिशा की ओर प्रयाण कर जाओगे। समय की पहचान कर लो। समज्ञ बनना है, गति से प्रगति की ओर जाना है। मनुष्य जीवन को प्राप्त किया बार-बार मिलने वाला नहीं है। सर्वोत्तम, सर्वोदय, प्रकाशमय जीवन को प्राप्त कर लिया / ऐसा प्रकाश कहीं नहीं मिलेगा। मनुष्य जीवन के साथ जैन धर्म को पाया। इसको प्राप्त करने के बाद किसी को प्राप्त करने की जरूरत नहीं, उम्मेद नहीं। यह दर्शन सूक्ष्माति सूक्ष्म दर्शन है। दुबकी लगाने वाला समुद्र में दुबकी लगायेगा तभी मोती को प्राप्त कर सकता है। "जिन खोजा, तिन पाईया, गहरे पानी पेठ मैं गोरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ॥" जिसको डूबने का भय है वह किनारे पर ही बैठा रहेगा। कुछ प्राप्त नहीं कर पायेगा। जिसको कुछ प्राप्त करने की जिज्ञासा है। वही डुबकी लगायेगा / तत्त्व ज्ञान में डुबकी लगाओगें तो महापुरुष रूपी वाणी के मोती बटोर पाओगे। यह जीवन नर में से नारायण बनने के लिए ...जन में से जैन बनने के लिए....जैन में से जिन बनने के लिए....जीव में से शिव बनने के लिए....संसार में से साधु बनने के लिए....आत्मा में से परमात्मा बनने के लिए....यह जीवन खाने के लिए नहीं, बल्कि खोई हुई आत्मा को खोजने के लिए है। यह जीवन सोने के लिए नहीं, बल्कि सोयी हुई आत्मा को जगाने के लिए है। Jain Education Internationerivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह जिन्दगी सुख-दुःख का हिसाब करने के लिए नहीं है। जिन्दगी है अंधेरे में से प्रकाश में आने के लिए ! __ हीरे का मूल्य कोई साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता। झवेरी ही हीरे की कीमत कर सकता है। मनुष्य जीवन का मूल्यांकन भी वही कर सकता है जो मनुष्य जीवन की मौलिकता को समझता है। इस जीवन से असत्य से सत्यता की ओर, अधर्म से धर्म की ओर, अनैतिकता से नैतिकता की ओर, संसार से मुक्ति की ओर जा सकते है। परन्तु टाइम नहीं है। ईंट,चूना, पत्थर का मकान बनाने का टाइम, खाने के लिए टाइम, शादीयों में पार्टियों में जाने का टाइम, नवरात्री में गरवा देखने का टाइम, पिक्चर देखने का टाइम, पर पदार्थो का निरीक्षण करने का टाइम, लेकिन आत्मा का परिप्रेक्षण करने का समय नहीं। ज्ञानी कहते हैं “अवसर बार-बार नहीं आता"समय निकल गया वह वापिस नहीं आयेगा। समय चूक जाता है वह मूर्ख है और जो समय नहीं चूकता समय की पहचान जानता है वह सज्जन है। संत पुरुषों की एक-एक घड़ी मूल्यवान होती है। पिक्चर देखते है रील चली गई वह उसी समय वापिस नहीं आयेगी। शौ पूरा होने पर जब दुबारा रील चलाई जायेगी तभी वापिस आयेगी। इसी प्रकार जीवन की रील भी निकल जाने पर वापिस नहीं आती है। . एक व्यक्ति संत के पास आया और बोला ! आपकी निश्रा में आया हूँ शान्ति प्राप्त करने के लिए। जीवन में शान्ति मिल जाए ऐसा मंत्र मुझे दे दो। मेरा मित्र परिवार सब अशान्त है। चारों तरफ से जब मन बोझिल हो जाता है तब संतो का आश्रय लिया जाता है। संतो के पास क्या हैं यह तो मिश्री का स्वाद लेने वाला ही जान सकता है कि मिश्री का स्वाद कैसा होता हैं / बार बार कहने पर संत महात्मा ने एक कागज़ पर मंत्र लिख दिया और कहां ले जाओ। ऐसे कैसे लूं विधि-विधान से लूंगा ! अष्टान्हिका महोत्सव कराया और गुरु महाराज से मंत्र ग्रहण किया। गुरु मुख से मंत्र का उच्चारण कराया लिखा था Jain Education Internation Private & Personal Usev@mily.jainelibrary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 "यह भी चला जायेगा।"व्यक्ति मंत्र को लेकर रवाना हो गया / अब तो वह सभी जगह मंत्र को सामने रखता है। दूकान पर बैठता है, व्यापार करता है, गाड़ी में बैठता है, बगले में आता है, तब भी मंत्र सामने ही रखता है कि, “यह भी चला जायेगा। दूकान नहीं बदलेगी, दुनियां नहीं बदलेगी, बंगला नहीं बदलेगा, हमें बदलना होगा, विचार और प्रकृति को बदलना होगा।” दुःख आता है, तड़फ़न होती है मन से दुःखी, मन के गुलाम बन गये। किसी ने बात नहीं मानी तो अशान्त। तन-मन-धन-जन सब चला जायेगा। कोई नित्य नहीं है सब अनित्य है। जिस अवसर को प्राप्त किया है वह बार-बार नहीं आयेगा। अवसर बार-बार नहीं आवे, अवसर बार बार नहीं आवें! जो जाने तूं करले भलाई, प्राण पलक में जावें ।-अवसर.... जागा सो पाया / समाज, परिवार सब जगह परिवर्तन है / उन्नति, अवनति का क्रम चलता रहता है। समय की पहचान करनी आनी चाहिए। एक ब्राह्मण था ज्योतिष देखना बहुत अच्छा आता था। लेकिन घर में लक्ष्मी का अभाव था। सरस्वती और लक्ष्मी का मेल बहुत ही मुश्किल से मिलता है। एक दिन ब्राह्मण देवता पत्रिका हाथ में ले कर देख रहे थे। पन्ने पलटते पलटते एक अच्छा योग दिखाई दिया। अचानक ही उछल पड़े कूदने लग गये खुशी-खशी में नाचने लगें। ब्राह्मणी ने देखा यह क्या ? पूछा / ब्राह्मण जी ! ब्राह्मण जी ! क्या हुआ इतनी खुशी किस बात की हो रही है ? अरे ! ब्राह्मणी क्या बताऊं अव तो हम नो निहाल हो जायेगें घर की गरीबी समाप्त हो जायेगी। ब्राह्मणी बोली बताओ तो सही हुआ क्या ! ब्राह्मण जी बोले ! ब्राह्मणी तुझे बताऊंगा तो तू सबको कह देगी, अगर किसी को नहीं कहेगी तो मैं बताऊंगा। ब्राह्मणी ने कहां स्वामी मैं किसी को नहीं बताऊंगी। ब्राह्मण जी बोले अमुक तिथि अमुक बार, अमुक समय में घड़ी, नक्षत्र, पल-विपल, कला-विकला ऐसी आयेगी कि उस समय अगर कोई उबलते पानी में जवार जाल देगा तो मोती बन Jain Education InternationBrivate & Personal Useamly.jainelibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 जायेगे। योग बहुत ही अच्छा है। समय को नहीं चूकेगें तो कार्य की सिद्धि हो जायेगी / योग अच्छे भी होते है और बुरे भी होते / मृत्युयोग, यम घंट योगदि खराव योग होते हैं। बिल्ली दूध पीती है परन्तु पीछे मालिक को नहीं देखती जो छड़ी लेकर खड़ा है, कमर तोड़ देगा ! ब्राह्मणी बहुत खुश हुई / अमुक दिन आ गया। ब्राह्मण ने कहां ब्राह्मणी एक कटोरा जवार तैयार रखना।तीन बार हूंकारा करूंगा तीसरे हूंकारे में डाल देना / कुछ पूछना नहीं / ब्राह्मणी ने कहा घर में जवार ही नहीं है / खैर कोई बात नहीं मैं पड़ोस में सेठानी रहती है उससे मांग कर ले आती हूँ। ब्राह्मण ने कहा जवार लेने जाओं तो सेठानी को कुछ बताना नहीं ! ब्राह्मणी दौडती हुई पहुंची और सेठानी जी मुझें एक कटोरा जवार चाहिए दे दो / सेठानी समझदार थी उसने कहां ब्राह्मणी जवार का क्या करेगी। यह तो कबूतरों को दाने डालने में काम आती है। उसने पूछ लिया ब्राह्मणी आज दिन तक जवार लेने नहीं आई आज आई है इसका क्या कारण है ! ब्राह्मणी ने कहां सेठानी पूछो ही मत ब्राह्मण जी ने कहा है किसी को बताना नहीं / सेठानी ने कहां ब्राह्मणी बताओं में किसी को नहीं कहूंगी! ब्राह्मणी सीधी थी उसने सारी हकीकत बतला दी कि अमुक दिन अमुक बार अमुक योग में अमुक नक्षत्र, पल-विपल, कला-विकला ऐसी आयेगी उस समय यदि कोई उबलते पानी में जवार डाल देगा तो मोती बन जायेगा / ब्राह्मण जी ने कहा है कि मैं हूंकारा करूंगा। एक बार दो बार, तीसरी बार के हंकार में जवार जाल देना। शेठानी ने एक कटोरा जवार ब्राह्मणी को दे दी, ब्राह्मणी जवार लेकर घर वापिस आ गई। इधर सेठानी ने अवसर का लाभ उठाया। ब्राह्मण तथा सेठानी की दीवार एक ही थी दीवार के पास एक भगोना पानी सिगड़ी पर चढा दिया और स्वयं जवार का कटोरा भर कर बैठ गई कान ब्राह्मण के हुंकारे की प्रतीक्षा करने लगे। ब्राह्मण के घर भी मगोने मे पानी उबलने लगा ब्राह्मण जी तो पत्रिका हाथ Jain Education InternationBrivate & Personal Usevowy.jainelibrary.org Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में लेकर घड़ी की तरफ देखते जा रहे हैं / इतने में अवसर आ गया योग का समय हुआ ब्राह्मण देवता ने एक हुंकार किया, दूसरा हुंकारा किया, तीसरा हुंकार किया तो ब्राह्मणी बोली डाल दूं क्या ? समय निकल गया। ब्राह्मण जी बोले पूछती क्या है डाल दे लेकिन समय तो निकल गया हाथ से ! भगोने में उबलते पानी पर जवारी डाली तो क्या हुआ मोती की जगह घूघरी बन गई। ब्राह्मण देवता माथा पीट कर रह गये। ___ इधर दीवार के सहारे कान लगा कर सेठानी सब सुन रही थी। उसने तो तीसरे हुंकारे की आवाज होते ही जवार डाल दी, मोती बन गयें। बहुत खुशी हुई। शेठानी ने मन में विचार किया मुझे यह मोती ब्राह्मण देवता के प्रताप से मिले है इसीलिए मुझे थोडे मोती ब्राह्मण देवता को देने है। कटोरे में मोती लेकर ब्राह्मण के घर पहुंची और कहां पण्डित जी आपके प्रभाव से मुझे मोती प्राप्त हुए है आप स्वीकार करें। ब्राह्मण जी ने कहां ब्राह्मणी को कितना मना किया फिर भी बात कह दी। कहावत सत्य है औरतों के पेट में बात नहीं टिकती है।"ब्राह्मणी ने कहां तो सेठानी ने जवार के मोती बना लिए लेकिन ब्राह्मणी की जवार तो घूघरी बन कर रह गई। क्योंकि समय चूक गया। अवसर गया, चला गया, वापिस नहीं आनेवाला है। सत्यता, नित्यता को विचारे नैतिकता का रक्षण करें। ज्ञान का सदुपयोग करें दुरुपयोग नहीं। जितने मार्ग प्रामाणिक है वहां जाये / सोचे, समझे / होगा जो हो जायेगा। महल का मालिक भी जीता है और झोंपडी का मालिक भी जीता है। जीना कैसे वह जानता है। तीन मित्र थे। एक राजा का लड़का, एक बनिया का लड़का और एक ब्राह्मण का लड़का। तीनों धनिष्ठ मित्र थे। एक साथ पढते, खाते-पीते, उठते-बैठते थे। तीनों की पढाई पूरी हुई तो एक दूसरे से जुदा होने का समय आया तीनों को खूब दुःख हुआ अब हम अलग हो जायेगें। तीनों ने आपस में विचार किया कि एक दूसरे पर संकट आयेगा तो Jain Education Internation Private & Personal Usev@mily.jainelibrary.org Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी शक्ति अनुसार एक दूसरे की मदद करेंगे! राजा के लड़के ने कहा कि तुम्हारे ऊपर जब भी कोई संकट आये मेरे पास बेहिचक आ जाना मैं तुम्हारी अवश्य मदद करूंगा। यहां तक कि एक दिन का राज्य भी दे दूंगा। तीनों ने यह बात मान्य कर ली। तीनों अपने-अपने गांव चले गये। अलग अलग धन्धा करने लगे। मर्गानुसारी के 35 के गुण में बताया जाता है कि कैसे जीना कैसे कमाना न्यायोपार्जित धन / अन्याय से नहीं, काला बाज़ार से नहीं न्याय से धन उपार्जित करना चाहिए / व्यवहार कैसा करना। यहां तो थोड़ा धन प्राप्त कर लिया तो धनवान बन गये अहं आ गया। कुछ ज्ञान आ गया तो ज्ञानी बन गये। नहीं। पता है धनेश्वरी कहीं नरकेश्वरी न बन जाये। खुट गयो तेल ने, बुझ गई बत्तियां काया मंदिर में, पड्यो अंधेरो सुन्दर वर काया छोड़ चल्यो वणझारों....” / खस गयो थम्मों ने, पड़ गई भीतियां मिट्टी में मिल गयों गारों रे .....सुन्दर वह काया...॥ कितना भी नहलाओं, सज़ाओं परन्तु एक दिन लकड़ियों की भेंट हो जायेगा ! लकड़ियों में जल जायेगा / राख बन जायेगी कुंछ नजर नहीं आयेगा। विज्ञान सभी शक्तियों का मालिक है। मानव के पूरे ढांचे को प्लास्टिक सर्जरी से बदल देता है। लेकिन मन को बदलने की शक्ति आज दिन तक विज्ञान ने पैदा नहीं की है। तीनो मित्र अपने अपने गांव में आराम से रहने लगें। समय ने बदलाव किया। ब्राह्मण की हालत दीन बन गई। ब्राह्मण का लड़का जिसका नाम सुरेश था वह दर-दर का भिखारी बन गया। अचानक विचार आया कि राजकुमार मित्र रणजीत ने वायदा किया था कि कोई भी संकट आये मेरे पास आ जाना मैं तुम्हारी मदद करूंगा। रवाना हो गया मित्र के नगर की ओर ! इधर बनिया का Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लड़का जिसका नाम दिनेश था उस पर भी संकट आया तो उसने सोचा मैं भी मित्र के पास जाऊं वह मेरी मदद अवश्य करेगा। वह भी रवाना हो गया। रास्ते में ब्राह्मण का लड़का तथा बनियां का लड़का मिले दोनों ने एक दूसरे को अपनी हकीकत बताई और राजकुमार के पास सहायतार्थ रवाना हुए ! नगरी में पहुंच गये / महल के द्वार पर आ गये द्वारपाल को कहां कि राजकुमार को कहो कि तुम्हारे बचपन के मित्र सुरेश और दिनेश आये है। द्वारपाल ने राजकुमार को समाचार दिया। राजकुमार अब राजा बन गया था। राजा ने कहां द्वारपाल फौरन दोंनो को मेरे पास ले आओं! थोड़े ही समय में दोंनो मित्र राजा के पास आ गये। राजा ने देखा स्थिति बहुत नाजुक है कहो मैं तुम्हारी क्या मदद करूं आपको जो चाहिए वह मांग सकते है। यहां तक मैं अपने बचनानुसार एक दिन का राज्य भी देने को तैयार हूँ। सुरेश और दिनेश ने एक-एक दिन का राज्य लेना स्वीकार कर लिया। प्रथम ब्राह्मण मित्र की बारी थी / प्रातःकाल होते ही 6 बजे मंत्री ने राज्य की चांबी सुरेश को दे दी और कहां कि साम के 6 बजे चावियां वापिस ले ली जायेगों / ब्राह्मण मित्र सुरेश ने सर्व