________________ ((8. अशुद्ध से शुद्धता की ओर )) आत्मा कर्मो का संयोग करती है जड़ आदि पदार्थो के सम्पर्क से / आज दिन तक जितना चिन्तन है वह पर का है। पर यानि शारीरिक पुष्ठी का विचार / आत्मिक शुद्धि का विचार जिस दिन आ गया उस दिन आत्मा अपने घर का स्वामी बन जायेगा। अशुद्ध निमित्ते ए संसरता अत्ता कत्ता पर नो। शुद्ध निमित्त रमे जब चिद्धन कर्ता भोक्ता घरनो रे स्वामी ॥वि.॥ अशुद्ध निमित्तो के संसर्ग से आत्मा पर पदार्थो का कर्ता बनता है। पर यानि जड़ पदार्थ ! शुद्ध निमित्त में जब आत्मा रमण करता है तो कर्ता भोक्ता अपने घर का बनता है। विचार शुद्ध बने तो शुभ की ओर जायेगा। अच्छे कार्य शुद्ध की ओर और बुरे कार्य अशुभ की ओर / शुभ पुण्य बन्धन करायेगा / पुण्य का ढेर एकत्रित होगा। अशुभ पाप बन्धन करायेगा। पुण्य और पाप सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी के समान है। बेड़ी बेड़ी ही है चाहे वह सोने की हो या लोहे की। बन्धन तो बन्धन ही है। निकटभवी आत्मा तो एक दिन पुण्य का भी नाश करना होगा। क्योकिं गति करनी है। पाप तो नष्ट होता ही है परन्तु पुण्य को भी समाप्त करना पड़ता है। बाहरी चिन्तन से हट कर निज घर का ही चिन्तन / ___ दो मित्र थे एक होटल में रुके ! साम के समय दोनों में मनमुटाव हुआ पैसे को ले कर / एक सोचता है जब तक इसको मारा नहीं जायेगा तब तक पैसा हाथ नहीं लगने वाला। दूसरे मित्र के मन में भी यही विचार आया। रात्रि होते होते शुभ विचार आया ! उन विचारों ने यह किया कि मुझें यह कार्य नहीं करना / यह तो मेरा मित्र है। यहां से निकल जाना ही अच्छा है। पैसे जमा किये है व्यर्थ जाते है तो जाये परन्तु इस स्थान पर नहीं रुकना / आज दिन तक हम Jain Education InternationBrivate & Personal Usevapilyjainelibrary.org