________________ ((14. संयम-चरित्र) कर्मो की निर्जरा का प्रमुख साधन संयम है / संयम अंगीकार कर व्यक्ति जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। चारित्र का इतना महत्व है कि चाहे राजा हो या महाराजा सभी उनके चरणों में नमन करते हैं, यहां तक कि देवता भी उनकी स्तुति करते है ! “देवानामपि दुर्लभ !"देवताओं के लिए चारित्र दुर्लभ है प्रश्न यह उठता है कि संयम है क्या ? "इन्द्रियों का निग्रह"अर्थात् ईन्द्रियो को पूर्ण रूपेण अपने वश में रखना यह संयम है। दूसरे अर्थो में हम "इच्छा निरोध''इसको भी संयम की श्रेणी में ले सकते हैं। चारित्रधारी आत्मा अपनी इच्छाओं पर भली भांति ब्रेक लगा लेता है / इच्छा होते हुए भी वह उपलब्ध चीज़ो की तरफ़ से पीठ मोढ़ लेता है। उसने मन में उन चीज़ो के प्रति जरा भी कल्पना नहीं होती क्योंकि इन्द्रियां उनके वश में रहती हैं। आहार भी यह सोच कर करता है कि मुझें शरीर चलाना है। शरीर चलाने के लिए भोजन आवश्यक है। जिस प्रकार मोटर को चलाने के लिए पेट्रोल की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार शरीर को चलाने के लिए भी भोजन की अत्यधिक आवश्यकता रहती हैं। अगर हम भोजन नही करेगें तो हमारा शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा जब शरीर स्वस्थ नहीं होगा तो साधना में बाधक सिद्ध होगा। साधना के लिए शरीर का स्वस्थ होना अत्यधिक आवश्यक है / चारित्रधारी व्यक्ति के जीवन में तो साधना का बहुत महत्व है। चारित्र निम्न गति के प्राणी को भी उच्च गति में पहुंचा देता हैं। आज दिन तक जितने भी तीर्थंकर हुए सभी ने चारित्र को धारण किया / चारित्र के बिना मुक्ति नहीं। चारित्र मनुष्य जीवन में ही उपलब्ध है। यही कारण है कि देवता भी मनुष्य जन्म के लिए ललाहित रहते है। हांलाकि उनको वहां किसी प्रकार का दुःख या कमी नहीं है। सभी प्रकार के Jain Education Internationarivate & Personal Usewwwly.jainelibrary.org