________________ 108 सुख-वैभव उपलब्ध हैं, लेकिन मनुष्य जीवन में आकर जो त्याग, तपस्या कर सकते हैं वह देव गति में संभव नहीं हैं। इसीलिए मनुष्यजीवन को सर्वोपरि, सर्वोत्तम माना गया है। और भी कोई ऐसी गति नहीं, योनि नहीं जहां जाकर हम चारित्र अंगीकार कर सकें। जीवन में चारित्र का अत्यधिक महत्व हैं ।एक दिन का चारित्र भी व्यक्ति कहां से कहां पहुंचा देता है। जैसे राजा संप्रति जो अपने पूर्व भव में एक भिखारी था। द्वार द्वार पर भीख मांगने पर भी भिक्षा उपलब्ध नहीं होती है। ऐसी स्थिति में तीन दिन निकल गये चौथा दिन प्रारम्भ हुआ। घर-घर पहुंचता है मुझें एक रोटी दे दो तीन दिन का भूखा हूँ लेकिन कोई ध्यान ही नहीं देता हैं बल्कि प्रतिउत्तर में फटकारें ही मिलती हैं। कुछ समय पश्चात् क्या होता हे कि दूर से ही उसे दो जैन श्रमण साधु भिक्षार्थ गवेषणा करते हुए दिखाई दिये तो वह उनके पीछे हो लिया। दोनो मुनि गोचरी के लिए एक श्रावक के घर प्रवेश कर गये वह भिखारी भी उनके पीछे-पीछे श्रावक के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। उस श्रावक के घर उस दिन चूरमा के लड्डू बनाये हुए थे। श्रावक उलट भाव से साधु महाराज को लड्डू बहराने लगा / साधु महाराज मना करते हैं फिर भी परिवार जन बहराते हैं। भिखारी द्वार पर खड़ा हुआ यह सब देख रहता है। उसके मन में विचार आया कि विचित्र माया है मना करने पर भी जबरदस्ती से बहराते है / चारित्र का कितना प्रभाव है मना करने पर भी जबरदस्ती सभी परिवार जन करते है और वह भिखारी तीन दिन का भूखा मांगने पर भी एक रोटी नहीं मिल रही है इनमें ऐसी कौन-सी खास बात है। मुनि भगवन्त तो गोचरी बहर कर रवाना हो गये। भिखारी भी पीछे-पीछे चलने लगा और लड्डू मांगने लगा। कहता है मैं तीन दिन का भूखा हूँ मुझे एक लडूं ही दे दो। साधु महाराज मना करते है कि हमारा लाया हुआ आहार हम किसी को नहीं देते यहां तक कि किसी को दिखाते भी नहीं है। भिखारी तो अपनी जिद्द पर चढ़ा हुआ Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org