प्रथम स्नान घर में प्रवेश किया। देखता रह गया। कितने प्रकार के तेल, कितने प्रकार के साबुन कितने प्रकार के सेन्ट आदि साम्रगी है। एक घंटे तक तेल की मालिश करवाई पश्चात् अच्छा साबुन लगा-लगा कर स्नान किया। तीन घन्टे तक शरीर की सजावट की। चार घंटे व्ययतीत हो गये। शरीर को सजाने के पश्चात खाने का समय हो गया। ब्राह्मणों को लड्डू बहुत प्रिय होते है इसलिए भोजन में बादाम, पिस्ता के लड्डू तैयार हुए थे। सुरेश ने खूब लड्डू खाये। बिचारा कितने दिन का भूखा था आज पेट भर कर खाया वह भी कितना स्वादिष्ट भोजन / खाने के पश्चात घेन आने लगी। विश्रामगृह में पहुंच गया। पलंग पर मखमल का गलीचा बिछा हुआ था। जाते ही सो गया। गहरी नींद आ गई ! उठा ही नहीं इससे पूर्व मंत्री चाबी Jain Education Internation Private & Personal Usev@mily.jainelibrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वापिस लेने आ गया। सुरेश को उठाया और मंत्री चावी लेकर चला गया। सुरेश कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका / खाली की खाली रहा। एक दिन का राज्य मिलने पर भी समय को नाहने-धोने खाने-पीने और सोने मे बर्बाद कर दिया। ज्ञानी बार-बार कहते है अवसर बार-बार नहीं आता। फिर भी मोहरूपी अन्धकार में डूबे हुए है! दूसरे दिन प्रातः काल होते ही 6 बजे मंत्री ने दिनेश को चाबी सौंप दी / क्योंकि अब दिनेश की बारी थी। उसको भी मंत्री ने कहां कि साम को 6 बजे चावी वापिस ले ली जायेगी। दिनेश ने अवसर का लाभ उठाया ! चावी हाथ में आते ही भंडारो के ताले खुलवा दिये / चारो तरफ़ मंदिर, उपाश्रय, कुएं, धर्मशाला, दानशालाएं खुलवा दी। एक साथ रकम देकर Order दे दिया। पूरे नगर को सजाया गया। और स्वयं ने हाथी की अम्बाड़ी पर बैठ कर दान देता हुआ पूरे लवाजमें के साथे में पूरे नगर की परिक्रमा की। समय से पूर्व मंत्री के हाथ में चाबियां सौंप दी। एक दिन के अन्दर इतनी पुण्याई एकत्रित कर ली। पूरी प्रजा उसका गुणगान करने लग गई !इधर मित्र राजा भी बहुत खुश हुआ। दिनेश की कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए राजाने उसे मंत्री पद पर नियुक्त किया। “अवसर बार-बार नहीं आता"इस वाक्य को दिनेश ने समझा कि यह चाबियां बार बार हाथ आने वाली नहीं है / इसलिए सदुपयोग कर लिया 'पुण्य का उपार्जन कर लिया।'सुरेश ने इस वाक्य को नहीं समझा पूरा दिन नाहने-धोने, खाने-पीने और सोने में बर्बाद कर दिया।उठ जाओ, जाग जाओ, अवसर की पहचान कर लो। पहरेदार घड़ियाल पर टकोरे लगाते है। हमें जागृत करते है प्रतिपल, प्रतिक्षण आयुष्य के टकोरे पड़ रहे है समय बीतता जा रहा है। यह अनमोल मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है। दुबारा मिलने वाला नहीं। अवसर मिला है इसका सदुपयोग करलो। “अवसर बार-बार नहीं आता।" *** Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamiy.jainelibrary.org Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7. किसे कहं मैं अपना) N संसार परिभ्रमण के अन्तराल में मानव अनादि काल से जन्म मरण करता आ रहा है। अनन्त शरीर धारण करता है। जहां शरीर है वहां परिवर्तन है। मकान है, दुकान है, धन है, दौलत है, समाज है, प्रान्त है, राष्ट्र है, विश्व है। इन सभी के बीच प्रत्येक आत्मा अपने पुरषार्थ स्वरूप अनेक सम्बंधों को स्थापित करता है। एक समय ऐसा आता है जिस दिन वह अन्य सम्बन्ध और साधनों से तो क्या शरीर से भी सदा के लिए स्मृति विहीन हो जाता है। ऐसा एक बार नहीं अनन्त बार यह परिवर्तन आत्मा ने किया / सदा सर्वत्र सभी गतियों मे अतीत की स्मृति नहीं होती, अतएव प्रत्येक भव में हर आत्मा नवीनता का अनुभव करता है। जो कुछ उसे मिलता है उसी में वह अपनत्व की अनुभूति करता है। और उनमें घुलमिल कर जीवन के समय को समाप्त कर फिर कहीं नवीन स्थल, योनि, जांति में अपना स्थान बना लेता है। यह सर्वथा सत्य होने पर भी अनेक व्यक्तियों को सहज स्वीकार नहीं होता है। वे कहते है किसने देखा ? यह प्रश्न भी सहज ही है, किन्तु इस विषय का चिन्तन जरा गम्भीरता पूर्वक कुछ क्षणों के लिए करें तो हमारी आत्मा सत्य स्वीकार करने के लिए सहर्ष तैयार हो जायेगी / परभव किसने देखा? परन्तु इस भव को तो सभी देख रहे है। कल्पना कीजिए कोई व्यक्ति हमारे बीच में से उठ गया यानि सदा के लिए विदा हो गया, वह जहां जन्म लेता है उसे वहां यह स्मृति नहीं होती। किन्तु जिसके बीच से जाता है वे तो इस सत्य को नकार नहीं सकते कि हमारे बीच में से कोई नहीं गया। हमें भी कहां स्मृति है कि हम कहां से आये है किंतु जैसे हम किसी के अभाव का अनुभव करते है, क्या हमारे अभाव का अनुभव वह नहीं करते जहां से हम यहां आये हैं। हमने अनन्त भवों में अनन्त शरीर धारण किये है। स्थानाङ्ग सूत्र में आता है : Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं। न जाया न मुआ जत्थ, सव्वे जीवा अणंतसो॥" ऐसी कोई जांति नहीं, ऐसा कोई योनि नहीं, ऐसा कोई स्थान नहीं, ऐसा कोई कुल नहीं जहां इस आत्मा ने जन्म-मरण न किया हो। अगर अतीत के अनन्त भवों के सम्बंधो का चिन्तन करें तो किसे कहें अपना? यह निश्चित रूप से चिन्तन का विषय होगा। चार गतियों में भ्रमण होता रहा है। यह बात जिस दिन किसी आत्मा के समझ में आ जायेगी उसी दिन से उसका शरीर, सम्बन्ध, साधनों के प्रति आकर्षण कम हो जायेगा। कितनी ही बार लाड़ी, गाड़ी, बाड़ी बसायी किन्तु यह राही कहीं भी स्थायी नहीं रहा / पर की उपलब्धि में अपनी उपलब्धि मानता है। यह बाह्य आत्मा का लक्षण है। इसी स्थिति को मिथ्यात्व कहते हैं। इस अज्ञान का अन्त होगा जब सत्य को समझने व समझाने वाले संतो का समागम मिलता है। आज दिन तक किसके पीछे दौड़ लगा रहे हो कर्म निर्माण के पीछे / बेटी की शादी में ज्यादा से ज्यादा दायज़ा दूं जिससे दुनिया मुझे कहे की बेटी की शादी तो आपने बहुत ही अच्छे शानदार ढंग से की बहुत ही दायज़ा दिया। नामवारी के पीछे मरे मिटे जा रहे हैं। किसका सम्बन्ध अपना है ? जिन बंगलो का, फ्लेटों का फेक्ट्रियों का निर्माण कराया उसका उपयोग हम नहीं करते हैं करते भी है तो थोड़े समय। बाद में ऐसे ही ऐसे छोड जाते है साथ में एक भी बंगला, या फेक्ट्री नहीं जाती। अंत में स्थिति क्या बनती है। “माल खाये कोई, और मार खाये कोई !" यह मूर्खता हम अनादि काल से करते आ रहे है। समझदार व्यक्ति ऐसी मूर्खता नहीं करेगा। किसे कहूँ मैं अपना ? जो चले गये या वर्तमान में हैं, वह अपने हैं ? एक सम्राट् उसके इकलौता पुत्र है / बीमार हुए काफी समय हुआ ठीक ही नहीं हो रहा है / सीरियस हालत है। रात-दिन पति-पत्नि की आंखों में नींद नहीं क्या उपाय किया जाये / इसी स्थिति में दस दिन व्यतीत हो गये। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारवां दिन आया। रात्रि के 12 बजे हैं। सम्राट खुर्सी पर बैठा हुआ पुत्र की तरफ देख रहा है / अचानक नींद आ गई। नींद में स्वप्न आया, राज्य मिल गया, बहुत बड़ा महल है, सुन्दर पत्नि है ! बारह पुत्र हो गये। बहुत खुशी हो रही है। इसी बीच इकलौता पुत्र संसार से बिदा हो गया। पत्नी चिल्ला रही है, रो रही है, बाप सुनता ही नहीं है मैं किसको रोऊं किसको हंसू / इकलौते बेटे के लिए रोऊ या इन 12 पुत्रों के लिए हंसू। दोनों तरफ़ दृष्टिपात करता है। पागल की स्थिति बन गई ! यह स्थिति है संसार की। “थोडे दिन की जिन्दगानी ओ प्राणी, यहां सभी चीज है फानी। क्यों बन रहा तू अज्ञानी // हैं चार दिनों का यौवन, तेरे सपनों का संसार, आंख खुली सब झूठा भास, तन-धन-परिजन प्यार, कहते 'सज्जन'ओ ज्ञानी / / ओ॥" मानव जन्म को समझते हुए जिये ! आंख मूंद कर नहीं आंख खोल कर जिये। संतपुरुष , ऋषिमुनि, राजा महाराज, चक्रवर्ती सभी चले गये लेकिन उनकी चाम से जो कार्य हुये उनकी तरफ हमें अपना ध्येय ले जाना है। सबको एक दिन जाना है / सन्तों का सत्संग मिल गया तो जीवन सार्थक बन गया। प्रभजंना विद्याधर पुत्री है। जो एक हज़ार सखियों के साथ पतिवरण के लिए स्वयंवर मण्डुप में जा रही है। जब वह वन खण्ड से गुजर रही थी तो एक समूह उसे मिला जो शुभ शुद्ध एवं पवित्रता के प्रतीक वस्त्रो से आवेष्ठित था। वे पंचमहाव्रत धारी भगवान महावीर की साध्वियां थी। प्रभंजना जिसमें शिष्टता, सभ्यता, संस्कृति आदि सभी गुण प्रगट हो रहे थे, निकट पहुंच कर पंचांग नमस्कार किया। साथ में सभी कन्याओं ने भी वंदन किया। साध्वी जी ने सहज भाव में पूछा आज इतना प्रसन्न चेहरा इतनी खुशी किस बात की हो रही है। आंखे व आकृति सहज ही मुस्करा रही है। प्रभंजना बोली....साध्वी जी Jain Education Internationarivate & Personal Usevownly.jainelibrary.org Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 महाराज लड़कियों के जीवन में विवाह एक सर्वोपरि मोड़ है। अतः! उस लक्ष्य की पूर्ति हेतु हम पतिवरण करने के लिए स्वयंवर मण्डप में जा रही हैं / उसी समय साध्वी जी ने प्रभंजना की आकृति का अध्ययन किया पात्रता है पानी डाल दिया जाये तो अवश्य उगेगा। प्रभंजना! तुम जिसे पतिरूप में स्वीकार करने जा रही हो उसके साथ पूर्व का कोई सम्बन्ध है। प्रभंजना किं कर्त्तव्य - विमूढ़ हो गई। स्थिति का परिप्रेक्षण कर लिया क्योंकि जिन दर्शन का अध्ययन किया हुआ था। सैद्धान्तिक विषय का ज्ञान था। उसी समय आत्म निरीक्षण में उतर गई। सोचने लगी अब इस प्रश्न का उत्तर में क्या दूँ। किसी आत्मा का किसी के साथ कोई सम्बंध नहीं है। अनंत काल की अपेक्षा से प्रत्येक आत्मा के साथ अनेक सम्बंध स्थापित किये हैं। परन्तु यह सम्बन्ध वास्तविक नहीं है। आज मैं गुरुवर्या श्री के प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। क्योंकि हो सकता है जिसे मैं आज पति रूप में स्वीकार करने जा रही हूँ वह अनंत भवों की अपेक्षा से कभी मित्र रहा हो, कभी शत्रु रहा हो, कभी पुत्र, कभी पिता, कभी भाई, कभी बहन, अतः स्थायी सम्बंध तो कुछ कह ही नहीं सकती / असत्य बोल नहीं सकती अर्थात् यह प्रश्न उसके चिन्तन का विषय बन गया। पर्दा फटने की तैयारी हो गई। पर्दा तीन प्रकार का होता है। लढ्ढा का पर्दा, भीत का पर्दा, मलमल का पर्दा / प्रभंजना का कर्म रूपी पर्दा पतला होता होता मलमल का बन गया। कुछ ही देर में अज्ञान का अति जीर्ण श्वेत पर्दा इतनी जल्दी फटा कि मेरा कोई नहीं मैं किसी की नहीं। दौड़ते-दौड़ते पहुंच गई क्षपक श्रेणी चढ़ गई। मल-मल का पर्दा था वह भी फट गया। आज दिन तक सब प्रकार का सर्जन किया अब विसर्जन में लग गई। इस प्रकार प्रभंजना ने गहरी डुबकी लगा ली। और वही खड़े-खड़े सर्वज्ञाता दृष्टा की साक्षात मूर्ति बन केवल दर्शन और केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। वरमाला हाथ की हाथ में रह गई और मोक्ष रूपी माला का वरण कर लिया। स्वयंवर मण्डप दीक्षा मण्डप में परिवर्तित हो Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। “किसे कहूं मैं अपना" यह प्रश्न शाश्वत सत्य के रूप में आकर उपस्थित हो गया। जो साध्वी जी गुरु-पद पर थी उनको जब यह ज्ञान हुआ कि प्रभंजना ने ध्यानारूढ स्थिति में क्षपक श्रेणी आरोहण कर अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र रूप केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है। उन्हीं क्षणों समस्त साध्वी मण्डल के साथ भावपूर्ण प्रभंजना के चरणों में अनंत बार प्रणाम किया। इधर प्रभंजना के साथ में आई हुई एक हज़ार सखियां एवं स्वयंवर मण्डप में आये हुए राजकुमार जो प्रतिक्षण प्रभंजना की प्रतीक्षा में समय व्यतीत कर रहे थे उन सभी को विद्युतवेग की तरह प्रभंजना के शाश्वत सत्य प्राप्ति की सूचना मिली / परिणाम स्वरूप जनमानस प्रभंजना के चरणों में उल्लसित भावों से प्रणाम करने लगे। प्रभंजना उन सभी को सम्बोधित करती हुई आत्म स्वरूप को समझा रही थी / “किसे कहूँ मैं अपना'। इस वाक्य ने रहस्य उद्घाटन कर प्रत्येक आत्मा को आत्मविकास की ओर उन्मुख किया। केवलज्ञान में झलकती वाणी को श्रवण कर सभीने इस सत्य को स्वीकार कर लिया कि “किसे कहूँ मैं अपना" / समस्त जगत है सपना, फिर किस लिए खपना, अरिहंत नाम है जपना, केवल आत्म स्मरण में लगना। *** Jain Education Internationarivate & Personal Usevanty jainelibrary.org Jain Education Internation Private & Personal Usevomly.jainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((8. अशुद्ध से शुद्धता की ओर )) आत्मा कर्मो का संयोग करती है जड़ आदि पदार्थो के सम्पर्क से / आज दिन तक जितना चिन्तन है वह पर का है। पर यानि शारीरिक पुष्ठी का विचार / आत्मिक शुद्धि का विचार जिस दिन आ गया उस दिन आत्मा अपने घर का स्वामी बन जायेगा। अशुद्ध निमित्ते ए संसरता अत्ता कत्ता पर नो। शुद्ध निमित्त रमे जब चिद्धन कर्ता भोक्ता घरनो रे स्वामी ॥वि.॥ अशुद्ध निमित्तो के संसर्ग से आत्मा पर पदार्थो का कर्ता बनता है। पर यानि जड़ पदार्थ ! शुद्ध निमित्त में जब आत्मा रमण करता है तो कर्ता भोक्ता अपने घर का बनता है। विचार शुद्ध बने तो शुभ की ओर जायेगा। अच्छे कार्य शुद्ध की ओर और बुरे कार्य अशुभ की ओर / शुभ पुण्य बन्धन करायेगा / पुण्य का ढेर एकत्रित होगा। अशुभ पाप बन्धन करायेगा। पुण्य और पाप सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी के समान है। बेड़ी बेड़ी ही है चाहे वह सोने की हो या लोहे की। बन्धन तो बन्धन ही है। निकटभवी आत्मा तो एक दिन पुण्य का भी नाश करना होगा। क्योकिं गति करनी है। पाप तो नष्ट होता ही है परन्तु पुण्य को भी समाप्त करना पड़ता है। बाहरी चिन्तन से हट कर निज घर का ही चिन्तन / ___ दो मित्र थे एक होटल में रुके ! साम के समय दोनों में मनमुटाव हुआ पैसे को ले कर / एक सोचता है जब तक इसको मारा नहीं जायेगा तब तक पैसा हाथ नहीं लगने वाला। दूसरे मित्र के मन में भी यही विचार आया। रात्रि होते होते शुभ विचार आया ! उन विचारों ने यह किया कि मुझें यह कार्य नहीं करना / यह तो मेरा मित्र है। यहां से निकल जाना ही अच्छा है। पैसे जमा किये है व्यर्थ जाते है तो जाये परन्तु इस स्थान पर नहीं रुकना / आज दिन तक हम Jain Education InternationBrivate & Personal Usevapilyjainelibrary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतने घनिष्ठ मित्र रहे है हमेशा साथ में रहते हैं। परन्तु इतने खराब विचार आज दिन तक नहीं आये। निकल पड़े। पैसे व्यर्थ गये। मेनेज़र से मिले कहां? कैसे रूम में हमे ठहराया वहां तो बुरे-बुरे विचार आते है। मेनेज़र ने कहां मैंने तो तुमको मना की थी कहीं रुकने की जगह नहीं है परन्तु तुमने कहां हमें तो एक रात रहना है कोई छोटा सा रूम ही दे दो! इस रूम में थोड़े समय पहले दो-तीन व्यक्ति रुके थे। रात्रि में पैसे के कारण झगड़ा हुआ झगड़े-झगड़े में एक का खून कर दिया और रूम का ताला लगा कर, चले गये। दो दिन बाद बदबू आने लगी, खून बाहर आने लगा ताला तोड़ा तब पता चला कि अन्दर लाश पड़ी हुई है। यही कमरा साफ करके आपको दिया गया था। मित्रों को पता चला कि बुरे परमाणु कमरे में व्याप्त थे इसी लिए हमारे मन में बुरे विचार आये। परमाणु में अनन्त शक्ति होती हैं। खून के परमाणु इसलिए मारने का विचार आया। ज्ञानी पुरुष इसीलिए मन्दिर जाने का कहते है। तीर्थयात्रा करने का कहते हैं। पालीताणा जाओ। वहां पर कांकरे कांकरे सिद्ध हुए है। तो परमाणु कैसे होगे शुभ! धार्मिक स्थानों में कहीं भी जाओगें वहां के परमाणु शुद्ध ही होंगे। लड़के वहां से निकलकर दूसरे जगह पहुंच गये। रूम मांगा। रूम में पहुंचते ही अच्छी भावना जागी। अपने गांव में एक छोटा सा मंदिर निर्माण करवा दें। आराधना साधना में जीवन बिताये। आत्मा के लिए कुछ करें। आज दिन तक शारीरिक क्रिया कलापों में समय बर्बाद किया है। मैनेजर को पूछा ? हमको जिस रूम में ठहराया है इससे पूर्व इस रूम मे कौन ठहरा था? मैनेज़र ने कहां आपसे पूर्व इस रूम में एक बहुत बड़े संत को ठहराया था। कितने ही लोग उनके दर्शन करने आते थे। प्रवचन होता था। गाड़ियों की कतारे लगी रहती थी। संत महात्मा भौतिक साधनों से परे थे। सिर्फ आत्मा का ही उपदेश देते थे। गति से प्रगति की ओर जाना है। केवल आत्मज्ञान की अवस्था बन जाये। ऐसी अवस्था ज्ञानी की होती है। मंदिर उपासरा का कार्य पुण्य बन्धन है / ये शुद्धता में Jain Education Internation Private & Personal Usev@mily.jainelibrary.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगी बनेगा। इस प्रकार के विचार दोंनो मित्रों के मन में आने लगे ! परमाणु में अनन्त शक्ति है। पूर्व में रहे शुभ परमाणु मित्रों के शुभ चिन्तन का विषय बना / शुभ विचार आत्मोन्मुखी बनाते हैं। लड़को ने देखा वहां और यहां के विचारों में कितना अन्तर / कल अशुभ आज शुभ परमाणु-परमाणु में कितना अन्तर हैं। शुद्ध निमित्तों के आलम्बन के लिए ही ज्ञानियों ने मंदिर, उपासरो का निर्माण करवाया है। जहां आवश्यक हो वहां मंदिर अवश्य बनवाना चाहिए। और जहां मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गये हो, गिरने की तैयारी हो तो जीर्णोद्धार अवश्य करवाना चाहिए / मन्दिर आलम्बन भूत होते है। सुदेव, सुगरु, सुधर्म का पालन होने लगता है। जैसे पाटन का राजा सिद्धराज उनके सज्जन नाम का मंत्री था। सज्जन मंत्री एक बार गिरनार की यात्रा के लिए गया / मंदिरो का अवलोकन किया। मन में जीर्णोद्धार का विचार आया। मंदिरों की स्थिति बहुत नाजुक थी। करोड़ो का धन लगाया जाये जब जाकर जीर्णोद्धार हो सकता है / मंत्री जितने भी हुए है वह सब बनिए ही होते थे। बनियों के पास बुद्धि का वैभव होता था। विशाल मंदिर भी जैनों के ही होते थे। शासन और राज्य की सुरक्षा मंत्रियों के हाथ में होती थी। मंत्रणा करे वह मंत्री ! मंत्रणा कैसी ? हेय उपादेय वाली। हेय यानी छोड़ने वाली उपादेय यानि ग्रहण करने लायक मंत्रणा ! सज्जन मंत्री के रोम-रोम में भक्ति भरी हुई थी। जिनशासन के प्रति अटूट श्रद्धा थी। शासन का रागी था। राज्य कार्य करते हुए भी धर्म की रक्षा। सोचा इतना धन कहां से उपलब्ध होगा। चिन्तन चल पड़ा। भाग्य से उस वर्ष राज्य में वर्षा अच्छी हुई। चारों तरफ हरियाली-हरियाली छा गई। फसल भी बहुत अच्छी हुई। चारों तरफ शान्ति का वातावरण था। टैक्स लेने का समय आ गया। फसल के हिसाब से टैक्स भी अच्छा मिलने वाला था। मन में विचार आया कि मेरे पास तो इतना धन है नहीं मैं अभी किसानों के टैक्स में से कुछ Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिस्सा लेकर गिरनार के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवा दूं। बाद में मैं राजा को चुका दूंगा। सज्जन मंत्री ने ऐसा ही किया। किसानों से टैक्स लेकर मंदिरो का निर्माण कार्य करवा दिया। नेमिनाथ भगवान का जिनालय पांवो पर खड़े हो कर हिम्मत के साथ पूरा करवाया। दूसरे मंत्रियों को जब पता चला तो राजा के कान भरने प्रारम्भ कर दिये ! इर्ष्या ऐसी चीज़ होती है वह एक दूसरे को गिराने का कार्य करती है / राजा को कहा कि महाराज सज्जन मंत्री ने इस वर्ष टैक्स पूरा नहीं भरा हैं बाकी का टैक्स जैन मन्दिरों में लगा दिया है। राजा को अहं आ गया मेरे को बिना पूछे मंत्री ने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाने में पैसा लगा दिया इतनी इसकी हिम्मत कैसे हुई। सज्जन मंत्री से सभी इतना डरते थे कि सभा में खड़ा हो जाये तो कोई सामने नहीं देखता था। राजा ने तुरन्त गिरफ़तार करने का हुक्म दे दिया। सज्जन मंत्री को धर्म पर विश्वास था। मैंने जो भी कुछ कार्य किया है वह परोपरकार के लिए किया है। मन में किसी बात की चिन्ता नहीं। सज्जन मंत्री मन में सोचता है। होगा जो हो जायेगा एक बार हिम्मत करके राजा के पास जाऊं और गिरनार की यात्रा का निवेदन करूं / मैने राजा का नमक खाया है रास्ते पर लाना मेरा धर्म है / राजा के पास डरता डरता गया और कहां। राजन् मैं आपसे वायदा करता हूँ कि मैने जितना धन लिया है उसका चुकादा अवश्य करूंगा परन्तु एक बार आप अवश्य गिरनार पर्वत पर पधारे दर्शन करें। राजन् हर चीज़ देखने ही होती है। बहुत आजीजी की निवेदन किया। मंदिर की सुरक्षा के लिए। मानव मन पत्थर नहीं होता पिघल जाता है। आत्मा पानी के समान है उसका स्वभाव ठंडा होता है। आग के सम्पर्क से गर्म हो जाता है। आग का निमित्त हटने पर पानी ओटोमेटिक ठंडा हो जाता है। प्रेरणा भर दी। भाव क्या है। सभी जीवों को जिन शासन का रसिक बना दूं। एक जीव को शासन का रसिक बनाया तो कितना पुण्य ! सात बार पृथ्वी को भोजन कराये जितना। Jain Education Internationarivate & Personal Usevownly.jainelibrary.org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्री राजा को लेकर गिरनार पर्वत पर पहुंच गया। सज्जन मंत्री का मन प्रसन्न हो गया। एक भाव से नमन करता है। राजा भी देव विमान जैसे मंदिर को देख कर आश्चर्य चकित हो गया। साथ में गगन चुम्बी ध्वजा को देखा जो लहरा लही थी। शिखर कितने ऊंचे ऊंचे है। राजा मंत्र मुग्ध बन गया। नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा को देखा तो आत्मविभोर बन गया। सज्जन मंत्री ने नेमिनाथ भगवान का परिचय बताया। ये तीर्थंकर परमात्मा है, ब्रह्मचारी है। यह भोगी बनने आये थे और योगी बन गये चले गये थे ! पशुओं का निमित्त मिला / दया से परिपूर्ण जीवन था / पशुओं की करुण पुकार को सुन कर निकल पड़े और यहां आकर साधना में लीन हो गये। निर्वाण मोक्ष यही से हुआ है। राजा बहुत ही खुश था। कहने लगा मंत्री मुझें यह सब नहीं मालुम था। मैं तो बहुत बुरा करने वाला था, तुझे पायमाल कर देता / परन्तु यहां की यात्रा करा कर मुझे पावन कर दिया। विचारों की श्रृंखला बदल गयी। कहने लगा सज्जन ! तेरा धर्म जयवंता हो ! तीर्थ को स्पर्श कर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। परम शान्ति मुझे मिली है। आज से तेरा धर्म मैं स्वीकार करता हूँ। कहने का तात्पर्य है कि अशुद्ध निमित्तों से आत्मा विभावदशा में गोता खाती है / और शुद्ध निमित्त मिलने पर स्व स्वभाव में रमण करने लग जाती है। परमाणुओं में अनन्त शक्ति होती है। गिरनार पर्वत के परमाणु शुद्ध इसलिए राजा के विचारों में परिवर्तन आ गया। अशुद्ध से शुद्ध की ओर दिशा परिवर्तन हो गई ! आज दिन हमें मार्ग नहीं मिला। पांच इन्द्रियों के 23 विषय में आशक्ति है, मोह है। बन्धन होता जाता है कर्मो का। कर्मो के बन्ध से मुक्ति कैसे होगी। मुक्ति के लिए तो सुदेव, सुगुरु, सुधर्म का आलम्बन लेना होगा। अशुद्ध निमित्तों से शुद्ध निमित्तो की ओर आना होगा। शुद्ध निमित्तो से शुभ भाव जागृत होते हैं। शुभ भाव शुभ मार्ग (मोक्ष)की ओर आकर्षित करते है। *** Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.जिनेश्वर भक्ति आत्मा से महात्मा, महात्मा से परमात्मा, जन से जैन, जैन से जिन आगे बढ़ना है। आत्मा अनन्त शक्ति का पुंज है / ठाणांग सूत्र में आया, समवायांग सूत्र में भी आया “ऐगे आया ॥"आत्मा एक आया। एक आत्मा अनेकों के बीच में आ जाता है। मकड़ी जाल बनाती है और स्वयं उसी में एक दिन मर जाती हैं। जड़ को देखते चले आ रहे हैं। आत्मा की शक्ति को कभी देखा? सुख-दुःख, पुण्य-पाप अनुभव करने की चैतन्य शक्ति जिसमें विद्यमान हो उसी का नाम आत्मा है / ठीक उसके विपरीत एक दूसरी शक्ति हैं जो प्रतिपल, प्रतिक्षण व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती रही है वह है, जड़ पदार्थ / जड़ में सुख-दुःख, पुण्य पाप का अनुभव करने की क्षमता नहीं होती है। आज का युग भौतिकवाद का युग है जिसके अन्तर्गत मानव चेतन से हट कर जड़ पदार्थो की ओर आकर्षित होता जा रहा है। वह उनमें इनता लिप्त हो जाता है कि उसे भान ही नहीं रहता कि मैं क्या कर रहा हूँ, क्या करने जा रहा हूँ तथा मुझें इसका क्या फल भोगना पड़ेगा। अपने मूल स्वभाव को भूलता जा रहा है। जीव का वास्तविक स्वभाव ज्ञानमय, दर्शनमय, चारित्रमय है। ज्ञान के बिना जीव 'स्व'स्वरूप की प्राप्ति नहीं कर सकता | सच्चे सुख की प्राप्ति 'स्व'स्वरूप में ही है। आत्मा का स्वभाव तो अजर अमर है। जब कि जड़ का स्वभाव तो सड़न, गलन, विध्वंस है। जड़ का महत्व तो तभी तक है जब तक उसमें चेतन शक्ति विद्यमान रहती है। जिस प्रकार बॉक्स की उपयोगिता, महत्ता तभी तक है जब तक उसमें हीरे, जवाहरात भरे रहते हैं। इनके निकल जाने पर खाली बॉक्स में चाहे बढ़िया ताला लगा दिया जाये फिर भी उसका महत्व नहीं रहता है ।इसी प्रकार यह शरीर भी एक बॉक्स के समान है, इसमे आत्मा रूपी जवाहरात है। तभी तक इसका महत्व है जब तक इसमे आत्मा Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान है। आत्मा के निकल जाने पर शरीर का कोई महत्व नहीं रहता बल्कि उसे जल्दी से जल्दी शमशान ले जाने की तैयारियां करते हैं। चेतन शक्ति तो शाश्वत है, जड़ पदार्थ शाश्वत नहीं होते उनका तो एक न एक दिन अंत अवश्य होता है। चेतन शक्ति को समझने के लिए धर्म का आश्रय लेना पड़ता है। लेकिन आज का मानव धर्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है / क्योंकि वह दिखाई नहीं देता है। भौतिक पदार्थ दिखाई देते हैं इसलिए उसकी सत्ता को मान लिया जाता है। धर्म बीज के समान होता है जिसे बो देने पर दिखाई नहीं देता लेकिन जब वह वृक्ष का रूप धारण कर लेता है तो अत्यधिक लाभप्रद होता हैं। "बीज बीज ही नहीं, बीज में तरूवर भी है। मनुष्य मनुष्य ही नहीं, उसमें परमात्म भी है।" बीज वृक्ष का रूप धारण करके राहगीरों को शीतल छाया प्रदान करता है, भूखों को फल देता है आदि अनेक प्रकार की चीज़े देता है। ठीक इसी प्रकार धर्म भी दिखाई नहीं देता है लेकिन उसका शुद्ध फल अवश्य ही समय आने पर दृष्टिगोचर होता हैं / सुख-शांति चाहिए, परन्तु मिलेगी कहां से,जीवन में धर्म नहीं, वीतराग का आश्रय नहीं / शान्ति का जो केन्द्र होगा वहीं शांति मिलेगी। संसारी प्राणियों के पास शान्ति नहीं। पहुंच जाओं वीतराग प्रभु के चरणों में हो जाओं समर्पण, शान्ति मिलेगी। यै शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैक - ललामभूत। तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति / हे प्रभु आपका निर्माण शान्ति के परमाणुओं से हुआ हैं। जगहजगह मैं गया परन्तु शान्ति के परमाणु मिले नहीं, क्योंकि बचे ही नहीं ! सारे Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति के परमाणु आपके पास आकर एकत्रित हो गये हैं। आपका निर्माण ही शान्ति के परमाणुओं से हुआ है। तो मुझे मिलते भी कहां? पुनरपि जननं, पुनरपि मरणम् पुनरपि जननी- जठरे शयनम् आज दिन तक खूब भटका / बार-बार जन्मा, बार-बार मृत्यु को प्राप्त हुआ, बार-बार माता के गर्भ में रहा। आलम्बन लिया नहीं वीतराग प्रभु का। फिर शान्ति कहां से मिलेगी। संसारी प्राणीओं का आलम्बन लिया मांग की, परन्तु उसके पास है क्या-जो देगें / पहुंच जाओं वीतराग प्रभु के पास मांगनी करोगे तो कुछ न कुछ वस्तु की प्राप्ति अवश्य होगी। जिसने वीतराग प्रभु को पकड़ा नहीं वह भटक गये। सावन के महीने में झूले झूलते हैं। झूला झूलने वाले झूले की रस्सी को मज़बूती से पकड़ता है फिर भले वह कितने ही ज़ोर-ज़ोर से झोटे खाये पड़ेगा नहीं। अगर मज़बूती से रस्सी को पकड़ेगा नहीं तो एक ही झोटे में खलास / हड्डी चकनाचूर हो जायेगी। संसार में रहो परन्तु वीतराग की वाणी रूपी रस्सी को अच्छी तरह से पकड़ लो मज़बूती के साथ / आओं भूलो मेरे चेतन, आतम भवन में, आतम भवन में चेतन अपने भवन में..-आओ.... काहे का वहां वृक्ष खड़ा है। काहे की झूल पड़ी वामे....कांहे....आओ.... सम्यक् दर्शन वृक्ष खड़ा है, ज्ञान की झूल पड़ी वामे.....,ज्ञान....आओं.. वीतराग तथा ज्ञान रूपी वाणी का आलम्बन मज़बूती के साथ पकड़ लिया तो और कहीं भटकने की जरूरत नहीं रहती। लेकिन आज दिन तक कामना-वासना की तमन्ना है। तृप्ति नहीं होगी, यह तो आग में घी डालने के Jain Education Internationerivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान है, बढ़ती ही जायेगी। आपने अभी खाना खाया, कुछ समय पश्चात् पुनः भूख लग जाती है। अभी अभी अच्छे अच्छे साबुन से स्नान किया, सेन्ट आदि पदार्थो का विलेपन शरीर पर किया थोड़े समय बाद वापिस बदबू शरीर से आने लग जाती है। वीतराग प्रभु के दर्शन करने के पश्चात् भौतिक सुख की तमन्ना नहीं रहेगी। पकड़ लो वीतराग जिनेश्वर देव के चरण / जीवन सार्थक हो जायेगा, किसी प्रकार का भय जीवन में नहीं रहेगा। निर्भीकता आ जायेगी। पेथड़कुमार के जीवन में भी प्रभु की भक्ति से निर्भीकता आ गई थी। पेथड़कुमार राजा का प्रमुख मंत्री था। राजा उसकी सलाह से ही सारे राज्य कार्य करता था। इससे दूसरे मंत्री पेथड़ मंत्री से चिढ़ने लगे। सोचने लगे किसी भी तरह इसको राजा की आंखो से नीचे गिराना है। राजा इसी को मान-सम्मान देते हैं। हमको कुछ पूछते ही नहीं है। अवसर की राह देखने लगे कि किस प्रकार इसे नीचे गिराया जाये। ईर्ष्या प्रवृत्ति ऐसी होती हैं। भाई-भाई को जुदा कर देती है। पेथड़ मंत्री प्रात: ग्यारह बजे आते है और साम को पांच बजते ही रवाना हो जाते हैं / हम तो सुबह जल्दी आते हैं और देरी से जाते हैं। उन्हें मालुम था की इससे पूर्व पेथड़ मंत्री आ ही नहीं सकता। इसलिए राजा के कान भरने शुरू कर दिये / राजन् ! आप पेथड़ मंत्री को इतना मान सम्मान देते हैं परन्तु वह आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकता। इसकी परीक्षा के लिए आप उसे एक दिन सुबह आठ बजे राज्य सभा में बुलाओं वह आता है या नहीं आपको पता चल जायेगा आपकी कितनी आज्ञा का पालन करता है। राजा तो कान के कच्चे होते है एक पक्ष की बात को सुनकर आवेश आ गया कि पेथड़ मंत्री ऐसा है मेरी आज्ञा को नहीं मानता / प्रातः काल होते ही सैनिकों को पेथड़ मंत्री के घर भेज दिया और कहलाया कि अभी-अभी पेथड़कुमार को राजा साहब ने बुलाया है। सैनिक समाचार लेकर राजा की आज्ञा से पहुंच गये मंत्री जी के घर पर / मंत्री को आवाज लगायी मंत्राणी बाहर आई कहां क्या काम Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। मंत्री जी नहीं मिलेगें। सैनिको ने कहा मंत्राणी जी राजा का हुक्म हैं कि अभी-अभी पेथडकुमार को राजा जी ने बुलाया है। मंत्राणी ने कहां अभी पेथड़ मंत्री नहीं मिलेगें कह देना राजा साहब को। सैनिक देखते रहे गये। एक औरत की इतनी हिम्मत कह दिया मंत्रीजी नहीं मिलेगें ! वापिस राजा के पास आ गये और समाचार कह दिया कि मंत्री जी तो नहीं मिले उनकी पत्नी थी उसने कहां मंत्री महोदय इस समय नहीं मिलेंगे।यह सुन कर राजा को बहुत गुस्सा आया। अहंकार और अभिमान ने दबोच लिया राजा को / राम चरित मानम में कहां है कि “सत्ता, प्रभुता कांहि मद नांहि ॥"सत्ता और प्रभुता मिलने पर मद यानि अभिमान आये बिना नहीं रहता। प्रभु वीतराग की भक्ति अभय पद को देने वाली है। नमुत्थुणं के पाठ में आता है। "चक्खुदयाणं, अभयदयाणं' जिनेश्वर देव अभय को देने वाले है। वीतराग की वाणी मार्ग बताती है यानि सर्च-लाईट का कार्य करती है, मैन रोड़ पर ला कर खड़ा कर देती हैं। दौड़ना या चलने का कार्य अपना हैं। राजा आवेश आवेश में रथ में सवार होकर पहुंच गया मंत्री के घर / मंत्राणी ने राजा का खूब आदर सत्कार किया बंधाया घर में प्रवेश कराया। लेकिन राजा तो आवेश में ही था पूछा मंत्राणी मंत्री कहां है मुझे उससे मिलना हैं। मंत्राणी ने कहां राजन् ! मंत्रीजी अभी आपको नहीं मिलेगें। आज हमारे घर कोई सरकार का व्यक्ति आ जाये तो कितना डर लगता है। सामने नहीं आते छिप जाते है। मंत्राणी में इतनी निर्भीकता कहां से आई। वीतराग प्रभु की पूजा सेवा से / राजा को और भी तेज़ गुस्सा आने लगा। मंत्राणी मंत्री मिलेगा नहीं तो गया कहां पर हैं। राजन् स्थान बता सकती हूँ परन्तु वहां भी इस समय मंत्री जी आपसे नहीं मिलेंगे। स्थान बता दिया। इतना होने पर भी मंत्राणी को डर नहीं भय नहीं। एक नारी में इतनी हिम्मत / राजा हाथ में नंगी तलवार लेकर रवाना हो गया। मंदिर तक पहुंच गया सीढ़ियां चढ़ने लगा आवेश कम होने लगा। परमाणुओं में Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 अनन्त शक्ति होती है। मंदिर में प्रवेश किया प्रवेश करते ही सामने भव्य आदीश्वर भगवान की प्रतिमा को देखा मन में विचार आया आज दिन तक ऐसा आदीश्वर भगवान का मंदिर नहीं देखा आगे बढ़ रहा है विचारों में तरतमता आने लगी। रंगमण्डप में पहुंच गया सामने मूल गम्मारें में देखा मंत्री पुष्प पूजा कर रहा हैं / अष्ट प्रकार की पूजा होती हैं। प्रत्येक पूजा का अपना रहस्य होता है। अभिषेक जिन मूर्ति का करो तो कर्म मेल आपके धुलते है। चन्दन पूजा करो तो उपशम भाव प्राप्त होता है / पुष्प पूजा करो तो आपमें गुणों की सुवास उत्पन्न होती है। धूप पूजा करो तो वासना की दुर्गन्ध दूर होती है। आरती उतारों तो अन्तर में उजवाला होता है। अक्षत पूजा करो तो अक्षय पद प्राप्त होता है। नैवैद्य पूजा करो तो अणाहारी पद प्राप्त होता है। फल पूजा करो तो मोक्ष रूपी फल की प्राप्ति होती है। मन-वचन-काया, सोंपो तो तीनों ही आपके निर्मल बनते हैं। ध्यान प्रभु का धरों तो चित्त प्रसन्न होता हैं। इतनी गजब की शक्ति परमात्मा में होती है। मंत्री पुष्प पूजा कर रहा है यह देख राजा के विचारों में परिवर्तन हो गया क्या लेकर आया था कि आज मैं मंत्री का सिर धड़ से अलग कर दूंगा। हिंसा का भाव था। परन्तु यहां आकर सब कुछ गायब / भक्ति में इतनी शक्ति होती हैं। पेथड़मंत्री की भक्ति तथा जिनालय के परमाणुओं ने राजा के विचारों में परिवर्तन ला दिया। मंत्री को एक व्यक्ति पुष्प देता जा रहा था और मंत्री भगवान की पुष्पों से आंगी रचा रहा था / राजा के भाव वर्द्धमान हुए उस व्यक्ति को उठा स्वयं बैठ गया। पुष्प देना चालू किया। क्रम बदल गया। राजा को देख लिया फिर भी पूजा में संलग्न / द्रव्य पूजा से अब भाव पूजा में प्रवेश किया। द्रव्य पूजा भावों को लाने के लिए अर्थात् भावों तो मज़बूत बनाने के लिए है। जैसा कि देव चन्द्र जी महाराज ने बारहवें वासुपूज्य स्वामी के स्तवन में कहते हैं कि - Jain Education Internation Private & Personal Usev@mily.jainelibrary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “द्रव्य थी पूजा रे कारण भावनो रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध // परम इष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयं बुद्ध ।।पूजना // " द्रव्य पूजा से भाव पूजा उत्पन्न होती हैं। भाव पूजा के दो भेद होते हैं। (1) प्रशस्त भाव निपेक्ष पूजा और (2) शुद्ध भाव निपेक्ष पूजा / भाव, आत्मा की परिणति है और प्रशस्त है। गुणीजनों पर राग रखना भी प्रशस्त है। श्री वासुपूज्य तीर्थंकर भगवान स्वयं बुद्ध हैं / त्रिभुवन के स्वामी हैं, वे ही मेरे परम-अत्यन्त इष्ट प्रिय और वल्लभ हैं। उन्हीं के प्रति मेरा राग हैं। यह भाव पूजा प्रशस्त राग युक्त है। गुणों का राग प्रशस्त है। भक्ति में अनन्त शक्ति होती हैं। भक्ति से शक्ति मिलती है, शक्ति से शान्ति, शान्ति से समाधि, समाधि से सद्गति, सद्गति से शिव गति प्राप्त होती है। पेथड़ मंत्री चैत्यवंदन कर रहा हैं भावों के साथ स्तवन बोल रहा है : तू सदा ही साथ देता वीतरागो ओ विजेता-तू सदा .... न जरा न रोग मृत्यु, न वियोग शोक क्रन्दन अविनाशी हो निरंजन, तुम्हें लाख-लाख वंदन संसार पार लेता, वीतरागी ओ विजेता -तू सदा..... राजा मंत्री की यह सब क्रियाएं देखकर मन ही मन बहुत ही प्रसन्न हो रहा है, क्या ले कर आया था वह सब वमन हो गया। मंत्री अब अपनी पूरी विधि करके आवसिहिं आवसिहि कहता हुआ मंदिर के बाहर निकल गया, राजा भी मंत्री के पीछे-पीछे मंदिर के बाहर निकल गया। मंदिर से निकलते ही राजा को देखा चरणों में पड़ गया। इतने समय आत्मा के राजा से मिलन था। अब शरीर के राजा का मिलन हुआ। झुक गया। राजा ने कहां मंत्री तुम नहीं मैं तुम्हें नमस्कार करूंगा। तेरे से मुझे ज्ञान मिला / तेरी कृपा से आज मुझे भव्य प्रतिमा के दर्शन हुए। आज दिन तक मैंने इतना भव्य जिनालय देखा ही नहीं। तू मेरा बहुत उपकारी हैं ।भक्ति की शक्ति ने जीवन परिवर्तन कर दिया। आज से तेरा धर्म मेरा धर्म, जो करेगा वह मैं करूंगा। राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ। Jain Education Internation Private & Personal Usevomly.jainelibrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने कहा मंत्री महोदय कल मैं आपको लेने के लिए रथ भेजूंगा। उसमें बैठकर आप राजसभा में पधारना ! राजा प्रसन्न होता हुआ वापिस महलों मे आ गया। दूसरे दिन लोगों को खूब मजा आने वाला था। सभी मंत्री बहुत खुश थे कि आज तो पेथड़ मंत्री को राजा पदच्युत कर देगें! मंत्री मुद्रा छीन लेगें। “तमाशे को तेडा नहीं'तमाशा होता है वहां किसी को बुलाना नहीं पड़ता स्वयं ही भीड़ इकट्ठी हो जाती हैं। राज्यसभा में खूब भीड़ इकट्ठी हो गई। राजा सिंहासन पर बैठ गया। वीतराग प्रभु के दर्शन ने पासा पलट दिया। पेथड़ मंत्री का रथ राज्य सभा में आकर रूका। राजा सिंहासन से उठ गये और मंत्री को आदर सहित लाकर सिंहासन पर अपने समीप बैठाया। सभी देखते रह गये यह क्या / क्या होने वाला था क्या हो गया। सबके मुंह उतर गये। उसी समय सभी के बीच राजा ने मंत्री को सर्वोपरि पद दिया साथ में अमुक, अमुक राज्य तथा रहने के लिए महल भी अलग से दिया। साथ में इर्ष्यालु मंत्रियों को पदच्युत करने की घोषणा जाहिर की ! लेकिन पेथड़ मंत्री के कहने से रोक दिया। धड़ मंत्री की भक्ति इतनी प्रबल थी कि यदि उनके पूजा का वस्त्र किसी बीमार व्यक्ति के ऊपर डाल दिया जाता तो वह बीमारी से मुक्त हो जाता था। उनके वस्त्रों में भी इतनी ताकत थी। हमें भी इसी प्रकार की भक्ति करके आत्म स्वरूप को पहचानना हैं। हमने आज दिन तक क्या किया-बच्चों को पैसे दिये, पत्नि को गहनों से सजाया, ऑफिसरों के चरणों में माथा टेका तथा उनको खिलाया पिलाया, मेहमानों को मीठा भोजन कराया इसके बदले में सिर्फ हमको दुर्गति मिली चिकने कर्म बन्धन हुए आत्मा को दीर्घ काल के लिए संसार में घूमाया है। अब सावध बनाना है रागीओं के बदले वीतराग को सम्भालना है / रागीओं की प्रसन्नता से वीतराग की उदासीनता प्रचंड ताकातवाली है। