SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 105 वर्षात को सच मान कर बुढ़िया अपने प्राणों को गवां बैठी / ठीक एसे ही अज्ञानी जीव संसार के नाटक को सत्य मानकर अपना सब कुछ गुमा देते हैं। संसार एक रंगमंच, संसारी अभिनय करता है। लीला को लीला मात्र मान, ज्ञानी निर्द्वन्द विचरता है। दूसरा रंग मंच यह संसार है। जिसमें World is Theatre, Karma is Director, We ali are Actors, People are lookers. यह संसार सिनेमा हॉल है, डायरेक्टर कर्मराज है जो निर्देश देता रहता है। हम सब एक्टर या अभिनेता, अभिनेत्री हैं, और संसार के जितने भी लोग है वह देखने वाले दर्शक हैं। इस संसार रूपी थियेटर में आने से पूर्व शुभ, अशुभ कर्मो का संचय पहले ही कर लिया जाता है बाद में उसी के अनुसार मंच पर उसका अभिनय तथा प्रदर्शन किया जाता हैं। अपना स्वरूप तो “सच्चिदानंद"स्वरूप आत्मा है। परन्तु अपन मानव रूप में अभिनय करते हैं। कभी पशु रूप में, कभी देवरूप में, कभी पत्नि बने कभी माता बनें, कभी पिता बनें, कभी राजा, कभी रंक आदि रूपो में अभिनय करते हैं / अभिनेता तथा अभिनेत्री अभिनय करते हैं परन्तु उससे बहुत अधिक अभिनय जीवात्मा करता हैं। दोनो में फ़र्क इतना है कि अभिनेत्री तथा अभिनेता उसको वास्तविक नहीं समझतें जब कि जीवात्मा तो सारा वास्तविक समझ कर के ही करता है। इसीलिए भव भ्रमण बढ़ता जा रहा हैं। वास्तविक तो कुछ नहीं है। सिर्फ आत्मा ही सत्य है। पश्यन्नेव परद्रव्य नाटकं प्रति पाटकं। भव चक्र पुरस्थाऽपि नामूढ़ परिरिवद्यते / संसार की गली-गली में पर द्रव्यों के नाटक देखो। देखते ही रहो। दृष्टा बनो तो तुमको कोई प्रकार का क्लेश नहीं होगा। Jain Education InternationBrivate & Personal Usevamly.jainelibrary.org
SR No.002767
Book TitleManohar Dipshikha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusmitashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1997
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy