SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और मनन करने के पश्चात् इसी निर्णय पर पहुंचते है कि सृष्टि का सर्वाधिक श्रेष्ठ प्राणवान तत्व मनुष्य ही हैं। आज दिन तक के इतिहास में धर्म और दर्शन, संस्कृति और साहित्य, कला एवं विज्ञान की जितनी भी खोज हुई हैं उनका मूल आधार मानव ही हैं। मनुष्य के लिए ही इनका प्रयोग और उपयोग किया जाता है। समग्र विश्व के विकास का मूल केन्द्र मानव जीवन ही हैं। मानव जीवन की पवित्रता और श्रेष्ठता मानव जीवन का वह पक्ष है जिसके लिए भारत के महान आचार्य संत और विद्वानों ने अपनी-अपनी भाषा से अपने-अपने ग्रन्थों मे बहुत कुछ गुणगान किया है। मानव की प्रसुप्त आत्मा प्रबुद्ध करने के लिए उन्होंने चिन्तन मनन के द्वारा बहुत कुछ प्रेरणा दी है। मनुष्य वह है जो अपने मन की शक्ति का सम्राट हो / संसार की समग्र शक्ति जिसके आगे नतमस्तक हो। एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में एक विशाल ग्रन्थ हैं, यदि आप उसे पढ़ने की कला जानते हो तो। प्रत्येक मनुष्य में संसार की समग्र शक्ति के साथ आत्मिक शक्ति भी विद्यमान रहती है। उसको प्रगट करना आना चाहिए। जिन्हों ने भी इस आत्मिक शक्ति को प्रकट किया है परमपद को प्राप्त हो गये / सम्यक् दृष्टि आत्मा संसार के विषय भोगों में और भयंकर युद्धो में रत रहने पर भी उनकी निर्विकल्प स्वरूपानुभूति बाहर न रह कर अन्दर ही रहती है। उदाहरण स्वरूप शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ इन तीनों तीर्थंकरो के जीवन को लीजिए, जो अपने जीवन में चक्रवर्ती और तीर्थंकर दोनों ही रहें। तीनों ही तीर्थंकर बनने वाले जीव थे, फिर भी तीनों प्रारम्भ में संसार के भोगों और युद्धों में संलग्न रहें। भोग-विलास भी किये भयंकर युद्ध भी किए। संसार के कार्य करते हुए भी क्षायिक सम्यक् भाव में कैसे रहे ? यह प्रश्न उठना भी सहज ही है। शास्त्रकारों ने इसके समाधान में कहां है कि वे भोगी रह कर भी अन्दर से त्यागी थे। आत्मा की शक्ति प्रगट थी। चारित्र मोह के उदय से विषय का राग था परन्तु दर्शन मोह Jain Education Internation@rivate & Personal Useamly.jainelibrary.org
SR No.002767
Book TitleManohar Dipshikha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusmitashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1997
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy