________________ “द्रव्य थी पूजा रे कारण भावनो रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध // परम इष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयं बुद्ध ।।पूजना // " द्रव्य पूजा से भाव पूजा उत्पन्न होती हैं। भाव पूजा के दो भेद होते हैं। (1) प्रशस्त भाव निपेक्ष पूजा और (2) शुद्ध भाव निपेक्ष पूजा / भाव, आत्मा की परिणति है और प्रशस्त है। गुणीजनों पर राग रखना भी प्रशस्त है। श्री वासुपूज्य तीर्थंकर भगवान स्वयं बुद्ध हैं / त्रिभुवन के स्वामी हैं, वे ही मेरे परम-अत्यन्त इष्ट प्रिय और वल्लभ हैं। उन्हीं के प्रति मेरा राग हैं। यह भाव पूजा प्रशस्त राग युक्त है। गुणों का राग प्रशस्त है। भक्ति में अनन्त शक्ति होती हैं। भक्ति से शक्ति मिलती है, शक्ति से शान्ति, शान्ति से समाधि, समाधि से सद्गति, सद्गति से शिव गति प्राप्त होती है। पेथड़ मंत्री चैत्यवंदन कर रहा हैं भावों के साथ स्तवन बोल रहा है : तू सदा ही साथ देता वीतरागो ओ विजेता-तू सदा .... न जरा न रोग मृत्यु, न वियोग शोक क्रन्दन अविनाशी हो निरंजन, तुम्हें लाख-लाख वंदन संसार पार लेता, वीतरागी ओ विजेता -तू सदा..... राजा मंत्री की यह सब क्रियाएं देखकर मन ही मन बहुत ही प्रसन्न हो रहा है, क्या ले कर आया था वह सब वमन हो गया। मंत्री अब अपनी पूरी विधि करके आवसिहिं आवसिहि कहता हुआ मंदिर के बाहर निकल गया, राजा भी मंत्री के पीछे-पीछे मंदिर के बाहर निकल गया। मंदिर से निकलते ही राजा को देखा चरणों में पड़ गया। इतने समय आत्मा के राजा से मिलन था। अब शरीर के राजा का मिलन हुआ। झुक गया। राजा ने कहां मंत्री तुम नहीं मैं तुम्हें नमस्कार करूंगा। तेरे से मुझे ज्ञान मिला / तेरी कृपा से आज मुझे भव्य प्रतिमा के दर्शन हुए। आज दिन तक मैंने इतना भव्य जिनालय देखा ही नहीं। तू मेरा बहुत उपकारी हैं ।भक्ति की शक्ति ने जीवन परिवर्तन कर दिया। आज से तेरा धर्म मेरा धर्म, जो करेगा वह मैं करूंगा। राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ। Jain Education Internation Private & Personal Usevomly.jainelibrary.org