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10. शक्ति ही जीवन) मानव जीवन में शक्ति की बहुत आवश्यकता हैं। बिना शक्ति के न लौकिक कार्य सम्पन्न हो सकता है और न आध्यात्मिक साधना की जा सकती हैं। प्रत्येक कार्य को सम्पन्न करने के लिए और उसे सफ़लता की सीमा पर पहुंचाने के लिए शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की शक्ति अपेक्षित हैं। समस्त सफ़लताओं के मूल में एक भी पदार्थ शक्ति-हीन नहीं है। किसी में शक्ति प्रसुप्त रहती है तो किसी में प्रवुद्ध / प्रसुप्त शक्ति को प्रबुद्ध करना ही विज्ञान एवं ज्ञानियों का काम हैं। कोयला एक अचेतन तत्व है। शक्तिहीन प्रतीत होता है पर ज्योहि उसे अग्नि का सम्पर्क मिलता है वह जल उठता है। उस एक ही कोयले में समग्र ग्राम-नगर, वन को जलाने की शक्ति आ जाती है। अवरूद्ध जल में प्रवाह नहीं होता वह प्रवाही न होकर शान्त पड़ा रहता हैं, किन्तु जब बांध टूट जाता है तब वह प्रवाही हीन जल प्रवाहशील बन कर सर्वनाश करने वाल बन जाता हैं। बाढ़ का वेग जिधर निकलेगा हाहाकार मचा देगा। बांध के शान्त जल को देख कर कोई भी व्यक्ति उसकी प्रचण्ड शक्ति की कल्पना नहीं कर सकता / जल के कण-कण में परिव्याप्त विद्युत की शक्ति को कोई नाप नहीं सकता। वैज्ञानिक प्रक्रिया करके जब विद्युत का रूप दिया जाता है तब उसकी महाप्रचण्ड शक्ति का अनुमान लगाना बुद्धि का काम है। पवन जब मन्द-मन्द बहता है तो सबको प्रिय लगता है, सुखद लगता है। पर जब वही पवन प्रचण्ड आंधी तूफ़ान का स्वरूप ग्रहण कर लेता है तव दुनियां में हाहाकार मचा देता है। ठीक इसी प्रकारी मनुष्य की साधारण बुद्धि का जब किसी तेजस्वी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति से सम्पर्क होता है तब उसके जीवन में चमत्कार उत्पन्न हो जाता भगवान राम को जब चौदह वर्ष का वनवास मिला और जब वह Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य अयोध्या को छोड़कर निकट वनों में भ्रमण कर रहे थे तव उनके पास क्या साधन थे, कुछ भी नहीं। सिर्फ शारीरिक एवं आत्मिक शक्ति ही उनके पास थी। अपनी आत्म शक्ति के बल पर हनुमान जैसे वीर को अपना परम भक्त बना लिया / अपनी शक्ति के बल पर ही शक्तिशाली एवं महाबलवान शत्रु को पराजित करके किस्किंधा राज्य पर सुग्रीव को बैठाकर उसे भी अपना परम मित्र बना लिया। साधनहीन राम साधन सम्पन्न बन गये। अपने पिता के घर से एक कण मात्र भी साधन लेकर वे नहीं निकले थे किन्तु विकट वनों में रह कर भी स्व उपार्जित शक्ति के बल पर सब कुछ पा लिया। आततायी दैत्यों का दमन किया। यह सब उनकी जीवन शक्ति का ही चमत्कार था। ज्ञानियों ने कहां हैं मानव के पास तीन मुख्य शक्तियां होती है। (1) मन की शक्ति (2) बचन की शक्ति (3) काया की शक्ति / मनन से चिन्तन से मन की शक्ति बढ़ती हैं। मौन से वाणी की शक्ति बढ़ती हैं और श्रम से शारीरिक शक्ति बढ़ती है। वाणी का भूषण मौन है, वाचालता नहीं / मौन रखना अपने आप में एक तप है। यह तप वहीं व्यक्ति कर सकता है जिसने वाक् संयम की कला को सीख लिया हैं। अपनी वाणी का जादू हज़ारों श्रोताओं पर करना आसान है परन्तु मौन रहकर अपने आचार का प्रभाव डालना बहुत कठिन हैं। वक्ता होना सरल है किन्तु मौन रह कर अपने आचार का प्रभाव जनमानस पर डालना बहुट कठिन हैं। मानव जैसा चाहें वैसा बन सकता है। अपने हृदय में जैसा विचार करता है वैसा बन जाता हैं। जिसके मन में राक्षसी भावना रहती है, वह राक्षस बन जाता है। दैवीय भावना रहती है तो देव बन जाता है। आज संसार कितना अशान्त एवं उद्भ्रान्त दृष्टिगोचर होता है। जिधर दृष्टि डालो उधर ही अशान्ति का दावानल धधकता दिखाई देता हैं / हर तरफ उद्विग्नता एवं खिन्नता हैं। लगता है मानव जाति पागलपन की दुस्थिति से गुजर रही हैं। इस विशाल विश्व में सर्वाधिक श्रेष्ठ कौन है ? इस प्रश्न पर चिन्तन Jain Education Internationerivate & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मनन करने के पश्चात् इसी निर्णय पर पहुंचते है कि सृष्टि का सर्वाधिक श्रेष्ठ प्राणवान तत्व मनुष्य ही हैं। आज दिन तक के इतिहास में धर्म और दर्शन, संस्कृति और साहित्य, कला एवं विज्ञान की जितनी भी खोज हुई हैं उनका मूल आधार मानव ही हैं। मनुष्य के लिए ही इनका प्रयोग और उपयोग किया जाता है। समग्र विश्व के विकास का मूल केन्द्र मानव जीवन ही हैं। मानव जीवन की पवित्रता और श्रेष्ठता मानव जीवन का वह पक्ष है जिसके लिए भारत के महान आचार्य संत और विद्वानों ने अपनी-अपनी भाषा से अपने-अपने ग्रन्थों मे बहुत कुछ गुणगान किया है। मानव की प्रसुप्त आत्मा प्रबुद्ध करने के लिए उन्होंने चिन्तन मनन के द्वारा बहुत कुछ प्रेरणा दी है। मनुष्य वह है जो अपने मन की शक्ति का सम्राट हो / संसार की समग्र शक्ति जिसके आगे नतमस्तक हो। एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में एक विशाल ग्रन्थ हैं, यदि आप उसे पढ़ने की कला जानते हो तो। प्रत्येक मनुष्य में संसार की समग्र शक्ति के साथ आत्मिक शक्ति भी विद्यमान रहती है। उसको प्रगट करना आना चाहिए। जिन्हों ने भी इस आत्मिक शक्ति को प्रकट किया है परमपद को प्राप्त हो गये / सम्यक् दृष्टि आत्मा संसार के विषय भोगों में और भयंकर युद्धो में रत रहने पर भी उनकी निर्विकल्प स्वरूपानुभूति बाहर न रह कर अन्दर ही रहती है। उदाहरण स्वरूप शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ इन तीनों तीर्थंकरो के जीवन को लीजिए, जो अपने जीवन में चक्रवर्ती और तीर्थंकर दोनों ही रहें। तीनों ही तीर्थंकर बनने वाले जीव थे, फिर भी तीनों प्रारम्भ में संसार के भोगों और युद्धों में संलग्न रहें। भोग-विलास भी किये भयंकर युद्ध भी किए। संसार के कार्य करते हुए भी क्षायिक सम्यक् भाव में कैसे रहे ? यह प्रश्न उठना भी सहज ही है। शास्त्रकारों ने इसके समाधान में कहां है कि वे भोगी रह कर भी अन्दर से त्यागी थे। आत्मा की शक्ति प्रगट थी। चारित्र मोह के उदय से विषय का राग था परन्तु दर्शन मोह Jain Education Internation@rivate & Personal Useamly.jainelibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षय हो जाने से उनकी दृष्टि में राग का राग नहीं था / उदासीन भाव था। यही कारण है कि वे संसार में रहे, संसार के भोग भी भोगे और भयंकर युद्ध भी किये। यह सब होते हुए भी उनकी क्षायिक सम्यक् में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं आया। जीवन की पवित्रता, उज्जवलता और महानता तभी प्रगट होती है जब कि बाहर में वस्तु का राग होते हुए भी अन्दर में राग के प्रतिपक्ष वैराग्य की पवित्र धारा प्रवाहित हो। और अनासक्ति का महासागर लहराता हो। मनुष्य के जीवन में चिन्तन और अनुभव जितना सूक्ष्म एवं आत्मस्पर्शी होगा तो जीवन में उतना ही अधिक आनन्द और उल्लास प्रगट होगा। ***** Jain Education Internationerivate & Personal Usenany jainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११.आत्मानुभूति सोओ मत जागो! अनादि काल से सोते आये हैं। जागने की क्रिया योगियों की हैं, और सोने की क्रिया संसारियों की हैं। जागना कैसा ? आत्मा का चिन्तन निरन्तर हो सतत हो / उसका नाम ही जागना यानि अप्रमादी अवस्था / स्व चिन्तन में रहना ही अप्रमादी अवस्था है, पर का परिपेक्षण करना, चिन्तन करना यह है प्रमादी अवस्था यानि सोने की अवस्था। रात को नींद में भी सतत आत्मा का चिन्तन चले उसी का नाम है जागृत अवस्था / अनादि अनंत समय व्यतीत हो गया सोते चले आ रहे है। आज दिन तक सांसारिक विषय-वासनाओं में लयलीन रहे, पर पदार्थो के प्रति आसक्त रहे लेकिन अभी तक अनासक्त अवस्था आई नहीं अनासक्त अवस्था को लाना है ! जैसे समकित धारी जीवणो, करें कुटुम्ब प्रतिपात अन्तर से न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावें वाल॥ समकित धारी जीव(प्राणी)संसार में रहता है परन्तु उसकी अवस्था धाय माता के समान होती है। मां दो प्रकार की होती है। एक जन्म देने वाली और दूसरी पालन करने वाली। धाय माता पालक मां कहलाती है ! वह बच्चे के सब कुछ कार्य करती है, स्नान कराती हैं, दूध पिलाती है, खिलाती है, प्यार भी देती है लेकिन उसके मन में यह विचार चलता रहता है कि यह बच्चा मेरा नहीं है। संसार में हमको भी इसी प्रकार रहना चाहिए। सभी कुछ सांसारिक कार्य करते हुए भी उसमें लयलीन अवस्था न हो। उसमें ओत-प्रोत न हो मन में यही चिन्तन चलना चाहिए कि यह कार्य मुझें करना पड़ता है इसीलिए मैं करता हूँ, कार्य करते हुए भी स्व स्वरूप का निरीक्षण करते रहना चाहिए। जैसा कि देवचन्द जी महाराज ने अजित नाथ भगवान के स्तवन में कहां हैं कि Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 “अज कुलगत केसरी लहेरे, निजपद सिंह निहाल // तिम प्रभु भक्ते भवि लहेरे, आतम शक्ति संभाल / अजित जिन तारजो रे, तारजो दीन दयाल // " देवचन्द्र जी महाराज केवली रूप में महाविदेह क्षेत्र में विचरण कर रहे हैं। उन्होंने दूसरे भगवान श्री अजित नाथ स्वामी के स्तवन में फरमाया है कि बकरियों के समूह में एक शेर का बच्चा था। नित्य प्रति समूह के साथ नदी पर पानी पीने जाता था / एक दिन क्या हुआ नदी पर शेर भी पानी पीने आया। उसकी आवाज़ को सुनकर बकरियों का समूह भाग गया लेकिन शेर का बच्चा वहीं पर खड़ा रहा। आज दिन तक बकरियों के समूह में रहने से मुंझें अपने स्वरूप का भान नहीं हुआ कि मैं कौन हूँ! शेर का बच्चा तो शेर को देखकर भी निर्भीक रूप वहीं खड़ा रहा। उसके मन में जरा भी डर नहीं था। शेर के बच्चे ने मन में सोचा यह कौन प्राणी है जो इसे देख कर मेरा सारा समूह भाग गया। यह कौन है ? और भागने वाला टोला कौन था और मैं स्वं कौन हूँ। उन दोनों के बीच उसने अपनी तुलना करी फिर निष्कर्ष पर पहुंच गया कि मेरा रूप तो इसके जैसा है। जो टोला भाग गया वह मेरा रूप नहीं। आज दिन तक मैं उसके सम्पर्क में रह कर अपना स्वरूप भूल गया था। अब मैं अपने स्वरूप में आ गया हूँ अब मुझे किस बात का भय ? जिस प्रकार वह शेर का बच्चा मन में विचारता है उसी प्रकार आप भी वीतराग प्रभु के पास जाकर अपनी तुलना करो कि हे प्रभु मैं भी आपकी शक्ति (आत्मा) के समान हूँ। परन्तु मेरी आत्मा पर पर्दा पड़ गया है। मेरा सम्पर्क संसारियों के टोले से हो गया है। मुझे अब आपके रूप को देखकर अपना रूप पहचानना हैं। हमें प्रभु से भीख मांगनी चाहिए कि हे प्रभु आपके स्वरूप समान मेरा स्वरूप बन जायें। लेकिन हम भगवान के सामने क्या मांगनी करते है-धन की, वैभव की, रूप की, जन की आदि। एक बार तीन भक्त भगवान के पास आये। तीनों ने अलग 2 वस्तु की Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग करी ! एक ने पैसे की मांग की। दूसरे ने सोने की और तीसरे ने छापा मारने की। क्योंकि तीसरा इन्कमटैक्स ऑफीसर था। हमारे प्रभु कैसे हैं कुछ भी नहीं देते हैं उनके अधिष्टापक देव ही सब कुछ देते हैं। देव ने आकर तथास्तु कह दिया। तीनों भक्तों ने जो मांगा वह प्राप्त हो गया। एक दिन तीनों के घर चोर आ गये और सारा माल सामान चुरा कर ले गये। अब तीनों भिखारी बन गये कुछ भी पास में नहीं रहा। इसी प्रकार की दशा हमारी बनी हुई है। आज दिन तक मांगते आये, मांगते आयें फिर भी खाली की खाली शेष कुछ भी बचा ही नहीं। जो दस वीस पंचास भये, शत होई हज़ार तु लाख मांगेगी। कोटि अरब असंख्य धरापति होने की चाह जगेगी। स्वर्ग पाताल का राज्य करूं, तृष्णा अधिकी अति आग लगेगी। सुन्दर एक संतोष बिना शठ तेरी तू भूख कभी न मिटेगी॥ आज हम करोड़पति है तो आगे असंख्य पति होने की चाह जगती है। समझ नहीं पाते क्या अवस्था है हमारी। पैसे के पीछे दौड़ लग रही है। स्वयं का ठिकाना नहीं क्या अवस्था बना रखी है ! यहां तक कि बाप बच्चों को जान नहीं पाते और बच्चे बाप को पहचान नहीं पाते यह दशा है आज के युग की। पिताजी प्रातः जल्दी उठ कर कार्य पर चले जाते है और रात को देरी से आते है जब तक बच्चे सो जाते हैं सुबह पिताजी के जाने के समय बच्चे सोते रहते है बाद में उठते हैं। रविवार को छुट्टी रहती है तो सुबह से ही टी.वी. चालू हो जाता है उसमें इतने मशहूल बन जाते है कि एक दूसरे की तरफ़ दृष्टिपात ही नहीं। बच्चों में संस्कार आये तो कहां आये / आज दिन तक कर क्या पाये अपने बच्चों के भविष्य को गर्त में डाल रहे हैं। इसलिए कहा गया है कि: "माता शत्रुः, पिता वैरी, येन बालो न पाठितः न शोभते सभामध्ये, हंस मध्ये बको यथा॥" Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95 वे माता, पिता शत्रु हैं जिन्होने अपने बालक को नहीं पढ़ाया, जिस तरह हंसो के बीच बगुला शोभा नहीं देता उसी प्रकार विद्वानों के मध्य मूर्ख बालक / बालक की प्रथम पाठशाला उसके माता-पिता ही हैं। सर्व प्रथम शिक्षा माता-पिता द्वारा ही मिलनी चाहिए। माता-पिता जैसी शिक्षा देगें उसी के अनुसार बालक के भविष्य का निर्माण होता है। शैशवावस्था ऐसी होती है जिसमें जैसे बीज डालेंगे वैसा ही वृक्ष का निर्माण होगा। बच्चों में शुरू से ही संस्कार डालना चाहिए कि रात्रि भोजन नहीं करना चाहिए, सुबह मुंह में पानी डालने से पूर्व नवकार मंत्र गिनना चाहिए, मंदिर दर्शन करने चाहिए, बड़ो की आज्ञा का पालन करना चाहिए आदि! माकण्डेय ऋषि ने बताया हैं कि रात्रि भोजन करने पर भोजन मांस तुल्य और पानी रुधिर तुल्य हो जाता हैं। अस्तं गते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते। अन्नं मासं समं प्रोक्तं, मार्कण्डेण महर्षिणा॥ सूर्य अस्त होने पर जीवों की वर्षा होती है जो अति सूक्ष्म होते हैं, वह हमें दिखाई नहीं देते। हम मच्छरों से बचने के लिए सौ बाई का बल्ब लगाते हैं, ट्यूबलाईट लगाते है कि मच्छर हमारे भोजन में नहीं पड़े हमें दिखाई दे जाये / हम मच्छरों से बच सकते हैं परन्तु सूक्ष्म जीवों से नहीं। जीवों से बचना हैं, उनकी रक्षा करनी है तो रात्रि भोजन का त्याग अवश्य करें। अब हम पुनः अपनी बात पर आते हैं। दो पागल जा रहे थे। एक कहता है यह चन्द्र है दूसरा कहता है यह सूर्य है। दोनों में झगड़ा हो गया। इतने में एक शेठजी आये। उसने पूछा ! शेठजी यह चन्द्र है या सूर्य / शेठ जी ने सोचा यह दोनों ही मूर्ख हैं। जिसका पक्ष लूंगा तो दूसरे की लाठी मेरे सिर पर पड़ेगी। शेठ जी समझदार थे कहां भाई मैं तो नया हूँ, दूर देश से आया हूँ। मैं जानता नहीं यह सूर्य है या चन्द्र / मैं दूसरी दुनिया से आया हूँ। यह सुनकर Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 दोनों चुप हो गये / ऐसी दशा कहीं कहीं पर आज कल साधु-साध्वी की हैं। विहार करते समय मुक़ाम करना है तो सबसे पहले सामने यही प्रश्न उपस्थित होता है कि म.सा.आप एक तिथि के हो या दो तिथि के। जहां ऐसी परिस्थिति आती हैं तो हम तो यही उत्तर देते है कि हम तो महावीर के है, जैन साधु है। आपको गच्छ पन्थ से क्या मतलब ! और भी ज्यादा पूछते है तो यही कहते है कि हम दादा गुरुदेव के भक्त है / दोनों के बीच में बहुत बड़ी Problem उपस्थित हो जाती है। इस बीच में हम न एक तिथि के और न दो तिथि के तो स्थान मिल जाता है। अगर एक या दो तिथि के कह दिया तो रूकने को भी स्थान नहीं। इतना लम्बा विहार कमर बंधी हुई फिर रहने को जगह नहीं, बहुत मुशिकल खड़ी हो जाती है। ही और भी की लड़ाई है / ही होगा तो झगड़ा प्रारम्भ / भी होगा तो झगड़ा समाप्त / एकान्तवाद और अनेकान्तवाद दो है। जहां एकान्तवाद है वहां झगड़ा है। जहां स्यादवाद है वहां झगड़ा नहीं होता है। ‘भी लाना बहुत बड़ी बात है। भी लाने की क्रिया को सीखना पड़ेगा। जो हमें महापुरुषों से सीखनी होगी। जैसा कि देवचन्द्र जी महाराज ने कहां है कि हमारी आत्मिक शक्ति परमात्मा के समान है उसे प्रकट करनी है। हम स्वभाव से विभाव में घूम रहे है। हे प्रभु मुझें विभाव से स्वभाव में आना है। मैं भोगानंदी, कामानन्दी, इन्द्रियनन्दी बना हुआ हूँ। इसलिए तेरे स्वरूप को पा नहीं रहा हूँ। आशक्ति की गुलामी से दूर हटूंगा तभी तेरे स्वरूप को प्राप्त कर सकूगा। चक्रवर्ती भरत महाराजा के पास एक व्यक्ति आया पूछा ? महाराजा ? आपको लोग अनासक्त कहते हैं / यह कैसे हो सकता है ? मैं तो आपको आसक्त देखता हूँ। आपके 64,000 रानियां है, 32,000 मुकुटबंध राजा आपकी सेवा में खड़े रहते है। फिर आप अनासक्त कैसे हो सकते हो। दुनियां कहती हैं कि Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में ही वैरागी भरत जी, मन में ही वैरागी। सहस बत्रीस मुकुट बंध राजा, सेवा करे वड़मागी॥ चौसठ सहस्र अन्तेउरी जाके, तोहि न हुआ अनुरागी। भरत जी मन में ही वैरागी .... // भरत महाराज ने कहां कि आप यह जानना चाहते है तो यह तेल का भरा हुआ कटोरा लो। मैं कहता हूँ कि तुम मेरे पूरे महल के चारों ओर परिक्रमा कर आओं। लेकिन परिक्रमा करते समय यह ध्यान में रखना होगा कि कौन से महल में रानी कैसी ड्रेस पहन कर बैठी है, क्या-क्या नाटक चल रहे है, कौन क्या कर रहा है, महल की कारीगरी कैसी है। इस सब बातों के साथ यह बात भी ध्यान रखने की है कि कटोरे में से एक बूंद भी तेल ढुलना नहीं चाहिए। अगर एक बूंद भी तेल की नीचे गिरा तो नंगी तलवार लिए सिपाही आजू-बाजू में चलेंगे तेल की बूंद गिरते ही तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देगें! व्यक्ति यह सुन असमंजस में पड़ गया। आया था शंका का समाधान करने मुर्शकल में पड़ गया। महल के चारों तरफ़ चक्कर तो लगाया लेकिन उसका ध्यान सिर्फ़ कटोरे पर ही केन्द्रित रहा। उसे भय था कि अगर एक बूंद भी तेल गिरा तो सिर से धड़ अलग, मृत्यु निचित ! चक्कर लगाकर पुनः भरत महाराजा के पास आया। भरत महाराज ने पूछा चक्कर लगा लिया। महल में क्या-क्या कारीगरी देखी, कौन सी रानी कहां बैठी थी, क्या ड्रेस पहनी थी, क्या-क्या नाटक चल रहे थे / व्यक्ति ने उत्तर दिया महाराज ! माफ़ करना ? मेरे सामने मृत्यु का भय था इसलिए मेरी दृष्टि कटोरे पर ही रही / महल का दृष्टिपात नहीं कर सका। यह सुन कर भरत महाराज कहने लगे ठीक है जिस प्रकार तुम्हारे सामने मृत्यु घूम रही थी इसलिए दृष्टि को तेल के कटोरे पर केन्द्रित रखा कहीं दूसरी तरफ़ दृष्टिपात नहीं किया ठीक इसी प्रकार इतना ऐश्वर्य होने पर भी मैं अपनी आत्मा के निरीक्षण में लगा हुआ हूँ किसी भी चीज़ में मेरी आसक्ति नहीं है। मिश्री खाने Jain Education InternationBrivate & Personal Usevaply.jainelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला ही मिश्री का स्वाद जान सकता है, दूसरा नहीं। दूसरा तो सिर्फ कह ही सकता है कि मिश्री मीठी, सफ़ेद है। लेकिन वास्तविक स्वरूप को नहीं बतला सकता। इसी प्रकार मैंने आत्मा के स्वाद को चख लिया है, दूसरा स्वाद लेने की मुझे आवश्यकता नहीं। मिष्ठान खाकर कौन कड़वा, तीखा खाने की इच्छा रखेगा। वह व्यक्ति शर्मिन्दा होकर वहां से रवाना हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्म स्वरूप को प्राप्तकर लेने पर किसी भी चीज़ की आवश्यकता शेष नहीं रहती है। परमात्म स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विभाव से स्वभाव में आना होगा। स्वभाव में आने के लिए देव, गुरु, धर्म का आश्रय लेना होगा / देव, गुरु, धर्म का आलम्बन लेकर हम स्वभाव को प्राप्त करके परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर सकते हैं। ***** Jain Education Internationerivate & Personal Usenany jainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((१२."जीवन एक यात्रा है"Life is Journey)) जीवन एक यात्रा है, प्रवास है, सफ़र है, मुसाफ़िरी है, जो कभी अकेले में, कभी भीड़ में कभी नीड़में इसका क्रम चलता जा रहा है। जीवन का यह क्रम अनादि काल से अनवरत रीति से चला आ रहा है। जिस प्रकार रात्रि के पश्चात् दिवस, दिवस के पश्चात् रात्रि / जनवरी के पश्चात् फरवरी, फरवरी के पश्चात् मार्च / इसी प्रकार बारह महीनों का क्रम चलता रहा है। हमारे जीवन का क्रम भी इसी प्रकार चला आ रहा है। हमें किस मंजिल पर पहुंचना है यह उद्देश्य लिए बिना ही हम चले जा रहे हैं। इसलिए हमारी मंजिल . अभी तक आई नहीं है। हमें मंजिल प्राप्त करनी है तो पहले हमें कहां पहुंचना है उसका निर्णय करना पड़ेगा, तभी उस तक पहुंच सकते हैं / लक्ष्य नहीं बनायेगें तब तक इस संसार में भ्रमण करते ही रहेगें। जिस प्रकार कोई व्यक्ति गाड़ी में बैठ जाता है, और उसे मालुम ही नहीं है कि मुझे कौन से स्टेशन पर उतरना है। तो वह गाड़ी में घूमता ही रहेगा जब तक उसे यह मालुम नहीं होगा कि मुझें कौन से स्टेशन पर उतरना है। ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मा भी अनादि काल से इस संसार में भ्रमण करती आ रही हैं क्योंकि आज दिन तक पता ही नहीं कि मेरा अन्तिम Station कौन सा है। जब तक मालुम नहीं होगा तब तक हमकों घूमना ही पड़ेगा। लेकिन इस घूमने में विशेषता इतनी है कि आज दिन तक हमें घूमने में थकावट महसूस नहीं हुई, इसीलिए घूमते जा रहे हैं। आज हम धार्मिक क्षेत्र की ओर दृष्टिपात करें कि कोई व्यक्ति पूजा करता है, सामयिक करता है, माला फेरता है तो उसे बहुत जल्दी थकावट आ जाती है। परेशान हो जाता है, सिर दर्द होने लगता है, कमर दुखने लगती है, भूख लगने लगती है, शरीर बैचेन हो जाता है। ठीक इसके विपरित जड़ पदार्थो की ओर दृष्टिपात करे तो हमें पता Jain Education Internation Private & Personal UsevOply.jainelibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 चलता है कि व्यापार करने में, पैसे गिनने में, ब्लेकमेल करने में, पिक्चर देखने में, आयात-निर्यात करने में, आराम करने में, जुआ खेलने में आदि और भी अनेक ऐसे कार्य है जिनको करने में हमें नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती, सिर नहीं दु:खता आलस नहीं आता यहां तक कि रात को नींद भी नहीं आती है। रात को नींद की गोलियां लेनी पड़ती है। आंखों के सामने फिल्म की तरह यह सब कार्य घूमते रहते है। मानव इन सबको प्राप्त करने में अपने आपको सुखी मानता है। आज जो लाख पति है वह करोड़ पति होने की इच्छा रखता है और जो करोड़ पति है वह अरबपति बनना चाहता है। मानव की यह लालसा मिटती ही नहीं है। धर्म के क्षेत्र में एक सामायिक कर ली तो बस दूसरी की इच्छा जागृत ही नहीं होती, फिर कहां से सुख-शांति प्राप्त होगी। बाहरी सुख कितना ही क्यों नहीं प्राप्त कर लो जब तक आत्मिक सुख प्राप्त नहीं किया तब तक सब कुछ बेकार है। आत्मिक सुख प्राप्त किये बिना हम अपनी मंजिल पर पहुंच नहीं सकते है। आज हम अपने परिवार के आराम के लिए इतनी मेहनत करते हैं। रात-दिन एक करके पैसा एकत्रित करते है। अपना जीवन संकट में डाल कर भी परिवार को सुखी करना चाहते है लेकिन कुछ समय पश्चात् क्या होता है, अपना खुद का लड़का भी साथ नहीं देता है। शादी हो जाने के पश्चात् अपनी बीबी को लेकर अलग हो जाता है। विचारे मां-बाप जिन्होंने पहले दुःख का सामना किया था कि हमारे बच्चे बड़े होकर हमारी सेवा करेंगे। लेकिन रिजल्ट उल्टा निकलता है। अलग नहीं भी होते है तो सास ससुर (मां-बाप) को बहुत कष्ट में रखते हैं। खाना भी बराबर नहीं देते है। नौकर से भी ज्यादा बुरा व्यवहार उनके साथ किया जाता है / क्योंकि उनके हाथ पैर अब काम नहीं करते हैं, उनसे कुछ प्राप्त नहीं हो सकता है। नौकर से तो अच्छा व्यवहार करना पड़ता हैं, अगर नहीं रखेगें तो वह काम नहीं करेगा, ज्यादा कुछ कहेगें तो घर Jain Education Internationerivate & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 छोड़ कर दूसरे घर काम करने लग जायेगा / यह उनको भय बना रहता है कि नौकर मिलेगा नहीं तो सारा कार्य अपने हाथों से करना पड़ेगा। एक दंपति थे उनके एक ही पुत्र था। लड़का छोटा था तभी पिताजी की मृत्यु हो गई। घर की सारी जिम्मेदारी मां के ऊपर आ गई। धीरे-धीरे घर की सारी स्थिति साधारण हो गई यहां तक कि पेट पूर्ति की भी मुर्शकल हो गई। मां ने परिश्रम करके अपने पेट पर पाटा बांध कर अपने पुत्र को पढ़ाया लिखाया था। जब वह पढ़ लिख कर डॉकटर बन गया तो मां ने अच्छे घराने की लड़की से उसकी शादी कर दी। मां को आशा थी कि अब मेरे सुख के दिन आ गये। लेकिन सोचा जो होता नहीं है / कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख मिलता है। धीरे-धीरे पुत्र की Dispensary अच्छी चलने लग गई / घर की परिस्थिति भी पहले से बहुत अच्छी हो गई। घर में एक पुत्र का आगमन भी हो गया। सब कुछ होते हुए भी मां की स्थिति बहुत ही खराब थी। फटे पुराने कपड़े उसके शरीर पर रहते तथा खाने के लिए मिट्टी के बर्तन में रूखा सूखा भोजन दिया जाता था। पिताजी तो पहले ही संसार से बिदा हो गये थे। घर पर कोई मेहमान आता पूछता यह कौन है, तो उत्तर यह मिलता कि घर की नौकरानी है। एक दिन क्या हुआ मां से मिट्टी का पात्र (वर्तन)नीचे गिर