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________________ ((1. संयोग-वियोग) इच्छित वस्तु की प्राप्ति यह है-संयोग ! इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होना यह है-वियोग ! शरीर में प्राण का होना-यह हुआ संयोग ! शरीर से प्राण का निकल जाना यह हुआ वियोग ! मकान बनाने के लिए ईंट, चूने मिट्टी, पत्थर, पानी आदि का संयोग मिलेगा तभी ईमारत खड़ी हो सकती है वरना नहीं। मुक्ति का संयोग ठीक इसके विपरीत है वह पर पदार्थो के वियोग से होता है। अनन्त बार-अनन्तों से संयोग स्थापित किया। यह एक सिक्के के दो पहलू है। जब से जन्म लिया तब से ही किस-किस से संयोग किया उसका चिन्तन किया ? अगर नहीं किया तो अब करना है ? जन्म के साथ ही विविध प्रकार के संयोग प्रारम्भ हो गये! नाना प्रकार के पदार्थो को भोगा! जिस वस्त्र को आज पहना उसका फिर वियोग / संयोग के समय खुशी और वियोग के समय दुःख का अनुभव होता है। संयोग और वियोग के बीच यदि उसका उपयोग कर लिया जावे तो उसका दुःख नहीं होगा, पीड़ा नहीं होगी। सर्जन, विसर्जन यह तो सृष्टि का नियम है, इसके बीच यदि उपयोग को ध्यान में रख कर चले तो वियोग पश्चात् दुःख नहीं होगा। ज्ञानी पुरुष हमेशा ही उपयोग को लक्ष्य में ले कर चलते हैं इस लिए उन्हें हर्ष और शोक की अनुभूति नहीं होती। प्रवेश-प्रस्थान, उन्नत-अवनत हर चीज के दो पहलू है। इन दो पहलूओं के बीच हमारी जीवन नैया पसार हो रही है। कहीं प्रवेश हें तो कहीं प्रस्थान, कहीं जन्म हैं तो कहीं मरण / महापुरुष इन दोनों के बीच सदुपयोग को साध कर चले। महादेवी वर्मा ने कहा है। Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamily.jainelibrary.org
SR No.002767
Book TitleManohar Dipshikha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusmitashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1997
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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