________________ - 110 स्वीकार भी कर ली। गुरु-महाराज सभी साधुओं से कहते है कि आज पहली गोचरी कोई नहीं करेगा। सारे लड्डु इस नये मुनि के सामने रख दो वह जितना खाये उसमें से उसके पश्चात् बचे हुए आहार में से सभी को आहार करना है। बिचारा तीन दिन का भूखा है। लड्डू सामने आते ही खाना प्रारम्भ कर दिया। पूरे पेट भरकर लड्डू खा लिए। बाद में हुआ क्या अर्ध रात्रि को उसके पेट में दर्द शुरू होने लग गया। क्योंकि तीन दिन का भूखा और भूखे पेट में लड्डूओं का खाना, पचना भारी हो गया। रात्रि में ही उल्टी दस्त प्रारम्भ हो गये / गुरुमहाराज को चिन्ता होने लगी। डॉकटर, वैद्यो को बुलाया परन्तु कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ा। बड़े-बड़े घराने के व्यक्ति नये मुनि की साता पूछने आने लगे, सेवा करने लगे। तबियत बिगड़ती चली जा रही थी। चारों तरफ़ खड़े व्यक्तिओं को उसने देखा तुरन्त विचार आया कि कहां मैं तीन दिन का भूखा द्वार-द्वार फिरा परन्तु एक रोटी मुझे नहीं मिली और आज मेरी सेवा में डॉकटर वैद्य आदि इतने लोग खड़े हुए हैं। इस भेष का इतना महत्व बार-बार चारित्र की अनुमोदना करता है / वेदना को भूल गया और यही भावना भाने लगा कि भवो भव मैं चारित्र अंगीकार करता रहूं। इसी चिन्तन तथा विचारधारा में उसकी मृत्यु हो गयी और दूसरे भव मैं राजा संम्प्रति के जीव रूप उत्पन्न हुआ। जिसने जैनशासन का खूब प्रचार किया। अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया तथा जगह-जगह पर जिन बिम्बों की स्थापना करवाई। कहने का तात्पर्य यह हैं कि एक भिखारी जो दर-दर की ठोकर खाता था मांगने पर कुछ भी खाने को नहीं मिला उसने एक दिन का चारित्र अंगीकार सिर्फ पेट पूर्ति के लिए किया कि मुझें लड्डू खाने हैं। लेकिन उसका पालन भावना से किया और अन्तिम समय संयम की अनुमोदना की भावना आयी जिसके फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त कर दूसरे भव में राजा संप्रति बना / एक दिन के चारित्र ने उसे भिखारी से राजा बना दिया / अगर कोई जीवन पर्यन्त चारित्र Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org