________________ ((5. रागी मन विरागी) मानव जीवन का अपने आप में एक विराट स्वरूप है। मनुष्य जीवन पुष्पों का खिला हुआ बाग है तो कहीं दुर्गुणों की बिछी हुई शैया / शुभ और अशुभ, अच्छाइयाँ और बुराइयाँ इस जीवन से पल्लवित होती है / देय और उपादेय क्या ग्रहण करने योग्य है और क्या छोड़ने योग्य है यह समझना है। ज्ञान-सद् समागम यह ग्रहण करने योग्य है / जीवन में जितनी बुराइयां हैं वह सब छोड़ने योग्य हैं। आत्मा के रूप को समझना है। हंस के चंचु में दूध और पानी को समझने की शक्ति है। हमें अपने आपको देखना है। “का च मे शक्ति कुतः तो आया कुत्र गमिष्यामि।" कहां से आया हूँ और कहां जाऊंगा। इस पर चिन्तन करना है। कांटो में पैर डालेंगे तो फुलवाड़ी तक नहीं पहुंच सकतें। प्रभु के सामने पुकार करो प्रार्थना करों हे प्रभु ! मुझे धन नहीं चाहिए, राग द्वेष नहीं चाहिए मुझें तो वीतराग अवस्था को प्राप्त करना है इसलिए स्वभाव में आता है। एक नाविक नौका को चलाता है तब देखता है कि मेरी नाव में कहीं छेद तो नहीं पड़ गया। समुद्र में उतरने से पहले पूरा निरीक्षण कर लेता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहां है कि “सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चई नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जंतरन्ति महेसिणो॥" संसार एक समुद्र है। उसके बीच शरीर नौका रूप है, जीव रूपी नाविक है जो उसे चलाता है। चलाने की कला उसमें नहीं है, तो वह उसमें डूब जायेगा। इसको चलाने की कला महापुरुषों को आती हैं। वह इस संसार से तिर गये है। . विभाव से स्वभाव में आना है। अनन्त अनन्त चौबीसी व्यतीत हो गई लेकिन हमारी दशा वैसी की वैसी है। किसी से पूछा तुम कौन हो ? उसने Jain Education Internation Private & Personal Usewamyjainelibrary.org