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________________ (7. किसे कहं मैं अपना) N संसार परिभ्रमण के अन्तराल में मानव अनादि काल से जन्म मरण करता आ रहा है। अनन्त शरीर धारण करता है। जहां शरीर है वहां परिवर्तन है। मकान है, दुकान है, धन है, दौलत है, समाज है, प्रान्त है, राष्ट्र है, विश्व है। इन सभी के बीच प्रत्येक आत्मा अपने पुरषार्थ स्वरूप अनेक सम्बंधों को स्थापित करता है। एक समय ऐसा आता है जिस दिन वह अन्य सम्बन्ध और साधनों से तो क्या शरीर से भी सदा के लिए स्मृति विहीन हो जाता है। ऐसा एक बार नहीं अनन्त बार यह परिवर्तन आत्मा ने किया / सदा सर्वत्र सभी गतियों मे अतीत की स्मृति नहीं होती, अतएव प्रत्येक भव में हर आत्मा नवीनता का अनुभव करता है। जो कुछ उसे मिलता है उसी में वह अपनत्व की अनुभूति करता है। और उनमें घुलमिल कर जीवन के समय को समाप्त कर फिर कहीं नवीन स्थल, योनि, जांति में अपना स्थान बना लेता है। यह सर्वथा सत्य होने पर भी अनेक व्यक्तियों को सहज स्वीकार नहीं होता है। वे कहते है किसने देखा ? यह प्रश्न भी सहज ही है, किन्तु इस विषय का चिन्तन जरा गम्भीरता पूर्वक कुछ क्षणों के लिए करें तो हमारी आत्मा सत्य स्वीकार करने के लिए सहर्ष तैयार हो जायेगी / परभव किसने देखा? परन्तु इस भव को तो सभी देख रहे है। कल्पना कीजिए कोई व्यक्ति हमारे बीच में से उठ गया यानि सदा के लिए विदा हो गया, वह जहां जन्म लेता है उसे वहां यह स्मृति नहीं होती। किन्तु जिसके बीच से जाता है वे तो इस सत्य को नकार नहीं सकते कि हमारे बीच में से कोई नहीं गया। हमें भी कहां स्मृति है कि हम कहां से आये है किंतु जैसे हम किसी के अभाव का अनुभव करते है, क्या हमारे अभाव का अनुभव वह नहीं करते जहां से हम यहां आये हैं। हमने अनन्त भवों में अनन्त शरीर धारण किये है। स्थानाङ्ग सूत्र में आता है : Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org
SR No.002767
Book TitleManohar Dipshikha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusmitashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1997
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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