गया, उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये, यह देख मां को बहुत दुख हुआ, वह उदास बैठ गई / कुछ समय पश्चात् उसका पोता वहां आया पूछने लगा ! दादी मां! आप इतने उदास क्यों हो ? दादी मा ने सारी हकीकत उसको सुना दी / सुनकर उस छोटे बालक को बहुत दुख हुआ। हृदय में करूणा उत्पन्न हुई। उसने मिट्टी के बर्तन के सारे टुकड़े उठा कर अपने शोकेस में रख लिए और दादीमां को नया पात्र लाकर दे दिया। बालक बहुत समझदार और बुद्धिशाली था। अब रोज वह दादी मां के पास आता रहता, प्रेम पूर्ण व्यवहार रखता तथा अपने खाने में से भी कुछ हिस्सा दादी मां को लाकर खिला देता! Jain Education Internationerivate & Personal Usev@wily.jainelibrary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 एक दिन क्या हुआ शोकेस पर बहू की दृष्टि पड़ी! लड़के को पूछा। बेटा ! यह क्या रख रखा है, मिट्टी के ठिकरे है फेंक दे। लड़के ने तुरन्त ही जबाब दिया। मम्मी यह आपके लिए रखे है। मेरे लिए क्यों ? क्या घर में बर्तन नहीं है। लड़का बोला / बर्तन तो बहुत है, पर मम्मी यह आपका नियम है, आप भी तो दादी मां को इन्हीं मिट्टी के पात्रों में खाना देती हो / आप भी बुढ़े होंगे तो मैं भी इन्हीं बर्तनो में आपको खाना दिया करूंगा। स्मृति के लिए मैंने यह रखे हैं / बहू को बहुत feel हुआ। उसी समय सासू के चरणों में जाकर माफ़ी मांगी, मां मेरे से बहुत बड़ी भूल हुई है, आपको बहुत दुःख दिया है। मां मुझे क्षमा करो! मां ने कहां बहू तुम्हारा दोष नहीं दोष मेरे कर्मो का है। सासू को अच्छे वस्त्र पहनाये तथा अपने कमरे में लाकर अच्छे बर्तनो में भोजन कराया। बेटा आया उसने सारे वातावरण का निरीक्षण किया। जानकारी मिली तो वह भी बहुत शर्मिन्दा हुआ। जो बेटा शादी के पश्चात् मां से बोलता नहीं था, आज मां के चरणों में मस्तक झुकाने लगा। मां का भाग्य खिल उठा। पुण्य उदय में आ गया। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसके लिए हम रात-दिन मेहनत करते है, Black Marketing करते है, संसार-भ्रमण बढ़ाते जा रहे है। वही लड़का आगे जाकर हमारा साथ नहीं देता है। यह सब समझते हुए भी हम अनजान बन रहे है। अगर कोई ज्ञानी पुरुष हमें जागृत भी करें कि भाइयों अब अन्तिम स्टेशन पर पहुंचने की तैयारी कर लो, भ्रमण करते बहुत समय हो गया है। हम उस ओर दृष्टिपात ही नहीं करते है। हंसी-मजाक में यह बाते टाल देते हैं / जीवन को एक यात्रा बना रखा है। वर्तमान जन्म में उसकी मंजिल कहां तक घर से कब्र तक। Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 Life is only journey from credle to crematorium. : जीवन की यात्रा घर से कब्र तक या अस्पताल से स्मशान तक है। न साथी है न मंजिल का पता है, जिन्दगी बस रास्ता ही रास्ता है। वास्तव में आदमी मुसाफ़िर है। ___मंजिल पर पहुंचना है तो अपनी आत्मा को हल्का, निर्मल एवं स्वच्छ बनाना होगा, तभी हमारी आत्मा मुक्ति पद तो प्राप्त कर सकती है। जिस प्रकार एक गैस का गुब्बारा होता है वह हाथ से छूटने पर ऊपर उड़ जाता है। और एक पानी का गुब्बारा होता है वह हाथ से छूटने पर नीचे की तरफ़ जाता है। हमारी आत्मा भी पानी के गुब्बारे के समान आठ कर्मो, कामना, वासनाओं के भार से नीचे पड़ी हुई है। जब तक हम उसमें गैस के गुब्बारे के समान ज्ञान, दर्शन, चारिज्ञ आदि धर्म रूपी सरिता का प्रवेश नहीं कराएगें तब तक वह ऊपर उठ नहीं सकती है। ऊपर उठानी है मंजिल प्राप्त करनी है, तो ज्ञान रूपी, भक्ति रूपी, प्रेम रूपी, धर्म रूपी सरिता को प्रवेश कराना होगा तभी हम अन्तिम Station (मोक्षपुरी) को प्राप्त कर सकते हैं। *** Jain Education Internationerivate & Personal Usevanky jainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((13. Life is Drama जिन्दगी एक नाटक हैं।)) विश्व के विशाल रंगमंच पर मानव अवतरित हुआ है। प्रश्न सर्व प्रथम यही उठता है कि किस कारण, किस उद्देश्य को लेकर मानव को संसार रूपी मंच पर आना पड़ा ? ज्ञानियों ने, महापुरुषों ने, संत महात्माओं ने इसका एक ही कारण बतलाया है -“कर्म"। कर्मो के कारण ही मानव को संसार रूपी मंच पर नये-नये पार्ट अदा करने के लिए आना पड़ता हैं। रंगमंच दो प्रकार का होता हैं। एक मंच तो वह जिस पर नाटक, सिनेमा, अभिनेता और अभिनेत्री करते हैं। मंच पर अभिनय करते समय कभी अभिनेता तथा अभिनेत्री रोते है और प्रेक्षकों को भी रूला देता हैं तो कभी प्रेक्षकों को पेट पकड़ कर हंसा भी देते हैं। कभी मंच पर लग्न करते हैं तो कभी मर भी जाते हैं। क्या यह हृदय से लग्न करते हैं। नहीं। यह तो सिर्फ़ लग्न का तथा मरण का अभिनय होता है। इसका प्रभाव अभिनेता तथा अभिनेत्री पर कुछ भी नहीं पड़ता। लेकिन प्रेक्षक लोगों को यह देख कर आघात पहुंत जाता है। कभी कभी तो देख कर हार्ट फेल भी हो जाता है। क्योंकि वह इसको वास्तविक मान बैठते है। जैसे एक बुढ़िया थी। कभी पिक्चर देखा नहीं / एक दिन उसके पोते पीछे पड़ गये कि दादी मां सिनेमा देखने चलो। आज तो हम आपकों साथ में ही लेकर चलेगें। पोतो की जिद्द के आगे दादीमां की कुछ नहीं चली वह सिनेमा देखने जाने के लिए तैयार हो गई। पिक्चर हॉल में पहुंच गई कभी पिक्चर देखा नहीं। पिक्चर देखते देखके सिनेमा के अन्दर ही वर्षा चालू हो गई। दादी मां ने वर्षा की झड़ी को देखते ही दौड़ना प्रारम्भ कर दिया मन में चिन्तन चल पड़ा। घर में छत पर धूप में पापड़, बड़ी, मसाले आदि सुखाये हुए है वह सब भीग जायेगें। दौड़ती हुई रोड़ क्रोस कर रही है सामने से ट्रक आया देखा नहीं ट्रक से टक्कर लगी गिर पड़ी वहीं पर प्राण पंखेर उड़ गए। सिनेमा की Jain Education InternationErivate & Personal Usevownly.jainelibrary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 वर्षात को सच मान कर बुढ़िया अपने प्राणों को गवां बैठी / ठीक एसे ही अज्ञानी जीव संसार के नाटक को सत्य मानकर अपना सब कुछ गुमा देते हैं। संसार एक रंगमंच, संसारी अभिनय करता है। लीला को लीला मात्र मान, ज्ञानी निर्द्वन्द विचरता है। दूसरा रंग मंच यह संसार है। जिसमें World is Theatre, Karma is Director, We ali are Actors, People are lookers. यह संसार सिनेमा हॉल है, डायरेक्टर कर्मराज है जो निर्देश देता रहता है। हम सब एक्टर या अभिनेता, अभिनेत्री हैं, और संसार के जितने भी लोग है वह देखने वाले दर्शक हैं। इस संसार रूपी थियेटर में आने से पूर्व शुभ, अशुभ कर्मो का संचय पहले ही कर लिया जाता है बाद में उसी के अनुसार मंच पर उसका अभिनय तथा प्रदर्शन किया जाता हैं। अपना स्वरूप तो “सच्चिदानंद"स्वरूप आत्मा है। परन्तु अपन मानव रूप में अभिनय करते हैं। कभी पशु रूप में, कभी देवरूप में, कभी पत्नि बने कभी माता बनें, कभी पिता बनें, कभी राजा, कभी रंक आदि रूपो में अभिनय करते हैं / अभिनेता तथा अभिनेत्री अभिनय करते हैं परन्तु उससे बहुत अधिक अभिनय जीवात्मा करता हैं। दोनो में फ़र्क इतना है कि अभिनेत्री तथा अभिनेता उसको वास्तविक नहीं समझतें जब कि जीवात्मा तो सारा वास्तविक समझ कर के ही करता है। इसीलिए भव भ्रमण बढ़ता जा रहा हैं। वास्तविक तो कुछ नहीं है। सिर्फ आत्मा ही सत्य है। पश्यन्नेव परद्रव्य नाटकं प्रति पाटकं। भव चक्र पुरस्थाऽपि नामूढ़ परिरिवद्यते / संसार की गली-गली में पर द्रव्यों के नाटक देखो। देखते ही रहो। दृष्टा बनो तो तुमको कोई प्रकार का क्लेश नहीं होगा। Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamly.jainelibrary.org Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 वर्षात अभिनेता तथा अभिनेत्री तो नाटक करते हुए थक भी जाते है जिससे वह विश्राम ले लेते हैं। परन्तु हम तो अनादि काल से इस संसार में नाटक करते आ रहे हैं। अभी तक हैरान नहीं हुए हैं। जब शुभ कर्मो का उदय होता है तो हैरान नहीं होते हैं परन्तु जब अशुभ कर्मो का उदय होता है तो थकान लगती है। मन में यही विचार तथा चिन्तन चलता है कि कब मेरा इन विपत्तियों तथा संकटों से छुटकारा होगा। बन्धुजनों हमें तो दोनो ही समय थकान महसूस करनी है और उसे दूर करने के लिए विश्राम करना है, इसके लिए हमें कर्मों का क्षय करना है। कर्मो का क्षय करने के लिए हमें अपने अन्दर रही हुई ज्ञानामय आत्मा की ओर दृष्टिपात करना पड़ेगा। उसके लिए हमें वीतराग के बताये मार्ग का अनुशरण करना होगा। तभी हम कर्मों से मुक्त हो सकते है। दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवतिनाङ्कुर / कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुर / / बीज अत्यन्त जल जाता है तब अंकुर उत्पन्न नहीं होते उसी प्रकार कर्म रूपी बीज सर्वथा जल जाता है फिर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होते। हमें कर्म रूपी बीजों को जलाना है जिससे हमें संसार रूपी मंच पर तरह-तरह के नाटक, सिनेमा करने नहीं आना पड़े। अनादि काल से नाटक करते आ रहे हैं अब हमें विश्राम लेना है। *** Jain Education Internationerivate & Personal Usev@myjainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((14. संयम-चरित्र) कर्मो की निर्जरा का प्रमुख साधन संयम है / संयम अंगीकार कर व्यक्ति जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। चारित्र का इतना महत्व है कि चाहे राजा हो या महाराजा सभी उनके चरणों में नमन करते हैं, यहां तक कि देवता भी उनकी स्तुति करते है ! “देवानामपि दुर्लभ !"देवताओं के लिए चारित्र दुर्लभ है प्रश्न यह उठता है कि संयम है क्या ? "इन्द्रियों का निग्रह"अर्थात् ईन्द्रियो को पूर्ण रूपेण अपने वश में रखना यह संयम है। दूसरे अर्थो में हम "इच्छा निरोध''इसको भी संयम की श्रेणी में ले सकते हैं। चारित्रधारी आत्मा अपनी इच्छाओं पर भली भांति ब्रेक लगा लेता है / इच्छा होते हुए भी वह उपलब्ध चीज़ो की तरफ़ से पीठ मोढ़ लेता है। उसने मन में उन चीज़ो के प्रति जरा भी कल्पना नहीं होती क्योंकि इन्द्रियां उनके वश में रहती हैं। आहार भी यह सोच कर करता है कि मुझें शरीर चलाना है। शरीर चलाने के लिए भोजन आवश्यक है। जिस प्रकार मोटर को चलाने के लिए पेट्रोल की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार शरीर को चलाने के लिए भी भोजन की अत्यधिक आवश्यकता रहती हैं। अगर हम भोजन नही करेगें तो हमारा शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा जब शरीर स्वस्थ नहीं होगा तो साधना में बाधक सिद्ध होगा। साधना के लिए शरीर का स्वस्थ होना अत्यधिक आवश्यक है / चारित्रधारी व्यक्ति के जीवन में तो साधना का बहुत महत्व है। चारित्र निम्न गति के प्राणी को भी उच्च गति में पहुंचा देता हैं। आज दिन तक जितने भी तीर्थंकर हुए सभी ने चारित्र को धारण किया / चारित्र के बिना मुक्ति नहीं। चारित्र मनुष्य जीवन में ही उपलब्ध है। यही कारण है कि देवता भी मनुष्य जन्म के लिए ललाहित रहते है। हांलाकि उनको वहां किसी प्रकार का दुःख या कमी नहीं है। सभी प्रकार के Jain Education Internationarivate & Personal Usewwwly.jainelibrary.org Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 सुख-वैभव उपलब्ध हैं, लेकिन मनुष्य जीवन में आकर जो त्याग, तपस्या कर सकते हैं वह देव गति में संभव नहीं हैं। इसीलिए मनुष्यजीवन को सर्वोपरि, सर्वोत्तम माना गया है। और भी कोई ऐसी गति नहीं, योनि नहीं जहां जाकर हम चारित्र अंगीकार कर सकें। जीवन में चारित्र का अत्यधिक महत्व हैं ।एक दिन का चारित्र भी व्यक्ति कहां से कहां पहुंचा देता है। जैसे राजा संप्रति जो अपने पूर्व भव में एक भिखारी था। द्वार द्वार पर भीख मांगने पर भी भिक्षा उपलब्ध नहीं होती है। ऐसी स्थिति में तीन दिन निकल गये चौथा दिन प्रारम्भ हुआ। घर-घर पहुंचता है मुझें एक रोटी दे दो तीन दिन का भूखा हूँ लेकिन कोई ध्यान ही नहीं देता हैं बल्कि प्रतिउत्तर में फटकारें ही मिलती हैं। कुछ समय पश्चात् क्या होता हे कि दूर से ही उसे दो जैन श्रमण साधु भिक्षार्थ गवेषणा करते हुए दिखाई दिये तो वह उनके पीछे हो लिया। दोनो मुनि गोचरी के लिए एक श्रावक के घर प्रवेश कर गये वह भिखारी भी उनके पीछे-पीछे श्रावक के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। उस श्रावक के घर उस दिन चूरमा के लड्डू बनाये हुए थे। श्रावक उलट भाव से साधु महाराज को लड्डू बहराने लगा / साधु महाराज मना करते हैं फिर भी परिवार जन बहराते हैं। भिखारी द्वार पर खड़ा हुआ यह सब देख रहता है। उसके मन में विचार आया कि विचित्र माया है मना करने पर भी जबरदस्ती से बहराते है / चारित्र का कितना प्रभाव है मना करने पर भी जबरदस्ती सभी परिवार जन करते है और वह भिखारी तीन दिन का भूखा मांगने पर भी एक रोटी नहीं मिल रही है इनमें ऐसी कौन-सी खास बात है। मुनि भगवन्त तो गोचरी बहर कर रवाना हो गये। भिखारी भी पीछे-पीछे चलने लगा और लड्डू मांगने लगा। कहता है मैं तीन दिन का भूखा हूँ मुझे एक लडूं ही दे दो। साधु महाराज मना करते है कि हमारा लाया हुआ आहार हम किसी को नहीं देते यहां तक कि किसी को दिखाते भी नहीं है। भिखारी तो अपनी जिद्द पर चढ़ा हुआ Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 है कि खाऊँगा तो आज मैं लड्ड ही खाऊंगा। ___साधु महाराज तो पंच महाव्रत धारी होते है / वह अपना आहार इसलिए किसी को दिखाते नहीं है कि अगर किसी चीज़ को देख कर खाने की इच्छा हो गई या कोई बच्चा चीज़ लेने की जिद्द करने लग गया रोने लगा तो उसका दोष साधु को लगता है / या बनाकर खाने की इच्छा हुई उसने बनाया तो उसका दोष भी साधु को लगता हैं। या फिर पाने में कोई ऐसी चीज़ देख ली जिससे घृणा हो गई क्योकि साधु के पात्र तो कम होते है भिक्षा अलग अलग घर की होती है तो एक ही पात्र में डाल देते है यह देख लोगों को घृणा भी आ जाती है उसका दोष भी साधु को ही लगता है। इसीलिए साधु अपना आहार गृहस्थ को नहीं दिखाये ना ही उसके सामने गोचरी करें। भिखारी की जिद्द को देख दोनों मुनियों को दया आ गई उन्होंने कहां कि तुमको लड़ ही खाने है तो हमारे गुरु-महाराज के पास चलो वह जैसी आज्ञा देगें वैसा हम करेगें। अब तीनों ही उपासरे में आ पहुंचे। उपासरे पहुंच कर, इरियावहियं सूत्र का पाठ उच्चारण कर काउसग्ग पार कर गुरु महाराज को आहार दिखाया तथा बताया कि किस किस के घर की क्या चीज़ हैं। चारित्रधारी साधु महाराजों का यह आचार होता है कि आहार लाकर गुरु-महाराज के पास जाये और उन्हें विनय पूर्वक दिखाए / आहार लेके आने की विधि पूर्ण कर दोनों मुनियों ने उस भिखारी का पूरा दृष्टान्त गुरु-महाराज को सुनाया सुनकर गुरु-महाराज को बहुत दुःख हुआ कि बेचारा तीन दिन का भूखा है मांगने पर रोटी नहीं। लेकिन किया भी क्या जाये। कुछ समय पश्चात् गुरु-महाराज को एक युक्ति सूझि। उन्होने भिखारी से कहां कि अगर तुमको यह लड्डू ही खाना है तो तुमको हमारा जैसा भेष धारण करना होगा। भिखारी ने कहां मंजूर है आप जैसा कहोगे वैसा मैं करने को सहर्ष तैयार हूँ लेकिन खाऊंगा तो आज मैं लड्डु ही / गुरु-महाराज ने उसी समय उसको दीक्षा दे दी और सहज़ में उसने Jain Education Internationarivate & Personal Usevonly.jainelibrary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 110 स्वीकार भी कर ली। गुरु-महाराज सभी साधुओं से कहते है कि आज पहली गोचरी कोई नहीं करेगा। सारे लड्डु इस नये मुनि के सामने रख दो वह जितना खाये उसमें से उसके पश्चात् बचे हुए आहार में से सभी को आहार करना है। बिचारा तीन दिन का भूखा है। लड्डू सामने आते ही खाना प्रारम्भ कर दिया। पूरे पेट भरकर लड्डू खा लिए। बाद में हुआ क्या अर्ध रात्रि को उसके पेट में दर्द शुरू होने लग गया। क्योंकि तीन दिन का भूखा और भूखे पेट में लड्डूओं का खाना, पचना भारी हो गया। रात्रि में ही उल्टी दस्त प्रारम्भ हो गये / गुरुमहाराज को चिन्ता होने लगी। डॉकटर, वैद्यो को बुलाया परन्तु कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ा। बड़े-बड़े घराने के व्यक्ति नये मुनि की साता पूछने आने लगे, सेवा करने लगे। तबियत बिगड़ती चली जा रही थी। चारों तरफ़ खड़े व्यक्तिओं को उसने देखा तुरन्त विचार आया कि कहां मैं तीन दिन का भूखा द्वार-द्वार फिरा परन्तु एक रोटी मुझे नहीं मिली और आज मेरी सेवा में डॉकटर वैद्य आदि इतने लोग खड़े हुए हैं। इस भेष का इतना महत्व बार-बार चारित्र की अनुमोदना करता है / वेदना को भूल गया और यही भावना भाने लगा कि भवो भव मैं चारित्र अंगीकार करता रहूं। इसी चिन्तन तथा विचारधारा में उसकी मृत्यु हो गयी और दूसरे भव मैं राजा संम्प्रति के जीव रूप उत्पन्न हुआ। जिसने जैनशासन का खूब प्रचार किया। अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया तथा जगह-जगह पर जिन बिम्बों की स्थापना करवाई। कहने का तात्पर्य यह हैं कि एक भिखारी जो दर-दर की ठोकर खाता था मांगने पर कुछ भी खाने को नहीं मिला उसने एक दिन का चारित्र अंगीकार सिर्फ पेट पूर्ति के लिए किया कि मुझें लड्डू खाने हैं। लेकिन उसका पालन भावना से किया और अन्तिम समय संयम की अनुमोदना की भावना आयी जिसके फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त कर दूसरे भव में राजा संप्रति बना / एक दिन के चारित्र ने उसे भिखारी से राजा बना दिया / अगर कोई जीवन पर्यन्त चारित्र Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 का भलीभांति पालन करता है तो उसके फल की तो कोई सीमा ही नहीं हैं। मनुष्य जन्म मुश्किल से प्राप्त होता है। अगर इसको यो ही खेल-कूद में सांसारिक क्रिया क्लापों में परिवार के पालन-पोषण में गवां दिया तो न जाने कौन-कौन सी योनियों में भटकना पड़ेगा। अगर इन योनियों से छुटकारा प्राप्त करना है संसार से मुक्त होना है तो चारित्र अंगीकार कर त्याग और तपस्या में अपने जीवन का सदुपयोग करें। *** Jain Education Internationerivate & Personal Usenany jainelibrary.org Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (( 15. कृत कर्मों का प्रायश्चित्त )) . . ....... .. . . . कर्म अपने आप में पूर्णरूपेण शक्ति सम्पन्न होते हैं। कर्मो में इतनी शक्ति होती है कि यह एक व्यक्ति को उच्च स्तर पर पहुंचा देता है, तो दूसरे को अधोगति में पहुंचा देता है। इन कर्मो की विचित्र माया है। यह क्षण में किसी को राजा तो क्षण में किसी को फ़कीर बना देते है। कर्मराज के आगे किसी की भी पेश नहीं खाती है। यह सभी का पीछा करते हैं, किसी को नहीं छोड़ते चाहे राजा हो या रंक / यहां कर कि इन्होने संत महात्माओं, तीर्थंकरो को और सतियों को भी नहीं छोड़ा, फिर साधारण व्यक्ति की बात तो बहुत दूर रही। कर्मो से छुटकारा पाने के लिए हमारे जैनाचार्यो ने कई मार्ग बतलाये हैं :-धर्म, तप, संयम, साधना, पश्चात्ताप / कर्मो का बन्ध दो प्रकार से होता है एक तो जान कर दूसरा अन्जान में / व्यक्ति जान कर भी कर्मो का बन्ध करता है और अनजान में भी कर्मों का बन्ध कर लेता है। यदि किसी व्यक्ति से अनजान में किसी जीव की हिंसा हो गई है और बाद में उसे पता चले कि यह हिंसा मेरे से हुई है तो वह बार-बार उसका पश्चात्ताप करता है, बार-बार मिच्छामि दुक्कडम् मांगता है कि हे प्रभु मैंने उस जीव की हिंसा जान कर तो नहीं की लेकिन अनजान में मेरे से यह पाप हो गया अब इसके लिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ। इस प्रकार का पश्चात्ताप करने से कर्मो का बन्ध तो होता है लेकिन बहुत ही अल्पमात्रा में / अनजान में किसी पन्चेन्द्रिय जीव की हिंसा हो जाने से पचोले का दण्ड आता है।अगर जान कर कोई व्यक्ति किसी जीव की हिंसा करें तो उसके दण्ड की तो सीमा ही नहीं। लेकिन हिंसा करने के पश्चात् उसका विवेक जागृत हो जाये और वह बार-बार पश्चात्ताप करने लगे और उसी में रमण करता रहे तब उसके कर्मो का बन्ध भी अल्प ही होता है। प्रत्येक प्राणी को जीने का अधिकार है लेकिन मनुष्य अपनी उन्नति एवं शरीर के पोषण के Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 लिए न जाने कितने बेजुबान मासूम जानवरों को मार डालता है। फिर कहता है कि मोक्ष चाहिए, क्या सम्भव है ? नहीं कभी नहीं। अगर यह सम्भव होता तो न जाने कितने लोगों ने मोक्ष प्राप्त कर लिया होता। यहां तक कि भगवान महावीर स्वामी को भी अनगिनत तपस्याओं के बाद मोक्ष की प्राप्ति हुई / प्रायश्चित्त के इस सन्दर्भ में हम दृढ़प्रहारी का दृष्टांत ले सकते थे। दृढ़प्रहारी एक प्रख्यात डाकू था। महाक्रूर स्वभाव वाला था। प्रतिदिन डाका डालना तथा हत्याएं करना उसका मुख्य ध्येय था। एक दिन वह एक ब्राह्मण के घर डाका डालने गया ।घर में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि ब्राह्मण पर पड़ी। ब्राह्मण उस समय जाग रहा था। उसके मन में विचार आया कि ब्राह्मण जाग रहा है, उसने मुझे देख लिया है,तो सर्वप्रथम इसकी ही हत्या करनी चाहिए ।इसलिए उसने पहले ब्राह्मण पर बार किया। बार होने के साथ ब्राह्मण के प्राण पखेरू उड़ गये। इतने में उसकी पत्नी की नींद खुल गई। पत्नि बीच में बोलने लगी तो उसकी भी हत्या कर दी। शोरगुल सुनकर बच्चों की भी नींद खुल गई वातावरण देखकर बच्चे रोने लगे। डाकू ने उन मासूम बच्चों की हत्या कर दी। उसके मन में जरा भी दया नहीं, करूणा नहीं थी। उसका तो धन्धा ही यही था हत्या करना और धन प्राप्त करना / अब चार प्राणियों की तो हत्या उसने कर दी फिर भी मन में दया नहीं। एक तरफ़ उस ब्राह्मण की गाय खड़ी थी। बहुत समय से रहते-रहते वह भी ब्राह्मण परिवार की सदस्य बन गयी थी। गाय ने भी यह सारा वातावरण देखा तो उसको भी बहुत दुःख हुआ,उसने भी सींग फड़फड़ाना प्रारम्भ किया। इतने में ही दृढ़प्रहारी की दृष्टि उस गाय पर पड़ी। एक झटके के साथ उसका भी काम खत्म कर दिया। गाय उस समय गर्भवती थी, पेट पर वार होने से बच्चा बाहर जमीन पर आकर पड़ा, काफ़ी समय तक वह बच्चा जमीन पर पड़ा तड़फड़ाता रहा। दृढ़प्रहारी की नज़र उस तड़फते हुए मासूम बच्चे पर पड़ी। देखते ही उसका विवेक जागृत हो गया / देखते-देखते वह खड़ा कि खड़ा रह गया। पुनः पुनः प्रायश्चित्त करने लगा कि बेचारा कितना Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 तड़फ़ रहा है अगर मेरे पर भी कोई हमला करें तो मेरी भी यही स्थिति होगी। इस निर्दोष बच्चे की मैंने हत्या कर दी। उसी स्थान पर खड़ा-खड़ा प्रायश्चित्त करने लगा। आज दिन तक मैंने कितने जीवों की हिंसा कर उन्हें कष्ट पहुंचाया होगा और आज तो मैंने पांच-पांच जीवों की हिंसा कर दी लेकिन जरा भी मन में ख्याल नहीं आया कि मैं क्या कर रहा हूँ। इन्हीं विचारों के साथ उसने संयम अंगीकार कर लिया और उसी शहर के चारों दरवाज़ों पर एक-एक माह तक ध्यान में खड़ा रहा! व्यक्ति इधर ऊधर से आते-जाते उस पर पत्थरों और लाठियों के प्रहार करते रहते और बोलते कि आज दिन तक तो लोगों की हत्याएं की, धन लूटा,आज साधु का वेश धारण करके ढोंग रच रहा है। वही दृढ़प्रहारी जो पहले क्रूर स्वभाव का था अब समता और सरलता पूर्वक उन उपसर्गों को सहन करने लगा। मन में जरा भी उनके प्रति बदले की भावना नहीं आई, बल्कि यही सोचता रहा,चिन्तन करता रहा कि यह प्रहार तो बहुत कम है। मैंने तो आज दिन तक कितने ही जीवों की हत्याएं की कितनी आत्माओं को कष्ट पहुंचाया है ! इन्हीं विचारों में लीन रहते-रहते उसको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि कहां तो वह जीवों की हिंसा करके नरक का बन्ध कर रहा था। लेकिन बाद में प्रायश्चित्त करके मोक्ष का टिकिट प्राप्तकर लिया !"कर्मे सुरा जे धर्मे सुरा'। दृढ़प्रहारी कर्म में सूरवीर था तो धर्म में भी सूरवीर बना / पहले उसकी निंदा होती थी और आज सभी उसकी समता की अनुमोदना करने लगे।आशय यही है कि व्यक्ति यदि किये हुए कर्मो का प्रायश्चित्त कर लेता है तो वह पड़ता हुआ भी ऊपर उठ सकता है।प्रायश्चित्त करने के उपाय हम सद् गुरुओं से प्राप्त कर सकते है। गुरु ही एक ऐसा साधन है जो हमें किए हुए कर्मो का प्रायश्चित्त करने का मार्ग दिखाते है। ऐसी स्थिति में गुरु हमारे लिए सर्चलाईट का काम करते हैं। किये हुए कर्मो का प्रायश्चित्त करने से कर्मो की निर्जरा होती चली जाती है और व्यक्ति का आत्म कल्याण हो जाता है। ***** Jain Education InternationBrivate & Personal Usewamy.jainelibrary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or or in x j w y v or विचक्षण स्मृति प्रकाशन श्री विचक्षण प्रवचन पीयूष भाग 1-4 विचक्षण जीवन यात्रा (शतक) सतीत्व की पराकाष्ठा भाग 1-4 अंकुर (कथा संग्रह) विचक्षण स्मरणांजली धनद (कथानक) जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप (शोध-ग्रंथ) स्थापनाचार्य (खरतरगच्छीय) दादा गुरुदेव चरित्र (गुजराती) हम जीत गए (द्वितीयावृत्ति) विचक्षण कहानियां (भाग-१) सज्झाय संग्रह दादा गुरुदेव चरित्र (हिन्दी)प्रथमावृत्ति विचक्षण कहानियां भाग 2 दादा गुरुदेव चरित्र द्वितीयावृत्ति सतीत्व की दिव्य ज्योति स्तवन सज्झाय संग्रह श्री बीस स्थानक तप विधि श्री नवपद आराधन विधि 20. जयतिहअण स्तोत्र 21. कुशल विचक्षण ज्ञानाञ्जली Jain Education Internationativate & Personal Usevomly.jainelibrary.org